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कामदेव

सूची कामदेव

कामदेव को हिंदू शास्त्रों में प्रेम और काम का देवता माना गया है। उनका स्वरूप युवा और आकर्षक है। वे विवाहित हैं और रति उनकी पत्नी हैं। वे इतने शक्तिशाली हैं कि उनके लिए किसी प्रकार के कवच की कल्पना नहीं की गई है। उनके अन्य नामों में रागवृंत, अनंग, कंदर्प, मनमथ, मनसिजा, मदन, रतिकांत, पुष्पवान, पुष्पधंव आदि प्रसिद्ध हैं। कामदेव, हिंदू देवी लक्ष्मी और भगवान विष्णु के पुत्र और कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न, कामदेव का अवतार है। कामदेव के आध्यात्मिक रूप को हिंदू धर्म में वैष्णव अनुयायियों द्वारा कृष्ण भी माना जाता है। .

28 संबंधों: तारकासुर, नल-दमयन्ती, नकुल, पक्षीविज्ञान, पुष्पदन्त (कवि), प्रद्युम्न, प्रद्युम्न का जन्म, ब्रह्मवैवर्त पुराण, भण्डासुर, मकर, मोहिनी अवतार, रति, रामभद्राचार्य, संयोगिता चौहान, हिन्दू देवी देवताओं की सूची, होली, होली की कहानियाँ, जगद्गुरु रामभद्राचार्य ग्रंथसूची, वसन्त पञ्चमी, वसंतोत्सव, विष्णु, वैलेंटाइन दिवस, गोपीनाथ मन्दिर, उत्तराखण्ड, गीतरामायणम्, कामेश्वर धाम, कालिंजर दुर्ग, क्यूपिड, उर्वशी

तारकासुर

तारकासुर, वज्रांग नामक दैत्य का पुत्र और असुरों का अधिपति था। पुराणों से ज्ञात होता है कि देवताओं को जीतने के लिये उसे घोर तपस्या की और असुरों पर राजत्व तथा शिवपुत्र के अतिरिक्त अन्य किसी भी व्यक्ति से न मारे जा सकने का ब्रह्मा का वरदान प्राप्त किया। परिणामस्वरूप वह अत्यंत दुर्दातं हो गया और देवतागण उसकी सेवा के लिये विवश हो गए। देवताओं ने भी ब्रह्मा की शरण ली और उन्होने उन्हें यह बताया कि तारकासुर का अंत शिव के पुत्र से ही हो सकेगा। देवताओं ने कामदेव और रति के सहारे पार्वती के माध्यम से शिव को वैवाहिक जीवन के प्रति आकृष्ट करने का प्रयत्न किया। शिव ने क्रुद्ध होकर काम को जला डाला। किंतु पार्वती ने आशा नहीं छोड़ी और रूपसम्मोहन के उपाय को व्यर्थ मानती हुई तपस्या में निरत होकर शिवप्राप्ति का उपाय शुरू कर दिया। शिव प्रसन्न हूए, पार्वती का पाणिग्रहण किया और उनसे कार्तिकेय (स्कंद) की उत्पत्ति हुई। स्कंद को देवताओं ने अपना सेनापति बनाया और देवासुरसंग्राम में उनके द्वारा तारकासुर का संहार हुआ। .

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नल-दमयन्ती

'''नल-दमयन्ती''': राजा रवि वर्मा की कृति नल और दमयन्ती की कथा भारत के महाकाव्य, महाभारत में आती है। युधिष्ठिर को जुए में अपना सब-कुछ गँवा कर अपने भाइयों के साथ वनवास करना पड़ा। वहीं एक ऋषि ने उन्हें नल और दमयन्ती की कथा सुनायी। नल निषध देश के राजा थे। वे वीरसेन के पुत्र थे। नल बड़े वीर थे और सुन्दर भी। शस्त्र-विद्या तथा अश्व-संचालन में वे निपुण थे। दमयन्ती विदर्भ (पूर्वी महाराष्ट्र) नरेश की मात्र पुत्री थी। वह भी बहुत सुन्दर और गुणवान थी। नल उसके सौंदर्य की प्रशंसा सुनकर उससे प्रेम करने लगा। उनके प्रेम का सन्देश दमयन्ती के पास बड़ी कुशलता से पहुंचाया एक हंस ने। और दमयन्ती भी अपने उस अनजान प्रेमी की विरह में जलने लगी। इस कथा में प्रेम और पीड़ा का ऐसा प्रभावशाली पुट है कि भारत के ही नहीं देश-विदेश के लेखक व कवि भी इससे आकर्षित हुए बिना न रह सके। बोप लैटिन में तथा डीन मिलमैन ने अंग्रेजी कविता में अनुवाद करके पश्चिम को भी इस कथा से भली भांति परिचित कराया है। विदर्भ देश में भीष्मक नाम के एक राजा राज्य करते थे। उनकी पुत्री का नाम दमयन्ती थी। दमयन्ती लक्ष्मी के समान रूपवती थी। उन्हीं दिनों निषध देश में वीरसेन के पुत्र नल राज्य करते थे। वे बड़े ही गुणवान्, सत्यवादी तथा ब्राह्मण भक्त थे। निषध देश से जो लोग विदर्भ देश में आते थे, वे महाराज नल के गुणों की प्रशंसा करते थे। यह प्रशंसा दमयन्ती के कानों तक भी पहुँची थी। इसी तरह विदर्भ देश से आने वाले लोग राजकुमारी के रूप और गुणों की चर्चा महाराज नल के समक्षकरते। इसका परिणाम यह हुआ कि नल और दमयन्ती एक-दूसरे के प्रति आकृष्ण होते गये। .

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नकुल

नकुल महान हिन्दू काव्य महाभारत में पाँच पांडवो में से एक था। नकुल और सहदेव, दोनों माता माद्री के असमान जुड़वा पुत्र थे, जिनका जन्म दैवीय चिकित्सकों अश्विन के वरदान स्वरूप हुआ था, जो स्वयं भी समान जुड़वा बंधु थे। नकुल, का अर्थ है, परम विद्वता। महाभारत में नकुल का चित्रण एक बहुत ही रूपवान, प्रेम युक्त और बहुत सुंदर व्यक्ति के रूप में की गई है। अपनी सुंदरता के कारण नकुल की तुलना काम और प्रेम के देवता, "कामदेव" से की गई है। पांडवो के अंतिम और तेरहवें वर्ष के अज्ञातवास में नकुल ने अपने रूप को कौरवों से छिपाने के लिए अपने शरीर पर धूल लीप कर छिपाया। श्रीकृष्ण द्वारा नरकासुर का वध करने के पश्चात नकुल द्वारा घुड़ प्रजनन और प्रशिक्षण में निपुण होने का महाभारत में अभिलेखाकरण है। वह एक योग्य पशु शल्य चिकित्सक था, जिसे घुड़ चिकित्सा में महारथ प्राप्त था। अज्ञातवास के समय में नकुल भेष बदल कर और अरिष्ठनेमि नाम के छद्मनाम से महाराज विराट की राजधानी उपपलव्य की घुड़शाला में शाही घोड़ों की देखभाल करने वाले सेवक के रूप में रहा था। वह अपनी तलवारबाज़ी और घुड़सवारी की कला के लिए भी विख्यात था। अनुश्रुति के अनुसार, वह बारिश में बिना जल को छुए घुड़सवारी कर सकता था। नकुल का विवाह द्रौपदी के अतिरिक्त जरासंध की पुत्री से भी हुआ था। नकुल नाम का अर्थ होता है जो प्रेम से परिपूर्ण हो और इस नाम की नौ पुरुष विशेषताएँ हैं: बुद्धिमत्ता, सकेन्द्रित, परिश्रमी, रूपवान, स्वास्थ्य, आकर्षकता, सफ़लता, आदर और शर्त रहित प्रेम। .

