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बुंदेलखंड के शासक

सूची बुंदेलखंड के शासक

' बुंदेलखंड के ज्ञात इतिहास के अनुसार यहां ३०० ई. प सौरभ तिवारी ब्राह्मण सासक मौर्य शासनकाल के साक्ष्‍य उपलब्‍ध है। इसके पश्‍चात वाकाटक और गुप्‍त शासनकाल, कलचुरी शासनकाल, चंदेल शासनकाल, खंगार1खंगार शासनकाल, बुंदेल शासनकाल (जिनमें ओरछा के बुंदेल भी शामिल थे), मराठा शासनकाल और अंग्रेजों के शासनकाल का उल्‍लेख मिलता है। .

42 संबंधों: चन्देल, चित्रकला, चेदि, ऐरण, डॉ॰ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, दमोह ज़िला, नरसिंहपुर, पुलिंद, पृथ्वीराज, बुन्देलखण्ड, बुंदेल, मत्स्य पुराण, मराठा, महाराजा छत्रसाल, महाजनपद, महोबा, मौर्य राजवंश, मूर्ति, शाह जहाँ, सागर, हर्षचरितम्, हर्षवर्धन, ह्वेन त्सांग, होशंगाबाद, जबलपुर, जहाँगीर, वास्तुकला, वाकाटक, विदिशा, विष्णु पुराण, खजुराहो, गढ़कुंडार, गुप्त राजवंश, ग्वालियर, ओरछा, इतिहास, कलचुरी, कला, कलिंजर, अजयगढ़, अकबर, उज्जयिनी

चन्देल

खजुराहो का कंदरीय महादेव मंदिर चन्देल वंश मध्यकालीन भारत का प्रसिद्ध राजवंश, जिसने 08वीं से 12वीं शताब्दी तक स्वतंत्र रूप से यमुना और नर्मदा के बीच, बुंदेलखंड तथा उत्तर प्रदेश के दक्षिणी-पश्चिमी भाग पर राज किया। चंदेल वंश के शासकों का बुंदेलखंड के इतिहास में विशेष योगदान रहा है। उन्‍होंने लगभग चार शताब्दियों तक बुंदेलखंड पर शासन किया। चन्देल शासक न केवल महान विजेता तथा सफल शासक थे, अपितु कला के प्रसार तथा संरक्षण में भी उनका महत्‍वपूर्ण योगदान रहा। चंदेलों का शासनकाल आमतौर पर बुंदेलखंड के शांति और समृद्धि के काल के रूप में याद किया जाता है। चंदेलकालीन स्‍थापत्‍य कला ने समूचे विश्‍व को प्रभावित किया उस दौरान वास्तुकला तथा मूर्तिकला अपने उत्‍कर्ष पर थी। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं खजुराहो के मंदिर। .

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चित्रकला

राजा रवि वर्मा कृत 'संगीकार दीर्घा' (गैलेक्सी ऑफ म्यूजिसियन्स) चित्रकला एक द्विविमीय (two-dimensional) कला है। भारत में चित्रकला का एक प्राचीन स्रोत विष्णुधर्मोत्तर पुराण है। .

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चेदि

'चेदि' का निम्नलिखित अर्थों में प्रयोग होता है-.

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ऐरण

एरण स्थित वराह की विशालकाय प्रतिमा एरण का विष्णु मंदिर मण्डप एरण नामक ऐतिहासिक स्थान मध्य प्रदेश के सागर जिले में स्थित है। प्राचीन सिक्कों पर इसका नाम ऐरिकिण लिखा है। एरण में वाराह, विष्णु तथा नरसिंह मन्दिर स्थित हैं। एरण, सागर से करीब 90 किमी दूर स्थित है। यहां पहुंचने के लिए सड़क मार्ग के अलावा ट्रेन का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। सागर-दिल्ली रेलमार्ग के एक महत्वपूर्ण जंक्शन बीना से इसकी दूरी करीब 25 किमी है। बीना और रेवता नदी के संगम पर स्थित एरण का नाम यहां अत्यधिक मात्रा में उगने वाली प्रदाह प्रशामक तथा मंदक गुणधर्म वाली 'एराका' नामक घास के कारण रखा गया है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि एरण के सिक्कों पर नाग का चित्र है, अत: इस स्थान का नामकरण एराका अर्थात नाग से हुआ है। .

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डॉ॰ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय

डॉ॰ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय भारत के मध्य प्रदेश के सागर जिले में स्थित एक सार्वजनिक विश्वविद्यालय है। इसको सागर विश्वविद्यालय के नाम से भी जाना जाता है। इसकी स्थापना डॉ॰ हरिसिंह गौर ने १८ जुलाई १९४६ को अपनी निजी पूंजी से की थी। अपनी स्थापना के समय यह भारत का १८वाँ विश्वविद्यालय था। किसी एक व्यक्ति के दान से स्थापित होने वाला यह देश का एकमात्र विश्वविद्यालय है। वर्ष १९८३ में इसका नाम डॉ॰ हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय कर दिया गया। २७ मार्च २००८ से इसे केन्द्रीय विश्वविद्यालय की श्रेणी प्रदान की गई है। .

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दमोह ज़िला

दमोह भारतीय राज्य मध्य प्रदेश का एक जिला है।जिले का मुख्यालय दमोह है।इसका क्षेत्रफल 7306 वर्ग कि.मी.

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नरसिंहपुर

नरसिंह पुर मध्य प्रदेश के केन्द्र में स्थित एक शहर है।यह नरसिंहपुर जिला मुख्यालय भी है। मध्य प्रदेश के मध्य में स्थित नरसिंहपुर 5000 वर्ग किमी.

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पुलिंद

भारतीय उपमहाद्वीप में रामायण-महाभारत से सम्बंधित स्थल: पुलिंदों के इलाक़े की तरफ़ ध्यान दें जो विंध्य पर्वत क्षेत्र के पास (नक़्शे के बीच में) स्थित है पुलिंद भारतीय उपमहाद्वीप के मध्य भाग में स्थित विंध्य पर्वतों के क्षेत्र में बसने वाले एक प्राचीन क़बीले और जनजाति का नाम था। सन् २६९ ईसापूर्व से २३१ ईसापूर्व तक सम्राट अशोक द्वारा शिलाओं पर तराशे गए आदेशों में पुलिंदों का, उनकी पुलिंदनगर नामक राजधानी का और उनके पड़ोसी क़बीलों का ज़िक्र मिला है। इस से इतिहासकार यह अंदाज़ा लगते हैं कि संभवतः उनकी राजधानी भारत के आधुनिक मध्य प्रदेश राज्य के जबलपुर ज़िले के क्षेत्र में रही होगी। कुछ विद्वानों का समझना है कि वर्तमान बुंदेलखंड इलाक़े का नाम "पुलिंद" शब्द का परिवर्तित रूप है, हालांकि इस तर्क पर विवाद जारी है। ऐतिहासिक स्रोतों में पुलिंदों का विंध्य प्रदेश के साथ साफ़ सम्बन्ध दिखता है, लेकिन उनके कबीले की शाखाएँ हिमालय क्षेत्र और असम तक फैली हुई थीं। हिमालय के क्षेत्र में उन्हें किरात नामक जनजाति से सम्बंधित समझा जाता था। .

