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अभिलेख

सूची अभिलेख

कंधार स्थित सम्राट अशोक के द्वारा उत्कीर्ण एक पाषाण अभिलेख अभिलेख पत्थर अथवा धातु जैसी अपेक्षाकृत कठोर सतहों पर उत्कीर्ण किये गये पाठन सामाग्री को कहते है। प्राचीन काल से इसका उपयोग हो रहा है। शासको के द्वारा अपने आदेशो को इस तरह उत्कीर्ण करवाते थे, ताकि लोग उन्हे देख सके एवं पढ़ सके और पालन कर सके। आधुनिक युग मे भी इसका उपयोग हो रहा है। .

92 संबंधों: चन्द्रगुप्त मौर्य, चारभुजा मन्दिर, राजसमंद, ऐरण, तुरतुरिया, तेलुगू साहित्य, तोमर वंश, दशपुर, दामोदरगुप्त, दिल्ली का इतिहास, दिगम्बर, देवनागरी, देवनागरी का इतिहास, देवगुप्त, धनपाल, धौली गिरि, नन्दिनागरी, नहपान, निगम (श्रेणी), नेपाल, परमर्दिदेव, पालि भाषा, पुरालेखविद्या, पुष्यमित्र शुंग, प्रतापगढ़, राजस्थान, प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश, प्राचीन भारतीय इतिहास की जानकारी के साधन, बर्मी साहित्य, बाबरी मस्जिद, बौद्ध ग्रंथ, बृहतत्रयी (संस्कृत महाकाव्य), भट्ट मथुरानाथ शास्त्री, भाषा-परिवार, मराठी साहित्य, महाभारत, मंडोर, यशोधर्मन, रानीघाटी, राजलेख, राजशेखर, राजस्थान का इतिहास, राजस्थान की झीलें, रुद्रदमन का गिरनार शिलालेख, सच्चियाय माता मन्दिर, सायण, सिसोदिया (राजपूत), सिंहल साहित्य, सिंहली भाषा, सिंहली संस्कृति, सौराष्ट्र, हर्षवर्धन, ..., हाथीगुम्फा शिलालेख, हेलिओडोरस स्तंभ, जटावर्मन् वीर पांड्य द्वितीय, जटावर्मन् कुलशेखर पाण्टियऩ्, जनसंचार, जयसिंह द्वितीय (पश्चिमी चालुक्य), जगदेकमल्ल तृतीय, जगदेकमल्ल द्वितीय, जैन धर्म, जेम्स प्रिंसेप, जीवनचरित, वल्लभीपुर, वाकाटक, विदिशा के दर्शनीय स्थल, विराम (चिन्ह), विष्णु सीताराम सुकथंकर, विक्रमादित्य ६, वृहद भारत, खयरवाल, खारवेल, खजुराहो स्मारक समूह, खोह, गुर्जर प्रतिहार राजवंश, ग्वालियर प्रशस्ति, गीतगोविन्द, ओड़िशा का इतिहास, ओड़िसी, आम्रकार्दव, आरमेइक लिपि, आजीविक, इंदल देव मंदिर, कन्नड़ भाषा, कलिंग युद्ध, काच (राजा), कालसी, काशीनाथ नारायण दीक्षित, किलकिल, कुन्दकुन्द, कुलधरा, अब्द, अशोक चक्र (प्रतीक), अहीर सूचकांक विस्तार (42 अधिक) »

चन्द्रगुप्त मौर्य

चन्द्रगुप्त मौर्य (जन्म ३४५ ई॰पु॰, राज ३२२-२९८ ई॰पु॰) में भारत के सम्राट थे। इनको कभी कभी चन्द्रगुप्त नाम से भी संबोधित किया जाता है। इन्होंने मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी। चन्द्रगुप्त पूरे भारत को एक साम्राज्य के अधीन लाने में सफ़ल रहे। भारत राष्ट्र निर्माण मौर्य गणराज्य (चन्द्रगुप्त मौर्य) सम्राट् चंद्रगुप्त मौर्य के राज्यारोहण की तिथि साधारणतया ३२२ ई.पू.

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चारभुजा मन्दिर, राजसमंद

चारभुजा एक ऐतिहासिक एवं प्राचीन हिन्दू मन्दिर है जो भारतीय राज्य राजस्थान के राजसमंद ज़िले की कुम्भलगढ़ तहसील के गढब़ोर गांव में स्थित है। उदयपुर से 112 और कुम्भलगढ़ से 32 कि.मी.

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ऐरण

एरण स्थित वराह की विशालकाय प्रतिमा एरण का विष्णु मंदिर मण्डप एरण नामक ऐतिहासिक स्थान मध्य प्रदेश के सागर जिले में स्थित है। प्राचीन सिक्कों पर इसका नाम ऐरिकिण लिखा है। एरण में वाराह, विष्णु तथा नरसिंह मन्दिर स्थित हैं। एरण, सागर से करीब 90 किमी दूर स्थित है। यहां पहुंचने के लिए सड़क मार्ग के अलावा ट्रेन का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। सागर-दिल्ली रेलमार्ग के एक महत्वपूर्ण जंक्शन बीना से इसकी दूरी करीब 25 किमी है। बीना और रेवता नदी के संगम पर स्थित एरण का नाम यहां अत्यधिक मात्रा में उगने वाली प्रदाह प्रशामक तथा मंदक गुणधर्म वाली 'एराका' नामक घास के कारण रखा गया है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि एरण के सिक्कों पर नाग का चित्र है, अत: इस स्थान का नामकरण एराका अर्थात नाग से हुआ है। .

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तुरतुरिया

छत्तीसगढ़ अपनी पुरातात्विक सम्पदा के कारण आज भारत ही नहीं विश्व में भी अपनी एक अलग पहचान बना चुका है। यहां के 15000गांवो में से 1000ग्रामो में कही न कही प्राचीन इतिहास के साक्ष्य आज भी विध्यमान है जो कि छत्तीसगढ के लिये एक गौरव की बात है। इसी प्रकार का एक प्राकृतिक एवं धार्र्मिक स्थल रायपुर जिला से 84 किमी एवं बलौदाबाजार जिला से 29 किमी दूर कसदोल तहसील से १२ किमी दूर प०ह्०न्० ४ बोरसी से ५किमी दूर और् सिरपुर से 23 किमी की दूरी पर स्थित है जिसे तुरतुरिया के नाम से जाना जाता है। उक्त स्थल को सुरसुरी गंगा के नाम से भी जाना जाता है। यह स्थल प्राकृतिक दृश्यो से भरा हुआ एक मनोरम स्थान है जो कि पहाडियो से घिरा हुआ है। इसके समीप ही बारनवापारा अभ्यारण भी स्थित है। तुरतुरिया बहरिया नामक गांव के समीप बलभद्री नाले पर स्थित है। जनश्रुति है कि त्रेतायुग में महर्षि वाल्मीकि का आश्रम यही पर था और लवकुश की यही जन्मस्थली थी। इस स्थल का नाम तुरतुरिया पडने का कारण यह है कि बलभद्री नाले का जलप्रवाह चट्टानो के माध्यम से होकर निकलता है तो उसमे से उठने वाले बुलबुलो के कारण तुरतुर की ध्वनि निकलती है। जिसके कारण उसे तुरतुरिया नाम दिया गया है। इसका जलप्रवाह एक लम्बी संकरी सुरंग से होता हुआ आगे जाकर एक जलकुंड में गिरता है जिसका निर्माण प्राचीन ईटों से हुआ है। जिस स्थान पर कुंड में यह जल गिरता है वहां पर एक गाय का मोख बना दिया गया है जिसके कारण जल उसके मुख से गिरता हुआ दृष्टिगोचर होता है। गोमुख के दोनो ओर दो प्राचीन प्रस्तर की प्रतिमाए स्थापित है जो कि विष्णु जी की है इनमे से एक प्रतिमा खडी हुई स्थिति में है तथा दूसरी प्रतिमा में विष्णुजी को शेषनाग पर बैठे हुए दिखाया गया है। कुंड के समीप ही दो वीरो की प्राचीन पाषाण प्रतिमाए बनी हुई है जिनमे क्रमश: एक वीर एक सिंह को तलवार से मारते हुए प्रदर्शित किया गया है तथा दूसरी प्रतिमा में एक अन्य वीर को एक जानवर की गर्दन मरोडते हुए दिखाया गया है। इस स्थान पर शिवलिंग काफी संख्या में पाए गए हैं इसके अतिरिक्त प्राचीन पाषाण स्तंभ भी काफी मात्रा में बिखरे पडे है जिनमे कलात्मक खुदाई किया गया है। इसके अतिरिक्त कुछ शिलालेख भी यहां स्थापित है। कुछ प्राचीन बुध्द की प्रतिमाए भी यहां स्थापित है। कुछ भग्न मंदिरो के अवशेष भी मिलते हैं। इस स्थल पर बौध्द, वैष्णव तथा शैव धर्म से संबंधित मूर्तियो का पाया जाना भी इस तथ्य को बल देता है कि यहां कभी इन तीनो संप्रदायो की मिलीजुली संस्कृति रही होगी। ऎसा माना जाता है कि यहां बौध्द विहार थे जिनमे बौध्द भिक्षुणियो का निवास था। सिरपुर के समीप होने के कारण इस बात को अधिक बल मिलता है कि यह स्थल कभी बौध्द संस्कृति का केन्द्र रहा होगा। यहां से प्राप्त शिलालेखो की लिपि से ऎसा अनुमान लगाया गया है कि यहां से प्राप्त प्रतिमाओ का समय 8-9 वी शताब्दी है। आज भी यहां स्त्री पुजारिनो की नियुक्ति होती है जो कि एक प्राचीन काल से चली आ रही परंपरा है। पूष माह में यहां तीन दिवसीय मेला लगता है तथा बडी संख्या में श्रध्दालु यहां आते हैं। धार्मिक एवं पुरातात्विक स्थल होने के साथ-साथ अपनी प्राकृतिक सुंदरता के कारण भी यह स्थल पर्यटको को अपनी ओर आकर्षित करता है। Ruined old temple in Turturia .

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तेलुगू साहित्य

तेलुगु का साहित्य (तेलुगु: తెలుగు సాహిత్యం / तेलुगु साहित्यम्) अत्यन्त समृद्ध एवं प्राचीन है। इसमें काव्य, उपन्यास, नाटक, लघुकथाएँ, तथा पुराण आते हैं। तेलुगु साहित्य की परम्परा ११वीं शताब्दी के आरम्भिक काल से शुरू होती है जब महाभारत का संस्कृत से नन्नय्य द्वारा तेलुगु में अनुवाद किया गया। विजयनगर साम्राज्य के समय यह पल्लवित-पुष्पित हुई। .

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तोमर वंश

तोमर या तंवर उत्तर पश्चिम भारत का एक राजवन्श था। तोमरो का मानना है कि वे चन्द्रवन्शी है। इन्होंने वर्तमान दिल्ली की स्थापना दिहिलिका केनाम से की थी। .

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दशपुर

दशपुर अवंति (पश्चिमी मालवा) का प्राचीन नगर था, जो मध्य प्रदेश के ग्वालियर क्षेत्र में उस नाम के नगर से कुछ दूर उत्तर पश्चिम में स्थित आधुनिक मंदसौर है। भारतीय इतिहास के प्राचीन युग में उत्तर भारत में जब भी साम्राज्य स्थापित हुए, अवंति प्राय: उनका एक प्रांत रहा। दशपुर उसी में पड़ता था और कभी कभी वहाँ भी शासन की एक इकाई होती थी। दशपुर का कोई मूल्यवान ऐतिहासिक उल्लेख गुप्तयुग के पहले का नहीं मिलता। कुमारगुप्त प्रथम तथा द्वितीय और बंधुवर्मा का मंदसोर में ४३६ ई. (वि॰सं॰ ४९३) और ४७२ ई. (वि॰सं॰ ५२९) का वत्सभट्टि विरचित लेख मिला है, जिससे ज्ञात होता है कि जब बंधुवर्मा कुमारगुप्त प्रथम का दशपुर में प्रतिनिधि था (४३६ ई.), वहाँ के तंतुवायों ने एक सूर्यमंदिर का निर्माण कराया तथा उसके व्यय का प्रबंध किया। ३६ वर्षों बाद (४७२ ई.) ही उस मंदिर के पुनरुद्वार की आवश्यकता हुई और वह कुमारगुप्त द्वितीय के समय संपन्न हुआ। बंधुवर्मा संभवत: इस सारी अवधि के बीच गुप्तसम्राटों का दशपुर में क्षेत्रीय शासक रहा। थोड़े दिनों बाद हूणों ने उसके सारे पार्श्ववर्ती प्रदेशों को रौंद डाला और गुप्तों का शासन वहाँ से समाप्त हो गया। ग्वालियर में मिलनेवाले मिहिरकुल के सिक्कों से ये प्रतीत होता है कि दशपुर का प्रदेश हूणों के अधिकार में चला गया। किंतु उनकी सफलता स्थायी न थी और यशोधर्मन् विष्णुवर्धन् नामक औलिकरवंशी एक नवोदित राजा ने मिहिरकुल को परास्त किया। मंदसोर से वि॰सं॰ ५८९ (५३२ ई.) का यशोधर्मा का वासुल रचित एक अभिलेख मिला है, जिसमें उसे जनेंद्र, नराधिपति, सम्राट्, राजाधिराज, परमेश्वर उपाधियाँ दी गई हैं। उसका यह भी दावा है कि जिन प्रदेशों को गुप्त सम्राट् भी नहीं भोग सके, उन सबको उसने जीता और नीच मिहिरकुल को विवश होकर पुष्पमालाओं से युक्त अपने सिर को उसके दोनों पैरों पर रखकर उसकी पूजा करनी पड़ी। यशोधर्मा मध्यभारत से होकर उत्तर प्रदेश पहुँचा और पंजाब में मिहिरकुल की शक्ति को नष्ट करता हुआ सारा गुप्त साम्राज्य रौंद डाला। पूर्व में लौहित्य (उत्तरी पूर्वी भारतीय सीमा की लोहित नदी) से प्रारंभ कर हिमालय की चोटियों को छूते हुए पश्चिम पयोधि तक तथा दक्षिण-पूर्व से महेंद्र पर्वत तक के सारे क्षेत्र को स्वायत्त करने का उसने दावा किया है। दशपुर को यशोधर्मा ने अपनी राजधानी बनाया। वर्धन्नामांत दशपुर के कुछ अन्य राजाओं की सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। मंदसोर से ही अभी हाल में प्राप्त होनेवाले एक अभिलेख से आदित्यवर्धन् तथा वराहमिहिर की बृहत्संहिता (छठी शती) से अवंति के महाराजाधिराज द्रव्यवर्धन की जानकारी होती है। .

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दामोदरगुप्त

दामोदरगुप्त परवर्ती गुप्तवंश का पंचम शासक था। उसके वंश का कुछ वृत्त अपसड के अभिलेख (फ्लीट, कार्पस् इंस्क्रिप्शनम् इंडिकेरम, खंड 2, पृष्ठ 42 तथा 201 और आगे) से ज्ञात होता है, जहाँ उसकी भी थोड़ी चर्चा मिलती है। अधिकांश विद्वान् यह मानते हैं कि परवर्ती गुप्तों का मूलस्थान पूर्वी मालवा था, किंतु कुछ लेखकों के मत में वे वास्तव में मगध के ही रहनेवाले थे। दामोदरगुप्त के पिता कुमारगुप्त (तृतीय) ने मौखरियों (ईशानवर्मा) को युद्ध में परास्त कर अपने को मध्य भारत को एक प्रमुख शक्ति बना लिया। उसके समय से परवर्ती गुप्त सामंत न रहकर संभवत: पूर्ण स्वतंत्र बन गए। लगभग 560 ई. में कुमारगुप्त के मरने पर दामोदर गुप्त राजा हुआ। अपसड के अभिलेख से ज्ञात होता है कि "मंदार की तरह उसने अपने शत्रुओं को मार डाला" (हताद्विष)। किंतु साथ ही यह भी कहा गया है कि युद्ध में ही वह मूर्छित हो गया। (संमूर्छित: सुखघूर्वरनामेति) और कदाचित् वहीं मर भी गया। अंतिम विजय किसके हाथों रही, इस बात पर विद्वानों में मतभेद हैं। किंतु उसी अभिलेख में यह कहा गया है कि मौखरि सेना छिन्न-भिन्न हा गई (यो मौखरे: समितिषूद्धतहूणसैन्यवल्गत्घटाविघटयनुरुवारणानाम्)। उससे दामोदर गुप्त की विजय का अनुमान लगाया जा सकता है। उस युद्ध में दामोदर गुप्त का शत्रु मौखरिराज शरवर्मन था, यह प्रतीत होता है। श्रेणी:प्राचीन भारत का इतिहास.

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दिल्ली का इतिहास

दिल्ली का लौह स्तम्भ दिल्ली को भारतीय महाकाव्य महाभारत में प्राचीन इन्द्रप्रस्थ, की राजधानी के रूप में जाना जाता है। उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ तक दिल्ली में इंद्रप्रस्थ नामक गाँव हुआ करता था। अभी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की देखरेख में कराये गये खुदाई में जो भित्तिचित्र मिले हैं उनसे इसकी आयु ईसा से एक हजार वर्ष पूर्व का लगाया जा रहा है, जिसे महाभारत के समय से जोड़ा जाता है, लेकिन उस समय के जनसंख्या के कोई प्रमाण अभी नहीं मिले हैं। कुछ इतिहासकार इन्द्रप्रस्थ को पुराने दुर्ग के आस-पास मानते हैं। पुरातात्विक रूप से जो पहले प्रमाण मिलते हैं उन्हें मौर्य-काल (ईसा पूर्व 300) से जोड़ा जाता है। तब से निरन्तर यहाँ जनसंख्या के होने के प्रमाण उपलब्ध हैं। 1966 में प्राप्त अशोक का एक शिलालेख(273 - 300 ई पू) दिल्ली में श्रीनिवासपुरी में पाया गया। यह शिलालेख जो प्रसिद्ध लौह-स्तम्भ के रूप में जाना जाता है अब क़ुतुब-मीनार में देखा जा सकता है। इस स्तंभ को अनुमानत: गुप्तकाल (सन ४००-६००) में बनाया गया था और बाद में दसवीं सदी में दिल्ली लाया गया।लौह स्तम्भ यद्यपि मूलतः कुतुब परिसर का नहीं है, ऐसा प्रतीत होता है कि यह किसी अन्य स्थान से यहां लाया गया था, संभवतः तोमर राजा, अनंगपाल द्वितीय (1051-1081) इसे मध्य भारत के उदयगिरि नामक स्थान से लाए थे। इतिहास कहता है कि 10वीं-11वीं शताब्दी के बीच लोह स्तंभ को दिल्ली में स्थापित किया गया था और उस समय दिल्ली में तोमर राजा अनंगपाल द्वितीय (1051-1081) था। वही लोह स्तंभ को दिल्ली में लाया था जिसका उल्लेख पृथ्वीराज रासो में भी किया है। जबकि फिरोजशाह तुगलक 13 शताब्दी मे दिल्ली का राजा था वो केसे 10 शताब्दी मे इसे ला सकता है। चंदरबरदाई की रचना पृथवीराज रासो में तोमर वंश राजा अनंगपाल को दिल्ली का संस्थापक बताया गया है। ऐसा माना जाता है कि उसने ही 'लाल-कोट' का निर्माण करवाया था और लौह-स्तंभ दिल्ली लाया था। दिल्ली में तोमर वंश का शासनकाल 900-1200 इसवी तक माना जाता है। 'दिल्ली' या 'दिल्लिका' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम उदयपुर में प्राप्त शिलालेखों पर पाया गया, जिसका समय 1170 ईसवी निर्धारित किया गया। शायद 1316 ईसवी तक यह हरियाणा की राजधानी बन चुकी थी। 1206 इसवी के बाद दिल्ली सल्तनत की राजधानी बनी जिसमें खिलज़ी वंश, तुग़लक़ वंश, सैयद वंश और लोधी वंश समते कुछ अन्य वंशों ने शासन किया। .