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पक्षीविज्ञान

पक्षी की आकृति का विधिवत मापन बहुत महत्व रखता है। पक्षीविज्ञान (Ornithology) जीवविज्ञान की एक शाखा है। इसके अंतर्गत पक्षियों की बाह्य और अंतररचना का वर्णन, उनका वर्गीकरण, विस्तार एवं विकास, उनकी दिनचर्या और मानव के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष आर्थिक उपयोगिता इत्यादि से संबंधित विषय आते हैं। पक्षियों की दिनचर्या के अंतर्गत उनके आहार-विहार, प्रव्रजन, या एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में स्थानांतरण, अनुरंजन (courtship), नीड़ निर्माण, मैथुन, प्रजनन, संतान का लालन पालन इत्यादि का वर्णन आता है। आधुनिक फोटोग्राफी द्वारा पक्षियों की दिनचर्याओं के अध्ययन में बड़ी सहायता मिली है। पक्षियों की बोली के फोनोग्राफ रेकार्ड भी अब तैयार कर लिए गए हैं। .

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पुष्पदन्त (कवि)

महकवि पुष्पदन्त। पुष्पदंत तथा गंधर्वराज पुष्पदंत के बीच भ्रमित न हों ---- पुष्पदंत अपभ्रंश भाषा के महाकवि थे जिनकी तीन रचनाएँ प्रकाश में आ चुकी हैं- 'महापुराण', 'जसहरचरित' (यशोधरचरित) और 'णायकुमारचरिअ' (नागकुमारचरित)। इन ग्रंथों की उत्थानिकाओं एवं प्रशस्तियों में कवि में अपना बहुत कुछ वैयक्तिक परिचय दिया है। इसके अनुसार पुष्पदंत काश्यपगोत्रीय ब्राह्मण थे। उनके पिता केशवभट्ट और माता मुग्धादेवी पूर्व में शिवभक्त थे, फिर वे जैन धर्मावलंबी हो गए। उन्हें तत्कालीन राष्ट्रकुल नरेश कृष्णराज तृतीय के मंत्री भरत ने आश्रय दिया और उन्हें काव्यरचना की ओर प्रेरित किया। इसके फलस्वरूप कवि ने महापुराण की रचना की और उसे भरत नामांकित किया। यह महापुराण सिद्धार्थ संवत्सर में प्रारंभ किया गया और क्रोधन संवत्सर, आषाढ़ शुक्ला 10, तदनुसार 11 जून 965 ई. को पूर्ण हुआ था। कवि ने अपनी अन्य दो रचनाएँ भरत मंत्री के पुत्र नन्न के नाम से अंकित की हैं, अतएव वे उक्त काल के पश्चात्‌ रची गई होंगी। कवि ने स्वयं अपने लिए स्थान-स्थान पर 'अभिमान मेरु' और 'कव्व पिसल्ल' (काव्य पिशाच) इन दो उपाधियों का उल्लेख किया है, जिनसे उनकी मनोवृत्ति तथा रचनानैपुण्य का पता चलता है। .

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प्रद्युम्न

..प्रद्युम्न श्री कृष्ण के पुत्र थे। यह पूर्व जन्म में ये काम देव थे, जो भगवान शंकर (शंकर) की तपस्या में विघ्न डालने के कारण उनके द्वारा भश्म कर दिये गये थे। तब काम देव की पत्नी के प्रार्थना करने पर भगवान शंकर ने प्रशन्न होकर कामदेव को जीवित तो कर दिया मगर शरीर नहीं दिया। इस अवस्था को काम देव ने कृष्ण जी का पुत्र बनकर समाप्त किया।।.