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पृथ्वीराज

जुनाघर किला एक प्रसिद्ध किला है जहाँ बीकानेर के कई रजओं ने राज किया। पृथ्वीराज बीकानेरनरेश राजसिंह के भाई जो अकबर के दरबार में रहते थे। वे वीर रस के अच्छे कवि थे और मेवाड़ की स्वतंत्रता तथा राजपूतों की मर्यादा की रक्षा के लिये सतत संघर्ष करनेवाले महाराणा प्रताप के अनन्य समर्थक और प्रशंसक थे। जब आर्थिक कठिनाइयों तथा घोर विपत्तियों का सामना करते करते एक दिन राणा प्रताप अपनी छोटी लड़की को आधी रोटी के लिये बिलखते देखकर विचलित हो उठे तो उन्होंने सम्राट के पास संधि का संदेश भेज दिया। इसपर अकबर को बड़ी खुशी हुई और राणा का पत्र पृथ्वीराज को दिखलाया। पृथ्वीराज ने उसकी सचाई में विश्वास करने से इनकार कर दिया। उन्होंने अकबर की स्वीकृति से एक पत्र राणा प्रताप के पास भेजा, जो वीररस से ओतप्रोत, तथा अत्यंत उत्साहवर्धक कविता से परिपूर्ण था। उसमें उन्होंने लिखा हे राणा प्रताप ! तेरे खड़े रहते ऐसा कौन है जो मेवाड़ को घोड़ों के खुरों से रौंद सके ? हे हिंदूपति प्रताप ! हिंदुओं की लज्जा रखो। अपनी शपथ निबाहने के लिये सब तरह को विपत्ति और कष्ट सहन करो। हे दीवान ! मै अपनी मूँछ पर हाथ फेरूँ या अपनी देह को तलवार से काट डालूँ; इन दो में से एक बात लिख दीजिए।' यह पत्र पाकर महाराणा प्रताप पुन: अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ हुए और उन्होंने पृथ्वीराज को लिख भेजा 'हे वीर आप प्रसन्न होकर मूछों पर हाथ फेरिए। जब तक प्रताप जीवित है, मेरी तलवार को तुरुकों के सिर पर ही समझिए।' पृथ्वीराज की पहली रानी लालादे बड़ी ही गुणवती पत्नी थी। वह भी कविता करती थी। युवास्था में ही उसकी मृत्यु हो गई जिससे उन्हें बड़ा सदमा बैठा। उसके शव को चिता पर जलते देखकर वे चीत्कार कर उठे: 'तो राँघ्यो नहिं खावस्याँ, रे वासदे निसड्ड। मो देखत तू बालिया, साल रहंदा हड्ड।' (हे निष्ठुर अग्नि, मैं तेरा राँघा हुआ भोजन न ग्रहण करुँगा, क्योंकि तूने मेरे देखते देखते लालादे को जला डाला और उसका हाड़ ही शेष रह गया)। बाद में स्वास्थ्य खराब होता देखकर संबंधियों ने जैसलमेर के राव की पुत्री चंपादे से उनका विवाह करा दिया। यह भी कविता करती थी। .

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बुन्देलखण्ड

बुन्देलखण्ड मध्य भारत का एक प्राचीन क्षेत्र है।इसका प्राचीन नाम जेजाकभुक्ति है.

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बुंदेल

बुंदेलों के बारे में माना जाता है कि वे विंध्यवासिनी देवी के उपासक थे। इसलिये वे पहले विंध्येला कहलाये और इसी से बुंदेला या बुंदेल की उत्पत्ति हुई। वे क्षत्रिय जाति के शासक थे तथा सुदूर अतीत में उनका संबंध सूर्यवंशी राजा मनु से माना जाता हैं। अक्ष्वाकु के बाद रामचंद्र के पुत्र लव से उनके वंशजो की परंपरा आगे बढ़ाई गई और इसी में काशी के गहरवार शाखा के कर्त्तृराज को जोड़ा गया है। लव से कर्त्तृराज तक के उत्तराधिकारियों में गगनसेन, कनकसेन, प्रद्युम्न आदि के नाम ही महत्वपूर्ण हैं। कर्त्तृराज का गहरवार होना किसी घटना पर आधारित हैं, जिसमें काशी में ऊपर ग्रहों की बुरी दशा के निवारणार्थ उसके प्रयत्नों में ग्रहनिवार संज्ञा से वह पुकारा जाने लगा था। कालांतर में ग्रहनिवार गहरवार बन गया। .

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मत्स्य पुराण

मत्स्य पुराण पुराण में भगवान श्रीहरि के मत्स्य अवतार की मुख्य कथा के साथ अनेक तीर्थ, व्रत, यज्ञ, दान आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है। इसमें जल प्रलय, मत्स्य व मनु के संवाद, राजधर्म, तीर्थयात्रा, दान महात्म्य, प्रयाग महात्म्य, काशी महात्म्य, नर्मदा महात्म्य, मूर्ति निर्माण माहात्म्य एवं त्रिदेवों की महिमा आदि पर भी विशेष प्रकाश डाला गया है। चौदह हजार श्लोकों वाला यह पुराण भी एक प्राचीन ग्रंथ है। .

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मराठा

मराठा (पुरातन रूप से मरहट्टा या मारहट्टा के रूप में लिप्यंतरित) भारत में जातियों का एक समूह मुख्य रूप से महाराष्ट्र राज्य में रहता है। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के मुताबिक, "मराठा, भारत के इतिहास के बहादुर लोग हैं, इतिहास में प्रचलित हैं और हिंदू धर्म के विजेता हैं।" वे मुख्यतः भारतीय राज्य महाराष्ट्र में रहते हैं। ब्रिटिश राज काल के एक अप्रशिक्षित नृवंशविद वैज्ञानिक रॉबर्ट वाणे रसेल, जो वैदिक साहित्य पर बड़े पैमाने पर अपने शोध का आधार था, ने लिखा कि मराठों को 96 विभिन्न कुलों में विभाजित किया जाता है, जिसे 96 कुलि मराठों या 'शाहनु कुले', के रूप में जाना जाता है, जो की क्षत्रिय है मराठी, में शाहन्नौ का मतलब है 96। सूचियों का सामान्य निकाय अक्सर एक-दूसरे के साथ महान विचरण होता है। .

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महाराजा छत्रसाल

छत्रसाल छत्रसाल (4 मई 1649 – 20 दिसम्बर 1731) भारत के मध्ययुग के एक प्रतापी योद्धा थे जिन्होने मुगल शासक औरंगजेब से युद्ध करके बुन्देलखण्ड में अपना राज्य स्थापित किया और 'महाराजा' की पदवी प्राप्त की। .

