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ऍलोपैथी

सूची ऍलोपैथी

आधुनिक चिकित्‍सा विज्ञान को एलोपैथी (Allopathy) या एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति (Allopathic medicine) कहते हैं। यह नाम होम्योपैथी के जन्मदाता सैमुएल हैनीमेन ने दिया था जिनका यह नाम देने का आशय यह था कि प्रचलित चिकित्सा-पद्धति (अर्थात एलोपैथी) रोग के लक्षण के बजाय अन्य चीज की दवा करता है। (Allo .

11 संबंधों: चिकित्सा, दिव्य प्रेम सेवा मिशन, निदान (संस्कृत), प्राकृतिक चिकित्सा का इतिहास, रामभद्राचार्य, राजीव दीक्षित, सफेद दाग, स्टेटिन, हथलांगू, आयुर्वेद, कोलेस्टेरॉल

चिकित्सा

संकीर्ण अर्थ में, रोगों से आक्रांत होने पर रोगों से मुक्त होने के लिये जो उपचार किया जाता है वह चिकित्सा (Therapy) कहलाता है। पर व्यापक अर्थ में वे सभी उपचार 'चिकित्सा' के अंतर्गत आ जाते हैं जिनसे स्वास्थ्य की रक्षा और रोगों का निवारण होता है। .

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दिव्य प्रेम सेवा मिशन

दिव्य प्रेम सेवा मिशन हरिद्वार स्थित कुष्ट रोगियों की सेवा करने वाली एक संस्था है। इसकी स्थापना सन् १९९७ में श्री आशीष गौतम ने की। उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जिले के निवादा ग्राम में जन्मे इलाहाबाद विश्वविद्यालय से कानून की शिक्षा ग्रहण करने वाले इस नौजवान साधक आशीष के प्रेरणास्रोत स्वामी विवेकानन्द हैं। अब "सेवा कुंज" नाम से विख्यात इस स्थान पर अपने कुछ नौजवान कर्मठ सहयोगियों के साथ श्री आशीष अपने इस मिशन द्वारा कुष्ठ रोगियों व उनके बच्चों के बीच स्वास्थ्य, शिक्षा-संस्कार, स्वावलम्बन के कार्यक्रमों से उन्हें नवजीवन प्रदान कर उनमें जीवन के प्रति आशा व उल्लास का संचार तो कर ही रहे हैं, साथ ही वे तथाकथित सभ्य समाज में ई संवेदना को भी जगाने के प्रयास में निरंतर जुटे हैं। .

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निदान (संस्कृत)

आयुर्वेद में चिकित्सा आरम्भ करने के पहले रोगपरीक्षा तथा रोगीपरीक्षा करने का प्रावधान है। अर्थात् चिकित्सा के पूर्व परीक्षा अत्यन्त आवश्यक है। परीक्षा की जहां तक बात आती है तो परीक्षा रोगी की भी होती है और रोग की भी। रोग-रोगी दोनों की परीक्षा करके उनका बलाबल ज्ञान करके ही सफल चिकित्सा की जा सकती है। आयुर्वेदाचार्यों ने रोग की परीक्षा हेतु निदानपञ्चक का वर्णन किया है। आयुर्वेद के अनुसार, रोग की परीक्षा (रोग का ज्ञान) इन पांच उपायों से होता है - इन पांच उपायों को निदानपञ्चक कहते हैं। निदान– रोग के कारण को निदान कहते हैं। पूर्वरूप - रोग उत्पन्न होने के पहले जो लक्षण होते हैं उन्हें पूर्वरूप कहा जाता है। रूप - उत्पन्न हुए रोगों के चिह्नों को लक्षण या रूप कहते हैं। उपशय - औषध, अन्न व विहार के परिणाम में सुखप्रद उपयोग को उपशय कहते हैं। सम्प्राप्ति - रोग की अति प्रारम्भिक अवस्था से लेकर रोग के पूर्ण रूप से प्रगट होने तक, रोग के क्रियाकाल (pathogenesis) की छः अवस्थायें होती हैं। निदानपंचक से रोग के बल का ज्ञान होता है। इसके साथ ही साथ चिकित्सा हेतु रोगी के बल का ज्ञान भी आवश्यक है। जिससे यह निर्णय होता है कि रोगी चिकित्सा सहन करने योग्य है अथवा नहीं। इसके लिए दशविध परीक्षा का वर्णन आया है जिसके अंतर्गत विकृति परीक्षा को छोड़कर शेष परीक्षा रोगी के बल को जानने के लिए है। .