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प्रद्युम्न का जन्म

श्री शुकदेव मुनि बोले, "हे परीक्षित! भगवान शंकर के शाप से जब कामदेव भस्म हो गया तो उसकी पत्नी रति अति व्याकुल होकर पति वियोग में उन्मत्त सी हो गई। उसने अपने पति की पुनः प्रापत्ति के लिये देवी पार्वती और भगवान शंकर को तपस्या करके प्रसन्न किया। पार्वती जी ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि तेरा पति यदुकुल में भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र के रूप में जन्म लेगा और तुझे वह शंबरासुर के यहाँ मिलेगा। इसीलिये रति शंबरासुर के घर मायावती के नाम से दासी का कार्य करने लगी। "इधर कामदेव रुक्मणी के गर्भ में स्थित हो गये। समय आने पर रुक्मणी ने एक अति सुन्दर बालक को जन्म दिया। उस बालक के सौन्दर्य, शील, सद्गुण आदि सभी श्री कृष्ण के ही समान थे। जब शंबरासुर को पता चला कि मेरा शत्रु यदुकुल में जन्म ले चुका है तो वह वेश बदल कर प्रसूतिकागृह से उस दस दिन के शिशु को हर लाया और समुद्र में डाल दिया। समुद्र में उस शिशु को एक मछली निगल गई और उस मछली को एक मगरमच्छ ने निगल लिया। वह मगरमच्छ एक मछुआरे के जाल में आ फँसा जिसे कि मछुआरे ने शंबरासुर की रसोई में भेज दिया। जब उस मगरमच्छ का पेट फाड़ा गया तो उसमें से अति सुन्दर बालक निकला। उसको देख कर शंबरासुर की दासी मायावती के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वह उस बालक को पालने लगी। उसी समय देवर्षि नारद मायावती के पास पहुँचे और बोले कि हे मायावती! यह तेरा ही पति कामदेव है। इसने यदुकुल में जन्म लिया है और इसे शंबरासुर समुद्र में डाल आया था। तू इसका यत्न से लालन-पालन कर। इतना कह कर नारद जी वहाँ से चले गये। उस बालक का नाम प्रद्युम्न रखा गया। थोड़े ही काल में प्रद्युम्न युवा हो गया। प्रद्युम्न का रूप लावण्य इतना अद्भुत था कि वे साक्षात् श्री कृष्णचन्द्र ही प्रतीत होते थे। रति उन्हें बड़े भाव और लजीली दृष्टि से देखती थी। तब प्रद्युम्न जी बोले कि तुमने माता जैसा मेरा लालन-पालन किया है फिर तुममें ऐसा परिवर्तन क्यों देख रहा हूँ? तब रति ने कहा - "इतना कह कर मायावती रति ने उन्हें महा विद्या प्रदान किया तथा धनुष बाण, अस्त्र-शस्त्र आदि सभी विद्याओं में निपुण कर दिया। युद्ध विद्या में प्रवीण हो जाने पर प्रद्युम्न अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित होकर शंबरासुर की सभा में गये। शंबरासुर उन्हें देखकर प्रसन्न हुआ और सभासदों से कहा कि इस बालक को मैंने पाल पोष कर बड़ा किया है। इस पर प्रद्युम्न बोले कि अरे दुष्ट! मैं तेरा बालक नहीं वरन् तेरा वही शत्रु हूँ जिसको तूने समुद्र में डाल दिया था। अब तू मुझसे युद्ध कर। "प्रद्युम्न के इन वचनों को सुनकर शंबरासुर ने अति क्रोधित होकर उन पर अपने बज्र के समान भारी गदे का शंबरासुर किया। प्रद्युम्न ने उस गदे को अपने गदे से काट दिया। तब वह असुर अनेक प्रकार की माया रच कर युद्ध करने लगा किन्तु प्रद्युम्न ने महाविद्या के प्रयोग से उसकी माया को नष्ट कर दिया और अपने तीक्ष्ण तलवार से शंबरासुर का सिर काट कर पृथ्वी पर डाल दिया। उनके इस पराक्रम को देख कर देवतागणों ने उनकी स्तुति कर आकाश से पुष्प वर्षा की। फिर मायावती रति प्रद्युम्न को आकाश मार्ग से द्वारिकापुरी ले आई। गौरवर्ण पत्नी के साथ साँवले प्रद्युम्न जी की शोभा अवर्णनीय थी।" वे नव-दम्पति श्री कृष्ण के अन्तःपुर में पहुँचे। रुक्मिणी सहित वहाँ की समस्त स्त्रियाँ साक्षात् श्री कृष्ण के प्रतिरूप प्रद्युम्न को देखकर आश्चर्यचकित रह गये। वे सोचने लगीं कि यह नर श्रेष्ठ किसका पुत्र है? न जाने क्यों इसे देख कर मेरा वात्सल्य उमड़ रहा है। मेरा बालक भी बड़ा होकर इसी के समान होता किन्तु उसे तो न जाने कौन प्रसूतिकागृह से ही उठा कर ले गया था। उसी समय श्री कृष्ण भी अपने माता-पिता देवकी और वसुदेव तथा भाई बलराम के साथ वहाँ आ पहुँचे। श्री कृष्ण तो अन्तर्यामी थे किन्तु उन्हें नर लीला करनी थी इसलिये वे बालक के विषय में अनजान बने रहे। तब देवर्षि नारद ने वहाँ आकर सभी को प्रद्युम्न की आद्योपान्त कथा सुनाई और वहाँ उपस्थित समस्त जनों के हृदय में हर्ष व्याप्त गया। .

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ब्रह्मवैवर्त पुराण

ब्रह्मवैवर्त पुराण वेदमार्ग का दसवाँ पुराण है। अठारह पुराणों में प्राचीनतम पुराण ब्रह्मवैवर्त पुराण को माना गया है। इस पुराण में जीव की उत्पत्ति के कारण और ब्रह्माजी द्वारा समस्त भू-मंडल, जल-मंडल और वायु-मंडल में विचरण करने वाले जीवों के जन्म और उनके पालन पोषण का सविस्तार वर्णन किया गया है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का विस्तृत वर्णन, श्रीराधा की गोलोक-लीला तथा अवतार-लीलाका सुन्दर विवेचन, विभिन्न देवताओं की महिमा एवं एकरूपता और उनकी साधना-उपासनाका सुन्दर निरूपण किया गया है। अनेक भक्तिपरक आख्यानों एवं स्तोत्रोंका भी इसमें अद्भुत संग्रह है। इस पुराण में चार खण्ड हैं। ब्रह्मखण्ड, प्रकृतिखण्ड, श्रीकृष्णजन्मखण्ड और गणेशखण्ड। इन चारों खण्डों से युक्त यह पुराण अठारह हजार श्लोकों का बताया गया है। यह वैष्णव पुराण है। इस पुराण में श्रीकृष्ण को ही प्रमुख इष्ट मानकर उन्हें सृष्टि का कारण बताया गया है। 'ब्रह्मवैवर्त' शब्द का अर्थ है- ब्रह्म का विवर्त अर्थात् ब्रह्म की रूपान्तर राशि। ब्रह्म की रूपान्तर राशि 'प्रकृति' है। प्रकृति के विविध परिणामों का प्रतिपादन ही इस 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में प्राप्त होता है। कहने का तात्पर्य है प्रकृति के भिन्न-भिन्न परिणामों का जहां प्रतिपादन हो वही पुराण ब्रह्मवैवर्त कहलाता है। विष्णु के अवतार कृष्ण का उल्लेख यद्यपि कई पुराणों में मिलता है, किन्तु इस पुराण में यह विषय भिन्नता लिए हुए है। 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में कृष्ण को ही 'परब्रह्म' माना गया है, जिनकी इच्छा से सृष्टि का जन्म होता है। 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में श्रीकृष्ण लीला का वर्णन 'भागवत पुराण' से काफी भिन्न है। 'भागवत पुराण' का वर्णन साहित्यिक और सात्विक है जबकि 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' का वर्णन श्रृंगार रस से परिपूर्ण है। इस पुराण में सृष्टि का मूल श्रीकृष्ण को बताया गया है। .

