सामग्री की तालिका
10 संबंधों: तिरुवनन्तपुरम, तृश्शूर, दातुक, पशुपूजा, बप्पा रावल, बहादुर, मानविकी, सुश्री, हिन्दी व्याकरण, जापानी भाषा।
तिरुवनन्तपुरम
തിരുവനന്തപുരം --> तिरुवनन्तपुरम (मलयालम - തിരുവനന്തപുരം) या त्रिवेन्द्रम केरल प्रान्त की राजधानी है। यह नगर तिरुवनन्तपुरम जिले का मुख्यालय भी है। केरल की राजनीति के अलावा शैक्षणिक व्यवस्था का केन्द्र भी यही है। कई शैक्षणिक संस्थानों में विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केन्द्र, राजीव गांधी जैव प्रौद्योगिकी केन्द्र कुछ प्रसिद्ध नामों में से हैं। भारत की मुख्य भूमि के सुदूर दक्षिणी पश्चिमी तट पर बसे इस नगर को महात्मा गांधी ने भारत का सदाबहार नगर की संज्ञा दी थी। .
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तृश्शूर
तृश्शूर (मलयालम: തൃശ്ശൂർ, तृश्शूर्) केरल के सांस्कृतिक राजधानी के नाम से भी जाना जाता है। इसे पहले 'त्रिचूर' के नाम से जाना जाता था। .
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दातुक
दातुक (Datuk) मलय भाषा में एक आदरसूचक उपाधि होती है। यह मलेशिया, ब्रूनेई व इण्डोनेशिया में प्रयोग होती है। इनके अलावा फ़िलिपीन्ज़ में भी इस से मिलता-जुलता "दातु" (Datu) आदरसूचक इस्तेमाल होता है। .
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पशुपूजा
हाथी के सिर युक्त गणेश हिन्दुओं के पूज्य हैं। वे विद्या के देवता और संकटमोचक हैं। पशु के प्रति पूज्य भावना अथवा इस भावना से आचारों तथा कृत्यों का पालन पशुपूजा (Animal worship) है। इन दृष्टि से किसी जाति या व्यक्ति के श्रद्धाभाव के कारण पशुविशेष उस जाति या व्यक्ति की संततियों का प्रतीक भी बन जाता। पशुसंबंधी अनेक आचारों का प्रचलन संसार के विभिन्न भागों में दूर-दूर तक है। किंतु इनमें सभी आचार पूजाभावना से ही नहीं किए जाते। पूजा के लिए पूज्य के प्रति श्रद्धा और उसके द्वारा शुभता एवं कल्याण की कामना मुख्य विशेषताएँ हैं। आचारों के अनुसार पशुपूजा की विविध कोटियाँ बनाई जाती हैं। इन कोटियों के आधार पर उनके संप्रदायों को वर्गीकृत किया जाता है और ये वर्गीकरण भी उन संप्रदायों में प्रचलित पूजा की मूल भावना पर आधारित होता है। इस भावना के आदिम स्वरूप की व्याख्या के लिए तत्कालीन मानव की आस्था के मूल कारणों की खोज आवश्यक हो जाती है। किंतु एक तो आदिम पशुपूजा के कृत्यों और आचारों के पीछे निहित भावना को ठीक-ठीक जानने का साधन उपलब्ध नहीं है, दूसरे, आधुनिक मानव की मन: स्थिति तबसे नितांत भिन्न है। अत: आधुनिक पशुपूजा की भावनाओं तथा कोटियों के आधार पर आदिम पशुपूजा के मूल कारण के प्रति संभावित दृष्टिकोण ही उपस्थित किए जा सकते हैं जो (1) उपयोगितावादी एवं (2) दैवी अथवा अभौतिक हो सकते हैं। इतिहास पूर्व अतीत का अंधकारयुगीन मानव आज की अपेक्षा पशुओं के अति निकट था। यह निकटता आत्मीयता और साहचार्यगत उपयोगिता में भी प्रतिफलित हो सकती है और इसके विपरीत वह उनके लिए घातक, भयोत्पादक तथा विपत्तिकर भी सिद्ध हो सकती है। इन्हीं संभावनाओं के अनुसार उपयोगितावादी दृष्टिकोण द्विविध हैं - (1) भय अथवा आत्मरक्षामूलक और (2) स्वार्थमूलक। भय अथवा आत्मरक्षामूलक