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दिगम्बर

गोम्मटेश्वर बाहुबली (श्रवणबेळगोळ में) दिगम्बर जैन धर्म के दो सम्प्रदायों में से एक है। दूसरा सम्प्रदाय है - श्वेताम्बर। दिगम्बर.

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देवनागरी

'''देवनागरी''' में लिखी ऋग्वेद की पाण्डुलिपि देवनागरी एक लिपि है जिसमें अनेक भारतीय भाषाएँ तथा कई विदेशी भाषाएं लिखीं जाती हैं। यह बायें से दायें लिखी जाती है। इसकी पहचान एक क्षैतिज रेखा से है जिसे 'शिरिरेखा' कहते हैं। संस्कृत, पालि, हिन्दी, मराठी, कोंकणी, सिन्धी, कश्मीरी, डोगरी, नेपाली, नेपाल भाषा (तथा अन्य नेपाली उपभाषाएँ), तामाङ भाषा, गढ़वाली, बोडो, अंगिका, मगही, भोजपुरी, मैथिली, संथाली आदि भाषाएँ देवनागरी में लिखी जाती हैं। इसके अतिरिक्त कुछ स्थितियों में गुजराती, पंजाबी, बिष्णुपुरिया मणिपुरी, रोमानी और उर्दू भाषाएं भी देवनागरी में लिखी जाती हैं। देवनागरी विश्व में सर्वाधिक प्रयुक्त लिपियों में से एक है। मेलबर्न ऑस्ट्रेलिया की एक ट्राम पर देवनागरी लिपि .

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देवनागरी का इतिहास

देवनागरी लिपि की जड़ें प्राचीन ब्राह्मी परिवार में हैं। गुजरात के कुछ शिलालेखों की लिपि, जो प्रथम शताब्दी से चौथी शताब्दी के बीच के हैं, नागरी लिपि से बहुत मेल खाती है। ७वीं शताब्दी और उसके बाद नागरी का प्रयोग लगातार देखा जा सकता है। .

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देवगुप्त

देवगुप्तप्राचीन भारत में तीसरी सदी से पाँचवी सदी तक मगध के शासन थे। इस वंश के परवर्ती गुप्त नरेशों ने भी उत्तरी भारत में शासन किया। यद्यपि 'देवगुप्त' तथा इन अन्य राजाओं के नामों के अंत में 'गुप्त' शब्द जुड़ा है तथापि यह सिद्ध करना कठिन है कि अनुवर्ती गुप्त नरेश विख्यात गुप्त सम्राटों के वंशज थे। देवगुप्त का नाम 'हर्षचरित' तथा अभिलेखों में आता है जिस आधार पर इसे परवर्ती गुप्त राजा मानते हैं। बिहार के गया नगर के समीप अफसद से प्राप्त एक लेख में परवर्ती नरेशों की वंशावली उल्लिखित है। इस वंश के छठे राजा महासेन गुप्त का ज्येष्ठ पुत्र देवगुप्त ही था। हर्षचरित में कहा गया है कि महासेन गुप्त ने पूर्वी मालवा पर गुप्तकुल की प्रतिष्ठापना की, उसी के बाद देवगुप्त वहाँ का शासक हो गया। छठी शती के चार प्रमुख राजकुलों में पुष्पभूति तथा परवर्ती गुप्त वंशों में मैत्री थी तथा देवगुप्त और गौड़ नरेश कन्नौज के मौखरिवंश से ईर्षा रखते थे। देव गुप्त ने शशांक से मिलकर मौखरि राजा ग्रहवर्मा का बध कर डाला। हर्षचरित में ग्रहवर्मा का घातक मालवराज कहा गया है जिसे कालांतर में राज्यवर्धन ने परास्त किया। वर्धन ताम्रपट्टों के अनुसार राज्यवर्धन ने देवगुप्त को हाराया था (राजानोयुधिदुष्टवाजिन इव श्रीदेवगुप्तादय) अतएव मालव नरेश देवगुप्त ही ठहरता है। इससे भिन्न देववर्णाक अभिलेख में वर्णित देवगुप्त आदित्यसेन का पुत्र कहा गया है। उसे ६८० ई. में चालुक्य नरेश विनयादित्य ने परास्त किया था। उसे 'सकलोत्तरापथनाथ' भी कहा गया है, पर इस देवगुप्त की समता प्रसिद्ध मालव नरेश देवगुप्त से नहीं की जा सकती। दोनों दो भिन्न व्यक्ति थे। श्रेणी:प्राचीन भारत का इतिहास श्रेणी:भारतीय राजा.

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धनपाल

धनपाल नाम के कई प्रसिद्ध व्यक्ति हुए हैं। .

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धौली गिरि

धौलिगिरि हिल्स (उड़िया: ଧଉଳିଗିରି/धउळिगिरि) भुवनेश्वर (भारत) से 8 किमी दूर, दया नदी के किनारे पर स्थित है। इसके आसपास विशाल खुली जगह के साथ एक पहाड़ी है, और पहाड़ी के शिखर पर एक बड़े चट्टान में अशोक के शिलालेख उत्कीर्ण है। धौली पहाड़ी को कलिंग युद्ध क्षेत्र माना जाता है। यहां पाया गया चट्टान शिलालेखों नंबर I-X, XIV में दो ​​अलग-अलग कलिंग शिलालेखों शामिल हैं। कलिंग फतवे छठी में उन्होंने, पूरी दुनिया के कल्याण के लिए अपनी चिंता व्यक्त की है। शिलालेखों से ऊपर चट्टानों को काटकर जो हाथी बना है, वो ओडिशा के पूराने बौद्ध मूर्तियों मे से एक है। दया नदी लड़ाई के बाद मृतकों के खून से लाल हो गया था, और अशोक को युद्ध के साथ जुड़े आतंक की भयावहता का एहसास कराने सक्षम हुआ। कुछ शालों बाद धौली बौद्ध गतिविधियों का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया। उन्होंने वहां कई चॅतिय, स्तूपों और स्तंभों का निर्माण किया। पहाड़ी के शीर्ष पर, एक चमकदार सफेद शांति शिवालय 1970 के दशक में जापान बुद्ध संघा और कलिंग निप्पॉन बुद्ध संघ द्वारा बनाया गया है। आस-पास के क्षेत्र में भी संभवतः अशोक के कई शिलालेखों है और विद्वानों के तर्क के रूप में टंकपाणी सड़क पर भाश्करेश्वर मंदिर में एक स्तूप पाया गया है। धौलीगिरि पहाड़ियों में एक प्राचीन शिव मंदिर है, जो शिवरात्रि समारोह के दौरान जन सभा के लिए एक बडी जगह है। .

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नन्दिनागरी

नन्दिनागरी एक लिपि है जो नागरी लिपि से व्युत्पन्न है जो ब्राह्मी से व्युत्पन्न है। नन्दिनागरी, नागरी लिपि की पश्चिमी शैली है। नन्दिनागरी में लिखित शिलालेख और पाण्डुलिपियाँ दक्षिण भारत के कुछ प्रदेशों के पश्चिमी भागों में भी प्राप्त हुए हैं। (महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश आदि)। इस कारण नन्दिनागरी को नागरी की दक्षिणी शैली भी कहते हैं। मध्वाचार्य की कुछ पाण्डुलिपियाँ नन्दिनागरी में हैं। नन्दिनागरी में लिखित एक पाण्डुलिपि श्रेणी:लिपि.

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नहपान

नहपान प्राचीन भारत के क्षहरातवंश का प्रतापी राजा था। इसके शासनकाल का निर्धारण विवादास्पद है। इसके सिक्कों पर कोई तिथि अंकित नहीं है। कुछ अभिलेखों से ऐसा ज्ञात होता है कि इसने किसी अज्ञात संवत् के इकतालीसवें और छियालीसवें वर्ष में शासन किया। डुब्रेल के अनुसार इसमें विक्रमी संवत् निर्दिष्ट है। दिनेशचंद्र सरकार इस नहपान के अभिलेखों के संवत् का प्रारंभ ७८ ई. में मानते हैं। इस प्रकार नहपान के शासनकाल की ज्ञात तिथियाँ ११९ ई. और १२५ ई. निर्धारित की जा सकती है। नहपान के बहुत से चाँदी और ताँबे के सिक्के मिले हैं। जोगलथंबी (नासिक के पास) से प्राप्त एक जखीरे के ९२७० सिक्कों को, जो कि नहपान के हैं, गौतमीपुत्र शातकर्णि ने पुन: टंकित किया था। इससे यह पता चलता है कि नहपान गौतमीपुत्र शातकर्णि का समकालीन था। नहपान शक था। इस वंश का मूलस्थान पश्चिमोत्तर भारत प्रतीत होता है। संभवत: इसी कारण नहपान के सिक्कों पर खरोष्ठी अक्षरों का अंकन हुआ है। नहपान के पूर्वज कुषाणों, या पहलवें के प्रांतीय शासक के रूप में पश्चिम भारत का शासन करते थे और 'क्षत्रप' की उपाधि धारण करते थे। क्षहरातवंश का प्रथम ज्ञात राजा, भूमिक, क्षत्रप मात्र था और राजा की उपाधि नहीं धारण करता था। 'राजा' की उपाधि सर्वप्रथम नहपान के ही सिक्कों पर मिलती है जो उसी स्वंतत्र सत्ता और राजत्व का परिचायक है। नहपान की पूर्ण उपाधि 'रंखाोखरातस खतपस' थी। लगभग ११९ ई. से लगभग १२५ ई. के बीच नहपान ने अपने राज्य का अत्यधिक विस्तार कर लिया था। उसकी बेटी दक्षमित्रा का विवाह दीनकसुत उषवदात (शक) के साथ हुआ था। नहपान का जामाता उषवदात नहपान के साम्राज्यविस्तार और शासनसंचालन में बड़ा सहायक हुआ था। नहपान ने उसे मालवों के विरुद्ध उत्तमभद्रों की सहायता के लिए भेजा था। मालवों को पराजित करके उषवदात पुष्करक्षेत्र (अजमेर) तक गया था और संभवत: यहाँ तक नहपान की राजसत्ता का विस्तार किया था। नहपान के अमात्य अर्यमन् के एक अभिलेख से नहपान के साम्राज्य का अच्छा परिचय मिलता है। इस तथा अन्य अभिलेखों से ऐसा अनुमान होता है कि नहपान का शासन गोवर्धन आहार (नासिक), मामाल आहार (पूना), दक्षिण और उत्तरी गुजरात, कोंकण, भड़ौंच से सोपारा तक, कायूर आहार (बड़ौदा के पास), प्रभास (दक्षिणी काठियावाड़), दशपुर (मालवा में) तथा पुष्कर (अजमेर) क्षेत्रों पर था। अभिलेखों के प्राप्तिस्थान से ऐसा लगता है कि इसके प्रभावक्षेत्र में ताप्ती, बनास और चंबल की घाटियाँ भी थीं। किंतु १२५ ई. के लगभग नहपान का राजनीतिक प्रभाव घटने लगा। जोगलथंबी के उन सिक्कों से, जिन्हें गौतमीपुत्र शातकर्णि ने पुन: टंकित किया था, ऐसा विश्वास किया जाता है कि १२५ के लगभग, अर्थात्, अज्ञात तिथि ४६ के लगभग, नहपान गौतमीपुत्र शातकर्णि के द्वारा पराजित कर दिया गया होगा। संभव है कि नहपान के शासन का अंत भी इसी समय हो गया हो, क्योंकि इसके बाद नहपान के अस्तित्व का कोई प्रमाण नहीं मिलता। इस तथ्य की पुष्टि गौतमीपुत्र शातकर्णि की माता बलश्री के नासिक अभिलेख से भी होती है। इस अभिलेख के पटृट में कहा गया है कि (गौतमीपुत्र) ने खखरातों की सत्ता का विनाश कर दिया। (खखरातवसनिर्विशेषकरस)। इसी अभिलेख में उन प्रांतों का भी उल्लेख है, जो कभी नहपान के अधीन थे किंतु इस विजय के बाद गौतमीपुत्र शातकर्णि के हाथों लगे। श्रेणी:भारत के शासक श्रेणी:प्राचीन भारत का इतिहास.

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निगम (श्रेणी)

धर्मशास्त्र में व्यापारियों के संघ के लिए प्राय: 'नैगम' शब्द प्रयुक्त हुआ है। निगम शब्द नगर का द्योतक था, किंतु कुछ स्थलों पर यह स्पष्ट है कि निगम एक विशेष प्रकार का नगर था जिसका संबंध व्यापारियों से था। वृहत्कल्पसूत्र भाष्य में निगम लेनदेन का काम करनेवाले व्यापारियों की बस्ती के अर्थ में आता है- सांग्रहिक निगम केवल यही कार्य करते थे और असांग्रहिक निगम इसके अतिरिक्त दूसरे कार्य भी करते थे। निगम का उपयोग व्यापारियों के समूह और संघ के लिए भी हुआ है। वैशाली से प्राप्त चौथी शताब्दी के अंत की ओर की कुछ मुद्राएँ श्रेष्ठि, सार्थवाह और कुलिकों के निगम की हैं। ऐसी मुद्राएँ भीटा से भी प्राप्त हुई हैं। अमरावती के 'धंंकाटकस निगमस' लेख में भी निगम का उपयोग नगर के लिए नहीं अपितु व्यापारियों के संघ के रूप में हुआ है। निगम शब्द का यह उपयोग ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी की एक मुद्रा में भी मिलता है जिसमें 'शाहिजितिये निगमश' लेख उत्कीर्ण है। .

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नेपाल

नेपाल, (आधिकारिक रूप में, संघीय लोकतान्त्रिक गणराज्य नेपाल) भारतीय उपमहाद्वीप में स्थित एक दक्षिण एशियाई स्थलरुद्ध हिमालयी राष्ट्र है। नेपाल के उत्तर मे चीन का स्वायत्तशासी प्रदेश तिब्बत है और दक्षिण, पूर्व व पश्चिम में भारत अवस्थित है। नेपाल के ८१ प्रतिशत नागरिक हिन्दू धर्मावलम्बी हैं। नेपाल विश्व का प्रतिशत आधार पर सबसे बड़ा हिन्दू धर्मावलम्बी राष्ट्र है। नेपाल की राजभाषा नेपाली है और नेपाल के लोगों को भी नेपाली कहा जाता है। एक छोटे से क्षेत्र के लिए नेपाल की भौगोलिक विविधता बहुत उल्लेखनीय है। यहाँ तराई के उष्ण फाँट से लेकर ठण्डे हिमालय की श्रृंखलाएं अवस्थित हैं। संसार का सबसे ऊँची १४ हिम श्रृंखलाओं में से आठ नेपाल में हैं जिसमें संसार का सर्वोच्च शिखर सागरमाथा एवरेस्ट (नेपाल और चीन की सीमा पर) भी एक है। नेपाल की राजधानी और सबसे बड़ा नगर काठमांडू है। काठमांडू उपत्यका के अन्दर ललीतपुर (पाटन), भक्तपुर, मध्यपुर और किर्तीपुर नाम के नगर भी हैं अन्य प्रमुख नगरों में पोखरा, विराटनगर, धरान, भरतपुर, वीरगंज, महेन्द्रनगर, बुटवल, हेटौडा, भैरहवा, जनकपुर, नेपालगंज, वीरेन्द्रनगर, त्रिभुवननगर आदि है। वर्तमान नेपाली भूभाग अठारहवीं सदी में गोरखा के शाह वंशीय राजा पृथ्वी नारायण शाह द्वारा संगठित नेपाल राज्य का एक अंश है। अंग्रेज़ों के साथ हुई संधियों में नेपाल को उस समय (१८१४ में) एक तिहाई नेपाली क्षेत्र ब्रिटिश इंडिया को देने पड़े, जो आज भारतीय राज्य हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड तथा पश्चिम बंगाल में विलय हो गये हैं। बींसवीं सदी में प्रारंभ हुए जनतांत्रिक आन्दोलनों में कई बार विराम आया जब राजशाही ने जनता और उनके प्रतिनिधियों को अधिकाधिक अधिकार दिए। अंततः २००८ में जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि माओवादी नेता प्रचण्ड के प्रधानमंत्री बनने से यह आन्दोलन समाप्त हुआ। लेकिन सेना अध्यक्ष के निष्कासन को लेकर राष्ट्रपति से हुए मतभेद और टीवी पर सेना में माओवादियों की नियुक्ति को लेकर वीडियो फुटेज के प्रसारण के बाद सरकार से सहयोगी दलों द्वारा समर्थन वापस लेने के बाद प्रचण्ड को इस्तीफा देना पड़ा। गौरतलब है कि माओवादियों के सत्ता में आने से पहले सन् २००६ में राजा के अधिकारों को अत्यंत सीमित कर दिया गया था। दक्षिण एशिया में नेपाल की सेना पांचवीं सबसे बड़ी सेना है और विशेषकर विश्व युद्धों के दौरान, अपने गोरखा इतिहास के लिए उल्लेखनीय रहे हैं और संयुक्त राष्ट्र शांति अभियानों के लिए महत्वपूर्ण योगदानकर्ता रही है। .