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महाजनपद

महाजनपद, प्राचीन भारत में राज्य या प्रशासनिक इकाईयों को कहते थे। उत्तर वैदिक काल में कुछ जनपदों का उल्लेख मिलता है। बौद्ध ग्रंथों में इनका कई बार उल्लेख हुआ है। 6वीं-5वीं शताब्दी ईसापूर्व को प्रारंभिक भारतीय इतिहास में एक प्रमुख मोड़ के रूप में माना जाता है; जहाँ सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के बाद भारत के पहले बड़े शहरों के उदय के साथ-साथ श्रमण आंदोलनों (बौद्ध धर्म और जैन धर्म सहित) का उदय हुआ, जिसने वैदिक काल के धार्मिक कट्टरपंथ को चुनौती दी। पुरातात्विक रूप से, यह अवधि उत्तरी काले पॉलिश वेयर संस्कृति के हिस्सा रहे है। .

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महोबा

उत्तर प्रदेश के महोबा जिला का मुख्यालय, महोबा जहां एक ओर विश्व प्रसिद्ध खजुराहो के लिए प्रसिद्ध है वहीं दूसरी ओर गोरखगिरी पर्वत, ककरामठ मंदिर, सूर्य मंदिर, चित्रकूट और कालिंजर आदि के लिए भी विशेष रूप से जाना जाता है। महोबा झांसी से १४० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। महोबा उत्तर प्रदेश राज्य का एक जिला है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह स्थान काफी महत्वपूर्ण है। काफी समय तक चन्देलों ने यहां शासन किया है। अपने काल के दौरान चंदेल राजाओं ने कई ऐतिहासिक किलों और मंदिरों आदि का निर्माण करवाया था। इसके पश्चात् इस जगह पर प्रतिहार राजाओं ने शासन किया। महोबा सांस्कृतिक दृष्टि से काफी प्रमुख माना जाता है। पहले इस जगह को महोत्सव नगर के नाम से जाना जाता था, लेकिन बाद में इसका नाम बदल कर महोबा रख दिया गया। .

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मौर्य राजवंश

मौर्य राजवंश (३२२-१८५ ईसापूर्व) प्राचीन भारत का एक शक्तिशाली एवं महान राजवंश था। इसने १३७ वर्ष भारत में राज्य किया। इसकी स्थापना का श्रेय चन्द्रगुप्त मौर्य और उसके मन्त्री कौटिल्य को दिया जाता है, जिन्होंने नन्द वंश के सम्राट घनानन्द को पराजित किया। मौर्य साम्राज्य के विस्तार एवं उसे शक्तिशाली बनाने का श्रेय सम्राट अशोक को जाता है। यह साम्राज्य पूर्व में मगध राज्य में गंगा नदी के मैदानों (आज का बिहार एवं बंगाल) से शुरु हुआ। इसकी राजधानी पाटलिपुत्र (आज के पटना शहर के पास) थी। चन्द्रगुप्त मौर्य ने ३२२ ईसा पूर्व में इस साम्राज्य की स्थापना की और तेजी से पश्चिम की तरफ़ अपना साम्राज्य का विकास किया। उसने कई छोटे छोटे क्षेत्रीय राज्यों के आपसी मतभेदों का फायदा उठाया जो सिकन्दर के आक्रमण के बाद पैदा हो गये थे। ३१६ ईसा पूर्व तक मौर्य वंश ने पूरे उत्तरी पश्चिमी भारत पर अधिकार कर लिया था। चक्रवर्ती सम्राट अशोक के राज्य में मौर्य वंश का बेहद विस्तार हुआ। सम्राट अशोक के कारण ही मौर्य साम्राज्य सबसे महान एवं शक्तिशाली बनकर विश्वभर में प्रसिद्ध हुआ। .

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मूर्ति

भारतीय कला और संस्कृति के सन्दर्भ में किसी भी प्रकार के रूप, प्रतिमा (idol) या ठोस वस्तु को मूर्ति कहते हैं, उदाहरण के लिए देवताओं और मनुष्यों की मूर्ति। जब किसी देवता की मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा हो जाती है तब वह उस देवता के तुल्य बन जाती है। .

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शाह जहाँ

शाह जहाँ (उर्दू: شاہجہان)पांचवे मुग़ल शहंशाह था। शाह जहाँ अपनी न्यायप्रियता और वैभवविलास के कारण अपने काल में बड़े लोकप्रिय रहे। किन्तु इतिहास में उनका नाम केवल इस कारण नहीं लिया जाता। शाहजहाँ का नाम एक ऐसे आशिक के तौर पर लिया जाता है जिसने अपनी बेग़म मुमताज़ बेगम के लिये विश्व की सबसे ख़ूबसूरत इमारत ताज महल बनाने का यत्न किया। सम्राट जहाँगीर के मौत के बाद, छोटी उम्र में ही उन्हें मुगल सिंहासन के उत्तराधिकारी के रूप में चुन लिया गया था। 1627 में अपने पिता की मृत्यु होने के बाद वह गद्दी पर बैठे। उनके शासनकाल को मुग़ल शासन का स्वर्ण युग और भारतीय सभ्यता का सबसे समृद्ध काल बुलाया गया है। .

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सागर

कोई विवरण नहीं।

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हर्षचरितम्

हर्षचरित संस्कृत में बाणभट्ट द्वारा रचित एक ग्रन्थ है। इसमें भारतीय सम्राट हर्षवर्धन का जीवनचरित वर्णित है। ऐतिहासिक कथानक से सम्बन्धित यह संस्कृत का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है। .