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प्राकृतिक चिकित्सा का इतिहास

प्राकृतिक चिकित्सा का इतिहास उतना ही पुराना है जितना स्वयं प्रकृति। यह चिकित्सा विज्ञान आज की सभी चिकित्सा प्राणालियों से पुराना है। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि यह दूसरी चिकित्सा पद्धतियों कि जननी है। इसका वर्णन पौराणिक ग्रन्थों एवं वेदों में मिलता है, अर्थात वैदिक काल के बाद पौराणिक काल में भी यह पद्धति प्रचलित थी। आधुनिक युग में डॉ॰ ईसाक जेनिग्स (Dr. Isaac Jennings) ने अमेरिका में 1788 में प्राकृतिक चिकित्सा का उपयोग आरम्भ कर दिया था। जोहन बेस्पले ने भी ठण्डे पानी के स्नान एवं पानी पीने की विधियों से उपचार देना प्रारम्भ किया था। महाबग्ग नामक बोध ग्रन्थ में वर्णन आता है कि एक दिन भगवान बुद्ध के एक शिष्य को सांप ने काट लिया तो उस समय विष के नाश के लिए भगवान बुद्ध ने चिकनी मिट्टी, गोबर, मूत्र आदि को प्रयोग करवाया था और दूसरे भिक्षु के बीमार पड़ने पर भाप स्नान व उष्ण गर्म व ठण्डे जल के स्नान द्वारा निरोग किये जाने का वर्णन 2500 वर्ष पुरानी उपरोक्त घटना से सिद्ध होता है। प्राकृतिक चिकित्सा के साथ-2 योग एवं आसानों का प्रयोग शारीरिक एवं आध्यात्मिक सुधारों के लिये 5000 हजारों वर्षों से प्रचलन में आया है। पतंजलि का योगसूत्र इसका एक प्रामाणिक ग्रन्थ है इसका प्रचलन केवल भारत में ही नहीं अपितु विदेशों में भी है। प्राकृतिक चिकित्सा का विकास (अपने पुराने इतिहास के साथ) प्रायः लुप्त जैसा हो गया था। आधुनिक चिकित्सा प्राणालियों के आगमन के फलस्वरूप इस प्रणाली को भूलना स्वाभाविक भी था। इस प्राकृतिक चिकित्सा को दोबारा प्रतिष्ठित करने की मांग उठाने वाले मुख्य चिकित्सकों में बड़े नाम पाश्चातय देशों के एलोपैथिक चिकित्सकों का है। ये वो प्रभावशाली व्यक्ति थे जो औषधि विज्ञान का प्रयोग करते-2 थक चुके थे और स्वयं रोगी होने के बाद निरोग होने में असहाय होते जा रहे थे। उन्होने स्वयं पर प्राकृतिक चिकित्सा के प्रयोग करते हुए स्वयं को स्वस्थ किया और अपने शेष जीवन में इसी चिकित्सा पद्धति द्वारा अनेकों असाध्य रोगियों को उपचार करते हुए इस चिकित्सा पद्धति को दुबारा स्थापित करने की शुरूआत की। इन्होने जीवन यापन तथा रोग उपचार को अधिक तर्कसंगत विधियों द्वारा किये जाने का शुभारम्भ किया। प्राकृतिक चिकित्सा संसार मे प्रचलित सभी चिकित्सा प्रणाली से पुरानी है आदिकाल के ग्रंथों मे जल चिकित्सा व उपवास चिकित्सा का उल्लेख मिलता है पुराण काल मे (उपवास)को लोग अचूक चिकित्सा माना करते थे .