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परमर्दिदेव

परमर्दिदेव (शासनकाल ११६५--१२०३) सल्तनतकालीन भारत में कालिंजर तथा महोबा के शासक थे। इन्हें राजा परमाल भी कहा जाता है। जगनिक इन्हीं के दरबारी कवि थे जिन्होंने परमाल रासो की रचना की थी। परमाल रासो में राजा परमाल के यश और वीरता का वर्णन वीरगाथात्मक रासो काव्य शैली में किया गया है। वर्तमान समय में इसके उपलब्ध हिस्से 'आल्ह खंड' में राजा परमाल के ही दो दरवारी वीरों की वीरता का वर्णन मिलता है। इसमें परमाल की पुत्री चंद्रावती का भी उल्लेख मिलता है। .

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पालि भाषा

ब्राह्मी तथा भाषा '''पालि''' है। पालि प्राचीन उत्तर भारत के लोगों की भाषा थी। जो पूर्व में बिहार से पश्चिम में हरियाणा-राजस्थान तक और उत्तर में नेपाल-उत्तरप्रदेश से दक्षिण में मध्यप्रदेश तक बोली जाती थी। भगवान बुद्ध भी इन्हीं प्रदेशो में विहरण करते हुए लोगों को धर्म समझाते रहे। आज इन्ही प्रदेशों में हिंदी बोली जाती है। इसलिए, पाली प्राचीन हिन्दी है। यह हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार में की एक बोली या प्राकृत है। इसको बौद्ध त्रिपिटक की भाषा के रूप में भी जाना जाता है। पाली, ब्राह्मी परिवार की लिपियों में लिखी जाती थी। .

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पुरालेखविद्या

कागज का टुकड़ा जिस पर खरोष्टी में लिखा गया है (२री-५वीं शदी) प्राचीन लेखों को पढ़ना और उनके आधार पर इतिहास का पुनर्गठन करना पुरालेखविद्या (Palaeography) कहलाता है। पुरालेखविद्या के अन्तर्गत निम्नलिखित बातें आती हैं- 1.

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पुष्यमित्र शुंग

पुष्यमित्र शुंग की मूर्ति पुष्यमित्र शुंग (१८५ – १४९ ई॰पू॰) यह एक ब्राम्हण था । उत्तर भारत के शुंग साम्राज्य के संस्थापक और प्रथम राजा था । इससे पहले वो मौर्य साम्राज्य में सेनापति था। १८५ ई॰पूर्व में इसने अन्तिम मौर्य सम्राट (बृहद्रथ) की रात में दरवार में अकेला बुलाया और उनकी पीठ पर छुरा घोपकर सम्राट बृहद्रथ की हत्या कर दी और अपने आपको राजा उद्घोषित किया। उसके बाद उन्होंने अश्वमेध यज्ञ किया और उत्तर भारत का अधिकतर हिस्सा अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया। शुंग राज्य के शिलालेख पंजाब के जालन्धर में पुष्यमित्र का एक शिलालेख मिले हैं और दिव्यावदान के अनुसार यह राज्य सांग्ला (वर्तमान सियालकोट) तक विस्तृत था। .

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प्रतापगढ़, राजस्थान

प्रतापगढ़, क्षेत्रफल में भारत के सबसे बड़े राज्य राजस्थान के ३३वें जिले प्रतापगढ़ जिले का मुख्यालय है। प्राकृतिक संपदा का धनी कभी इसे 'कान्ठल प्रदेश' कहा गया। यह नया जिला अपने कुछ प्राचीन और पौराणिक सन्दर्भों से जुड़े स्थानों के लिए दर्शनीय है, यद्यपि इसके सुविचारित विकास के लिए वन विभाग और पर्यटन विभाग ने कोई बहुत उल्लेखनीय योगदान अब तक नहीं किया है। .

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प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश

प्रतापगढ़ भारतीय राज्य उत्तर प्रदेश का एक जिला है, इसे लोग बेल्हा भी कहते हैं, क्योंकि यहां बेल्हा देवी मंदिर है जो कि सई नदी के किनारे बना है। इस जिले को ऐतिहासिक दृष्टिकोण से काफी अहम माना जाता है। यहां के विधानसभा क्षेत्र पट्टी से ही देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं॰ जवाहर लाल नेहरू ने पदयात्रा के माध्यम से अपना राजनैतिक करियर शुरू किया था। इस धरती को रीतिकाल के श्रेष्ठ कवि आचार्य भिखारीदास और राष्ट्रीय कवि हरिवंश राय बच्चन की जन्मस्थली के नाम से भी जाना जाता है। यह जिला धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी कि जन्मभूमि और महात्मा बुद्ध की तपोस्थली है। .

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प्राचीन भारतीय इतिहास की जानकारी के साधन

यों तो भारत के प्राचीन साहित्य तथा दर्शन के संबंध में जानकारी के अनेक साधन उपलब्ध हैं, परन्तु भारत के प्राचीन इतिहास की जानकारी के साधन संतोषप्रद नहीं है। उनकी न्यूनता के कारण अति प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं शासन का क्रमवद्ध इतिहास नहीं मिलता है। फिर भी ऐसे साधन उपलब्ध हैं जिनके अध्ययन एवं सर्वेक्षण से हमें भारत की प्राचीनता की कहानी की जानकारी होती है। इन साधनों के अध्ययन के बिना अतीत और वर्तमान भारत के निकट के संबंध की जानकारी करना भी असंभव है। प्राचीन भारत के इतिहास की जानकारी के साधनों को दो भागों में बाँटा जा सकता है- साहित्यिक साधन और पुरातात्विक साधन, जो देशी और विदेशी दोनों हैं। साहित्यिक साधन दो प्रकार के हैं- धार्मिक साहित्य और लौकिक साहित्य। धार्मिक साहित्य भी दो प्रकार के हैं - ब्राह्मण ग्रन्थ और अब्राह्मण ग्रन्थ। ब्राह्मण ग्रन्थ दो प्रकार के हैं - श्रुति जिसमें वेद, ब्राह्मण, उपनिषद इत्यादि आते हैं और स्मृति जिसके अन्तर्गत रामायण, महाभारत, पुराण, स्मृतियाँ आदि आती हैं। लौकिक साहित्य भी चार प्रकार के हैं - ऐतिहासिक साहित्य, विदेशी विवरण, जीवनी और कल्पना प्रधान तथा गल्प साहित्य। पुरातात्विक सामग्रियों को तीन भागों में बाँटा जा सकता है - अभिलेख, मुद्राएं तथा भग्नावशेष स्मारक। अधोलिखित तालिका इन स्रोत साधनों को अधिक स्पष्ट करती है-.

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बर्मी साहित्य

अन्य देशों की भाँति बर्मा का भी अपना साहित्य है जो अपने में पूर्ण एवं समृद्ध है। बर्मी साहित्य का अभ्युदय प्राय: काव्यकला को प्रोत्साहन देनेवाले राजाओं के दरबार में हुआ है इसलिए बर्मी साहित्य के मानवी कवियों का संबंध वैभवशाली महीपालों के साथ स्थापित है। राजसी वातावरण में अभ्युदय एवं प्रसार पाने के कारण बर्मी साहित्य अत्यंत सुश्लिष्ट तथा प्रभावशाली हो गया है। बर्मी साहित्य के अंतर्गत बुद्धवचन (त्रिपिटक), अट्टकथा तथा टीका ग्रंथों के अनुवाद सम्मिलित हैं। बर्मी भाषा में गद्य और पद्य दोनों प्रकार की साहित्य विधाएँ मौलिक रूप से मिलती हैं। इसमें आयुर्वेदिक ग्रंथों के अनुवाद भी हैं। पालि साहित्य के प्रभाव से इसकी शैली भारतीय है तथा बोली अपनी है। पालि के पारिभाषिक तथा मौलिक शब्द इस भाषा में बर्मीकृत रूप में पाए जाते हैं। रस, छंद और अलंकारों की योजना पालि एवं संस्कृत से प्रभावित है। बर्मी साहित्य के विकास को दृष्टि में रखकर विद्वानों ने इसे नौ कालों में विभाजित किया है, जिसमें प्रत्येक युग के साहित्य की अपनी विशेषता है। .

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बाबरी मस्जिद

बाबरी मस्जिद उत्तर प्रदेश के फ़ैज़ाबाद ज़िले के अयोध्या शहर में रामकोट पहाड़ी ("राम का किला") पर एक मस्जिद थी। रैली के आयोजकों द्वारा मस्जिद को कोई नुकसान नहीं पहुंचाने देने की भारत के सर्वोच्च न्यायालय से वचनबद्धता के बावजूद, 1992 में 150,000 लोगों की एक हिंसक रैली.

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बौद्ध ग्रंथ

बौद्ध धर्म और बौद्ध दर्शन से संबन्धित ग्रंथ प्रागैतिहासिक काल से लिखे गये हैं। ये संस्कृत, पालि तथा अन्य कई भाषाओं में लिखे या अनूदित किये गये हैं। .

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बृहतत्रयी (संस्कृत महाकाव्य)

बृहत्त्रयी के अंतर्गत तीन महाकाव्य आते हैं - "किरातार्जुनीय" "शिशुपालवध" और "नैषधीयचरित"। भामह और दंडी द्वारा परिभाषित महाकाव्य लक्षण की रूढ़ियों के अनुरूप निर्मित होने वाले मध्ययुग के अलंकरण प्रधान संस्कृत महाकाव्यों में ये तीनों कृतियाँ अत्यंत विख्यात और प्रतिष्ठाभाजन बनीं। कालिदास के काव्यों में कथावस्तु की प्रवाहमयी जो गतिमत्ता है, मानवमन के भावपक्ष की जो सहज, पर प्रभावकारी अभिव्यक्ति है, इतिवृत्ति के चित्रफलक (कैन्वैस) की जो व्यापकता है - इन काव्यों में उनकी अवहेलना लक्षित होती है। छोटे छोटे वर्ण्य वृत्तों को लेकर महाकाव्य रूढ़ियों के विस्तृत वर्णनों और कलात्मक, आलंकारिक और शास्त्रीय उक्तियों एवं चमत्कारमयी अभिव्यक्तियों द्वारा काव्य की आकारमूर्ति को इनमें विस्तार मिला है। किरातार्जुनीय, शिशुपालवध और नैषधीयचरित में इन प्रवृत्तियों का क्रमश: अधिकाधिक विकास होता गया है। इसी से कुछ पंडित, इस हर्षवर्धनोत्तर संस्कृत साहित्य को काव्यसर्जन की दृष्टि से "ह्रासोन्मुखयुगीन" मानते हैं। परंतु कलापक्षीय काव्यपरंपरा की रूढ़ रीतियों का पक्ष इन काव्यों में बड़े उत्कर्ष के साथ प्रकट हुआ। इन काव्यों में भाषा की कलात्मकता, शब्दार्थलंकारों के गुंफन द्वारा उक्तिगत चमत्कारसर्जन, चित्र और श्लिष्ट काव्यविधान का सायास कौशल, विविध विहारकेलियों और वर्णनों का संग्रथन आदि काव्य के रूढ़रूप और कलापक्षीय प्रौढ़ता के निदर्शक हैं। इनमें शृंगाररस की वैलासिक परिधि के वर्णनों का रंग असंदिग्ध रूप से पर्याप्त चटकीला है। हृदय के भावप्रेरित, अनुभूतिबोध की सहज की अपेक्षा, वासनामूलक ऐंद्रिय विलासिता का अधिक उद्वेलन है। फिर पांडित्य की प्रौढ़ता, उक्ति की प्रगल्भता और अभिव्यक्तिशिलप की शक्तिमत्ता ने इनकी काव्यप्रतिभा को दीप्तिमय बना दिया है। साहित्यक्षेत्र का पंडित बनने के लिए इनका अध्ययन अनिवार्य माना गया है। .

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भट्ट मथुरानाथ शास्त्री

कवि शिरोमणि भट्ट श्री मथुरानाथ शास्त्री कविशिरोमणि भट्ट मथुरानाथ शास्त्री (23 मार्च 1889 - 4 जून 1964) बीसवीं सदी पूर्वार्द्ध के प्रख्यात संस्कृत कवि, मूर्धन्य विद्वान, संस्कृत सौन्दर्यशास्त्र के प्रतिपादक और युगपुरुष थे। उनका जन्म 23 मार्च 1889 (विक्रम संवत 1946 की आषाढ़ कृष्ण सप्तमी) को आंध्र के कृष्णयजुर्वेद की तैत्तरीय शाखा अनुयायी वेल्लनाडु ब्राह्मण विद्वानों के प्रसिद्ध देवर्षि परिवार में हुआ, जिन्हें सवाई जयसिंह द्वितीय ने ‘गुलाबी नगर’ जयपुर शहर की स्थापना के समय यहीं बसने के लिए आमंत्रित किया था। आपके पिता का नाम देवर्षि द्वारकानाथ, माता का नाम जानकी देवी, अग्रज का नाम देवर्षि रमानाथ शास्त्री और पितामह का नाम देवर्षि लक्ष्मीनाथ था। श्रीकृष्ण भट्ट कविकलानिधि, द्वारकानाथ भट्ट, जगदीश भट्ट, वासुदेव भट्ट, मण्डन भट्ट आदि प्रकाण्ड विद्वानों की इसी वंश परम्परा में भट्ट मथुरानाथ शास्त्री ने अपने विपुल साहित्य सर्जन की आभा से संस्कृत जगत् को प्रकाशमान किया। हिन्दी में जिस तरह भारतेन्दु हरिश्चंद्र युग, जयशंकर प्रसाद युग और महावीर प्रसाद द्विवेदी युग हैं, आधुनिक संस्कृत साहित्य के विकास के भी तीन युग - अप्पा शास्त्री राशिवडेकर युग (1890-1930), भट्ट मथुरानाथ शास्त्री युग (1930-1960) और वेंकट राघवन युग (1960-1980) माने जाते हैं। उनके द्वारा प्रणीत साहित्य एवं रचनात्मक संस्कृत लेखन इतना विपुल है कि इसका समुचित आकलन भी नहीं हो पाया है। अनुमानतः यह एक लाख पृष्ठों से भी अधिक है। राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली जैसे कई संस्थानों द्वारा उनके ग्रंथों का पुनः प्रकाशन किया गया है तथा कई अनुपलब्ध ग्रंथों का पुनर्मुद्रण भी हुआ है। भट्ट मथुरानाथ शास्त्री का देहावसान 75 वर्ष की आयु में हृदयाघात के कारण 4 जून 1964 को जयपुर में हुआ। .

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भाषा-परिवार

विश्व के प्रमुख भाषाकुलों के भाषाभाषियों की संख्या का पाई-चार्ट आपस में सम्बंधित भाषाओं को भाषा-परिवार कहते हैं। कौन भाषाएँ किस परिवार में आती हैं, इनके लिये वैज्ञानिक आधार हैं। इस समय संसार की भाषाओं की तीन अवस्थाएँ हैं। विभिन्न देशों की प्राचीन भाषाएँ जिनका अध्ययन और वर्गीकरण पर्याप्त सामग्री के अभाव में नहीं हो सका है, पहली अवस्था में है। इनका अस्तित्व इनमें उपलब्ध प्राचीन शिलालेखो, सिक्कों और हस्तलिखित पुस्तकों में अभी सुरक्षित है। मेसोपोटेमिया की पुरानी भाषा ‘सुमेरीय’ तथा इटली की प्राचीन भाषा ‘एत्रस्कन’ इसी तरह की भाषाएँ हैं। दूसरी अवस्था में ऐसी आधुनिक भाषाएँ हैं, जिनका सम्यक् शोध के अभाव में अध्ययन और विभाजन प्रचुर सामग्री के होते हुए भी नहीं हो सका है। बास्क, बुशमन, जापानी, कोरियाई, अंडमानी आदि भाषाएँ इसी अवस्था में हैं। तीसरी अवस्था की भाषाओं में पर्याप्त सामग्री है और उनका अध्ययन एवं वर्गीकरण हो चुका है। ग्रीक, अरबी, फारसी, संस्कृत, अंग्रेजी आदि अनेक विकसित एवं समृद्ध भाषाएँ इसके अन्तर्गत हैं। .

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मराठी साहित्य

मराठी साहित्य महाराष्ट्र के जीवन का अत्यंत संपन्न तथा सुदृढ़ उपांग है। .

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महाभारत

महाभारत हिन्दुओं का एक प्रमुख काव्य ग्रंथ है, जो स्मृति वर्ग में आता है। कभी कभी केवल "भारत" कहा जाने वाला यह काव्यग्रंथ भारत का अनुपम धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ हैं। विश्व का सबसे लंबा यह साहित्यिक ग्रंथ और महाकाव्य, हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। इस ग्रन्थ को हिन्दू धर्म में पंचम वेद माना जाता है। यद्यपि इसे साहित्य की सबसे अनुपम कृतियों में से एक माना जाता है, किन्तु आज भी यह ग्रंथ प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय स्रोत है। यह कृति प्राचीन भारत के इतिहास की एक गाथा है। इसी में हिन्दू धर्म का पवित्रतम ग्रंथ भगवद्गीता सन्निहित है। पूरे महाभारत में लगभग १,१०,००० श्लोक हैं, जो यूनानी काव्यों इलियड और ओडिसी से परिमाण में दस गुणा अधिक हैं। हिन्दू मान्यताओं, पौराणिक संदर्भो एवं स्वयं महाभारत के अनुसार इस काव्य का रचनाकार वेदव्यास जी को माना जाता है। इस काव्य के रचयिता वेदव्यास जी ने अपने इस अनुपम काव्य में वेदों, वेदांगों और उपनिषदों के गुह्यतम रहस्यों का निरुपण किया हैं। इसके अतिरिक्त इस काव्य में न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र का भी विस्तार से वर्णन किया गया हैं। .

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मंडोर

मंडोर (अँग्रेजी: Mandore), जोधपुर शहर में रेलवे स्टेशन से ९ किलोमीटर की दूरी पर है। .