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हर्षवर्धन

हर्षवर्धन का साम्राज्य हर्ष का टीला हर्षवर्धन (590-647 ई.) प्राचीन भारत में एक राजा था जिसने उत्तरी भारत में अपना एक सुदृढ़ साम्राज्य स्थापित किया था। वह हिंदू सम्राट् था जिसने पंजाब छोड़कर शेष समस्त उत्तरी भारत पर राज्य किया। शशांक की मृत्यु के उपरांत वह बंगाल को भी जीतने में समर्थ हुआ। हर्षवर्धन के शासनकाल का इतिहास मगध से प्राप्त दो ताम्रपत्रों, राजतरंगिणी, चीनी यात्री युवान् च्वांग के विवरण और हर्ष एवं बाणभट्टरचित संस्कृत काव्य ग्रंथों में प्राप्त है। शासनकाल ६०६ से ६४७ ई.। वंश - थानेश्वर का पुष्यभूति वंश। उसके पिता का नाम 'प्रभाकरवर्धन' था। राजवर्धन उसका बड़ा भाई और राज्यश्री उसकी बड़ी बहन थी। ६०५ ई. में प्रभाकरवर्धन की मृत्यु के पश्चात् राजवर्धन राजा हुआ पर मालव नरेश देवगुप्त और गौड़ नरेश शंशांक की दुरभिसंधि वश मारा गया। हर्षवर्धन 606 में गद्दी पर बैठा। हर्षवर्धन ने बहन राज्यश्री का विंध्याटवी से उद्धार किया, थानेश्वर और कन्नौज राज्यों का एकीकरण किया। देवगुप्त से मालवा छीन लिया। शंशाक को गौड़ भगा दिया। दक्षिण पर अभियान किया पर आंध्र पुलकैशिन द्वितीय द्वारा रोक दिया गया। उसने साम्राज्य को सुंदर शासन दिया। धर्मों के विषय में उदार नीति बरती। विदेशी यात्रियों का सम्मान किया। चीनी यात्री युवेन संग ने उसकी बड़ी प्रशंसा की है। प्रति पाँचवें वर्ष वह सर्वस्व दान करता था। इसके लिए बहुत बड़ा धार्मिक समारोह करता था। कन्नौज और प्रयाग के समारोहों में युवेन संग उपस्थित था। हर्ष साहित्य और कला का पोषक था। कादंबरीकार बाणभट्ट उसका अनन्य मित्र था। हर्ष स्वयं पंडित था। वह वीणा बजाता था। उसकी लिखी तीन नाटिकाएँ नागानंद, रत्नावली और प्रियदर्शिका संस्कृत साहित्य की अमूल्य निधियाँ हैं। हर्षवर्धन का हस्ताक्षर मिला है जिससे उसका कलाप्रेम प्रगट होता है। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद भारत में (मुख्यतः उत्तरी भाग में) अराजकता की स्थिति बना हुई थी। ऐसी स्थिति में हर्ष के शासन ने राजनैतिक स्थिरता प्रदान की। कवि बाणभट्ट ने उसकी जीवनी हर्षचरित में उसे चतुःसमुद्राधिपति एवं सर्वचक्रवर्तिनाम धीरयेः आदि उपाधियों से अलंकृत किया। हर्ष कवि और नाटककार भी था। उसके लिखे गए दो नाटक प्रियदर्शिका और रत्नावली प्राप्त होते हैं। हर्ष का जन्म थानेसर (वर्तमान में हरियाणा) में हुआ था। थानेसर, प्राचीन हिन्दुओं के तीर्थ केन्द्रों में से एक है तथा ५१ शक्तिपीठों में एक है। यह अब एक छोटा नगर है जो दिल्ली के उत्तर में हरियाणा राज्य में बने नये कुरुक्षेत्र के आस-पडोस में स्थित है। हर्ष के मूल और उत्पत्ति के संर्दभ में एक शिलालेख प्राप्त हुई है जो कि गुजरात राज्य के गुन्डा जिले में खोजी गयी है। .

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ह्वेन त्सांग

ह्वेन त्सांग का एक चित्र ह्वेन त्सांग एक प्रसिद्ध चीनी बौद्ध भिक्षु था। वह हर्षवर्द्धन के शासन काल में भारत आया था। वह भारत में 15 वर्षों तक रहा। उसने अपनी पुस्तक सी-यू-की में अपनी यात्रा तथा तत्कालीन भारत का विवरण दिया है। उसके वर्णनों से हर्षकालीन भारत की सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक अवस्था का परिचय मिलता है। .

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होशंगाबाद

होशंगाबाद भारत के मध्य प्रदेश प्रान्त में स्थित एक प्रमुख शहर है। होशंगाबाद जिला मुख्यालय है। होशंगाबाद की स्थापना मांडू (मालवा) के द्वितीय राजा सुल्तान हुशंगशाह गौरी द्वारा पन्द्रहवी शताब्दी के आरंभ में की गई थी। होशंगाबाद नर्मदा नदी के किनारे स्थित है। इसके किनारे पर सतपुड़ा पर्वत स्थित है। नर्मदा नदी जिले की उत्तरी सीमा के साथ-साथ बहती है। नर्मदा की सहायक नदी दूधी है जोकि होशंगाबाद जिले की उत्तरी पूर्वी सीमा बनाती है। होशंगाबाद में प्रतिभूति कागज कारखाना है जिसमें भारतीय रुपया छापने के लिए कागज बनाया जाता है। यहाँ एक केन्द्रीय विद्यालय भी है जिसका पूरा नाम केन्द्रीय विद्यालय प्रतिभूति कागज कारखाना होशंगाबाद है। होशंगाबाद के पास प्राचीन पहाड़ियाँ हैं जिन्हें "पहाड़िया" कहा जाता है। इन पहाड़ियों में कुछ गुफायें हैं जिनमें शैलचित्र जिन्हें राक पेंटिंग भी कहते हैं उकेरे गये हैं। ये राक पेंटि्ग्स आदि मानव द्वारा निर्मित हैं। हजारों साल से खुले आसमान के नीचे रहने के बाद भी ये पेंटिंग्स अभी भी मिटी नहीं हैं। नर्मदा नदी का प्रसिद्ध सेठानी घाट होशंगाबाद में ही है। होशंगाबाद में एक प्राचीन गुरुकुल है। .

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जबलपुर

जबलपुर भारत के मध्यप्रदेश राज्य का एक शहर है। यहाँ पर मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय तथा राज्य विज्ञान संस्थान है। इसे मध्यप्रदेश की संस्कारधानी भी कहा जाता है। थलसेना की छावनी के अलावा यहाँ भारतीय आयुध निर्माणियों के कारखाने तथा पश्चिम-मध्य रेलवे का मुख्यालय भी है। .

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जहाँगीर

अकबर के तीन लड़के थे। सलीम, मुराद और दानियाल (मुग़ल परिवार)। मुराद और दानियाल पिता के जीवन में शराब पीने की वजह से मर चुके थे। सलीम अकबर की मृत्यु पर नुरुद्दीन मोहम्मद जहांगीर के उपनाम से तख्त नशीन हुआ। १६०५ ई. में कई उपयोगी सुधार लागू किए। कान और नाक और हाथ आदि काटने की सजा रद्द कीं। शराब और अन्य नशा हमलावर वस्तुओं का हकमा बंद। कई अवैध महसूलात हटा दिए। प्रमुख दिनों में जानवरों का ज़बीहह बंद.