उपयोगितावादी दृष्टिकोण के अनुसार मनुष्य सदा से अनेक प्राणियों की क्रूरता और शक्ति के आतंक से नतमस्तक होकर उनके प्रति श्रद्धावनत हुआ ताकि वह उनसे अपनी रक्षा कर सके। प्राचीन मिस्र में पवित्र घड़ियाल को चारा खिलाने की प्रथा थी और आधुनिक काल में ऐसी ही प्रथा पश्चिमी अफ्रीका में पाई जाती है। संभवत: आदिमसमाज में भूखे घड़ियाल से हानि के परिणामों पर इस प्रथा का प्रचलन आत्मकल्याण की भावना से हुआ हो। लेकिन हम इसे घड़ियाल की पूजा नहीं कह सकते क्योंकि इससे श्रद्धा का संबंध नहीं है। स्वार्थमूलक उपयोगितावादी दृष्टिकोण के अनुसार पशुपूजा के आचार विशुद्ध स्वार्थभाव से किए जाते हैं ताकि बलिपशु के मांस रूप में भोजन सामग्री सुलभ हो सके। आहारखोजी आदिम मानव जब पूरी तरह मांसाहारी न रहा और शाकाहारी होकर अन्न आदि पर भी निर्भर रहने लगा तब कुछ पशुओं का संबंध धरती की उर्वराशक्ति से जुड़ गया। सर्पपूजा इसी का परिणाम है, क्योंकि वह उस पाताल लोक का निवासी कल्पित है जहाँ से प्राप्त जल द्वारा फसलों तथा वनस्पतियों की सिंचाई होती है और इस प्रकार उसकी कृपा से औषधि, अन्न और संपत्ति के के रूप में विभिन्न खाद्य सामग्रियाँ सुलभ होती हैं। किंतु कुल मिलाकर देवता अथवा दिव्य शक्तियों से पर, विशुद्ध रूप से आत्मरक्षा या स्वार्थ की दृष्टि से पशु के प्रति की जानेवाली स्वतंत्र आदरभावना का अर्थ पूजा नहीं है। इसी प्रकार बलिपशु की हड्डी के प्रति आदर भावना या जीवित पशुविशेष का आदरसूचक नामकरण पशुपूजा से भिन्न दृष्टिकोण के परिणाम हैं। अमल में पशुपूजा संबंधी दैवी अथवा अभौतिक दृष्टिकोण ही पूजा भावना का मूल कारण हो सकता है। पशुपूजा के कुछ संप्रदाय इस विश्वास के आधार पर विकसित हुए कि कुछ पशुओं का अविच्छिन्न संबंध दिव्य शक्तियों या देवताओं से है और संबंधित देवता को पशुविशेष की पूजा द्वारा प्रसन्न किया जा सकता है। कुछ पशु अपने स्वभाव की विशेषताओं के अनुरूप प्रकृति की तद्वत् विशेषताओं वाली शक्तियों के प्रतीक मान लिए गए। इनके संबंध में पुरावृत्त और पौराणिक आख्यान भी बने। भारत में पशुपूजा आत्मा के विभिन्न योनियों में जन्म ग्रहण करने के सिद्धांत से संबधित है। पशुपूजा के कुछ संप्रदाय इस विश्वास के कारण भी चल पड़े कि मनुष्य के पितर मृत्युपरांत पशुयोनि में जन्म ग्रहण करते हैं। इस दृष्टि से पशुपूजा उन विश्वासों या मान्यताओं पर आधारित है जिनके द्वारा "दिव्यपशु" की कल्पना चरितार्थ होती है। इस प्रकार प्रकृति की महान शक्तियों, पितरों, देवताओं अथवा दैवी सृष्टि के प्राणियों का पशुरूप में अवतरित होने की धारणा है जिसके साथ भय और स्वार्थमूलक दृष्टिकोण का मेल परवर्ती है (दे.
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बप्पा रावल
बप्पा रावल (713-810) मेवाड़ राज्य के संस्थापक राजा थे। .
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बहादुर
बहादुर (بهادر) एक आदरसूचक है जिसका अर्थ "साहसी" या "वीर" है। यह विशेषकर भारत तथा नेपालके क्षत्रिय वर्गोमें नाम की तरह प्रयोग में लिया जाता है। नेपालके शाहवंशी राजाने वीर विक्रम बहादुर शमशेर जंग देवनाम सदा समरविजयीनाम नामक उपाधि धारण किया था। इससे इनका उल्लेख हो सकता हैं: .