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यशोधर्मन

मंदसौर के सौंधनी में यशोधर्मन का विजय स्तम्भ यशोधर्मन के विजय-स्तम्भ के बारे में शिलालेख यशोधर्मन् छठी शताब्दी के आरम्भिक काल में मालवा के महाराजा थे। छठी शती ई0 के द्वितीय चरण में मालवा प्रांत के स्थानीय शासक के रूप से आगे बढ़कर यशोधर्मन् पूरे उत्तरी भारत पर छा गया। उसका उदय उल्कापात की भाँति तीव्र गति से हुआ था और उसी की भाँति बिना अधिक स्पष्ट प्रभाव छोड़े वह इतिहास से लुप्त हो गया। .

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रानीघाटी

रानीघाटी ग्वालियर से दक्षिण दिशा की ओर ग्वालियर नरवर मार्ग पर स्थित एक ऐतिहासिक स्थल है। यह क्षेत्र पूरी तरह से पहाड़ी है और आसपास जंगल ही जंगल है। ऐतिहासिक दृष्टि से यह बेहद महत्वपूर्ण स्थान है। मान्यता है कि रानीघाटी वही स्थान है जहाँ राजा नल का जन्म हुआ था। Ranighati: Birthplace of Raja Nal (Narwar-Gwalior)रानीघाटी / Ranighati: Birthplace of king Nal रानीघाटी पर कई ऐतिहासिक इमारतें और मंदिर खंडहर अवस्था में पड़े हैं। पूरे रानीघाटी क्षेत्र में तमाम ऐतिहासिक शिलालेख और अवशेष यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। डॉ मनोज माहेश्वरी जी के मुताबिक यह स्थान अति प्राचीन और ऐतिहासिक है। राजा नल का जन्म यहीं पर हुआ था।यहाँ एक विशाल राम जानकी मंदिर भी है, जिसकी देखभाल का जिम्मा स्थानीय लोगों ने एक साधू को दिया है। पहाड़ों की तलहटी में में बड़ा सुंदर और हराभरा रमणीक स्थल मौज़ूद है। यहाँ एक प्राकृतिक जल स्रोत भी है जो कि एक गौमुख से होकर है। .

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राजलेख

अंग्रेजी शब्द "चार्टर" (Charter), लैटिन "चार्टा" (Charta) से निकला है, जिसका अर्थ होता है 'कागज या उसपर लिखी कोई चीज'। राजलेख (Charta) का यह आधुनिक रूप हुआ। पर जब कागज का आविष्कार नहीं हुआ था, उस समय भी राजलेख निकलते थे। भोजपत्र, तालपत्र, ताम्रपत्र, रेशमी वस्त्र (Scroll) आदि कागज के ही भिन्न भिन्न रूप थे। सम्राटों के शिलालेख (Edicts) तो राजलेख के विशिष्ट उदाहरण हैं। सम्राट अशोक के शिलालेख अब भी वर्तमान हैं। .

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राजशेखर

राजशेखर (विक्रमाब्द 930- 977 तक) काव्यशास्त्र के पण्डित थे। वे गुर्जरवंशीय नरेश महेन्द्रपाल प्रथम एवं उनके बेटे महिपाल के गुरू एवं मंत्री थे। उनके पूर्वज भी प्रख्यात पण्डित एवं साहित्यमनीषी रहे थे। काव्यमीमांसा उनकी प्रसिद्ध रचना है। समूचे संस्कृत साहित्य में कुन्तक और राजशेखर ये दो ऐसे आचार्य हैं जो परंपरागत संस्कृत पंडितों के मानस में उतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं जितने रसवादी या अलंकारवादी अथवा ध्वनिवादी हैं। राजशेखर लीक से हट कर अपनी बात कहते हैं और कुन्तक विपरीत धारा में बहने का साहस रखने वाले आचार्य हैं। .

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राजस्थान का इतिहास

पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार राजस्थान का इतिहास पूर्व पाषाणकाल से प्रारंभ होता है। आज से करीब एक लाख वर्ष पहले मनुष्य मुख्यतः बनास नदी के किनारे या अरावली के उस पार की नदियों के किनारे निवास करता था। आदिम मनुष्य अपने पत्थर के औजारों की मदद से भोजन की तलाश में हमेशा एक स्थान से दूसरे स्थान को जाते रहते थे, इन औजारों के कुछ नमूने बैराठ, रैध और भानगढ़ के आसपास पाए गए हैं। अतिप्राचीनकाल में उत्तर-पश्चिमी राजस्थान वैसा बीहड़ मरुस्थल नहीं था जैसा वह आज है। इस क्षेत्र से होकर सरस्वती और दृशद्वती जैसी विशाल नदियां बहा करती थीं। इन नदी घाटियों में हड़प्पा, ‘ग्रे-वैयर’ और रंगमहल जैसी संस्कृतियां फली-फूलीं। यहां की गई खुदाइयों से खासकरकालीबंग के पास, पांच हजार साल पुरानी एक विकसित नगर सभ्यता का पता चला है। हड़प्पा, ‘ग्रे-वेयर’ और रंगमहल संस्कृतियां सैकडों किलोमीटर दक्षिण तक राजस्थान के एक बहुत बड़े इलाके में फैली हुई थीं। इस बात के प्रमाण मौजूद हैं कि ईसा पूर्व चौथी सदी और उसके पहले यह क्षेत्र कई छोटे-छोटे गणराज्यों में बंटा हुआ था। इनमें से दो गणराज्य मालवा और सिवि इतने शक्तिशाली थे कि उन्होंने सिकंदर महान को पंजाब से सिंध की ओर लौटने के लिए बाध्य कर दिया था। उस समय उत्तरी बीकानेर पर एक गणराज्यीय योद्धा कबीले यौधेयत का अधिकार था। महाभारत में उल्लिखित मत्स्य पूर्वी राजस्थान और जयपुर के एक बड़े हिस्से पर शासन करते थे। जयपुर से 80 कि॰मी॰ उत्तर में बैराठ, जो तब 'विराटनगर' कहलाता था, उनकी राजधानी थी। इस क्षेत्र की प्राचीनता का पता अशोक के दो शिलालेखों और चौथी पांचवी सदी के बौद्ध मठ के भग्नावशेषों से भी चलता है। भरतपुर, धौलपुर और करौली उस समय सूरसेन जनपद के अंश थे जिसकी राजधानी मथुरा थी। भरतपुर के नोह नामक स्थान में अनेक उत्तर-मौर्यकालीन मूर्तियां और बर्तन खुदाई में मिले हैं। शिलालेखों से ज्ञात होता है कि कुषाणकाल तथा कुषाणोत्तर तृतीय सदी में उत्तरी एवं मध्यवर्ती राजस्थान काफी समृद्ध इलाका था। राजस्थान के प्राचीन गणराज्यों ने अपने को पुनर्स्थापित किया और वे मालवा गणराज्य के हिस्से बन गए। मालवा गणराज्य हूणों के आक्रमण के पहले काफी स्वायत्त् और समृद्ध था। अंततः छठी सदी में तोरामण के नेतृत्तव में हूणों ने इस क्षेत्र में काफी लूट-पाट मचाई और मालवा पर अधिकार जमा लिया। लेकिन फिर यशोधर्मन ने हूणों को परास्त कर दिया और दक्षिण पूर्वी राजस्थान में गुप्तवंश का प्रभाव फिर कायम हो गया। सातवीं सदी में पुराने गणराज्य धीरे-धीरे अपने को स्वतंत्र राज्यों के रूप में स्थापित करने लगे। इनमें से मौर्यों के समय में चित्तौड़ गुबिलाओं के द्वारा मेवाड़ और गुर्जरों के अधीन पश्चिमी राजस्थान का गुर्जरात्र प्रमुख राज्य थे। लगातार होने वाले विदेशी आक्रमणों के कारण यहां एक मिली-जुली संस्कृति का विकास हो रहा था। रूढ़िवादी हिंदुओं की नजर में इस अपवित्रता को रोकने के लिए कुछ करने की आवश्यकता थी। सन् 647 में हर्ष की मृत्यु के बाद किसी मजबूत केंद्रीय शक्ति के अभाव में स्थानीय स्तर पर ही अनेक तरह की परिस्थितियों से निबटा जाता रहा। इन्हीं मजबूरियों के तहत पनपे नए स्थानीय नेतृत्व में जाति-व्यवस्था और भी कठोर हो गई। .

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राजस्थान की झीलें

प्राचीन काल से ही राजस्थान में अनेक प्राकृतिक झीलें विद्यमान है। मध्य काल तथा आधुनिक काल में रियासतों के राजाओं ने भी अनेक झीलों का निर्माण करवाया। राजस्थान में मीठे और खारे पानी की झीलें हैं जिनमें सर्वाधिक झीलें मीठे पानी की है। .

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रुद्रदमन का गिरनार शिलालेख

रुद्रदमन का गिरनार शिलालेख पश्चिमी छत्रप नरेश रुद्रदमन द्वारा लिखवाया गया शिलालेख है। यह शिलालेख गिरनार पर्वतों पर है जो जूनागढ़ के निकट स्थित है। यह १३०-से १५० ई॰ के मध्य लिखा गया था। जूनागढ़ शिलाओं पर अशोक के १४ शिलालेख तथा स्कन्दगुप्त के शिलालेख भी है। रुद्रदामन का गिरनार शिलालेख उच्च कोटि के संस्कृत गद्य का स्वरूप प्रकट करता है जिसमें सुबन्धु, दण्डी और बाण की गद्यशैली का पूर्वरूप देखा जा सकता है। इसकी भाषा सरल और प्रवाहपूर्ण है। इसमें दीर्घ समासों का भी प्रयोग देखते बनता है। अलंकृत शैली, नादात्मकता इसकी अन्य विशेषताएँ है। इस शिलालेख में एक बहुत बड़े सरोवर के निर्माण की बात कही है। इस क्षेत्र में पानी की कमी है। यह कार्य भी जनहित के लिए प्रशंसनीय प्रयास है। .

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सच्चियाय माता मन्दिर

सच्चियाय माता (सचिया माता) के नाम से भी जानी जाती है इनका मंदिर जोधपुर से 63 किमी दूर ओसियां में स्थित है। यह मंदिर जोधपुर जिले का सबसे बड़ा मंदिर है इसका निर्माण 9वीं या 10वीं सदी में उपेन्द्र ने करवाया था। सच्चियाय माता की पूजा ओसवाल, जैन, परमार, पंवार, कुमावत, राजपूत, चारण तथा पारिक इत्यादि जातियों के लोग पूजते हैं। .

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सायण

सायण या आचार्य सायण (चौदहवीं सदी, मृत्यु १३८७ इस्वी) वेदों के सर्वमान्य भाष्यकर्ता थे। सायण ने अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया है, परंतु इनकी कीर्ति का मेरुदंड वेदभाष्य ही है। इनसे पहले किसी का लिखा, चारों वेदों का भाष्य नहीं मिलता। ये २४ वर्षों तक विजयनगर साम्राज्य के सेनापति एवं अमात्य रहे (१३६४-१३८७ इस्वी)। योरोप के प्रारंभिक वैदिक विद्वान तथा आधुनिक भारत के श्री अरोबिंदो तथा श्रीराम शर्मा आचार्य भी इनके भाष्य के प्रशंसक रहे हैं। यास्क के वैदिक शब्दों के कोष लिखने के बाद सायण की टीका ही सर्वमान्य है। .

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सिसोदिया (राजपूत)

सिसोदिया राजवंश की कुलदेवी सिसोदिया या गेहलोत मांगलिया यासिसोदिया एक राजपूत राजवंश है, जिसका राजस्थान के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। यह सूर्यवंशी राजपूत थे। सिसोदिया राजवंश में कई वीर शासक हुए हैं। 'गुहिल' या 'गेहलोत' 'गुहिलपुत्र' शब्द का अपभ्रष्ट रूप है। कुछ विद्वान उन्हें मूलत: ब्राह्मण मानते हैं, किंतु वे स्वयं अपने को सूर्यवंशी क्षत्रिय कहते हैं जिसकी पुष्टि पृथ्वीराज विजय काव्य से होती है। मेवाड़ के दक्षिणी-पश्चिमी भाग से उनके सबसे प्राचीन अभिलेख मिले है। अत: वहीं से मेवाड़ के अन्य भागों में उनकी विस्तार हुआ होगा। गुह के बाद भोज, महेंद्रनाथ, शील ओर अपराजित गद्दी पर बैठे। कई विद्वान शील या शीलादित्य को ही बप्पा मानते हैं। अपराजित के बाद महेंद्रभट और उसके बाद कालभोज राजा हुए। गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने कालभोज को चित्तौड़ दुर्ग का विजेता बप्पा माना है। किंतु यह निश्चित करना कठिन है कि वास्तव में बप्पा कौन था। कालभोज के पुत्र खोम्माण के समय अरब आक्रान्ता मेवाड़ तक पहुंचे। अरब आक्रांताओं को पीछे हटानेवाले इन राजा को देवदत्त रामकृष्ण भंडारकर ने बप्पा मानने का सुझाव दिया है। कुछ समय तक चित्तौड़ प्रतिहारों के अधिकार में रहा और गुहिल उनके अधीन रहे। भर्तृ पट्ट द्वितीय के समय गुहिल फिर सशक्त हुए और उनके पुत्र अल्लट (विक्रम संवत् १०२४) ने राजा देवपाल को हराया जो डा.

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सिंहल साहित्य

उत्तर भारत की एक से अधिक भाषाओं से मिलती-जुलती सिंहल भाषा का विकास उन शिलालेखों की भाषा से हुआ है जो ई. पू.

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सिंहली भाषा

सिंहली भाषा श्रीलंका में बोली जाने वाली सबसे बड़ी भाषा है। सिंहली के बाद श्रीलंका में सबसे ज्यादा बोली जानेवाली भाषा तमिल है। प्राय: ऐसा नहीं होता कि किसी देश का जो नाम हो, वही उस दश में बसने वाली जाति का भी हो और वही नाम उस जाति द्वारा व्यवहृत होने वाली भाषा का भी हो। सिंहल द्वीप की यह विशेषता है कि उसमें बसने वाली जाति भी "सिंहल" कहलाती चली आई है और उस जाति द्वारा व्यवहृत होने वाली भाषा भी "सिंहल"। .

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सिंहली संस्कृति

फसल पकने पर किया जाने वाला श्रीलंका का पारम्परिक नृत्य ऐसा विश्वास किया जाता है कि राजकुमार विजय और उसके 700 अनुयायी ई. पू.

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सौराष्ट्र

सौराष्ट्र भारत के गुजरात प्रान्त का एक उपक्षेत्र है जो ज्यादातर अर्धमरुस्थलीय है। सौराष्ट्र, वर्तमान काठियावाड़-प्रदेश, जो प्रायद्वीपीय क्षेत्र है। महाभारत के समय द्वारिकापुरी इसी क्षेत्र में स्थित थी। सुराष्ट्र या सौराष्ट्र को सहदेव ने अपनी दिग्विजय यात्रा के प्रसंग में विजित किया था। विष्णुपुराण में अपरान्त के साथ सौराष्ट्र का उल्लेख है। विष्णुपुराण में सौराष्ट्र में शूद्रों का राज्य बताया गया है, 'सौराष्ट्र विषयांश्च शूद्राद्याभोक्ष्यन्ति'। .

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हर्षवर्धन

हर्षवर्धन का साम्राज्य हर्ष का टीला हर्षवर्धन (590-647 ई.) प्राचीन भारत में एक राजा था जिसने उत्तरी भारत में अपना एक सुदृढ़ साम्राज्य स्थापित किया था। वह हिंदू सम्राट् था जिसने पंजाब छोड़कर शेष समस्त उत्तरी भारत पर राज्य किया। शशांक की मृत्यु के उपरांत वह बंगाल को भी जीतने में समर्थ हुआ। हर्षवर्धन के शासनकाल का इतिहास मगध से प्राप्त दो ताम्रपत्रों, राजतरंगिणी, चीनी यात्री युवान् च्वांग के विवरण और हर्ष एवं बाणभट्टरचित संस्कृत काव्य ग्रंथों में प्राप्त है। शासनकाल ६०६ से ६४७ ई.। वंश - थानेश्वर का पुष्यभूति वंश। उसके पिता का नाम 'प्रभाकरवर्धन' था। राजवर्धन उसका बड़ा भाई और राज्यश्री उसकी बड़ी बहन थी। ६०५ ई. में प्रभाकरवर्धन की मृत्यु के पश्चात् राजवर्धन राजा हुआ पर मालव नरेश देवगुप्त और गौड़ नरेश शंशांक की दुरभिसंधि वश मारा गया। हर्षवर्धन 606 में गद्दी पर बैठा। हर्षवर्धन ने बहन राज्यश्री का विंध्याटवी से उद्धार किया, थानेश्वर और कन्नौज राज्यों का एकीकरण किया। देवगुप्त से मालवा छीन लिया। शंशाक को गौड़ भगा दिया। दक्षिण पर अभियान किया पर आंध्र पुलकैशिन द्वितीय द्वारा रोक दिया गया। उसने साम्राज्य को सुंदर शासन दिया। धर्मों के विषय में उदार नीति बरती। विदेशी यात्रियों का सम्मान किया। चीनी यात्री युवेन संग ने उसकी बड़ी प्रशंसा की है। प्रति पाँचवें वर्ष वह सर्वस्व दान करता था। इसके लिए बहुत बड़ा धार्मिक समारोह करता था। कन्नौज और प्रयाग के समारोहों में युवेन संग उपस्थित था। हर्ष साहित्य और कला का पोषक था। कादंबरीकार बाणभट्ट उसका अनन्य मित्र था। हर्ष स्वयं पंडित था। वह वीणा बजाता था। उसकी लिखी तीन नाटिकाएँ नागानंद, रत्नावली और प्रियदर्शिका संस्कृत साहित्य की अमूल्य निधियाँ हैं। हर्षवर्धन का हस्ताक्षर मिला है जिससे उसका कलाप्रेम प्रगट होता है। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद भारत में (मुख्यतः उत्तरी भाग में) अराजकता की स्थिति बना हुई थी। ऐसी स्थिति में हर्ष के शासन ने राजनैतिक स्थिरता प्रदान की। कवि बाणभट्ट ने उसकी जीवनी हर्षचरित में उसे चतुःसमुद्राधिपति एवं सर्वचक्रवर्तिनाम धीरयेः आदि उपाधियों से अलंकृत किया। हर्ष कवि और नाटककार भी था। उसके लिखे गए दो नाटक प्रियदर्शिका और रत्नावली प्राप्त होते हैं। हर्ष का जन्म थानेसर (वर्तमान में हरियाणा) में हुआ था। थानेसर, प्राचीन हिन्दुओं के तीर्थ केन्द्रों में से एक है तथा ५१ शक्तिपीठों में एक है। यह अब एक छोटा नगर है जो दिल्ली के उत्तर में हरियाणा राज्य में बने नये कुरुक्षेत्र के आस-पडोस में स्थित है। हर्ष के मूल और उत्पत्ति के संर्दभ में एक शिलालेख प्राप्त हुई है जो कि गुजरात राज्य के गुन्डा जिले में खोजी गयी है। .