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वास्तुकला

'''अंकोरवाट मंदिर''' विश्व की सबसे बड़ी धार्मिक संरचना है भवनों के विन्यास, आकल्पन और रचना की, तथा परिवर्तनशील समय, तकनीक और रुचि के अनुसार मानव की आवश्यकताओं को संतुष्ट करने योग्य सभी प्रकार के स्थानों के तर्कसंगत एवं बुद्धिसंगत निर्माण की कला, विज्ञान तथा तकनीक का संमिश्रण वास्तुकला (आर्किटेक्चर) की परिभाषा में आता है। इसका और भी स्पष्टकीण किया जा सकता है। वास्तुकला ललितकला की वह शाखा रही है और है, जिसका उद्देश्य औद्योगिकी का सहयोग लेते हुए उपयोगिता की दृष्टि से उत्तम भवननिर्माण करना है, जिनके पर्यावरण सुसंस्कृत एवं कलात्मक रुचि के लिए अत्यंत प्रिय, सौंदर्य-भावना के पोषक तथा आनंदकर एवं आनंदवर्धक हों। प्रकृति, बुद्धि एवं रुचि द्वारा निर्धारित और नियमित कतिपय सिद्धांतों और अनुपातों के अनुसार रचना करना इस कला का संबद्ध अंग है। नक्शों और पिंडों का ऐसा विन्यास करना और संरचना को अत्यंत उपयुक्त ढंग से समृद्ध करना, जिससे अधिकतम सुविधाओं के साथ रोचकता, सौंदर्य, महानता, एकता और शक्ति की सृष्टि हो से यही वास्तुकौशल है। प्रारंभिक अवस्थाओं में, अथवा स्वल्पसिद्धि के साथ, वास्तुकला का स्थान मानव के सीमित प्रयोजनों के लिए आवश्यक पेशों, या व्यवसायों में-प्राय: मनुष्य के लिए किसी प्रकार का रक्षास्थान प्रदान करने के लिए होता है। किसी जाति के इतिहास में वास्तुकृतियाँ महत्वपूर्ण तब होती हैं, जब उनमें किसी अंश तक सभ्यता, समृद्धि और विलासिता आ जाती है और उनमें जाति के गर्व, प्रतिष्ठा, महत्वाकांक्षा और आध्यात्मिकता की प्रकृति पूर्णतया अभिव्यक्त होती है। .

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वाकाटक

नन्दिवर्धन दुर्ग के भग्नावशेष वाकाटक शब्द का प्रयोग प्राचीन भारत के एक राजवंश के लिए किया जाता है जिसने तीसरी सदी के मध्य से छठी सदी तक शासन किया था। उस वंश को इस नाम से क्यों संबंधित किया गया, इस प्रश्न का सही उत्तर देना कठिन है। स्यात्‌ वकाट नाम का मध्यभारत में कोई स्थान रहा हो, जहाँ पर शासन करनेवाला वंश वाकाटक कहलाया। अतएव प्रथम राजा को अजंता लेख में "वाकाटक वंशकेतु:" कहा गया है। इस राजवंश का शासन मध्यप्रदेश के अधिक भूभाग तथा प्राचीन बरार (आंध्र प्रदेश) पर विस्तृत था, जिसके सर्वप्रथम शासक विन्ध्यशक्ति का नाम वायुपुराण तथा अजंतालेख मे मिलता है। संभवत: विंध्य पर्वतीय भाग पर शासन करने के कारण प्रथम राजा 'विंध्यशक्ति' की पदवी से विभूषित किया गया। इस नरेश का प्रामाणिक इतिवृत्त उपस्थित करना कठिन है, क्योंकि विंध्यशक्ति का कोई अभिलेख या सिक्का अभी तक उपलब्ध नहीं हो सका। तीसरी सदी के मध्य में सातवाहन राज्य की अवनति हो जाने से विंध्यशक्ति को अवसर मिल गया तो भी उसका यश स्थायी न रह सका। उसके पुत्र प्रथम प्रवरसेन ने वंश की प्रतिष्ठा को अमर बना दिया। अभिलेखों के अध्ययन से पता चलता है कि प्रथम प्रवरसेन ने दक्षिण में राज्यविस्तार के उपलक्ष में चार अश्वमेध किए और सम्राट् की पदवी धारण की। प्रवरसेन के समकालीन शक्तिशाली नरेश के अभाव में वाकाटक राज्य आंध्रप्रदेश तथा मध्यभारत में विस्तृत हो गया। बघेलखंड के अधीनस्थ शासक व्याघ्रराज का उल्लेख समुद्रगुप्त के स्तंभलेख में भी आया है। संभवत: प्रवरसेन ने चौथी सदी के प्रथम चरण में पूर्वदक्षिण भारत, मालवा, गुजरात, काठियावाड़ पर अधिकार कर लिया था परंतु इसकी पुष्टि के लिए सबल प्रमाण नहीं मिलते। यह तो निश्चित है कि प्रवरसेन का प्रभाव दक्षिण में तक फैल गया था। परंतु कितने भाग पर वह सीधा शासन करता रहा, यह स्पष्ट नहीं है। यह कहना सर्वथा उचित होगा कि वाकाटक राज्य को साम्राज्य के रूप में परिणत करना उसी का कार्य था। प्रथम प्रवरसेन ने वैदिक यज्ञों से इसकी पुष्टि की है। चौथी सदी के मध्य में उसका पौत्र प्रथम रुद्रसेन राज्य का उत्तराधिकारी हुआ, क्योंकि प्रवरसेन का ज्येष्ठ पुत्र गोतमीपुत्र पहले ही मर चुका था। मानसर में प्रवरसेन द्वितीय द्वारा निर्मित प्रवरेश्वर शिव मन्दिर के भग्नावशेष वाकाटक वंश के तीसरे शासक महाराज रुद्रसेन प्रथम का इतिहास अत्यंत विवादास्पद माना जाता है। प्रारंभ में वह आपत्तियों तथा निर्बलता के कारण अपनी स्थिति को सबल न बना सका। कुछ विद्वान्‌ यह मानते हैं कि उसके पितृव्य साम्राज्य को विभाजित कर