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भण्डासुर

भण्ड एक असुर था जो कामदेव की भस्म से उत्पन्न हुआ था। देवी अम्बिका (त्रिपुरसुन्दरी) ने उसका वध किया। भगवान् शंकर ने जब कामदेव को जलाया था, तब उसकी भस्म वहीं पड़ी रह गयी थी। एक दिन गणेश ने कौतूहलवश उस भस्म से पुरुषकी आकृति बनायी। थोड़ी ही देर में वह सजीव होकर कामदेव की तरह सुन्दर बालक बन गया। उसे देख गणेशजी ने उसे गले से लगा लिया और कहा कि ‘तुम भगवान् शंकर की स्तुति करो।’ उस बालक को शतरुद्रीय का भी उपदेश किया। उसका नाम आगे चलकर भण्डासुर हुआ। भण्ड ने श्रीगणेशजी की आज्ञा का अक्षरशः पालन किया। घोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् शंकर ने उससे वर माँगने को कहा। उसने यह माँगा कि ‘मैं देवता आदि किसी प्राणी से न मारा जाऊँ।’ शिव ने उसे मुँहमाँगा वर दे दिया तथा साथ ही दिव्य अस्त्र-शस्त्र भी दिये। उन्होंने उसे साठ हजार वर्ष का राज्य भी दे दिया। यह सब देखकर ब्रह्माजी ने ही पहले उसे ‘भण्ड-भण्ड’ कहा था। तभी से उसका नाम ‘भण्ड’ पड़ गया। भण्डासुर के वरदान मिलने की बात थोड़ी ही देर में सम्पूर्ण भुवनों में फैल गयी। दैत्यों के पुरोहित शुक्राचार्य यह समाचार पाकर भण्डासुर के पास आये और मय के द्वारा शोणितपुर को फिर से सुसज्जित कराकर वहाँ भण्डासुर का अभिषेक कर दिया। प्रारम्भ में भण्डासुर शिव जी अर्चना करता और उनके आदेश पर चलता था। उसके अनुयायी दैत्य भी धर्म का अनुसरण करते थे। इस तरह सौभाग्यशाली भण्ड की सुख-समृद्धि के साठ हजार वर्ष देखते-देखते बीत गये। बाद में वह माया की चपेट में पड़ गया। अब चार पत्नियों से उसे संतोष न था। वह एक दिव्य वारांगना के मोह में पड़ गया। इसी बीच देवर्षि नारद देवताओं के पास आये और उन्हें समझाया कि इस क्षणिक आमोद-प्रमोद को छोड़कर वे अपने भविष्य को सुनहला बनायें। उन्होंने पराशक्ति की उपासना का परामर्श दिया और उसकी विधि भी बतला दी। देवताओं ने शीघ्र ही उनके आदेश का पालन किया। इधर दैत्यों के पुरोहित शुक्राचार्य भण्डासुर के पास आये और उसे सावधन करते हुए उन्होंने कहा-'देवता अपनी विजय के लिये हिमालय में पराशक्ति की उपासना कर रहे हैं। यदि पराशक्ति ने उनकी सुन ली तो तुम कहीं के न रह जाओगे। अतः तुम शीघ्र ही देवताओं की पूजा में विघ्न डालो। भण्डासुर दल-बल के साथ देवताओं पर चढ़ आया। पराम्बा ने अपनी शरण में आये हुए देवताओं की रक्षा के लिये ज्योति की एक अलंघ्य दीवार खड़ी कर दी। भण्डासुर यह देखकर क्रोध से जल उठा। उसने दानवास्त्र चलाकर उसे तोड़ डाला परन्तु तत्क्षण ही वहाँ पुनः अलंघ्य दीवार खड़ी हो गयी। अब भण्डासुर ने वायाशास्त्र से इसे तोड़ा किन्तु तत्क्षण भण्डासुर ने उसी दीवार को खड़ी देखा। तोड़ने में समय लगता था, किंतु दीवार खड़ी होने में समय नहीं लगता था। हारकर भण्डासुर शोणितपुर लौट आया। भण्डासुर लौट तो आया था, किंतु उसकी भय से देवताओं की दशा दयनीय हो गयी थी। वे सोचते थे कि जिस दिन दीवार नहीं रहेगी, उस दिन हमलोगों का बच सकता कठिन हो जायगा। अब कहीं छिपकर नहीं रहा जा सकता। अंत में देवताओं ने निर्णय लिया कि या तो पराम्बा का दर्शन करें या यहीं भण्डासुर के हाथों में मारे जायँ। उन्होंने घोर आराधना की। पराम्बा प्रकट हो गयीं। उनके अद्धभुत दर्शन पाकर देवता कृतकृत्य हो गये। पराम्बा का स्वरूप-शृंगार देवी के रूप में था। ब्रम्हा ने यह देखकर सोचा कि इनका विवाह शंकर से ही संभव है।| इतना संकल्प करते ही भगवान् शंकर कुमार बनकर वहाँ प्रकट हो गये। देवताओं ने उनका आपस में विवाह करा दिया और पराम्बा को उस पुर की अधीश्वरी बना दिया। उधर भण्डासुर ने सारे विश्व को त्रस्त कर रखा था। उसने अहंकार में आकर अपने जनक श्रीगणेश और शंकरजी की अवहेलना की। परिणाम स्वरूप भण्डासुर के विरुद्ध युद्ध में गणेश जी ने भी पराम्बा सहयोग दिया। विश्व की रक्षा के लिये ललिताम्बा ने भण्डासुर के साथ युद्ध किया। युद्ध में भण्डासुर ने 'पाषण्ड' का प्रयोग किया, तब पराम्बा ने 'गायत्री' के द्वारा उसका निवारण किया। जब भण्डासुर ने 'स्मृतिनाश'-अस्त्र का प्रयोग किया, तब माँ ने 'धारण' के द्वारा उसे नष्ट किया। जब भण्डासुर ने 'यक्ष्मा' आदि रोग रूप अस्त्रों का प्रयोग किया, तब पराम्बा ने 'अच्युत, अनन्त, गोविन्द' (अच्युतानन्तगोविन्दनामोच्चारणभेषजात्) नामरूप मन्त्रों से उसका निवारण किया। इसके बाद भण्डासुर ने हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिपु, रावण, कंस और महिषासुर को उत्पन्न किया, तब ललिताम्बा ने अपनी दसों अंगुलियों के नख से वराह, नृसिंह, राम, कृष्ण, दुर्गा आदि को उत्पन्न किया। युद्ध के अन्तिम भाग में पराम्बा ने भण्डासुर का उद्धार 'कामेश्वरा-अस्त्र' से किया।.

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मकर

अपने वाहन मकर पर सवार माता गंगा हिंदू पौराणिक कथाओं, के अनुसार मकर, एक मिथकीय प्राणी है और देवी गंगा और वरुण का वाहन है। यह प्रेम और वासना के हिन्दू देवता कामदेव का प्रतीक चिह्न भी है और उनके ध्वज जिसे कर्कध्वज कहा जाता है पर चित्रित है। परंपरागत रूप से मकर को एक जलीय प्राणी माना जाता है और कुछ पारंपरिक कथाओं में इसे मगरमच्छ से जोड़ा गया है, जबकि कुछ अन्य कथाओं में इसे एक सूंस (डॉल्फिन) माना गया है। कुछ स्थानों पर इसका चित्रण एक ऐसे जीव के रूप में किया गया है जिसका शरीर तो मीन का है किंतु सिर एक गज का.