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हाथीगुम्फा शिलालेख

हाथीगुफा हाथीगुफा में खाववेल का शिलालेख मौर्य वंश की शक्ति के शिथिल होने पर जब मगध साम्राज्य के अनेक सुदूरवर्ती प्रदेश मौर्य सम्राटों की अधीनता से मुक्त होने लगे, तो कलिंग भी स्वतंत्र हो गया। उड़ीसा के भुवनेश्वर नामक स्थान से तीन मील दूर उदयगिरि नाम की पहाड़ी है, जिसकी एक गुफ़ा में एक शिलालेख उपलब्ध हुआ है, जो 'हाथीगुम्फा शिलालेख' के नाम से प्रसिद्ध है। इसे कलिंगराज खारवेल ने उत्कीर्ण कराया था। यह लेख प्राकृत भाषा में है और प्राचीन भारतीय इतिहास के लिए इसका बहुत अधिक महत्त्व है। इसके अनुसार कलिंग के स्वतंत्र राज्य के राजा प्राचीन 'ऐल वंश' के चेति या चेदि क्षत्रिय थे। चेदि वंश में 'महामेधवाहन' नाम का प्रतापी राजा हुआ, जिसने मौर्यों की निर्बलता से लाभ उठाकर कलिंग में अपना स्वतंत्र शासन स्थापित किया। महामेधवाहन की तीसरी पीढ़ी में खारवेल हुआ, जिसका वृत्तान्त हाथीगुम्फा शिलालेख में विशद के रूप से उल्लिखित है। खारवेल जैन धर्म का अनुयायी था और सम्भवतः उसके समय में कलिंग की बहुसंख्यक जनता भी वर्धमान महावीर के धर्म को अपना चुकी थी। हाथीगुम्फा के शिलालेख (प्रशस्ति) के अनुसार खारवेल के जीवन के पहले पन्द्रह वर्ष विद्या के अध्ययन में व्यतीत हुए। इस काल में उसने धर्म, अर्थ, शासन, मुद्रापद्धति, क़ानून, शस्त्रसंचालन आदि की शिक्षा प्राप्त की। पन्द्रह साल की आयु में वह युवराज के पद पर नियुक्त हुआ और नौ वर्ष तक इस पद पर रहने के उपरान्त चौबीस वर्ष की आयु में वह कलिंग के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ। राजा बनने पर उसने 'कलिंगाधिपति' और 'कलिंग चक्रवर्ती' की उपाधियाँ धारण कीं। राज्याभिषेक के दूसरे वर्ष उसने पश्चिम की ओर आक्रमण किया और राजा सातकर्णि की उपेक्षा कर कंहवेना (कृष्णा नदी) के तट पर स्थित मूसिक नगर को उसने त्रस्त किया। सातकर्णि सातवाहन राजा था और आंध्र प्रदेश में उसका स्वतंत्र राज्य विद्यमान था। मौर्यों की अधीनता से मुक्त होकर जो प्रदेश स्वतंत्र हो गए थे, आंध्र भी उनमें से एक था। अपने शासनकाल के चौथे वर्ष में खारवेल ने एक बार फिर पश्चिम की ओर आक्रमण किया और भोजकों तथा रठिकों (राष्ट्रिकों) को अपने अधीन किया। भोजकों की स्थिति बरार के क्षेत्र में थी और रठिकों की पूर्वी ख़ानदेश व अहमदनगर में। रठिक-भोजक सम्भवतः ऐसे क्षत्रिय कुल थे, प्राचीन अन्धक-वृष्णियों के समान जिनके अपने गणराज्य थे। ये गणराज्य सम्भवतः सातवाहनों की अधीनता स्वीकृत करते थे। .

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हेलिओडोरस स्तंभ

हेलिओडोरस स्तंभ (बेसनगर, मध्यप्रदेश, भारत) हेलिओडोरस स्तंभ (Heliodorus pillar) भारत ले मध्य प्रदेश के विदिशा जिले में आधुनिक बेसनगर के पास स्थित पत्थर से निर्मित प्राचीन स्तम्भ है। इसका निर्माण ११० ईसा पूर्व हेलिओडोरस (Heliodorus) ने कराया था जो भारतीय-यूनानी राजा अंतलिखित (Antialcidas) का शुंग राजा भागभद्र के दरबार में दूत था। य स्तम्भ साँची के स्तूप से केवल ५ मील की दूरी पर स्थित है। यह स्तंभ लोकभाषा में खाम बाबा के रूप में जाना जाता है। एक ही पत्थर को काटकर बनाया गया, यह स्तंभ ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है। स्तंभ पर पाली भाषा में ब्राम्ही लिपि का प्रयोग करते हुए एक अभिलेख मिलता है। यह अभिलेख स्तंभ इतिहास बताता है। नवें शुंग शासक महाराज भागभद्र के दरबार में तक्षशिला के यवन राजा अंतलिखित की ओर से दूसरी सदी ई. पू.

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जटावर्मन् वीर पांड्य द्वितीय

जटावर्मन् वीर पाण्ड्य द्वितीय मारवर्मन् कुलशेखर पांड्य का अनौरस (illegitimate) किंतु प्रिय रानी का पुत्र था। मारवर्मन् कुलशेखर ने उसे अपने शासन के अंतिम वर्षों में १२९६ ई. से शासन में संयोजित किया था और संभवत: यह प्रकट किया था कि यही राज्य का भावी अधिकारी है। यह बात उसके ज्येष्ठ और औरस पुत्र जटावर्मन् सुंदर पांड्य तृतीय की बुरी लगी। उसने अपने पिता की हत्या करके १३१० ई में सिंहासन पर बलात् अधिकार कर लिया। किंतु वीर पांड्य ने उसे पराजित कर मदुरा छोड़ने पर विवश किया। सुंदर पांड्य ने अलाउद्दीन खिलजी अथवा मलिक काफूर से सहायता के लिये प्रार्थना की। वीर पांड्य ने होयसल नरेश वल्लाल तृतीय की, मलिक काफूर के विरुद्ध सहायता करके मलिक काफूर को अप्रसन्न कर दिया। किंतु यह सब जो बहाने मात्र थे। वीर वल्लाल ने काफूर की अधीनता स्वीकार कर उसकी आक्रमणकारी सेना की सहायता की। किंतु वीर पांड्य और सुंदर पांड्य ने आपसी कलह भूलकर आक्रमणकारी का विरोध किया और बिना खुलकर युद्ध किए उसे परेशान किया। काफूर ने वीर पांड्य की राजधानी वीरधूल पर आक्रमण किया। मुसलमानों का अधिकार होने से पहले ही वीर पांड्य कंदूर भाग गया। काफूर, वीर पांड्य की राजधानी मदुरा पर आक्रमण करता हुआ दिल्ली लौट गया। उसके लौटते ही वीर पांड्य और सुंदर पांड्य का कलह फिर आरंभ हो गया। मुसमलमानों ने सुंदर पांड्य की पूरी सहायता नहीं की। इसी समय परिस्थिति का लाभ उठाकर केरल के शासक रविवर्मन् कुलशेखर ने पांड्यदेश पर आक्रमण कर कांची तक अधिकार कर लिया। वीर पांड्य उससे मिल गया। काकतीय नरेश प्रतापरुद्र द्वितीय ने सुदंर पांड्य के पक्ष में रविवर्मन् कुलशेखर और वीर पांड्य का पराजित किया और सुंदर पांड्य को बीरधूल के सिंहासन पर बैठाया। इसी समय खुसरों का आक्रमण हुआ जिसे कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली। इन आक्रमणों से वीर पांड्य की शक्ति क्षीण तो अवश्य ही हुई किंतु पांड्य देश के बड़े भूभाग पर उसका अधिकार बाद तक बना रह। उसके राज्यकाल के ४६वें वर्ष (१३४१ ई.) के अभिलेख भी उपलब्ध होते हैं। .

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जटावर्मन् कुलशेखर पाण्टियऩ्

'''जटावर्मन् कुलशेखर पाण्ड्य प्रथम''' जटावर्मन् कुलशेखर पाण्ड्य प्रथम (तमिल: முதலாம் சடையவர்மன் குலசேகரன் / मुतलाम् चटैयवर्मऩ् कुलचेकरऩ्) पाण्ड्य राजवंश का शासक था जिसने दक्षिण भारत के कुछ क्षेत्रों पर ११९० से १२१६ ई तक शासन किया। वह संभवत: विक्रम पांड्य का पुत्र था और उसके पश्चात् सिंहासन पर बैठा। यह 'राजगंभीर' के नाम से भी विख्यात था। .

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जनसंचार

लोकसम्पर्क या जनसम्पर्क या जनसंचार (Mass communication) से तात्पर्य उन सभी साधनों के अध्ययन एवं विश्लेषण से है जो एक साथ बहुत बड़ी जनसंख्या के साथ संचार सम्बन्ध स्थापित करने में सहायक होते हैं। प्रायः इसका अर्थ सम्मिलित रूप से समाचार पत्र, पत्रिकाएँ, रेडियो, दूरदर्शन, चलचित्र से लिया जाता है जो समाचार एवं विज्ञापन दोनो के प्रसारण के लिये प्रयुक्त होते हैं। जनसंचार माध्यम में संचार शब्द की उत्पति संस्कृत के 'चर' धातु से हुई है जिसका अर्थ है चलना। .

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जयसिंह द्वितीय (पश्चिमी चालुक्य)

जय सिंह द्वितीय से भ्रमित न हों। जयसिंह भी देखें। ---- पुरानी कन्नड में जयसिंह द्वितीय का एक अभिलेख जयसिंह द्वितीय (1015 - 1042), पश्चिमी भारत में प्रतीच्य चालुक्य राजवंश का राजा था। उसने "जगदेकमल्ल" की पदवी धारण की थी, इसलिए उसे जगदेकमल्ल प्रथम के नाम से भी जाना जाता है। इसके अलावा उसे 'मल्लिकामोद' के नाम से भी जानते हैं। कल्याणि के चालुक्य घराने में विक्रमादित्य पंचम की मृत्यु के एक वर्ष के भीतर ही उसके दो छोटे भाई सिंहासन पर बैठे- अय्यन और उसके बाद जयसिंह द्वितीय। जयसिंह के विरुदों (पदवी) में 'जगदेकमल्ल' भी है और वह "जगदेकमल्ल प्रथम" के नाम से भी प्रसिद्ध है। जयसिंह का नाम सिंगदेव भी था और 'त्रैलोक्यमल्ल', 'मल्लिकामोद' और 'विक्रमसिंह' उसके दूसरे विरुद थे। जयसिंह द्वितीय का राज्यकाल सन् १०१५ से १०४३ ई. तक था। जयसिंह के राज्यकाल के पूर्वार्ध में अनेक युद्ध हुए। भोज परमार ने आक्रमण कर उत्तरी कोंकण की विजय कर ली थी और वह कोल्हापुर तक पहुँच गया था। उत्तर में उसकी दिग्विजय की योजनाएँ थी किन्तु उनके विषय में स्पष्टतः कुछ ज्ञात नहीं है। इन युद्धों में उसकी सफलता उसके सेनापति चावनरस, चट्टुग कदंब और कुंदमरस के कारण हुई थी। राजेन्द्र चोल प्रथम की व्यस्तता से लाभ उठाकर जयसिंह ने सत्याश्रय के समय चालुक्यों के विजित प्रदेशों को चोलों से फिर से लेने के लिए और वेंगि के सिंहासन पर चोल राजकन्या की संतान राजराज के स्थान पर अपने व्यक्ति को आसीन कराने का प्रयत्न किया। इन युद्धों में भी जयसिंह को अपने सेनापतियों के कारण प्रारंभ में सफलता प्राप्त हुई। उसने रायचूर द्वाब पर अधिकार कर लिया और उसकी सेना तुंगभद्रा पार करती हुई बेल्लारि और संभवत: गंगवाडि तक पहुँच तक गई थी। दूसरी ओर वेंगि में बेजवाड़ा पर उसकी सेना ने अधिकार कर लिया और राजराज दो-तीन वर्ष तक वेंगि के सिंहासन पर न बैठ सका। किंतु शीघ्र ही राजेंद्र चोल ने दोनों ही क्षेत्रों में विजय प्राप्त की। १०२२ ई. में राजराज का वेंगि के सिंहासन के लिये अभिषेक हुआ। दूसरी ओर राजेन्द्र की विजय करती हुई सेना का जयसिंह की सेना के साथ १०२०-२१ ई. में मुशंगि (मस्की) में घमासान युद्ध हुआ। विजय यद्यपि राजेंद्र की हुई और जयसिंह को युद्ध से भागना पड़ा किंतु शीघ्र ही दोनों राज्य की सीमा तुंगभद्रा बनी। जयसिंह के शासन के अंतिम २० वर्षों में उल्लेखनीय युद्ध नहीं हुआ। अभिलेखों से इस काल की शांत स्थिति का ज्ञान होता है। ऐसे तो कल्याणी, चालुक्य राज्य की राजधानी बन गई थी किंतु मान्यखेट का महत्व बना रहा। इसके अतिरिक्त कई उपराजधानियों के भी उल्लेख मिलते हैं यथा, एतगिरि, कोल्लिपाके होट्टलकेरे तथा घट्टदकेरे। उसके अधीन शासन करनेवाले कुछ सामंतों के नाम हैं, कुंदमरस, सत्याश्रय, षष्ठदेव कदंब, जगदेकमल्ल, नोलंब-पल्लव उदयादित्य, खेरस हैहय और नागादित्य सिंद। उसकी बहिन अक्कादेवी अपने पति मयूरवर्मन् के साथ बवासि, वेल्बोल और पुलिणेर पर राज्य करती थी। उसकी दो रानियों के नाम मालूम हैं- सुग्गलदेवी जिसके बारे में अनुश्रुति है कि उसने अपने जैन पति को शैव बनाया, और दूसरी नोलंब राजकुमारी देवलदेवी। उसकी पुत्री हंमा अथवा आवल्लदेवी का विवाह भिल्लम तृतीय से से हुआ था। जयसिंह के सोने के सिक्के दो शैलियों में मिलते हैं। उसके अभिलेख उस काल की शासन-व्यवस्था के ज्ञान के लिये महत्वपूर्ण हैं। एक अभिलेख में उल्लेख है कि उसने धर्मबोलल के सोलह सेट्टियों को छत्र, चामर और शासन देकर सम्मानित किया। पार्श्वनाथचरित और यशोधर चरित्र के रचयिता जैन विद्वान् वादिराज इसी के दरबार में थे। इनके मंत्री दुर्गसिंह ने कन्नड में पंचतंत्र नाम के चंपू की रचना की थी। श्रेणी: भारत का इतिहास श्रेणी: दक्षिण भारत का इतिहास.

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जगदेकमल्ल तृतीय

जगदेकमल्ल तृतीय, पश्चिमी भारत के प्रतीच्य चालुक्य राजवंश का राजा था। ११४६ से ११८१ ई. तक के काल में कल्याणी पर कलचुरि लोगों का अधिकार रहा। किंतु ११६३ में तैल द्वितीय की मृत्यु के बाद भी चालुक्यों ने अपना दावा नहीं छोड़ा। जगदेकमल्ल तृतीय इसी समय हुआ। उसके अभिलेखों की तिथि ११६४ से ११८३ तक है। कदाचित् वह तैल तृतीय का पुत्र था। संभवत: परिस्थिति के अनुकूल वह कभी कलचुरि नरेश का आधिपत्य स्वीकार करता था और कभी स्वतंत्र शासक के रूप में राज्य करता था। उसके अभिलेख चितलदुर्ग, बेल्लारी और दूसरे जिलों से प्राप्त हुए हैं। एक अभिलेख में तो उसे कल्याण से राज्य करता हुआ कहा गया है। विजय पांड्य उसका सामन्त था। श्रेणी:भारत के राजा श्रेणी:भारत का इतिहास.

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जगदेकमल्ल द्वितीय

सोमेश्वर तृतीय के पश्चात् उसका ज्येष्ठ पुत्र कल्याणी के सिंहासन पर बैठा। अभिलेखों में उसके नाम का निर्देश नहीं है। अपने विरुद (यश या प्रर्शसासुचक पदवी) 'जगदेकमल्ल' के नाम से ही उसका उल्लेख आता है अतएव उसे जगदेकमल्ल द्वितीय (1138-55 ई.) कहा गया है। उसके अन्य विरुद थे- प्रेमप्रताप, चक्रवर्तिन् और त्रिभुवनमल्ल। अपने पितामह विक्रमादित्य षष्ठ के समय में ही उसे शासन में विशेष महत्व का पद प्राप्त हो गया था। चालुक्य वंश की क्षीण होती हुई शक्ति का लाभ उठाकर विष्णुवर्धन् होयसल ने अपन राज्य का विस्तार धारवाड़ में बंकारपुर तक कर लिया था, फिर भी वह चालुक्यों की अधीनता स्वीकार करता था। उसने नरसिंह होयसल के साथ 1143 ई. के लगभग मालव पर आक्रमणकर जयवर्मन् के स्थान पर बल्लाल को सिंहासन पर बैठाया था। इसके अतिरिक्त लाट, गुर्जर, चोल, कलिंग और नोलंबपल्लव पर भी उसकी विजय का उल्लेख है लेकिन इसमें अतिशयोक्ति की संभावना अधिक है। जगदेकमल्ल को अपना अधिकार बनाए रखने में कई सेनानायकों और सामंतों से सहायता मिली थी। इनमें पेरमाडिदेव सिंद, बर्म्म दंडाधिप और केशिराज दंडाधीश के नाम उल्लेखनीय हैं। 1149 ई. के लगभग ही जगदेकमल्ल का छोटा भाई तैल तृतीय भी जगदेकमल्ल के साथ शासन में संयुक्त हो गया था। जगदेकमल्ल ने एक संवत् की स्थापना की थी किंतु स्वयं उसके राज्यकाल में ही उसका सदैव उपयोग नहीं होता था; उसके शासन के बाद वह शीघ्र ही समाप्त हो गया। "संगीतचूड़ामणि" जगदेकमल्ल द्वितीय की कृति थी। कर्णाटक भाषाभूषण, काव्यालोकन और वास्तुकोश का रचयिता नागवर्म द्वितीय उसका उपाध्याय था। 1146 से 1181 ई. तक के काल में कल्याणी पर कलचुरि लोगों का अधिकार रहा। किंतु 1163 में तैल द्वितीय की मृत्यु के बाद भी चालुक्यों ने अपना दावा नहीं छोड़ा। जगदेकमल्ल तृतीय इसी समय हुआ। उसके अभिलेखों की तिथि 1164 से 1183 तक है। कदाचित् वह तैल तृतीय का पुत्र था। संभवत: परिस्थिति के अनुकूल वह कभी कलचुरि नरेश का आधिपत्य स्वीकार करता था और कभी स्वतंत्र शासक के रूप में राज्य करता था। उसके अभिलेख चितलदुर्ग, बेल्लारी और दूसरे जिलों से प्राप्त हुए हैं। एक अभिलेख में तो उसे कल्याण से राज्य करता हुआ कहा गया है। विजय पांड्य उसका सामंत था। श्रेणी:भारत का इतिहास श्रेणी:चित्र जोड़ें.