शासन करना चाहते थे, किन्तु पितृव्य सर्वसेन के अतिरिक्त किसी का वृत्तांत प्राप्य नहीं है। वाकाटक राज्य के दक्षिण-पश्चिम भाग में सर्वसेन ने अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था जहाँ (बरार तथा आंध्र प्रदेश का उत्तरी-पश्चिमी भूभाग) उसके वंशज पाँचवी सदी तक राज्य करते रहे। इस प्रसंग में यह मान लेना सही होगा कि उसके नाना भारशिव महाराज भवनाग ने रुद्रसेन प्रथम की विषम परिस्थिति में सहायता की, जिसके फलस्वरूप रुद्रसेन अपनी सत्ता को दृढ़ कर सका। (चंपक ताम्रपत्र का. इ., इ. भा. ३, पृ. २२६) इस वाकाटक राजा के विनाश के संबंध में कुछ लोगों की असत्य धारण बनी हुई है कि गुप्तवंश के उत्थान से रुद्रसेन प्रथम नष्ट हो गया। गुप्त सम्राट् समुद्रगुप्त ने कौशांबी के युद्ध में वाकाटक नरेश रुद्रसेन प्रथम को मार डाला (अ. भ. ओ. रि. इ., भा. ४, पृ. ३०-४०, अथवा उत्तरी भारत की दिग्विजय में उसे श्रीहत कर दिया। इस कथन की प्रामाणिकता समुद्रगुप्त की प्रयागप्रशस्ति में उल्लिखित पराजित नरेश रुद्रदेव से सिद्ध करते हैं। प्रशस्ति के विश्लेषण से यह समीकरण कदापि युक्तियुक्त नहीं है कि रुद्रदेव तथा वाकाटक महाराज प्रथम रुद्रसेन एक ही व्यक्ति थे। वाकाटकनरेश से समुद्रगुप्त का कहीं सामना न हो सका। अतएव पराजित या श्रीहत होने का प्रश्न ही नहीं उठता। इसके विपरीत यह कहना उचित होगा कि गुप्त सम्राट् ने वाकाटक वंश से मैत्री कर ली। वाकाटक अभिलेखों के आधार पर यह विचार व्यक्त करना सत्य है कि इस वंश की श्री कई पीढ़ियों तक अक्षुण्ण बनी रही। कोष, सेना तथा प्रतिष्ठा की अभिवृद्धि पिछले सौ वर्षों से होती रही (मानकोष दण्ड साधनसंतान पुत्र पौत्रिण: ए. इ., भा. ३, पृ. २६१) इसके पुत्र पृथ्वीषेण प्रथम ने कुंतल पर विजय कर दक्षिण भारत में वाकाटक वंश को शक्तिशाली बनाया। उसके महत्वपूर्ण स्थान के कारण ही गुप्त सम्राट् द्वितीय चंद्रगुप्त को (ई. स. ३८० के समीप) अपनी पुत्री का विवाह युवराज रुद्रसेन से करना पड़ा था। इस वैवाहिक संबंध के कारण गुप्त प्रभाव दक्षिण भारत में अत्यधिक हो गया। फलत: द्वितीय रुद्रसेन ने सिंहासनारूढ़ होने पर अपने श्वसुर का कठियावाड़ विजय के अभियान में साथ दिया था। द्वितीय रुद्रसेन की अकाल मृत्यु के कारण उसकी पत्नी प्रभावती गुप्ता अप्राप्तवयस्क पुत्रों की संरक्षिका के रूप में शासन करने लगी। वाकाटक शासन का शुभचिंतक बनकर द्वितीय चंद्रगुप्त ने सक्रिय सहयोग भी दिया। पाटलिपुत्र से सहकारी कर्मचारी नियुक्त किए गए। यही कारण था कि प्रभावती गुप्ता के पूनाताम्रपत्र में गुप्तवंशावली ही उल्लिखित हुई है। कालांतर में युवराज दामोदरसेन द्वितीय प्रवरसेन के नाम से सिंहासन पर बैठा, किंतु इस वंश के लेख यह बतलाते हैं कि प्रवरसेन से द्वितीय पृथ्वीषेण पर्यंत किसी प्रकार का रण अभियान न हो सका। पाँचवी सदी के अंत में राजसत्ता वेणीमशाखा (सर्वसेन के वंशज) के शासक हरिषेण के हाथ में गई, जिसे अजंता लेख में कुंतल, अवंति, लाट, कोशल, कलिंग तथा आंध्र देशों का विजेता कहा गया है (इंडियन कल्चर, भा. ७, पृ. ३७२) उसे उत्तराधिकारियों की निर्बलता के कारण वाकाटक वंश विनष्ट हो गया। अजन्ता गुफाओं में शैल को काटकर निर्मित बौद्ध बिहार एवं चैत्य वाकाटक साम्राज्य के वत्सगुल्म शाखा के राजाओं के संरक्षण में बने थे। अभिलेखों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि दक्षिण भारत में वाकाटक राज्य वैभवशाली, सबल तथा गौरवपूर्ण रहा है। सांस्कृतिक उत्थान में भी इस वंश ने हाथ बटाया था। प्राकृत काव्यों में "सेतुबंध" तथा "हरिविजय काव्य" क्रमश: प्रवरसेन द्वितीय और सर्वसेन की रचना माने जाते हैं। वैसे प्राकृत काव्य तथा सुभाषित को "वैदर्भी शैली" का नाम दिया गया है। वाकाटकनरेश वैदिक धर्म के अनुयायी थे, इसीलिए अनेक यज्ञों का विवरण लेखों में मिलता है। कला के क्षेत्र में भी इसका कार्य प्रशंसनीय रहा है। अजंता की चित्रकला को वाकाटक काल में अधिक प्रोत्साहन मिला, जो संसार में अद्वितीय भित्तिचित्र माना गया है। नाचना का मंदिर भी इसी युग में निर्मित हुआ और उसी वास्तुकला का अनुकरण कर उदयगिरि, देवगढ़ एवं अजंता में गुहानिर्माण हुआ था। समस्त विषयों के अनुशीलन से पता चलता है कि वाकाटक नरेशों ने राज्य की अपेक्षा सांस्कृतिक उत्थान में विशेष अनुराग प्रदर्शित किया। यही इस वश की विशेषता है। .