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रामभद्राचार्य

जगद्गुरु रामभद्राचार्य (जगद्गुरुरामभद्राचार्यः) (१९५०–), पूर्वाश्रम नाम गिरिधर मिश्र चित्रकूट (उत्तर प्रदेश, भारत) में रहने वाले एक प्रख्यात विद्वान्, शिक्षाविद्, बहुभाषाविद्, रचनाकार, प्रवचनकार, दार्शनिक और हिन्दू धर्मगुरु हैं। वे रामानन्द सम्प्रदाय के वर्तमान चार जगद्गुरु रामानन्दाचार्यों में से एक हैं और इस पद पर १९८८ ई से प्रतिष्ठित हैं।अग्रवाल २०१०, पृष्ठ ११०८-१११०।दिनकर २००८, पृष्ठ ३२। वे चित्रकूट में स्थित संत तुलसीदास के नाम पर स्थापित तुलसी पीठ नामक धार्मिक और सामाजिक सेवा संस्थान के संस्थापक और अध्यक्ष हैं। वे चित्रकूट स्थित जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय के संस्थापक और आजीवन कुलाधिपति हैं। यह विश्वविद्यालय केवल चतुर्विध विकलांग विद्यार्थियों को स्नातक तथा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम और डिग्री प्रदान करता है। जगद्गुरु रामभद्राचार्य दो मास की आयु में नेत्र की ज्योति से रहित हो गए थे और तभी से प्रज्ञाचक्षु हैं। अध्ययन या रचना के लिए उन्होंने कभी भी ब्रेल लिपि का प्रयोग नहीं किया है। वे बहुभाषाविद् हैं और २२ भाषाएँ बोलते हैं। वे संस्कृत, हिन्दी, अवधी, मैथिली सहित कई भाषाओं में आशुकवि और रचनाकार हैं। उन्होंने ८० से अधिक पुस्तकों और ग्रंथों की रचना की है, जिनमें चार महाकाव्य (दो संस्कृत और दो हिन्दी में), रामचरितमानस पर हिन्दी टीका, अष्टाध्यायी पर काव्यात्मक संस्कृत टीका और प्रस्थानत्रयी (ब्रह्मसूत्र, भगवद्गीता और प्रधान उपनिषदों) पर संस्कृत भाष्य सम्मिलित हैं।दिनकर २००८, पृष्ठ ४०–४३। उन्हें तुलसीदास पर भारत के सर्वश्रेष्ठ विशेषज्ञों में गिना जाता है, और वे रामचरितमानस की एक प्रामाणिक प्रति के सम्पादक हैं, जिसका प्रकाशन तुलसी पीठ द्वारा किया गया है। स्वामी रामभद्राचार्य रामायण और भागवत के प्रसिद्ध कथाकार हैं – भारत के भिन्न-भिन्न नगरों में और विदेशों में भी नियमित रूप से उनकी कथा आयोजित होती रहती है और कथा के कार्यक्रम संस्कार टीवी, सनातन टीवी इत्यादि चैनलों पर प्रसारित भी होते हैं। २०१५ में भारत सरकार ने उन्हें पद्मविभूषण से सम्मानित किया। .

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राजीव दीक्षित

राजीव दीक्षित (30 नवम्बर 1967 - 30 नवम्बर 2010) एक भारतीय वैज्ञानिक, प्रखर वक्ता और आजादी बचाओ आन्दोलन के संस्थापक थे।.

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सफेद दाग

सफेद दाग के रोगी के हाथ सफेद दाग (Leukoderma / ल्यूकोडर्मा) एक त्‍वचा रोग है। इस रोग से ग्रसि‍त लोगों के बदन पर अलग-अलग स्‍थानों पर अलग-अलग आकार के सफेद दाग आ जाते हैं। वि‍श्‍व में एक से दो प्रति‍शत लोग इस रोग से प्रभावि‍त हैं, लेकि‍न भारत में इस रोग के शि‍कार लोगों का प्रति‍शत चार से पांच है। राजस्‍थान और गुजरात के कुछ भागों में पांच से आठ प्रति‍शत लोग इस रोग से ग्रस्‍त हैं। शरीर पर सफेद दाग आ जाने को लोग एक कलंक के रूप में देखने लगते हैं और कुछ लोग भ्रम-वश इसे कुष्‍ठ रोग मान बैठते हैं। इस रोग से प्रभावि‍त लोग ज्‍यादातर हताशा में रहते हैं और उन्‍हें लगता है कि ‍समाज ने उन्‍हें बहि‍ष्‍कृत कि‍या हुआ है। इस रोग के एलोपैथी और अन्‍य चि‍कि‍त्‍सा-पद्धति‍यों में इलाज हैं। शल्‍यचि‍कि‍त्‍सा से भी इसका इलाज कि‍या जाता है, लेकि‍न ये सभी इलाज इस रोग को पूरी तरह ठीक करने के लि‍ए संतोषजनक नहीं हैं। इसके अलावा इन चि‍कि‍त्‍सा-पद्धति‍यों से इलाज बहुत महंगा है और उतना कारगर भी नहीं है। रोगि‍यों को इलाज के दौरान फफोले और जलन पैदा होती है। इस कारण बहुत से रोगी इलाज बीच में ही छोड़ देते हैं। डि‍बेर के वैज्ञानि‍कों ने इस रोग के कारणों पर ध्‍यान केंद्रि‍त कि‍या है और हि‍मालय की जड़ी-बूटि‍यों पर व्‍यापक वैज्ञानि‍क अनुसंधान करके एक समग्र सूत्र तैयार कि‍या है। इसके परि‍णामस्‍वरूप एक सुरक्षि‍त और कारगर उत्‍पाद ल्‍यूकोस्‍कि‍न वि‍कसि‍त कि‍या जा सका है। इलाज की दृष्‍टि‍से ल्‍यूकोस्‍कि‍न बहुत प्रभावी है और यह शरीर के प्रभावि‍त स्‍थान पर त्‍वचा के रंग को सामान्‍य बना देता है। इससे रोगी का मानसि‍क तनाव समाप्‍त हो जाता है और उसके अंदर आत्‍मवि‍श्‍वास बढ़ जाता है। .