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जैन धर्म

जैन ध्वज जैन धर्म भारत के सबसे प्राचीन धर्मों में से एक है। 'जैन धर्म' का अर्थ है - 'जिन द्वारा प्रवर्तित धर्म'। जो 'जिन' के अनुयायी हों उन्हें 'जैन' कहते हैं। 'जिन' शब्द बना है 'जि' धातु से। 'जि' माने - जीतना। 'जिन' माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया और विशिष्ट ज्ञान को पाकर सर्वज्ञ या पूर्णज्ञान प्राप्त किया उन आप्त पुरुष को जिनेश्वर या 'जिन' कहा जाता है'। जैन धर्म अर्थात 'जिन' भगवान्‌ का धर्म। अहिंसा जैन धर्म का मूल सिद्धान्त है। जैन दर्शन में सृष्टिकर्ता कण कण स्वतंत्र है इस सॄष्टि का या किसी जीव का कोई कर्ता धर्ता नही है।सभी जीव अपने अपने कर्मों का फल भोगते है।जैन धर्म के ईश्वर कर्ता नही भोगता नही वो तो जो है सो है।जैन धर्म मे ईश्वरसृष्टिकर्ता इश्वर को स्थान नहीं दिया गया है। जैन ग्रंथों के अनुसार इस काल के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव आदिनाथ द्वारा जैन धर्म का प्रादुर्भाव हुआ था। जैन धर्म की अत्यंत प्राचीनता करने वाले अनेक उल्लेख अ-जैन साहित्य और विशेषकर वैदिक साहित्य में प्रचुर मात्रा में हैं। .

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जेम्स प्रिंसेप

जेम्स प्रिंसेप ईस्ट इण्डिया कम्पनी में एक अधिकारी के पद पर नियुक्त थे। उन्होंने 1838 ई. में सर्वप्रथम ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों को पढ़ने में सफलता प्राप्त की। इन लिपियों का उपयोग सबसे आरम्भिक अभिलेखों और सिक्कों में किया गया है। प्रिसेंप को यह जानकारी प्राप्त हुई कि अभिलेखों और सिक्कों पर पियदस्सी (प्रियदर्शी) अर्थात सुन्दर मुखाकृति वाले राजा का नाम लिखा गया है। कुछ अभिलेखों पर राजा का नाम सम्राट अशोक भी लिखा हुआ था। .

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जीवनचरित

प्रसिद्ध इतिहासज्ञ और जीवनी-लेखक टामस कारलाइल ने अत्यंत सीधी सादी और संक्षिप्त परिभाषा में इसे "एक व्यक्ति का जीवन" कहा है। इस तरह किसी व्यक्ति के जीवन वृत्तांतों को सचेत और कलात्मक ढंग से लिख डालना जीवनचरित कहा जा सकता है। यद्यपि इतिहास कुछ हद तक, कुछ लोगों की राय में, महापुरुषों का जीवनवृत्त है तथापि जीवनचरित उससे एक अर्थ में भिन्न हो जाता है। जीवनचरित में किसी एक व्यक्ति के यथार्थ जीवन के इतिहास का आलेखन होता है, अनेक व्यक्तियों के जीवन का नहीं। फिर भी जीवनचरित का लेखक इतिहासकार और कलाकार के कर्त्तव्य के कुछ समीप आए बिना नहीं रह सकता। जीवनचरितकार एक ओर तो व्यक्ति के जीवन की घटनाओं की यथार्थता इतिहासकार की भाँति स्थापित करता है; दूसरी ओर वह साहित्यकार की प्रतिभा और रागात्मकता का तथ्यनिरूपण में उपयोग करता है। उसकी यह स्थिति संभवत: उसे उपन्यासकार के निकट भी ला देती है। जीवनचरित की सीमा का यदि विस्तार किया जाय तो उसके अंतर्गत आत्मकथा भी आ जायगी। यद्यपि दोनों के लेखक पारस्परिक रुचि और संबद्ध विषय की भिन्नता के कारण घटनाओं के यथार्थ आलेखन में सत्य का निर्वाह समान रूप से नहीं कर पाते। आत्मकथा के लेखक में सतर्कता के बावजूद वह आलोचनात्मक तर्कना चरित्र विश्लेषण और स्पष्टचारिता नहीं आ पाती जो जीवनचरित के लेखक विशिष्टता होती है। इस भिन्नता के लिये किसी को दोषी नहीं माना जा सकता। ऐसा होना पूर्णत: स्वाभाविक है। .

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वल्लभीपुर

बल्लभीपुर प्राचीन भारत का एक नगर है, जो पाँचवीं से आठवीं शताब्दी तक मैत्रक वंश की राजधानी रहा। यह पश्चिमी भारत के सौराष्ट्र में और बाद में गुजरात राज्य, भावनगर के बंदरगाह के पश्चिमोत्तर में खम्भात की खाड़ी के मुहाने पर स्थित था। .

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वाकाटक

नन्दिवर्धन दुर्ग के भग्नावशेष वाकाटक शब्द का प्रयोग प्राचीन भारत के एक राजवंश के लिए किया जाता है जिसने तीसरी सदी के मध्य से छठी सदी तक शासन किया था। उस वंश को इस नाम से क्यों संबंधित किया गया, इस प्रश्न का सही उत्तर देना कठिन है। स्यात्‌ वकाट नाम का मध्यभारत में कोई स्थान रहा हो, जहाँ पर शासन करनेवाला वंश वाकाटक कहलाया। अतएव प्रथम राजा को अजंता लेख में "वाकाटक वंशकेतु:" कहा गया है। इस राजवंश का शासन मध्यप्रदेश के अधिक भूभाग तथा प्राचीन बरार (आंध्र प्रदेश) पर विस्तृत था, जिसके सर्वप्रथम शासक विन्ध्यशक्ति का नाम वायुपुराण तथा अजंतालेख मे मिलता है। संभवत: विंध्य पर्वतीय भाग पर शासन करने के कारण प्रथम राजा 'विंध्यशक्ति' की पदवी से विभूषित किया गया। इस नरेश का प्रामाणिक इतिवृत्त उपस्थित करना कठिन है, क्योंकि विंध्यशक्ति का कोई अभिलेख या सिक्का अभी तक उपलब्ध नहीं हो सका। तीसरी सदी के मध्य में सातवाहन राज्य की अवनति हो जाने से विंध्यशक्ति को अवसर मिल गया तो भी उसका यश स्थायी न रह सका। उसके पुत्र प्रथम प्रवरसेन ने वंश की प्रतिष्ठा को अमर बना दिया। अभिलेखों के अध्ययन से पता चलता है कि प्रथम प्रवरसेन ने दक्षिण में राज्यविस्तार के उपलक्ष में चार अश्वमेध किए और सम्राट् की पदवी धारण की। प्रवरसेन के समकालीन शक्तिशाली नरेश के अभाव में वाकाटक राज्य आंध्रप्रदेश तथा मध्यभारत में विस्तृत हो गया। बघेलखंड के अधीनस्थ शासक व्याघ्रराज का उल्लेख समुद्रगुप्त के स्तंभलेख में भी आया है। संभवत: प्रवरसेन ने चौथी सदी के प्रथम चरण में पूर्वदक्षिण भारत, मालवा, गुजरात, काठियावाड़ पर अधिकार कर लिया था परंतु इसकी पुष्टि के लिए सबल प्रमाण नहीं मिलते। यह तो निश्चित है कि प्रवरसेन का प्रभाव दक्षिण में तक फैल गया था। परंतु कितने भाग पर वह सीधा शासन करता रहा, यह स्पष्ट नहीं है। यह कहना सर्वथा उचित होगा कि वाकाटक राज्य को साम्राज्य के रूप में परिणत करना उसी का कार्य था। प्रथम प्रवरसेन ने वैदिक यज्ञों से इसकी पुष्टि की है। चौथी सदी के मध्य में उसका पौत्र प्रथम रुद्रसेन राज्य का उत्तराधिकारी हुआ, क्योंकि प्रवरसेन का ज्येष्ठ पुत्र गोतमीपुत्र पहले ही मर चुका था। मानसर में प्रवरसेन द्वितीय द्वारा निर्मित प्रवरेश्वर शिव मन्दिर के भग्नावशेष वाकाटक वंश के तीसरे शासक महाराज रुद्रसेन प्रथम का इतिहास अत्यंत विवादास्पद माना जाता है। प्रारंभ में वह आपत्तियों तथा निर्बलता के कारण अपनी स्थिति को सबल न बना सका। कुछ विद्वान्‌ यह मानते हैं कि उसके पितृव्य साम्राज्य को विभाजित कर शासन करना चाहते थे, किन्तु पितृव्य सर्वसेन के अतिरिक्त किसी का वृत्तांत प्राप्य नहीं है। वाकाटक राज्य के दक्षिण-पश्चिम भाग में सर्वसेन ने अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था जहाँ (बरार तथा आंध्र प्रदेश का उत्तरी-पश्चिमी भूभाग) उसके वंशज पाँचवी सदी तक राज्य करते रहे। इस प्रसंग में यह मान लेना सही होगा कि उसके नाना भारशिव महाराज भवनाग ने रुद्रसेन प्रथम की विषम परिस्थिति में सहायता की, जिसके फलस्वरूप रुद्रसेन अपनी सत्ता को दृढ़ कर सका। (चंपक ताम्रपत्र का. इ., इ. भा. ३, पृ. २२६) इस वाकाटक राजा के विनाश के संबंध में कुछ लोगों की असत्य धारण बनी हुई है कि गुप्तवंश के उत्थान से रुद्रसेन प्रथम नष्ट हो गया। गुप्त सम्राट् समुद्रगुप्त ने कौशांबी के युद्ध में वाकाटक नरेश रुद्रसेन प्रथम को मार डाला (अ. भ. ओ. रि. इ., भा. ४, पृ. ३०-४०, अथवा उत्तरी भारत की दिग्विजय में उसे श्रीहत कर दिया। इस कथन की प्रामाणिकता समुद्रगुप्त की प्रयागप्रशस्ति में उल्लिखित पराजित नरेश रुद्रदेव से सिद्ध करते हैं। प्रशस्ति के विश्लेषण से यह समीकरण कदापि युक्तियुक्त नहीं है कि रुद्रदेव तथा वाकाटक महाराज प्रथम रुद्रसेन एक ही व्यक्ति थे। वाकाटकनरेश से समुद्रगुप्त का कहीं सामना न हो सका। अतएव पराजित या श्रीहत होने का प्रश्न ही नहीं उठता। इसके विपरीत यह कहना उचित होगा कि गुप्त सम्राट् ने वाकाटक वंश से मैत्री कर ली। वाकाटक अभिलेखों के आधार पर यह विचार व्यक्त करना सत्य है कि इस वंश की श्री कई पीढ़ियों तक अक्षुण्ण बनी रही। कोष, सेना तथा प्रतिष्ठा की अभिवृद्धि पिछले सौ वर्षों से होती रही (मानकोष दण्ड साधनसंतान पुत्र पौत्रिण: ए. इ., भा. ३, पृ. २६१) इसके पुत्र पृथ्वीषेण प्रथम ने कुंतल पर विजय कर दक्षिण भारत में वाकाटक वंश को शक्तिशाली बनाया। उसके महत्वपूर्ण स्थान के कारण ही गुप्त सम्राट् द्वितीय चंद्रगुप्त को (ई. स. ३८० के समीप) अपनी पुत्री का विवाह युवराज रुद्रसेन से करना पड़ा था। इस वैवाहिक संबंध के कारण गुप्त प्रभाव दक्षिण भारत में अत्यधिक हो गया। फलत: द्वितीय रुद्रसेन ने सिंहासनारूढ़ होने पर अपने श्वसुर का कठियावाड़ विजय के अभियान में साथ दिया था। द्वितीय रुद्रसेन की अकाल मृत्यु के कारण उसकी पत्नी प्रभावती गुप्ता अप्राप्तवयस्क पुत्रों की संरक्षिका के रूप में शासन करने लगी। वाकाटक शासन का शुभचिंतक बनकर द्वितीय चंद्रगुप्त ने सक्रिय सहयोग भी दिया। पाटलिपुत्र से सहकारी कर्मचारी नियुक्त किए गए। यही कारण था कि प्रभावती गुप्ता के पूनाताम्रपत्र में गुप्तवंशावली ही उल्लिखित हुई है। कालांतर में युवराज दामोदरसेन द्वितीय प्रवरसेन के नाम से सिंहासन पर बैठा, किंतु इस वंश के लेख यह बतलाते हैं कि प्रवरसेन से द्वितीय पृथ्वीषेण पर्यंत किसी प्रकार का रण अभियान न हो सका। पाँचवी सदी के अंत में राजसत्ता वेणीमशाखा (सर्वसेन के वंशज) के शासक हरिषेण के हाथ में गई, जिसे अजंता लेख में कुंतल, अवंति, लाट, कोशल, कलिंग तथा आंध्र देशों का विजेता कहा गया है (इंडियन कल्चर, भा. ७, पृ. ३७२) उसे उत्तराधिकारियों की निर्बलता के कारण वाकाटक वंश विनष्ट हो गया। अजन्ता गुफाओं में शैल को काटकर निर्मित बौद्ध बिहार एवं चैत्य वाकाटक साम्राज्य के वत्सगुल्म शाखा के राजाओं के संरक्षण में बने थे। अभिलेखों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि दक्षिण भारत में वाकाटक राज्य वैभवशाली, सबल तथा गौरवपूर्ण रहा है। सांस्कृतिक उत्थान में भी इस वंश ने हाथ बटाया था। प्राकृत काव्यों में "सेतुबंध" तथा "हरिविजय काव्य" क्रमश: प्रवरसेन द्वितीय और सर्वसेन की रचना माने जाते हैं। वैसे प्राकृत काव्य तथा सुभाषित को "वैदर्भी शैली" का नाम दिया गया है। वाकाटकनरेश वैदिक धर्म के अनुयायी थे, इसीलिए अनेक यज्ञों का विवरण लेखों में मिलता है। कला के क्षेत्र में भी इसका कार्य प्रशंसनीय रहा है। अजंता की चित्रकला को वाकाटक काल में अधिक प्रोत्साहन मिला, जो संसार में अद्वितीय भित्तिचित्र माना गया है। नाचना का मंदिर भी इसी युग में निर्मित हुआ और उसी वास्तुकला का अनुकरण कर उदयगिरि, देवगढ़ एवं अजंता में गुहानिर्माण हुआ था। समस्त विषयों के अनुशीलन से पता चलता है कि वाकाटक नरेशों ने राज्य की अपेक्षा सांस्कृतिक उत्थान में विशेष अनुराग प्रदर्शित किया। यही इस वश की विशेषता है। .

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विदिशा के दर्शनीय स्थल

विदिशा मध्यप्रदेश की ऐतिहासिक नगरी है। ऐतिहासिक नगरी होने के कारण विदिशा की प्राचीन इमारते और स्थापत्य दर्शनीय हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ प्राकृतिक स्थल और धार्मिक महत्व के स्थान भी देखने के योग्य हैं। विदिशा के निकटवर्ती छोटे छोटे नगर अपने में महत्वपूर्ण ऐतिहासिक धरोहर समेटे हुए हैं। अतः इतिहास में रुचि रखने वालों के लिए इनको देखना भी रुचिकर है। .

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विराम (चिन्ह)

विराम शब्द वि + रम् + घं से बना है और इसका मूल अर्थ है "ठहराव", "आराम" आदि के लिए। जिन सर्वसंमत चिन्हों द्वारा, अर्थ की स्पष्टता के लिए वाक्य को भिन्न भिन्न भागों में बाँटते हैं, व्याकरण या रचनाशास्त्र में उन्हें "विराम" कहते हैं। "विराम" का ठीक अंग्रेजी समानार्थी "स्टॉप" (Stop) है, किंतु प्रयोग में इस अर्थ में "पंक्चुएशन" (Punctuation) शब्द मिलता है। "पंक्चुएशन" का संबंध लैटिन शब्द (Punctum) शब्द से है, जिसका अर्थ "बिंदु" (Point) है। इस प्रकार "पंक्चुएशन" का यथार्थ अर्थ बिंदु रखना" या "वाक्य में बिंदु रखना" है। .

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विष्णु सीताराम सुकथंकर

विष्णु सीताराम सुकथंकर (1887-1943) संस्कृत के विद्वान एवं भाषावैज्ञानिक थे। .

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विक्रमादित्य ६

विक्रमादित्य षष्ठ (1076 – 1126 ई) पश्चिमी चालुक्य शासक था। वह अपने बड़े भाई सोमेश्वर द्वितीय को अपदस्थ कर गद्दी पर बैठा। चालुक्य-विक्रम संवत् उसके शासनारूढ़ होने पर आरम्भ किया गया। सभी चालुक्य राजाओं में वह सबसे अधिक महान, पराक्रमी था तथा उसका शासन काल सबसे लम्बा रहा। उसने 'परमादिदेव' और त्रिभुवनमल्ल' की उपाधि धारण की। वह कला और साहित्य का संरक्षक और संवर्धक था। उसके दरबार में कन्नड और संस्कृत के प्रसिद्ध कवि शोभा देते थे। उसके भाई कीर्तिवर्मा ने कन्नड में 'गोवैद्य' नामक पशुचिकित्सा ग्रन्थ लिखा। ब्रह्मशिव ने कन्नड में 'समयपरीक्षे' नामक ग्रन्थ लिखा और 'कविचक्रवर्ती' की उपाधि प्राप्त की। १२वीं शताब्दी के पूर्व किसी और ने कन्नड में उतने शिलालेख नहीं लिखवाये जितने विक्रमादित्य षष्ठ ने। संस्कृत के प्रसिद्ध कवि बिल्हण ने 'विक्रमांकदेवचरित' नाम से राजा का प्रशस्ति ग्रन्थ लिखा। विज्ञानेश्वर ने हिन्दू विधि से सम्बन्धित मिताक्षरा नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ लिखा। चन्दलादेवी नामक उसकी एक रानी (जिसे अभिनव सरस्वती कहते थे) अच्छी नृत्यांगना थी। अपने चरमोत्कर्ष के समय चन्द्रगुप्त षष्ठ का विशाल साम्राज्य दक्षिण भारत में कावेरी नदी से आरम्भ करके मध्य भारत में नर्मदा नदी तक विस्तृत था। श्रेणी:भारत के राजा श्रेणी:भारत का इतिहास.