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मानविकी
सिलानिओं द्वारा दार्शनिक प्लेटो का चित्र मानविकी वे शैक्षणिक विषय हैं जिनमें प्राकृतिक और सामाजिक विज्ञानों के मुख्यतः अनुभवजन्य दृष्टिकोणों के विपरीत, मुख्य रूप से विश्लेषणात्मक, आलोचनात्मक या काल्पनिक विधियों का इस्तेमाल कर मानवीय स्थिति का अध्ययन किया जाता है। प्राचीन और आधुनिक भाषाएं, साहित्य, कानून, इतिहास, दर्शन, धर्म और दृश्य एवं अभिनय कला (संगीत सहित) मानविकी संबंधी विषयों के उदाहरण हैं। मानविकी में कभी-कभी शामिल किये जाने वाले अतिरिक्त विषय हैं प्रौद्योगिकी (टेक्नोलॉजी), मानव-शास्त्र (एन्थ्रोपोलॉजी), क्षेत्र अध्ययन (एरिया स्टडीज), संचार अध्ययन (कम्युनिकेशन स्टडीज), सांस्कृतिक अध्ययन (कल्चरल स्टडीज) और भाषा विज्ञान (लिंग्विस्टिक्स), हालांकि इन्हें अक्सर सामाजिक विज्ञान (सोशल साइंस) के रूप में माना जाता है। मानविकी पर काम कर रहे विद्वानों का उल्लेख कभी-कभी "मानवतावादी (ह्यूमनिस्ट)" के रूप में भी किया जाता है। हालांकि यह शब्द मानवतावाद की दार्शनिक स्थिति का भी वर्णन करता है जिसे मानविकी के कुछ "मानवतावाद विरोधी" विद्वान अस्वीकार करते हैं। .
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सुश्री
सुश्री अथवा सुश्री० एक हिन्दी आदरसूचक हैं, जो किसी महिला के उपनाम या पूर्ण नाम के साथ प्रयुक्त किया जाता हैं इसका उपयोग महिलाओं के संबोधन का एक अकरण रूप हैं, बगैर उनकी वैवाहिक स्थिति की परवाह किए। और श्रीमती की तरह, सुश्री शब्द का स्रोत पूर्व में सभी महिलाओ के लिए प्रयुक्य एक हिंदी शीर्षक स्वामिनी में हैं। .
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हिन्दी व्याकरण
हिंदी व्याकरण, हिंदी भाषा को शुद्ध रूप में लिखने और बोलने संबंधी नियमों का बोध करानेवाला शास्त्र है। यह हिंदी भाषा के अध्ययन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। इसमें हिंदी के सभी स्वरूपों का चार खंडों के अंतर्गत अध्ययन किया जाता है; यथा- वर्ण विचार के अंतर्गत ध्वनि और वर्ण तथा शब्द विचार के अंतर्गत शब्द के विविध पक्षों संबंधी नियमों और वाक्य विचार के अंतर्गत वाक्य संबंधी विभिन्न स्थितियों एवं छंद विचार में साहित्यिक रचनाओं के शिल्पगत पक्षों पर विचार किया गया है। .
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जापानी भाषा
जापानी भाषा (जापानी: 日本語 नीहोंगो) जापान देश की मुख्यभाषा और राजभाषा है। द्वितीय महायुद्ध से पहले कोरिया, फार्मोसा और सखालीन में भी जापानी बोली जाती थी। अब भी कोरिया और फार्मोसा में जापानी जाननेवालों की संख्या पर्याप्त है, परंतु धीरे धीरे उनकी संख्या कम होती जा रही है। भाषाविद इसे 'अश्लिष्ट-योगात्मक भाषा' मानते हैं। जापानी भाषा चीनी-तिब्बती भाषा-परिवार में नहीं आती। भाषाविद इसे ख़ुद की जापानी भाषा-परिवार में रखते हैं (कुछ इसे जापानी-कोरियाई भाषा-परिवार में मानते हैं)। ये दो लिपियों के मिश्रण में लिखी जाती हैं: कांजी लिपि (चीन की चित्र-लिपि) और काना लिपि (अक्षरी लिपि जो स्वयं चीनी लिपिपर आधारित है)। इस भाषा में आदर-सूचक शब्दों का एक बड़ा तंत्र है और बोलने में "पिच-सिस्टम" ज़रूरी होता है। इसमें कई शब्द चीनी भाषा से लिये गये हैं। जापानी भाषा किस भाषा कुल में सम्मिलित है इस संबंध में अब तक कोई निश्चित मत स्थापित नहीं हो सका है। परंतु यह स्पष्ट है कि जापानी और कोरियाई भाषाओं में घनिष्ठ संबंध है और आजकल अनेक विद्वानों का मत है कि कोरियाई भाषा अलटाइक भाषाकुल में संमिलित की जानी चाहिए। जापानी भाषा में भी उच्चारण और व्याकरण संबंधी अनेक विशेषताएँ है जो अन्य अलटाइ भाषाओं के समान हैं परंतु ये विशेषताएँ अब तक इतनी काफी नहीं समझी जाती रहीं जिनमें हम निश्चित रूप से कह सकें कि जापानी भाषा अलटाइक भाषाकुल में ऐ एक है। हाइकु इसकी प्रमुख काव्य विधा है। .
देखें आदरसूचक और जापानी भाषा
आदर-सूचक के रूप में भी जाना जाता है।