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अहिंसा एवं शाकाहार : आधुनिक जीवन शैली के आवश्यक अंग

सूची अहिंसा एवं शाकाहार : आधुनिक जीवन शैली के आवश्यक अंग

मानव जीवन में अहिंसा एवं शाकाहार का विशेष महत्व है। अहिंसा एक श्रावक के लिये अणुव्रत धर्म है बहीं दूसरी ओर मुनियों के लिये महाव्रत है। मनुष्य दैनिक जीवन चर्या में सूक्ष्म हिंसा का भागीदार हो ही जाता है लेकिन साधू की चर्या अहिंसात्मक है। जैन आचार्यों, मुनियों तथा कुछ श्रावकों में ही पुर्ण आचरण की शुद्धिता पायी जाती है, जिनकी करनी तथा कथनी एक होती है। यदि हमें चारित्रिक विकास करना है तो निश्चित रूप से, मन वचन काय से एकरूपता लानी होगी। अहिंसाणुव्रत: रत्नकरण्डक श्रावकाचार में आचार्य समंतभद्र स्वामी ने अहिंसाणुव्रत के बारे में लिखा है कि मन से, वचन से तथा काय से जानबूझकर हिंसा न तो करना, न करवाना और न किये जाने का अनुमोदन/ समर्थन करना अहिंसाणुव्रत का परिपालन है। अंग छेदन, बंधन, पीड़न, अधिक भार लादना तथा आहार को रोकना ये पांच अहिंसाणुव्रत के अतिचार हैं। अहिंसा जैन धर्म का आधार स्तम्भ है। जैन धर्म में प्राणी मात्र के कल्याण की भावना निहित है। जैन धर्म में मनुष्य, पशु-पक्षी, कीड़े–मकोड़े के अलावा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में भी जीव माना गया है। जैन धर्म के अनुसार इन जीवों को न मारना ही अहिंसा है। जैन दार्शिनिकों ने उस क्रिया को हिंसा कहा है जो प्रमाद अथवा कषायपूर्वक होती है। हिंसा दो प्रकार की होती है: भाव हिंसा और द्रव्य हिंसा। भाव हिंसा का सम्बंध कषाय से है। द्रव्य हिंसा भाव हिंसा से उत्पन्न होती है और भाव हिंसा को उत्पन्न भी करती है। एक व्यक्ति ऐसा है जो केवल वध की भावना करता है; दूसरा भावना के साथ वध करता है; और तीसरा व्यक्ति बिना भावना के ही वध कर देता है, अत: इन तीनों ही हिंसा में असमानता है। डा.

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