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वृहद भारत

'''वृहद भारत''': केसरिया - भारतीय उपमहाद्वीप; हल्का केसरिया: वे क्षेत्र जहाँ हिन्दू धर्म फैला; पीला - वे क्षेत्र जिनमें बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ वृहद भारत (Greater India) से अभिप्राय भारत सहित उन अन्य देशों से है जिनमें ऐतिहासिक रूप से भारतीय संस्कृति का प्रभाव है। इसमें दक्षिणपूर्व एशिया के भारतीकृत राज्य मुख्य रूप से शामिल है जिनमें ५वीं से १५वीं सदी तक हिन्दू धर्म का प्रसार हुआ था। वृहद भारत में मध्य एशिया एवं चीन के वे वे भूभाग भी सम्मिलित किये जा सकते हैं जिनमे भारत में उद्भूत बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ था। इस प्रकार पश्चिम में वृहद भारत कीघा सीमा वृहद फारस की सीमा में हिन्दुकुश एवं पामीर पर्वतों तक जायेगी। भारत का सांस्कृतिक प्रभाव क्षेत्र .

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खयरवाल

खयरवाल बारहवीं शती ई. में बिहार के शाहाबाद वाले भू-भाग पर शासन करने वाला एक राजवंश। इस वंश का प्रथम नरेश साधव था। उसका पुत्र रणधवल और पौत्र प्रतापधवल हुआ। प्रताप धवल के अनेक अभिलेख प्राप्त होते हैं। ये लोग गहड़वाल नरेश के करद सामंत थे। प्रतापधवल का पुत्र साहस ओर पौत्र इंद्रधवल थे। इंद्रधवल ने ११९७ में शासन आरंभ किया और इस वंश का प्रतापी शासक रहा। उसके पश्चात इस वंश के संबंध में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। श्रेणी:भारत का इतिहास श्रेणी:भारत के शासक.

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खारवेल

खारवेल (193 ईसापूर्व) कलिंग (वर्तमान ओडिशा) में राज करने वाले महामेघवाहन वंश का तृतीय एवं सबसे महान तथा प्रख्यात सम्राट था। खारवेल के बारे में सबसे महत्वपूर्ण जानकारी हाथीगुम्फा में चट्टान पर खुदी हुई सत्रह पंक्तियों वाला प्रसिद्ध शिलालेख है। हाथीगुम्फा, भुवनेश्वर के निकट उदयगिरि पहाड़ियों में है। इस शिलालेख के अनुसार यह जैन धर्म का अनुयायी था। उसने पंडितों की एक विराट् सभा का भी आयोजन किया था, ऐसा उक्त प्रशस्ति से प्रकट होता है। इसके समय के संबंध में मतभेद है। उसकी प्रशस्ति शिलालेख में जो संकेत उपलब्ध हैं उनके आधार पर कुछ विद्वान् उसका समय ईसा पूर्व दूसरी शती में मानते हैं और कुछ उसे ईसा पूर्व की प्रथम शती में रखते हैं। किंतु खारवेल को ईसा पूर्व पहली शताब्दी के उत्तरार्ध में रखनेवाले विद्वानों की संख्या बढ़ रहीं है। .

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खजुराहो स्मारक समूह

खजुराहो स्मारक समूह जो कि एक हिन्दू और जैन धर्म के स्मारकों का एक समूह है जिसके स्मारक भारतीय राज्य मध्य प्रदेश के छतरपुर क्षेत्र में देखने को मिलते है। ये स्मारक दक्षिण-पूर्व झांसी से लगभग १७५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह स्मारक समूह यूनेस्को विश्व धरोहर में भारत का एक धरोहर क्षेत्र गिना जाता है। यहाँ के मन्दिर जो कि नगारा वास्तुकला से स्थापित किये गए जिसमें ज्यादातर मूर्तियाँ कामुक कला की है अर्थात् अधिकतर मूर्तियाँ नग्न अवस्था में स्थापित है। खहुराहो के ज्यादातर मन्दिर चन्देल राजवंश के समय ९५० और १०५० ईस्वी के मध्य बनाए गए थे। एक ऐतिहासिक रिकॉर्ड के अनुसार खजुराहो में कुल ८५ मन्दिर है जो कि १२वीं शताब्दी में स्थापित किये गए जो २० वर्ग किलोमीटर के घेराव में फैले हुए है। वर्तमान में इनमें से, केवल २५ मन्दिर ही बच हैं जो ६वर्ग किलोमीटर में फैले हुए हैं। UNESCO World Heritage Site विभिन्न जीवित मन्दिरों में से, कन्दारिया महादेव मंदिर जो प्राचीन भारतीय कला के जटिल विवरण, प्रतीकवाद और अभिव्यक्ति के साथ प्रचुरता से सजाया गया है।Devangana Desai (2005), Khajuraho, Oxford University Press, Sixth Print, ISBN 978-0-19-565643-5 खजुराहो स्मारक समूह के मन्दिरों को एक साथ बनाया गया था, लेकिन इस क्षेत्र में हिन्दू और जैन के बीच विभिन्न धार्मिक विचारों के लिए स्वीकृति और सम्मान की परंपरा का सुझाव देते हुए, दो धर्मों, हिन्दू धर्म और जैन धर्म को समर्पित किया गया था।James Fergusson, History of Indian and Eastern Architecture,  Updated by James Burgess and R. Phene Spiers (1910), Volume II, John Murray, London .

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खोह

खोह मध्य प्रदेश के सतना जिले के उंचेहरा तहसील में स्थित एक प्राचीन गाँव है। इस स्थान से गुप्तकालीन ताम्रपत्रों, दानपत्रों पर लिखे आठ से अधिक अभिलेख प्राप्त हुए हैं। इनमें महाराज जयनाथ और महाराज शर्वनाथ के दानपत्र उल्लेखनीय हैं। .

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गुर्जर प्रतिहार राजवंश

प्रतिहार वंश मध्यकाल के दौरान मध्य-उत्तर भारत के एक बड़े हिस्से में राज्य करने वाला राजवंश था, जिसकी स्थापना नागभट्ट नामक एक सामन्त ने ७२५ ई॰ में की थी। इस राजवंश के लोग स्वयं को राम के अनुज लक्ष्मण के वंशज मानते थे, जिसने अपने भाई राम को एक विशेष अवसर पर प्रतिहार की भाँति सेवा की। इस राजवंश की उत्पत्ति, प्राचीन कालीन ग्वालियर प्रशस्ति अभिलेख से ज्ञात होती है। अपने स्वर्णकाल में साम्राज्य पश्चिम में सतुलज नदी से उत्तर में हिमालय की तराई और पुर्व में बगांल असम से दक्षिण में सौराष्ट्र और नर्मदा नदी तक फैला हुआ था। सम्राट मिहिर भोज, इस राजवंश का सबसे प्रतापी और महान राजा थे। अरब लेखकों ने मिहिरभोज के काल को सम्पन्न काल बताते हैं। इतिहासकारों का मानना है कि गुर्जर प्रतिहार राजवंश ने भारत को अरब हमलों से लगभग ३०० वर्षों तक बचाये रखा था, इसलिए गुर्जर प्रतिहार (रक्षक) नाम पड़ा। गुर्जर प्रतिहारों ने उत्तर भारत में जो साम्राज्य बनाया, वह विस्तार में हर्षवर्धन के साम्राज्य से भी बड़ा और अधिक संगठित था। देश के राजनैतिक एकीकरण करके, शांति, समृद्धि और संस्कृति, साहित्य और कला आदि में वृद्धि तथा प्रगति का वातावरण तैयार करने का श्रेय प्रतिहारों को ही जाता हैं। गुर्जर प्रतिहारकालीन मंदिरो की विशेषता और मूर्तियों की कारीगरी से उस समय की प्रतिहार शैली की संपन्नता का बोध होता है। .

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ग्वालियर प्रशस्ति

मिहिरकुल की ग्वालियर प्रशस्ति एक शिलालेख है जिस पर संस्कृत में मातृछेत द्वारा सूर्य मन्दिर के निर्माण का उल्लेख है। अलेक्जैण्डर कनिंघम ने १८६१ में इसे देखा था और इसके बारे में उसी वर्ष प्रकाशित किया। उसके बाद इस शिलालेख के अनेकों अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं। यह क्षतिग्रत अवस्था में विद्यमान है। इसकी लिपि प्राचीन उत्तरी गुप्त लिपि है और श्लोक के रूप में लिखा गया है। इस शिलालेख में हूण राजा मिहिरकुल के शासनकाल में, ६ठी शताब्दी के प्रथम भाग में सूर्य मन्दिर के निर्माण का उल्लेख है।.

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गीतगोविन्द

गीतगोविन्द की पाण्डुलिपि (१५५० ई) गीतगोविन्द (ଗୀତ ଗୋବିନ୍ଦ) जयदेव की काव्य रचना है। गीतगोविन्द में श्रीकृष्ण की गोपिकाओं के साथ रासलीला, राधाविषाद वर्णन, कृष्ण के लिए व्याकुलता, उपालम्भ वचन, कृष्ण की राधा के लिए उत्कंठा, राधा की सखी द्वारा राधा के विरह संताप का वर्णन है। जयदेव का जन्म ओडिशा में भुवनेश्वर के पास केन्दुबिल्व नामक ग्राम में हुआ था। वे बंगाल के सेनवंश के अन्तिम नरेश लक्ष्मणसेन के आश्रित महाकवि थे। लक्ष्मणसेन के एक शिलालेख पर १११६ ई० की तिथि है अतः जयदेव ने इसी समय में गीतगोविन्द की रचना की होगी। ‘श्री गीतगोविन्द’ साहित्य जगत में एक अनुपम कृति है। इसकी मनोरम रचना शैली, भावप्रवणता, सुमधुर राग-रागिणी, धार्मिक तात्पर्यता तथा सुमधुर कोमल-कान्त-पदावली साहित्यिक रस पिपासुओं को अपूर्व आनन्द प्रदान करती हैं। अतः डॉ॰ ए॰ बी॰ कीथ ने अपने ‘संस्कृत साहित्य के इतिहास’ में इसे ‘अप्रतिम काव्य’ माना है। सन् 1784 में विलियम जोन्स द्वारा लिखित (1799 में प्रकाशित) ‘ऑन द म्यूजिकल मोड्स ऑफ द हिन्दूज’ (एसियाटिक रिसर्चेज, खंड-3) पुस्तक में गीतगोविन्द को 'पास्टोरल ड्रामा' अर्थात् ‘गोपनाट्य’ के रूप में माना गया है। उसके बाद सन् 1837 में फ्रेंच विद्वान् एडविन आरनोल्ड तार्सन ने इसे ‘लिरिकल ड्रामा’ या ‘गीतिनाट्य’ कहा है। वान श्रोडर ने ‘यात्रा प्रबन्ध’ तथा पिशाल लेवी ने ‘मेलो ड्रामा’, इन्साइक्लोपिडिया ब्रिटानिका (खण्ड-5) में गीतगोविन्द को ‘धर्मनाटक’ कहा गया है। इसी तरह अनेक विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से इसके सम्बन्ध में विचार व्यक्त किया है। जर्मन कवि गेटे महोदय ने अभिज्ञानशाकुन्तलम् और मेघदूतम् के समान ही गीतगोविन्द की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। गीतगोविन्द काव्य में जयदेव ने जगदीश का ही जगन्नाथ, दशावतारी, हरि, मुरारी, मधुरिपु, केशव, माधव, कृष्ण इत्यादि नामों से उल्लेख किया है। यह 24 प्रबन्ध (12 सर्ग) तथा 72 श्लोकों (सर्वांगसुन्दरी टीका में 77 श्लोक) युक्त परिपूर्ण ग्रन्थ है जिसमें राधा-कृष्ण के मिलन-विरह तथा पुनर्मिलन को कोमल तथा लालित्यपूर्ण पदों द्वारा बाँधा गया है। किन्तु नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित ‘हस्तलिखित संस्कृत ग्रन्थ सूची, भाग-इ’ में गीतगोविन्द का 13वाँ सर्ग भी उपलब्ध है। परन्तु यह मातृका अर्वाचीन प्रतीत होती है। गीतगोविन्द वैष्णव सम्प्रदाय में अत्यधिक आदृत है। अतः 13वीं शताब्दी के मध्य से ही श्री जगन्नाथ मन्दिर में इसे नित्य सेवा के रूप में अंगीकार किया जाता रहा है। इस गीतिकाव्य के प्रत्येक प्रबन्ध में कवि ने काव्यफल स्वरूप सुखद, यशस्वी, पुण्यरूप, मोक्षद आदि शब्दों का प्रयोग करके इसके धार्मिक तथा दार्शनिक काव्य होने का भी परिचय दिया है। शृंगार रस वर्णन में जयदेव कालिदास की परम्परा में आते हैं। गीतगोविन्द का रास वर्णन श्रीमद्भागवत के वर्णन से साम्य रखता है; तथा श्रीमद्भागवत के स्कन्ध 10, अध्याय 40 में (10-40-17/22) अक्रूर स्तुति में जो दशावतार का वर्णन है, गीतगोविन्द के प्रथम सर्ग के स्तुति वर्णन से साम्य रखता है। आगे चलकर गीतगोविन्द के अनेक ‘अनुकृति’ काव्य रचे गये। अतः जयदेव ने स्वयं १२वें सर्ग में लिखा है - कुम्भकर्ण प्रणीत ‘रसिकप्रिया’ टीका आदि में इसकी पुष्टि की गयी है। .

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ओड़िशा का इतिहास

प्राचीन काल से मध्यकाल तक ओडिशा राज्य को कलिंग, उत्कल, उत्करात, ओड्र, ओद्र, ओड्रदेश, ओड, ओड्रराष्ट्र, त्रिकलिंग, दक्षिण कोशल, कंगोद, तोषाली, छेदि तथा मत्स आदि नामों से जाना जाता था। परन्तु इनमें से कोई भी नाम सम्पूर्ण ओडिशा को इंगित नहीं करता था। अपितु यह नाम समय-समय पर ओडिशा राज्य के कुछ भाग को ही प्रस्तुत करते थे। वर्तमान नाम ओडिशा से पूर्व इस राज्य को मध्यकाल से 'उड़ीसा' नाम से जाना जाता था, जिसे अधिकारिक रूप से 04 नवम्बर, 2011 को 'ओडिशा' नाम में परिवर्तित कर दिया गया। ओडिशा नाम की उत्पत्ति संस्कृत के शब्द 'ओड्र' से हुई है। इस राज्य की स्थापना भागीरथ वंश के राजा ओड ने की थी, जिन्होने अपने नाम के आधार पर नवीन ओड-वंश व ओड्र राज्य की स्थापना की। समय विचरण के साथ तीसरी सदी ई०पू० से ओड्र राज्य पर महामेघवाहन वंश, माठर वंश, नल वंश, विग्रह एवं मुदगल वंश, शैलोदभव वंश, भौमकर वंश, नंदोद्भव वंश, सोम वंश, गंग वंश व सूर्य वंश आदि सल्तनतों का आधिपत्य भी रहा। प्राचीन काल में ओडिशा राज्य का वृहद भाग कलिंग नाम से जाना जाता था। सम्राट अशोक ने 261 ई०पू० कलिंग पर चढ़ाई कर विजय प्राप्त की। कर्मकाण्ड से क्षुब्द हो सम्राट अशोक ने युद्ध त्यागकर बौद्ध मत को अपनाया व उनका प्रचार व प्रसार किया। बौद्ध धर्म के साथ ही सम्राट अशोक ने विभिन्न स्थानों पर शिलालेख गुदवाये तथा धौली व जगौदा गुफाओं (ओडिशा) में धार्मिक सिद्धान्तों से सम्बन्धित लेखों को गुदवाया। सम्राट अशोक, कला के माध्यम से बौद्ध धर्म का प्रचार करना चाहते थे इसलिए सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म को और अधिक विकसित करने हेतु ललितगिरि, उदयगिरि, रत्नागिरि व लगुन्डी (ओडिशा) में बोधिसत्व व अवलोकेतेश्वर की मूर्तियाँ बहुतायत में बनवायीं। 232 ई०पू० सम्राट अशोक की मृत्यु के पश्चात् कुछ समय तक मौर्य साम्राज्य स्थापित रहा परन्तु 185 ई०पू० से कलिंग पर चेदि वंश का आधिपत्य हो गया था। चेदि वंश के तृतीय शासक राजा खारवेल 49 ई० में राजगद्दी पर बैठा तथा अपने शासन काल में जैन धर्म को विभिन्न माध्यमों से विस्तृत किया, जिसमें से एक ओडिशा की उदयगिरि व खण्डगिरि गुफाऐं भी हैं। इसमें जैन धर्म से सम्बन्धित मूर्तियाँ व शिलालेख प्राप्त हुए हैं। चेदि वंश के पश्चात् ओडिशा (कलिंग) पर सातवाहन राजाओं ने राज्य किया। 498 ई० में माठर वंश ने कलिंग पर अपना राज्य कर लिया था। माठर वंश के बाद 500 ई० में नल वंश का शासन आरम्भ हो गया। नल वंश के दौरान भगवान विष्णु को अधिक पूजा जाता था इसलिए नल वंश के राजा व विष्णुपूजक स्कन्दवर्मन ने ओडिशा में पोडागोड़ा स्थान पर विष्णुविहार का निर्माण करवाया। नल वंश के बाद विग्रह एवं मुदगल वंश, शैलोद्भव वंश और भौमकर वंश ने कलिंग पर राज्य किया। भौमकर वंश के सम्राट शिवाकर देव द्वितीय की रानी मोहिनी देवी ने भुवनेश्वर में मोहिनी मन्दिर का निर्माण करवाया। वहीं शिवाकर देव द्वितीय के भाई शान्तिकर प्रथम के शासन काल में उदयगिरी-खण्डगिरी पहाड़ियों पर स्थित गणेश गुफा (उदयगिरी) को पुनः निर्मित कराया गया तथा साथ ही धौलिगिरी पहाड़ियों पर अर्द्यकवर्ती मठ (बौद्ध मठ) को निर्मित करवाया। यही नहीं, राजा शान्तिकर प्रथम की रानी हीरा महादेवी द्वारा 8वीं ई० हीरापुर नामक स्थान पर चौंसठ योगनियों का मन्दिर निर्मित करवाया गया। 6वीं-7वीं शती कलिंग राज्य में स्थापत्य कला के लिए उत्कृष्ट मानी गयी। चूँकि इस सदी के दौरान राजाओं ने समय-समय पर स्वर्णाजलेश्वर, रामेश्वर, लक्ष्मणेश्वर, भरतेश्वर व शत्रुघनेश्वर मन्दिरों (6वीं सदी) व परशुरामेश्वर (7वीं सदी) में निर्माण करवाया। मध्यकाल के प्रारम्भ होने से कलिंग पर सोमवंशी राजा महाशिव गुप्त ययाति द्वितीय सन् 931 ई० में गद्दी पर बैठा तथा कलिंग के इतिहास को गौरवमयी बनाने हेतु ओडिशा में भगवान जगन्नाथ के मुक्तेश्वर, सिद्धेश्वर, वरूणेश्वर, केदारेश्वर, वेताल, सिसरेश्वर, मारकण्डेश्वर, बराही व खिच्चाकेश्वरी आदि मन्दिरों सहित कुल 38 मन्दिरों का निर्माण करवाया। 15वीं शती के अन्त तक जो गंग वंश हल्का पड़ने लगा था उसने सन् 1038 ई० में सोमवंशीयों को हराकर पुनः कलिंग पर वर्चस्व स्थापित कर लिया तथा 11वीं शती में लिंगराज मन्दिर, राजारानी मन्दिर, ब्रह्मेश्वर, लोकनाथ व गुन्डिचा सहित कई छोटे व बड़े मन्दिरों का निर्माण करवाया। गंग वंश ने तीन शताब्दियों तक कलिंग पर अपना राज्य किया तथा राजकाल के दौरान 12वीं-13वीं शती में भास्करेश्वर, मेघेश्वर, यमेश्वर, कोटी तीर्थेश्वर, सारी देउल, अनन्त वासुदेव, चित्रकर्णी, निआली माधव, सोभनेश्वर, दक्क्षा-प्रजापति, सोमनाथ, जगन्नाथ, सूर्य (काष्ठ मन्दिर) बिराजा आदि मन्दिरों को निर्मित करवाया जो कि वास्तव में कलिंग के स्थापत्य इतिहास में अहम भूमिका का निर्वाह करते हैं। गंग वंश के शासन काल पश्चात् 1361 ई० में तुगलक सुल्तान फिरोजशाह तुगलक ने कलिंग पर राज्य किया। यह वह दौर था जब कलिंग में कला का वर्चस्व कम होते-होते लगभग समाप्त ही हो चुका था। चूँकि तुगलक शासक कला-विरोधी रहे इसलिए किसी भी प्रकार के मन्दिर या मठ का निर्माण नहीं हुअा। 18वीं शती के आधुनिक काल में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का सम्पूर्ण भारत पर अधिकार हो गया था परन्तु 20वीं शती के मध्य में अंग्रेजों के निगमन से भारत देश स्वतन्त्र हुआ। जिसके फलस्वरूप सम्पूर्ण भारत कई राज्यों में विभक्त हो गया, जिसमें से भारत के पूर्व में स्थित ओडिशा (पूर्व कलिंग) भी एक राज्य बना। .