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विदिशा

विदिशा जिला विदिशा भारत के मध्य प्रदेश प्रान्त में स्थित एक प्रमुख शहर है। यह मालवा के उपजाऊ पठारी क्षेत्र के उत्तर- पूर्व हिस्से में अवस्थित है तथा पश्चिम में मुख्य पठार से जुड़ा हुआ है। ऐतिहासिक व पुरातात्विक दृष्टिकोण से यह क्षेत्र मध्यभारत का सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र माना जा सकता है। नगर से दो मील उत्तर में जहाँ इस समय बेसनगर नामक एक छोटा-सा गाँव है, प्राचीन विदिशा बसी हुई है। यह नगर पहले दो नदियों के संगम पर बसा हुआ था, जो कालांतर में दक्षिण की ओर बढ़ता जा रहा है। इन प्राचीन नदियों में एक छोटी-सी नदी का नाम वैस है। इसे विदिशा नदी के रूप में भी जाना जाता है। विदिशा में जन्में श्री कैलाश सत्यार्थी को 2014 में नोबेल शांति पुरस्कार मिला। .

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विष्णु पुराण

विष्णुपुराण अट्ठारह पुराणों में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथा प्राचीन है। यह श्री पराशर ऋषि द्वारा प्रणीत है। यह इसके प्रतिपाद्य भगवान विष्णु हैं, जो सृष्टि के आदिकारण, नित्य, अक्षय, अव्यय तथा एकरस हैं। इस पुराण में आकाश आदि भूतों का परिमाण, समुद्र, सूर्य आदि का परिमाण, पर्वत, देवतादि की उत्पत्ति, मन्वन्तर, कल्प-विभाग, सम्पूर्ण धर्म एवं देवर्षि तथा राजर्षियों के चरित्र का विशद वर्णन है। भगवान विष्णु प्रधान होने के बाद भी यह पुराण विष्णु और शिव के अभिन्नता का प्रतिपादक है। विष्णु पुराण में मुख्य रूप से श्रीकृष्ण चरित्र का वर्णन है, यद्यपि संक्षेप में राम कथा का उल्लेख भी प्राप्त होता है। अष्टादश महापुराणों में श्रीविष्णुपुराण का स्थान बहुत ऊँचा है। इसमें अन्य विषयों के साथ भूगोल, ज्योतिष, कर्मकाण्ड, राजवंश और श्रीकृष्ण-चरित्र आदि कई प्रंसगों का बड़ा ही अनूठा और विशद वर्णन किया गया है। श्री विष्णु पुराण में भी इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, वर्ण व्यवस्था, आश्रम व्यवस्था, भगवान विष्णु एवं माता लक्ष्मी की सर्वव्यापकता, ध्रुव प्रह्लाद, वेनु, आदि राजाओं के वर्णन एवं उनकी जीवन गाथा, विकास की परम्परा, कृषि गोरक्षा आदि कार्यों का संचालन, भारत आदि नौ खण्ड मेदिनी, सप्त सागरों के वर्णन, अद्यः एवं अर्द्ध लोकों का वर्णन, चौदह विद्याओं, वैवस्वत मनु, इक्ष्वाकु, कश्यप, पुरुवंश, कुरुवंश, यदुवंश के वर्णन, कल्पान्त के महाप्रलय का वर्णन आदि विषयों का विस्तृत विवेचन किया गया है। भक्ति और ज्ञान की प्रशान्त धारा तो इसमें सर्वत्र ही प्रच्छन्न रूप से बह रही है। यद्यपि यह पुराण विष्णुपरक है तो भी भगवान शंकर के लिये इसमे कहीं भी अनुदार भाव प्रकट नहीं किया गया। सम्पूर्ण ग्रन्थ में शिवजी का प्रसंग सम्भवतः श्रीकृ्ष्ण-बाणासुर-संग्राम में ही आता है, सो वहाँ स्वयं भगवान कृष्ण महादेवजी के साथ अपनी अभिन्नता प्रकट करते हुए श्रीमुखसे कहते हैं- .

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खजुराहो

खजुराहो भारत के मध्य प्रदेश प्रान्त में स्थित एक प्रमुख शहर है जो अपने प्राचीन एवं मध्यकालीन मंदिरों के लिये विश्वविख्यात है। यह मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में स्थित है। खजुराहो को प्राचीन काल में खजूरपुरा और खजूर वाहिका के नाम से भी जाना जाता था। यहां बहुत बड़ी संख्या में प्राचीन हिन्दू और जैन मंदिर हैं। मंदिरों का शहर खजुराहो पूरे विश्व में मुड़े हुए पत्थरों से निर्मित मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। खजुराहो को इसके अलंकृत मंदिरों की वजह से जाना जाता है जो कि देश के सर्वोत्कृष्ठ मध्यकालीन स्मारक हैं। भारत के अलावा दुनिया भर के आगन्तुक और पर्यटक प्रेम के इस अप्रतिम सौंदर्य के प्रतीक को देखने के लिए निरंतर आते रहते है। हिन्दू कला और संस्कृति को शिल्पियों ने इस शहर के पत्थरों पर मध्यकाल में उत्कीर्ण किया था। संभोग की विभिन्न कलाओं को इन मंदिरों में बेहद खूबसूरती के उभारा गया है। .