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स्टेटिन

स्टेटिन एक ऐलोपैथिक औषधि है। यह कोलेस्ट्रॉल वृद्धि में लाभदायक होती है। श्रेणी:ऐलोपैथिक औषधि.

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हथलांगू

Hathlangoo (اردو: ﮨﺘﮭﻠﻨﮕﻮ | अंग्रेजी: सौ शाखाओं) पहले के रूप में जाना जाता Hashmatpora एक गांव में सोपोर तहसील के बारामूला जिले में जम्मू और कश्मीर.

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आयुर्वेद

आयुर्वेद के देवता '''भगवान धन्वन्तरि''' आयुर्वेद (आयुः + वेद .

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कोलेस्टेरॉल

कोलेस्ट्रॉल क्रिस्टल का सूक्ष्मदर्शी दर्शन, जल में। छायाचित्र ध्युवीकृत प्रकाश में लिया गया है। कोलेस्ट्रॉल या पित्तसांद्रव मोम जैसा एक पदार्थ होता है, जो यकृत से उत्पन्न होता है। यह सभी पशुओं और मनुष्यों के कोशिका झिल्ली समेत शरीर के हर भाग में पाया जाता है। कोलेस्ट्रॉल कोशिका झिल्ली का एक महत्वपूर्ण भाग है, जहां उचित मात्रा में पारगम्यता और तरलता स्थापित करने में इसकी आवश्यकता होती है। कोलेस्ट्रॉल शरीर में विटामिन डी, हार्मोन्स और पित्त का निर्माण करता है, जो शरीर के अंदर पाए जाने वाले वसा को पचाने में मदद करता है। शरीर में कोलेस्ट्रॉल भोजन में मांसाहारी आहार के माध्यम से भी पहुंचता है यानी अंडे, मांस, मछली और डेयरी उत्पाद इसके प्रमुख स्रोत हैं। अनाज, फल और सब्जियों में कोलेस्ट्रॉल नहीं पाया जाता। शरीर में कोलेस्ट्रॉल का लगभग २५ प्रतिशत उत्पादन यकृत के माध्यम से होता है। कोलेस्ट्रॉल शब्द यूनानी शब्द कोले और और स्टीयरियोज (ठोस) से बना है और इसमें रासायनिक प्रत्यय ओल लगा हुआ है। १७६९ में फ्रेंकोइस पुलीटियर दी ला सैले ने गैलेस्टान में इसे ठोस रूप में पहचाना था। १८१५ में रसायनशास्त्री यूजीन चुरवेल ने इसका नाम कोलेस्ट्राइन रखा था। मानव शरीर को कोलेस्ट्रॉल की आवश्यकता मुख्यतः कोशिकाओं के निर्माण के लिए, हारमोन के निर्माण के लिए और बाइल जूस के निर्माण के लिए जो वसा के पाचन में मदद करता है; होती है। फिनलैंड की राजधानी हेलसिंकी में नैशनल पब्लिक हेल्थ इंस्टीट्यूट के प्रमुख रिसर्चर डॉ॰ गांग हू के अनुसार कोलेस्ट्रॉल अधिक होने से पार्किंसन रोग की आशंका बढ़ जाती है। .

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यहां पुनर्निर्देश करता है:

एलोपैथी, ऐलोपैथिक औषधि, ऐलोपैथी

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