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मोहिनी अवतार

मोहिनी हिन्दू भगवान विष्णु का एकमात्र स्त्री रूप अवतार है। इसमें उन्हें ऐसे स्त्री रूप में दिखाया गया है जो सभी को मोहित कर ले। उसके प्रेम में वशीभूत होकर कोई भी सब भूल जाता है, चाहे वह भगवान शिव ही क्यों न हों। इस अवतार का उल्लेख महाभारत में भी आता है। समुद्र मंथन के समय जब देवताओं व असुरों को सागर से अमृत मिल चुका था, तब देवताओं को यह डर था कि असुर कहीं अमृत पीकर अमर न हो जायें। तब वे भगवान विष्णु के पास गये व प्रार्थना की कि ऐसा होने से रोकें। तब भगवान विष्णु ने मोहिणि अवतार लेकर अमृत देवताओं को पिलाया व असुरों को मोहित कर अमर होने से रोका। कई विभिन्न कथाओं के अनुसार मोहिनी रूप के विवाह का प्रसंग भी आया है, जिसमें शिव से विवाह व विहार का विशेष विवरण आता है। इसके अलावा भस्मासुर प्रसंग भी प्रसिद्ध है। .

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रति

रति देवी का उल्लेख प्राचीन काल से ही वेद, शतपथ ब्राह्मण, एवं उपनिषदों में होता चला आ रहा है। इन परंपराओं में इसे सौंदर्य की अधिष्ठात्री देवी एवं उषा के समकक्ष कहा गया है। पौराणिक परंपरा में दक्ष की पुत्री एवं शतपथ ब्राह्मण के अनुसार गंधर्व कन्या के रूप में इनका उल्लेख मिलता है। दक्ष एवं गंधर्व वस्तुतः विलासी जातियां रही है। इन्हें कामदेव की अर्धांगिनी भी कहा जाता है। श्रेणी:हिन्दू देवियाँ श्रेणी:पौराणिक/साहित्यिक चरित्र.

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रामभद्राचार्य

जगद्गुरु रामभद्राचार्य (जगद्गुरुरामभद्राचार्यः) (१९५०–), पूर्वाश्रम नाम गिरिधर मिश्र चित्रकूट (उत्तर प्रदेश, भारत) में रहने वाले एक प्रख्यात विद्वान्, शिक्षाविद्, बहुभाषाविद्, रचनाकार, प्रवचनकार, दार्शनिक और हिन्दू धर्मगुरु हैं। वे रामानन्द सम्प्रदाय के वर्तमान चार जगद्गुरु रामानन्दाचार्यों में से एक हैं और इस पद पर १९८८ ई से प्रतिष्ठित हैं।अग्रवाल २०१०, पृष्ठ ११०८-१११०।दिनकर २००८, पृष्ठ ३२। वे चित्रकूट में स्थित संत तुलसीदास के नाम पर स्थापित तुलसी पीठ नामक धार्मिक और सामाजिक सेवा संस्थान के संस्थापक और अध्यक्ष हैं। वे चित्रकूट स्थित जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय के संस्थापक और आजीवन कुलाधिपति हैं। यह विश्वविद्यालय केवल चतुर्विध विकलांग विद्यार्थियों को स्नातक तथा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम और डिग्री प्रदान करता है। जगद्गुरु रामभद्राचार्य दो मास की आयु में नेत्र की ज्योति से रहित हो गए थे और तभी से प्रज्ञाचक्षु हैं। अध्ययन या रचना के लिए उन्होंने कभी भी ब्रेल लिपि का प्रयोग नहीं किया है। वे बहुभाषाविद् हैं और २२ भाषाएँ बोलते हैं। वे संस्कृत, हिन्दी, अवधी, मैथिली सहित कई भाषाओं में आशुकवि और रचनाकार हैं। उन्होंने ८० से अधिक पुस्तकों और ग्रंथों की रचना की है, जिनमें चार महाकाव्य (दो संस्कृत और दो हिन्दी में), रामचरितमानस पर हिन्दी टीका, अष्टाध्यायी पर काव्यात्मक संस्कृत टीका और प्रस्थानत्रयी (ब्रह्मसूत्र, भगवद्गीता और प्रधान उपनिषदों) पर संस्कृत भाष्य सम्मिलित हैं।दिनकर २००८, पृष्ठ ४०–४३। उन्हें तुलसीदास पर भारत के सर्वश्रेष्ठ विशेषज्ञों में गिना जाता है, और वे रामचरितमानस की एक प्रामाणिक प्रति के सम्पादक हैं, जिसका प्रकाशन तुलसी पीठ द्वारा किया गया है। स्वामी रामभद्राचार्य रामायण और भागवत के प्रसिद्ध कथाकार हैं – भारत के भिन्न-भिन्न नगरों में और विदेशों में भी नियमित रूप से उनकी कथा आयोजित होती रहती है और कथा के कार्यक्रम संस्कार टीवी, सनातन टीवी इत्यादि चैनलों पर प्रसारित भी होते हैं। २०१५ में भारत सरकार ने उन्हें पद्मविभूषण से सम्मानित किया। .

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संयोगिता चौहान

संयोगिता (संयोगिता चौहान, Sanyogita Chauhan) पृथ्वीराजतृतीय की पत्नी थी। पृथ्वीराज के साथ गान्धर्वविवाह कर के वें पृथ्वीराज की अर्धांगिनी बनी थी। भारत के इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटनाओं में संयोगिताहरण गिना जाता है। पृथ्वीराज की तेरह राज्ञीओं में से संयोगिता अति रूपवती थी। संयोगिता को तिलोत्तमा, कान्तिमती, संजुक्ता इत्यादि नामों से भी जाना जाते थे। उनके पिता कन्नौज के राजा जयचन्द थे। जिन्होंने पृथ्वीराज के विरद्ध घोरी को युद्ध में सहायता की थी। .

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हिन्दू देवी देवताओं की सूची

यह हिन्दू देवी देवताओं की सूची है। हिन्दू लेखों के अनुसार, धर्म में तैंतीस कोटि (कोटि के अर्थ-प्रकार और करोड़) देवी-देवता बताये गये हैं। इनमें स्थानीय व क्षेत्रीय देवी-देवता भी शामिल हैं)। वे सभी तो यहां सम्मिलित नहीं किये जा सकते हैं। फिर भी इस सूची में तीन सौ से अधिक संख्या सम्मिलित है। .

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होली

होली (Holi) वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय और नेपाली लोगों का त्यौहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का त्यौहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। यह प्रमुखता से भारत तथा नेपाल में मनाया जाता है। यह त्यौहार कई अन्य देशों जिनमें अल्पसंख्यक हिन्दू लोग रहते हैं वहाँ भी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है। पहले दिन को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते हैं। दूसरे दिन, जिसे प्रमुखतः धुलेंडी व धुरड्डी, धुरखेल या धूलिवंदन इसके अन्य नाम हैं, लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं। राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है। राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्यौहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है। गुझिया होली का प्रमुख पकवान है जो कि मावा (खोया) और मैदा से बनती है और मेवाओं से युक्त होती है इस दिन कांजी के बड़े खाने व खिलाने का भी रिवाज है। नए कपड़े पहन कर होली की शाम को लोग एक दूसरे के घर होली मिलने जाते है जहाँ उनका स्वागत गुझिया,नमकीन व ठंडाई से किया जाता है। होली के दिन आम्र मंजरी तथा चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य है। .