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ओड़िसी

ओड़िसी ओडिशाप्रांत भारत की एक शास्त्रीय नृत्य शैली है। अद्यतन काल में गुरु केलुचरण महापात्र ने इसका पुनर्विस्तार किया। ओड़िसी नृत्‍य करते हुए एक नृत्य मंडली ओडिसी नृत्य को पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर सबसे पुराने जीवित नृत्य रूपों में से एक माना जाता है। इसका जन्म मन्दिर में नृत्य करने वाली देवदासियों के नृत्य से हुआ था। ओडिसी नृत्य का उल्लेख शिलालेखों में मिलता है। इसे ब्रह्मेश्वर मन्दिर के शिलालेखों में दर्शाया गया है। .

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आम्रकार्दव

आम्रकार्दव चंद्रगुप्त (द्वितीय) विक्रमादित्य (ल. ३७५-४१४ ई.) का सेनापति। वह बौद्ध था और साँची के एक अभिलेख से प्रमाणित होता है कि उसने २५ दीनार और एक गाँव वहाँ के आर्यसंघ (बौद्धसंघ) को दान में अर्पित किए थे। आम्रकार्दव का नाम विशेषत: गुप्तों की धार्मिक सहिष्णुता के प्रमाण में उदधृत किया जाता है। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य परम भागवत, परम वैष्णव थे, परंतु सेनापति के पद इस बौद्ध को नियुक्त करने में उन्हें आपत्ति नहीं हुई। श्रेणी:भारत का इतिहास.

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आरमेइक लिपि

सम्राट अशोक द्वारा ईसापूर्व तीसरी शताब्दी में कन्दहार (अफगानिस्तान) में ग्रीक तथा आरमेइक लिपि में लिखवाया गया शिलालेख आरमेइक लिपि (Aramaic Script) संसार की प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण लिपि है। इसका विकास प्राचीन सामी लिपि की उत्तरी शाखा से हुआ है, जिस शाखा से फोनिशियन लिपि का भी विकास हुआ था। आरमेइक लिपि का प्रयोग सीरिया, फिलस्तीन, मिस्र, अरबिस्तान आदि स्थानों पर होता था। आरमेइक भाषा इसी आरमेइक लिपि में लिखी जाती थी। आरमेइक के प्राचीनतम अभिलेख ज़र्जीन एवं ज़ेनज़ीरली में प्राप्त कलमू अथवा मिलामूवा के अभिलेख हैं जो ई.पू.

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आजीविक

(बायें) महाकाश्यप एक आजिविक से मिल रहे हैं और परिनिर्वाण के बारे में ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं। आजीविक या ‘आजीवक’, दुनिया की प्राचीन दर्शन परंपरा में भारतीय जमीन पर विकसित हुआ पहला नास्तिकवादी और भौतिकवादी सम्प्रदाय था। भारतीय दर्शन और इतिहास के अध्येताओं के अनुसार आजीवक संप्रदाय की स्थापना मक्खलि गोसाल (गोशालक) ने की थी। ईसापूर्व 5वीं सदी में 24वें जैन तीर्थंकर महावीर और महात्मा बुद्ध के उभार के पहले यह भारतीय भू-भाग पर प्रचलित सबसे प्रभावशाली दर्शन था। विद्वानों ने आजीवक संप्रदाय के दर्शन को ‘नियतिवाद’ के रूप में चिन्हित किया है। ऐसा माना जाता है कि आजीविक श्रमण नग्न रहते और परिव्राजकों की तरह घूमते थे। ईश्वर, पुनर्जन्म और कर्म यानी कर्मकांड में उनका विश्वास नहीं था। आजीवक संप्रदाय का तत्कालीन जनमानस और राज्यसत्ता पर कितना प्रभाव था, इसका अंदाजा इसी बात से लगता है कि अशोक और उसके पोते दशरथ ने बिहार के जहानाबाद (पुराना गया जिला) दशरथ ने स्थित बराबर की पहाड़ियों में सात गुफाओं का निर्माण कर उन्हें आजीवकों को समर्पित किया था। तीसरी शताब्दी ईसापूर्व में किसी भारतीय राजा द्वारा धर्मविशेष के लिए निर्मित किए गए ऐसे किसी दृष्टांत का विवरण इतिहास में नहीं मिलता। .

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इंदल देव मंदिर

इंदल देव मंदिरभारत के छत्तीसगढ़ प्रांत में स्थित खरौद नगर के मध्य माझापारा में प्राचीन गढ़ से लगा अत्यंत प्राचीन ईंट से बना पश्चिमाभिमुख मूर्ति विहीन लेकिन मूर्तिकला से सुसज्जित इंदलदेव का मंदिर है। इंदल शब्द इंद्र का अपभ्रंश हैं अत: इसे इंद्रदेव कहना अधिक उपयुक्त है। इंद्रदेव शब्द का उल्लेख एक राजा के रूप में लक्ष्मणेश्वर मंदिर के सभा मंडप के दक्षिण दीवार पर लगे शिलालेख में मिलता है। इस मंदिर कर पश्चिमाभिमुख होना आश्चर्य की बात है। ३ कि.

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कन्नड़ भाषा

कन्नड़ (ಕನ್ನಡ) भारत के कर्नाटक राज्य में बोली जानेवाली भाषा तथा कर्नाटक की राजभाषा है। यह भारत की उन २२ भाषाओं में से एक है जो भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में साम्मिलित हैं। name.

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कलिंग युद्ध

दया नदी का तट, जहाँ सम्भवतः कलिंग युद्ध हुआ था। अशोक के तेरहवें अभिलेख के अनुसार उसने अपने राज्याभिषेक के आठ वर्ष बाद कलिंग युद्ध लड़ा। कलिंग विजय उसकी आखिरी विजय थी। यह युद्ध २६२-२६१ ईपू मे लड़ा गया। .

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काच (राजा)

काच सम्भवतः कोई गुप्त वंध का शासक था जिसका नाम भारत में प्राप्त कुछ स्वर्णमुद्रओं पर खुदा मिलता है। इन मुद्राओं पर सामने बाएँ हाथ में चक्रध्वज लिए खड़े राजा की आकृति मिलती है। उसके बाएँ हाथ के नीचे गुप्तकालीन ब्राह्मी लिपि में राजा का नाम 'काच' लिखा रहता है। मुद्रा पर वर्तुलाकार ब्राह्मी लेख 'काचो गामवजित्य दिवं कर्मभिरुत्तमै: जयति' मिलता है, जिसका अर्थ है 'पृथ्वी को जीतकर काच पुण्यकर्मों द्वारा स्वर्ग की विजय करता है।' सिक्के के पीछे लक्ष्मी की आकृति तथा 'सर्व्वराजोच्छेत्ता' (सब राजाओं को नष्ट करनेवाला) ब्राह्मी लेख रहता है। .

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कालसी

कालसी यमुना और उसकी सहायक टोंस के संगम पर स्थित है। यह देहरादून से लगभग 56 किलोमीटर दूर है। कालसी में दून घाटी के कुछ बेहद लुभावने दृश्य हैं। यह जगह बाहर घूमने फिरने और दोस्तों तथा परिवार के साथ पिकनिक मनाने के लिए आदर्श है। यहां पक्षियों के बीच गाड़ी चलाने और शांत परिवेश में घूमना अपने आप में एक अनोखा अनुभव है। कालसी सम्राट अशोक के गौरव का भी गवाह है। तीसरी सदी ईसा पूर्व यह शक्तिशाली मौर्य साम्राज्य के प्रभाव के तहत सबसे दूर की जगह थी। यह जगह अशोक के पत्थर के शिलालेख के लिए भी प्रसिद्ध है। श्रेणी:देहरादून जिला.

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काशीनाथ नारायण दीक्षित

काशीनाथ नारायण दीक्षित (२१ अक्टूबर १८८९ - १३ अगस्त १९४६) भारतीय पुरातत्व के विद्वान थे। आपने मोहन जोदड़ो तथा पहाड़पुर के पुराताविक उत्खनन कार्य का निर्देशन किया। वे पुरातत्व के तीनों अंगों - लिपि, अभिलेख तथा मुद्राशास्त्र के विशेषज्ञ थे। आपने भारतीय संग्रहालयों का अखिल भारतीय संघ स्थापित कराया। .

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किलकिल

किलकिल 1.

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कुन्दकुन्द

कुंदकुंदाचार्य की प्रतिमा जी (कर्नाटक) कुंदकुंदाचार्य दिगंबर जैन संप्रदाय के सबसे प्रसिद्ध आचार्य थे। इनका एक अन्य नाम 'कौंडकुंद' भी था। इनके नाम के साथ दक्षिण भारत का कोंडकुंदपुर नामक नगर भी जुड़ा हुआ है। प्रोफेसर ए॰ एन॰ उपाध्ये के अनुसार इनका समय पहली शताब्दी ई॰ है परंतु इनके काल के बारे में निश्चयात्मक रूप से कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। श्रवणबेलगोला के शिलालेख संख्या ४० के अनुसार इनका दीक्षाकालीन नाम 'पद्मनंदी' था और सीमंधर स्वामी से उन्हें दिव्यज्ञान प्राप्त हुआ था। आचार्य कुन्दकुन्द ने ११ वर्ष की उम्र में दिगम्बर मुनि दीक्षा धारण की थी। इनके दीक्षा गुरू का नाम जिनचंद्र था। ये जैन धर्म के प्रकाण्ड विद्वान थे। इनके द्वारा रचित समयसार, नियमसार, प्रवचन, अष्टपाहुड, और पंचास्तिकाय - पंच परमागम ग्रंथ हैं। ये विदेह क्षेत्र भी गए। वहाँ पर इन्होने सीमंधर नाथ की साक्षात दिव्यध्वनि को सुना। वे ५२ वर्षों तक जैन धर्म के संरक्षक एवं आचार्य रहे। वे जैन साधुओं की मूल संघ क्रम में आते हैं। वे प्राचीन ग्रंथों में इन नामों से भी जाने जातें हैं- गौतम गणधर के बाद आचार्य कुन्दकुन्द को संपूर्ण जैन शास्त्रों का एक मात्र ज्ञाता माना गया है। दिगम्बरों के लिए इनके नाम का शुभ महत्त्व है और भगवान महावीर और गौतम गणधर के बाद पवित्र स्तुति में तीसरा स्थान है- आचार्य कुन्दकुन्द तत्त्वार्थसूत्र के रचियता आचार्य उमास्वामी के गुरु थे। .

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कुलधरा

कुलधरा या कुलधर (Kuldhara or Kuldhar) भारतीय राज्य राजस्थान के जैसलमेर ज़िले में स्थित है एक शापित और रहस्यमयी गाँव है जिसे भूतों का गाँव (Haunted Village) भी कहा जाता है। इस गाँव का निर्माण लगभग १३वीं शताब्दी में पालीवाल ब्राह्मणों ने किया था। लेकिन यह १९वीं शताब्दी में घटती पानी की आपूर्ति के कारण पूरा गाँव नष्ट हो गया,लेकिन कुछ किवदंतियों के अनुसार इस गाँव का विनाश जैसलमेर के राज्य मंत्री सलीम सिंह के कारण हुआ था। सलीम सिंह जो जैसलमेर के एक मंत्री हुआ करते थे वो गाँव पर काफी शख्ती से पेश आता था इस कारण सभी ग्रामवासी लोग परेशान होकर रातोंरात गाँव छोड़कर चले गए साथ ही श्राप भी देकर चले गए इस कारण यह शापित गाँव भी कहलाता है। यह गाँव अभी भी भूतिया गाँव कहलाता है लेकिन अभी राजस्थान सरकार ने इसे पर्यटन स्थल का दर्जा दे दिया है,इस कारण अब यहां रोजाना हज़ारों की संख्या में देश एवं विदेश से पर्यटक आते रहते है। .

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अब्द

अब्द का अर्थ वर्ष है। यह वर्ष, संवत्‌ एवं सन्‌ के अर्थ में आजकल प्रचलित है क्योंकि हिंदी में इस शब्द का प्रयोग सापेक्षिक दृष्टि से कम हो गया है। शताब्दी, सहस्राब्दी, ख्रिष्टाब्द आदि शब्द इसी से बने हैं। अनेक वीरों, महापुरुषों, संप्रदायों एवं घटनाओं के जीवन और इतिहास के आरंभ की स्मृति में अनेक अब्द या संवत्‌ या सन्‌ संसार में चलाए गए हैं, यथा, १. सप्तर्षि संवत् - सप्तर्षि (सात तारों) की कल्पित गति के साथ इसका संबंध माना गया है। इसे लौकिक, शास्त्र, पहाड़ी या कच्चा संवत्‌ भी कहते हैं। इसमें २४ वर्ष जोड़ने से सप्तर्षि-संवत्‌-चक्र का वर्तमान वर्ष आता है। २. कलियुग संवत् - इसे 'महाभारत सम्वत' या 'युधिष्ठिर संवत्‌' कहते हैं। ज्योतिष ग्रंथों में इसका उपयोग होता है। शिलालेखों में भी इसका उपयोग हुआ है। ई.॰ईपू॰ ३१०२ से इसका आरंभ होता है। वि॰सं॰ में ३०४४ एवं श.सं.

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अशोक चक्र (प्रतीक)

अशोक चक्र, जो भारत के राष्ट्र-ध्वज तिरंगा में स्थित है। सम्राट अशोक के बहुत से शिलालेखों पर प्रायः एक चक्र (पहिया) बना हुआ है। इसे अशोक चक्र कहते हैं। यह चक्र धर्मचक्र का प्रतीक है। उदाहरण के लिये सारनाथ स्थित सिंह-चतुर्मुख (लॉयन कपिटल) एवं अशोक स्तम्भ पर अशोक चक्र विद्यमान है। भारत के राष्ट्रीय ध्वज में अशोक चक्र को स्थान दिया गया है। अशोक चक्र में चौबीस तीलियाँ (स्पोक्स्) हैं वे मनुष्य के अविद्या से दु:ख बारह तीलियां और दु:ख से निर्वाण बारह तीलियां (बुद्धत्व अर्थात अरहंत) की अवस्थाओं का प्रतिक है। .

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अहीर

अहीर प्रमुखतः एक भारतीय जाति समूह है,जिसके सदस्यों को यादव समुदाय के नाम से भी पहचाना जाता है तथा अहीर व यादव या राव साहब Rajasthan, Anthropological Survey of India, 1998, आईएसबीएन-9788171547661, पृष्ठ-44,45 शब्दों को एक दूसरे का पर्यायवाची समझा जाता है। अहीरों को एक जाति, वर्ण, आदिम जाति या नस्ल के रूप मे वर्णित किया जाता है, जिन्होने भारत व नेपाल के कई हिस्सों पर राज किया है। .

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