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होली की कहानियाँ

होली खेलते राधा और कृष्ण होली भारत के सबसे पुराने पर्वों में से है। यह कितना पुराना है इसके विषय में ठीक जानकारी नहीं है लेकिन इसके विषय में इतिहास पुराण व साहित्य में अनेक कथाएँ मिलती है। इस कथाओं पर आधारित साहित्य और फ़िल्मों में अनेक दृष्टिकोणों से बहुत कुछ कहने के प्रयत्न किए गए हैं लेकिन हर कथा में एक समानता है कि असत्य पर सत्य की विजय और दुराचार पर सदाचार की विजय और विजय को उत्सव मनाने की बात कही गई है। .

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जगद्गुरु रामभद्राचार्य ग्रंथसूची

जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य (जगद्गुरु रामभद्राचार्य अथवा स्वामी रामभद्राचार्य के रूप में अधिक प्रसिद्ध) चित्रकूट धाम, भारत के एक हिंदू धार्मिकनेता, शिक्षाविद्, संस्कृतविद्वान, बहुभाषाविद, कवि, लेखक, टीकाकार, दार्शनिक, संगीतकार, गायक, नाटककार और कथाकलाकार हैं। उनकी रचनाओं में कविताएँ, नाटक, शोध-निबंध, टीकाएँ, प्रवचन और अपने ग्रंथों पर स्वयं सृजित संगीतबद्ध प्रस्तुतियाँ सम्मिलित हैं। वे ९० से अधिक साहित्यिक कृतियों की रचना कर चुके हैं, जिनमें प्रकाशित पुस्तकें और अप्रकाशित पांडुलिपियां, चार महाकाव्य,संस्कृत और हिंदी में दो प्रत्येक। तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस पर एक हिंदी भाष्य,अष्टाध्यायी पर पद्यरूप में संस्कृत भाष्य और प्रस्थानत्रयी शास्त्रों पर संस्कृत टीकाएँ शामिल हैं।दिनकर २००८, प्रप्र.

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वसन्त पञ्चमी

वसंत पंचमी या श्रीपंचमी एक हिन्दू त्योहार है। इस दिन विद्या की देवी सरस्वती की पूजा की जाती है। यह पूजा पूर्वी भारत, पश्चिमोत्तर बांग्लादेश, नेपाल और कई राष्ट्रों में बड़े उल्लास से मनायी जाती है। इस दिन स्त्रियाँ पीले वस्त्र धारण करती हैं। प्राचीन भारत और नेपाल में पूरे साल को जिन छह मौसमों में बाँटा जाता था उनमें वसंत लोगों का सबसे मनचाहा मौसम था। जब फूलों पर बहार आ जाती, खेतों में सरसों का सोना चमकने लगता, जौ और गेहूँ की बालियाँ खिलने लगतीं, आमों के पेड़ों पर बौर आ जाता और हर तरफ़ रंग-बिरंगी तितलियाँ मँडराने लगतीं। वसंत ऋतु का स्वागत करने के लिए माघ महीने के पाँचवे दिन एक बड़ा जश्न मनाया जाता था जिसमें विष्णु और कामदेव की पूजा होती, यह वसंत पंचमी का त्यौहार कहलाता था। शास्त्रों में बसंत पंचमी को ऋषि पंचमी से उल्लेखित किया गया है, तो पुराणों-शास्त्रों तथा अनेक काव्यग्रंथों में भी अलग-अलग ढंग से इसका चित्रण मिलता है। .

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वसंतोत्सव

वसंतोत्सव का आरंभ माघ महीने के शुक्ल पक्ष की पंचमी (वसंत पंचमी) से हो जाता है। यह दिन नवीन ऋतु के आगमन का सूचक है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से होली और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। लोग वासंती वस्त्र धारण कर गायन, वाद्य एवं नृत्य में विभोर हो जाते हैं। वसंत पंचमी का उत्सव मदनोत्सव के रूप में भी मनाया जाता है। भगवान श्रीकृष्ण तथा कामदेव इस उत्सव के अधिदेवता हैं। कामशास्त्र में ‘सुवसंतक’नामक उत्सव की चर्चा आती है। ‘सरस्वती कंठाभरण’ में लिखा है कि सुवसंतक वसंतावतार के दिन को कहते हैं। वसंतावतार अर्थात जिस दिन बसंत पृथ्वी पर अवतरित होता है। यह दिन वसंत पंचमी का ही है। ‘मात्स्यसूक्त’ और ‘हरी भक्ति विलास’ आदि ग्रंथों में इसी दिन को बसंत का प्रादुर्भाव दिवस माना गया है। इसी दिन मदन देवता की पहली पूजा का विधान है। कामदेव के पंचशर (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) प्रकृति संसार में अभिसार को आमंत्रित करते हैं। चैत्र कृष्ण पंचमी को वसंतोत्सव का अंतिम दिन रंग खेलकर रंग पंचमी के रूप में मनाया जाता है। .

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विष्णु

वैदिक समय से ही विष्णु सम्पूर्ण विश्व की सर्वोच्च शक्ति तथा नियन्ता के रूप में मान्य रहे हैं। हिन्दू धर्म के आधारभूत ग्रन्थों में बहुमान्य पुराणानुसार विष्णु परमेश्वर के तीन मुख्य रूपों में से एक रूप हैं। पुराणों में त्रिमूर्ति विष्णु को विश्व का पालनहार कहा गया है। त्रिमूर्ति के अन्य दो रूप ब्रह्मा और शिव को माना जाता है। ब्रह्मा को जहाँ विश्व का सृजन करने वाला माना जाता है, वहीं शिव को संहारक माना गया है। मूलतः विष्णु और शिव तथा ब्रह्मा भी एक ही हैं यह मान्यता भी बहुशः स्वीकृत रही है। न्याय को प्रश्रय, अन्याय के विनाश तथा जीव (मानव) को परिस्थिति के अनुसार उचित मार्ग-ग्रहण के निर्देश हेतु विभिन्न रूपों में अवतार ग्रहण करनेवाले के रूप में विष्णु मान्य रहे हैं। पुराणानुसार विष्णु की पत्नी लक्ष्मी हैं। कामदेव विष्णु जी का पुत्र था। विष्णु का निवास क्षीर सागर है। उनका शयन शेषनाग के ऊपर है। उनकी नाभि से कमल उत्पन्न होता है जिसमें ब्रह्मा जी स्थित हैं। वह अपने नीचे वाले बाएँ हाथ में पद्म (कमल), अपने नीचे वाले दाहिने हाथ में गदा (कौमोदकी),ऊपर वाले बाएँ हाथ में शंख (पाञ्चजन्य) और अपने ऊपर वाले दाहिने हाथ में चक्र(सुदर्शन) धारण करते हैं। शेष शय्या पर आसीन विष्णु, लक्ष्मी व ब्रह्मा के साथ, छंब पहाड़ी शैली के एक लघुचित्र में। .

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वैलेंटाइन दिवस

वैलेंटाइन दिवस या संत वैलेंटाइन दिवस (Valentine's Day), एक अवकाश दिवस है, जिसे 14 फ़रवरी को अनेकों लोगों द्वारा दुनिया भर में मनाया जाता है। अंग्रेजी बोलने वाले देशों में, ये एक पारंपरिक दिवस है, जिसमें प्रेमी एक दूसरे के प्रति अपने प्रेम का इजहार वैलेंटाइन कार्ड भेजकर, फूल देकर, या मिठाई आदि देकर करते हैं। ये छुट्टी शुरुआत के कई क्रिश्चियन शहीदों में से दो, जिनके नाम वैलेंटाइन थे, के नाम पर रखी गयी हैउच्च मध्य युग में, जब सभ्य प्रेम की परंपरा पनप रही थी, जेफ्री चौसर के आस पास इस दिवस का सम्बन्ध रूमानी प्रेम के साथ हो गया। ये दिन प्रेम पत्रों के "वैलेंटाइन" के रूप में पारस्परिक आदान प्रदान के साथ गहरे से जुड़ा हुआ है। आधुनिक वैलेंटाइन के प्रतीकों में शामिल हैं दिल के आकार का प्रारूप, कबूतर और पंख वाले क्यूपिड का चित्र.19वीं सदी के बाद से, हस्तलिखित नोट्स की जगह बड़े पैमाने पर बनाने वाले ग्रीटिंग कार्ड्स ने ले ली है। ग्रेट ब्रिटेन में उन्नीसवीं शताब्दी में वैलेंटाइन का भेजा जाना एक फैशन था और, 1847 में, एस्थर हौलैंड ने अपने वोर्सेस्टर, मैस्साचुसेट्स स्थित घर में ब्रिटिश मॉडलों पर आधारित घर में ही बने कार्ड्स द्वारा एक सफल व्यवसाय विकसित कर लिया था। 19 वीं सदी के अमेरिका में वैलेंटाइन कार्ड की लोकप्रियता जहां कई वैलेंटाइन कार्ड अब सामान्य ग्रीटिंग कार्ड प्यार की घोषणाओं के बजाय, संयुक्त राज्य अमेरिका में छुट्टियों के भविष्य व्यावसायीकरण के एक अग्रदूत था रहे हैं। अमेरिका ने ग्रीटिंग कार्ड एसोसिएशन का अनुमान है कि लगभग एक अरब वैलेंटाइन हर साल पूरी दुनिया में भेजे जाते हैं, जिसके कारण,क्रिसमस के बाद, इस छुट्टी को कार्ड भेजने वाले दूसरे सबसे बड़े दिवस के रूप में जाना जाता है। एसोसिएशन का अनुमान है कि औसतन अमरीका में पुरुष महिलाओं के मुकाबले दुगना पैसा खर्चा करते हैं। .

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गोपीनाथ मन्दिर, उत्तराखण्ड

गोपीनाथ मंदिर एक हिन्दू मंदिर है जो भारत के उत्तराखण्ड राज्य के चमोली जिले के गोपेश्वर में स्थित है। गोपीनाथ मंदिर गोपेश्वर ग्राम में है जो अब गोपेश्वर कस्बे का भाग है। गोपीनाथ मंदिर एक प्राचीन मंदिर है जो भगवान शिव को समर्पित है। यह मंदिर अपने वास्तु के कारण अलग से पहचाना जाता है; इसका एक शीर्ष गुम्बद और ३० वर्ग फुट का गर्भगृह है, जिस तक २४ द्वारों से पहुँचा जा सकता है। मंदिर के आसपास टूटी हुई मूर्तियों के अवशेष इस बात का संकेत करते हैं कि प्राचीन समय में यहाँ अन्य भी बहुत से मंदिर थे। मंदिर के आंगन में एक ५ मीटर ऊँचा त्रिशूल है, जो १२ वीं शताब्दी का है और अष्ट धातु का बना है। इस पर नेपाल के राजा अनेकमल्ल, जो १३ वीं शताब्दी में यहाँ शासन करता था, का गुणगान करते अभिलेख हैं। उत्तरकाल में देवनागरी में लिखे चार अभिलेखों में से तीन की गूढ़लिपि का पढ़ा जाना शेष है। दन्तकथा है कि जब भगवान शिव ने कामदेव को मारने के लिए अपना त्रिशूल फेंका तो वह यहाँ गढ़ गया। त्रिशूल की धातु अभी भी सही स्थित में है जिस पर मौसम प्रभावहीन है और यह एक आश्वर्य है। यह माना जाता है कि शारिरिक बल से इस त्रिशुल को हिलाया भी नहीं जा सकता, जबकि यदि कोई सच्चा भक्त इसे छू भी ले तो इसमें कम्पन होने लगता है। .

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गीतरामायणम्

गीतरामायणम् (२०११), शब्दार्थ: गीतों में रामायण, जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०-) द्वारा २००९ और २०१० ई में रचित गीतकाव्य शैली का एक संस्कृत महाकाव्य है। इसमें संस्कृत के १००८ गीत हैं जो कि सात कांडों में विभाजित हैं - प्रत्येक कांड एक अथवा अधिक सर्गों में पुनः विभाजित है। कुल मिलाकर काव्य में २८ सर्ग हैं और प्रत्येक सर्ग में ३६-३६ गीत हैं। इस महाकाव्य के गीत भारतीय लोक संगीत और शास्त्रीय संगीत के विभिन्न गीतों की ढाल, लय, धुन अथवा राग पर आधारित हैं। प्रत्येक गीत रामायण के एक या एकाधिक पात्र अथवा कवि द्वारा गाया गया है। गीत एकालाप और संवादों के माध्यम से क्रमानुसार रामायण की कथा सुनाते हैं। गीतों के बीच में कुछ संस्कृत छंद हैं, जो कथा को आगे ले जाते हैं। काव्य की एक प्रतिलिपि कवि की हिन्दी टीका के साथ जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित की गई थी। पुस्तक का विमोचन संस्कृत कवि अभिराज राजेंद्र मिश्र द्वारा जनवरी १४, २०११ को मकर संक्रांति के दिन किया गया था। .

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कामेश्वर धाम

'''कामेश्वर धाम कारो बलिया''' कामेश्वर धाम उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के कारों ग्राम में स्थित है। इस धाम के बारे में मान्यता है कि यह शिव पुराण और वाल्मीकि रामायण में वर्णित वही जगह है जहा भगवान शिव ने देवताओं के सेनापति कामदेव को जला कर भस्म कर दिया था। यहाँ पर आज भी वह आधा जला हुआ, हरा भरा आम का वृक्ष (पेड़) है जिसके पीछे छिपकर कामदेव ने समाधि में लीन भगवान शंकर पर पुष्प बाण चलाया था। .

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कालिंजर दुर्ग

कालिंजर, उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड क्षेत्र के बांदा जिले में कलिंजर नगरी में स्थित एक पौराणिक सन्दर्भ वाला, ऐतिहासिक दुर्ग है जो इतिहास में सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रहा है। यह विश्व धरोहर स्थल प्राचीन मन्दिर नगरी-खजुराहो के निकट ही स्थित है। कलिंजर नगरी का मुख्य महत्त्व विन्ध्य पर्वतमाला के पूर्वी छोर पर इसी नाम के पर्वत पर स्थित इसी नाम के दुर्ग के कारण भी है। यहाँ का दुर्ग भारत के सबसे विशाल और अपराजेय किलों में एक माना जाता है। इस पर्वत को हिन्दू धर्म के लोग अत्यंत पवित्र मानते हैं, व भगवान शिव के भक्त यहाँ के मन्दिर में बड़ी संख्या में आते हैं। प्राचीन काल में यह जेजाकभुक्ति (जयशक्ति चन्देल) साम्राज्य के अधीन था। इसके बाद यह दुर्ग यहाँ के कई राजवंशों जैसे चन्देल राजपूतों के अधीन १०वीं शताब्दी तक, तदोपरांत रीवा के सोलंकियों के अधीन रहा। इन राजाओं के शासनकाल में कालिंजर पर महमूद गजनवी, कुतुबुद्दीन ऐबक, शेर शाह सूरी और हुमांयू जैसे प्रसिद्ध आक्रांताओं ने आक्रमण किए लेकिन इस पर विजय पाने में असफल रहे। अनेक प्रयासों के बाद भी आरम्भिक मुगल बादशाह भी कालिंजर के किले को जीत नहीं पाए। अन्तत: मुगल बादशाह अकबर ने इसे जीता व मुगलों से होते हुए यह राजा छत्रसाल के हाथों अन्ततः अंग्रेज़ों के अधीन आ गया। इस दुर्ग में कई प्राचीन मन्दिर हैं, जिनमें से कई तो गुप्त वंश के तृतीय -५वीं शताब्दी तक के ज्ञात हुए हैं। यहाँ शिल्पकला के बहुत से अद्भुत उदाहरण हैं। .

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क्यूपिड

हाथ में धनुष लिए प्रेम के देवता क्यूपिड की एक मूर्ति क्यूपिड (लातिनी: Cupidus कूपिदुस) प्राचीन रोमन धर्म के देवताओं में से एक हैं। वह कामदेव की तरह प्रेम और काम-वासना के देवता हैं। उनके समतुल्य प्राचीन यूनानी धर्म के देवता थे ईरोस। उनका एक और लातिनी नाम है, आमोर। ये रोमन देवता ज्यूपिटर और देवी वीनस के पुत्र माने जाते हैं। उनको एक पंख लगे बच्चे की तरह चित्रित किया जाता है, हाथ में धनुष होता है जिससे ये बाण छोड़कर मनुष्यों में प्रेम भाव जागृत करते हैं। कहा जाता है कि क्यूपिड का बाण लगने पर मनुष्य जिससे भी सबसे पहले मिलता है उससे अत्यधिक प्रेम करने लगता है। इन्हें कहानियों में अत्यधिक चंचल, चपल और रसिक वर्णित किया जाता है। इनके तूणीर में दो तरह के बाण होते हैं - स्वर्णिम नोक वाले बाण जिनसे प्रेम जागृत होता है और सीसे की नोक वाले बाण जिनसे घृणा उत्पन्न होती है। कई चित्रों में इनके तीरों की नोक को हृदयाकार भी दिखाते हैं। वैलेंटाइन दिवस के मौके पर खास तौर पर क्यूपिड के चित्र देखने को मिलते हैं। श्रेणी:रोम के देवी-देवता श्रेणी:रोमन धर्म.

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उर्वशी

उर्वशी और पुरुरवा। साहित्य और पुराण में उर्वशी सौंदर्य की प्रतिमूर्ति रही है। स्वर्ग की इस अप्सरा की उत्पत्ति नारायण की जंघा से मानी जाती है। पद्मपुराण के अनुसार इनका जन्म कामदेव के उरु से हुआ था। श्रीमद्भागवत के अनुसार यह स्वर्ग की सर्वसुंदर अप्सरा थी। एक बार इंद्र की राजसभा में नाचते समय वह राजा पुरु के प्रति क्षण भर के लिए आकृष्ट हो गई। इस कारण उनके नृत्य का ताल बिगड़ गया। इस अपराध के कारण राजा इंद्र ने रुष्ट होकर उसे मर्त्यलोक में रहने का अभिशाप दे दिया। मर्त्य लोक में उसने पुरु को अपना पति चुना किंतु शर्त यह रखी कि वह पुरु को नग्न अवस्था में देख ले या पुरुरवा उसकी इच्क्षा के प्रतिकूल समागम करे अथवा उसके दो मेष स्थानांतरित कर दिए जाएं तो वह उनसे संबंध विच्छेद कर स्वर्ग जाने के लिए स्वतंत्र हो जाएगी। ऊर्वशी और पुरुरवा बहुत समय तक पति पत्नी के रूप में सात-साथ रहे। इनके नौ पुत्र आयु, अमावसु, श्रुतायु, दृढ़ायु, विश्वायु, शतायु आदि उत्पन्न हुए। दीर्घ अवधि बीतने पर गंधर्वों को ऊर्वशी की अनुपस्थिति अप्रीय प्रतीत होने लगी। गंधर्वों ने विश्वावसु को उसके मेष चुराने के लिए भेजा। उस समय पुरुरवा नग्नावस्था में थे। आहट पाकर वे उसी अवस्था में विश्वाबसु को पकड़ने दौड़े। अवसर का लाभ उठाकर गंधर्वों ने उसी समय प्रकाश कर दिया। जिससे उर्वशी ने पुरुरवा को नंगा देख लिया। आरोपित प्रतिबंधों के टूट जाने पर ऊर्वशी श्राप से मुक्त हो गई और पुरुरवा को छोड़कर स्वर्ग लोक चली गई। महाकवि कालीदास के संस्कृत महाकाव्य विक्रमोर्वशीय नाटक की कथा का आधार यही प्रसंग है। आधुनिक हिंदी साहित्य में रामधारी सिंह दिनकर ने इसी कथा को अपने काव्यकृति का आधार बनाया और उसका शीर्षक भी रखा ऊर्वशी। महाभारत की एक कथा के अनुसार एक बार जब अर्जुन इंद्र के पास अस्त्र विद्या की शिक्षा लेने गए तो उर्वशी उन्हें देखकर मुग्ध हो गई। अर्जुन ने ऊर्वशी को मातृवत देखा। अतः उसकी इच्छा पूर्ति न करने के कारण। इन्हें शापित होकर एक वर्ष तक पुंसत्व से वंचित रहना पड़ा। .

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यहां पुनर्निर्देश करता है:

कामदेव (हिन्दू देवता)

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