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गढ़कुंडार

गढ कुंडार का दुर्ग और उसके भग्नावशेष गढ़-कुंडार मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले में स्थित एक गाँव है। इस गाँव का नाम यहां स्थित प्रसिद्ध दुर्ग(या गढ़) के नाम पर पढ़ा है। यह किला उस काल की न केवल बेजोड़ शिल्पकला का नमूना है बल्कि उस खूनी प्रणय गाथा के अंत का गवाह भी है, जो विश्वासघात की नींव पर रची गई थी। गढ कुण्डार का प्राचीन नाम गढ कुरार है।परिचय गढ़ कुंडार का किला मऊरानीपुर से ५० कि०मी० की दूरी पर बना हुआ है !यह ११ वीं शताब्दी में जुझौती प्रदेश की राजधानी था ! गढ़ कुंडार उस समय उत्तर भारत का एक बड़ा शहर था ! सन ११८२ ई० में महाराज खेत सिंह खंगार ने चंदेलोंके समय से आबाद इस सैनिक मुख्यालय के स्थान पर अजेय दुर्गम दुर्ग का निर्माण करवाया था ! घने जंगलों और पहाड़ों के बीच बना यह किला दूर से तो दिखाई देता है किन्तु जैसे जैसे इसके नजदीक पहुँचते हैं यह दिखाई देना बंद हो जाता है !आक्रमण की द्रष्टि से यह पूर्ण सुरक्षित है अतः इसे दुर्गुम दुर्ग कहा जाता है !यह किला उत्तर भारत की सबसे प्राचीन ईमारत है ! यह पहाड़ों की ऐसी ऊंचाई पर बना है कि तोपों के गोले इसे नहीं तोड़ सकते थे लेकिन इस किले से बहुत दूर तक दुश्मन को देखकर उसे आसानी से मारा जा सकता था !हस्तिपथ द्वारा इस किले तक आसानी से पहुंचा जा सकता है सिंह द्वार के बाहर दो चबूतरे हैं जिन्हें दीवान चबूतरा कहते है ! सिंहद्वार की ऊंचाई लगभग २० फुट है तथा लम्बाई ८० फुट है !सिंहद्वार से लगा हुआ परकोटा राजमहल को चारोंतरफ से घेरे है जिसकी मोटाई लगभग ६ फुट है ! सिंह द्वार को पार करने पर सिंहपौर है इसके बाद तोप खाना है जहाँ राजाओं के समय तोपें रखी जाती थीं ! राज महल के बाहर एक घुडसाल है जहाँ राजा के घोड़े बांधे जाते थे !इस घुडसाल के ११ दरवाजे हैं तथा यह १८ फु० चौड़ी और १०० फ़ु० लम्बी है ! इसके सामने एक चक्की लगी है जिससे चूना पीसने का काम होता था ! इसी घुडसाल के सामने बना हुआ है भव्य राजमहल जिसके आठ खंड है ! इसके तीन खंड अन्दर जमीन में हैं तथा चार खंड ऊपर हैं ! राजमहल का प्रवेश द्वार पार करने के बाद करने के बाद राजमहल के कक्ष और सीढियाँ है तथा आगे जाने पर भव्य आँगन जिसके चारों तरफ कमरे और दालान बनी हुई हैं ! महल का आंतरिक भाग काफी बड़ा और वर्गाकार है!महल में राजा रानी का कक्ष, राजकुमारों के कक्ष, राजा का दीवाने आम और बंदी गृह भी बने हुए हैं ! महल के आँगन में हनुमान जी का एक मंदिर था जो अब टूट गया है ! और हनुमान जी गिद्धवाहिनी देवी जी के मंदिर में चले गए हैं ! आँगन में ही एक विशाल वेदी बनी हुयी है जहाँ राजा महापूजा करता था ! राजकुमारी केशर दे का जौहर स्तम्भ भी आँगन में रखा हुआ है ! महल के नीचे के तल से एक सुरंग महल के बाहर कुंए तक जाती है इस कुंए को जौहर कुआं भी कहते हैं ! क्योंकि जब खंगार राजा और मोहम्मद तुगलक के बीच लड़ाई हुयी और कुंडार के राजा युद्ध में मारे गए तब राजमहल की रानियों और राजकुमारी केशर दे ने इसी कुंए में आग जलाकर अपने प्राणों की आहुति दी थी !राजमहल के बाद गढ़ कुंडार में गिद्ध वाहिनी देवी का मंदिर, सिंदूर सागर ताल, गजानन माता मंदिर, मुडिया महल, खजुआ बैठक सिया की रावर भी दर्शनीय स्थल हैं ! गढ़ कुंडार में खंगार राजवंश के संस्थापक महाराजा खेत सिंह खंगार की जयंती २७ दिसम्बर को प्रति वर्ष मध्य प्रदेश सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा तीन दिवसीय मेले का आयोजन कियाजाता है जिसमे विविध सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं और बड़ी संख्या में देश के कोने कोने से लोग महाराज खेत सिंहखंगार की जयंती मानाने यहाँ आते हैं ! बाहरी कड़ियाँ*.गढ़कुंडार का ऐतिहासिक दुर्ग और उसकी रक्तरंजित प्रणय-गाथा मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ जिले में स्थित गढ़कुंडार का किला एतिहासिक समृद्धि का प्रतीक होने के साथ-साथ एक ऐसी रक्तरंजित प्रणय गाथा का भी साक्षी है जिसमें खंगार राजवंश को खत्म करने की साजिश को अंजाम दिया गया था। गढ़कुंडार किले का सम्बन्ध बुंदेला, चंदेल और खंगार राजाऔ से रहा है, परंतु इसके पुनर्निर्माण और इसे नई पहचान देने का श्रेय खंगारों को जाता है। वर्तमान में खंगार क्षत्रिय समाज के परिवार गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश के अलावा बुंदेलखंड में निवास करते हैं। 12वीं शताब्दी में पृथ्वीराज चौहान के प्रमुख सामंत खेतसिंह खंगार ने परमार वंश के गढ़पति शिवा को हराकर इस दुर्ग पर कब्जा करने के बाद खंगार राज्य की नींव डाली थी।खेतसिंह गुजरात राज्य के राजा रूढ़देव का पुत्र था। रूढ़देव और पृथ्वीराज चौहान के पिता सोमेश्वर सिंह अभिन्न मित्र हुआ करते थे। इसके चलते पृथ्वीराज चौहान और खेतसिंह बचपन से ही मित्र हो गए। खेतसिंह की गिनती पृथ्वीराज के महान सेनापतियों में की जाती थी। इस बात का उल्लेख चंदबरदाई के रासो में भी है। गढ़कुंडार में खेतसिंह ने खंगार राज्य की नींव डाली। इस किले का इतिहास भी अनबूझ पहेली जैसा लगता है। यहाँ चंदेलो का पहिले ही एककिला था जिसे जिनागढ के नाम से जाना जाता था। खंगार वंशीय खेत सिंह बनारस से 1180 के लगभग बुंदेलखंड आये और जिनागढ पर कब्जा कर लिया। उसने एक नए राज्य की स्थापना की। उसके पोते ने किले का नव निर्माण कराया और गढ़कुंडार नाम रखा। क्षत्रिय खंगार राजवंश के अन्तिम राजा मानसिंह की एक सुंदर कन्या थी जिसका नाम केसर दे था। उसका सौंदर्य दिल्ली तक ख्याति प्राप्त था। दिल्ली के सुल्तान मोहम्मदतुगलक ने उस कन्या से शादी करने का प्रस्ताव भेजा परन्तु यह मान्य नहीं था। अतः सन् 1347 में मोहम्मद तुगलक की सेना ने गढ़ कुंडार पर आक्रमण कर किले को अपने कब्जे में ले लिया। किले में स्थित केसर दे और अन्य महिलाओं ने अपनीअस्मिता को बनाए रखने के लिए किले के अन्दर बने कुवें में कूद कर अपनी जान दे दी थी। केसर दे के जौहर की गाथा लोक गीतों में भी पायी जाती है। मोहम्मद तुगलक ने किले और विजित भूभाग को बुंदेलों को सौंप दिया। एक और मान्यता है उस मानता में मोहम्मद तुगलकल के आक्रमण का जिक्र नहीं है खंगार राजा ने सोहन पाल बुंदेला से उसकी पुत्री का हाथ मांगा था जो बात बुंदेला को पसंद नहीं आई सोहन पाल बुंदेला ने छल कपट से सारे खंगार राज्य का अंत कर दिया और स्वयं गढ़कुंडार का राजा बन गए श्रेणी:प्राचीन भारतीय शहर.

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गुप्त राजवंश

गुप्त राज्य लगभग ५०० ई इस काल की अजन्ता चित्रकला गुप्त राजवंश या गुप्त वंश प्राचीन भारत के प्रमुख राजवंशों में से एक था। मौर्य वंश के पतन के बाद दीर्घकाल तक भारत में राजनीतिक एकता स्थापित नहीं रही। कुषाण एवं सातवाहनों ने राजनीतिक एकता लाने का प्रयास किया। मौर्योत्तर काल के उपरान्त तीसरी शताब्दी इ. में तीन राजवंशो का उदय हुआ जिसमें मध्य भारत में नाग शक्‍ति, दक्षिण में बाकाटक तथा पूर्वी में गुप्त वंश प्रमुख हैं। मौर्य वंश के पतन के पश्चात नष्ट हुई राजनीतिक एकता को पुनस्थापित करने का श्रेय गुप्त वंश को है। गुप्त साम्राज्य की नींव तीसरी शताब्दी के चौथे दशक में तथा उत्थान चौथी शताब्दी की शुरुआत में हुआ। गुप्त वंश का प्रारम्भिक राज्य आधुनिक उत्तर प्रदेश और बिहार में था। गुप्त वंश पर सबसे ज्यादा रिसर्च करने वाले इतिहासकार डॉ जयसवाल ने इन्हें जाट बताया है।इसके अलावा तेजराम शर्माhttps://books.google.co.in/books?id.

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ग्वालियर

ग्वालियर भारत के मध्य प्रदेश प्रान्त का एक प्रमुख शहर है। भौगोलिक दृष्टि से ग्वालियर म.प्र.

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ओरछा

भारत के इतिहास में झांसी के पास स्थित ओरछा का एक अपना महत्व है। इससे जुड़ी तमाम कहानियां और किस्से पिछली कई दशकों से लोगों की जुबान पर हैं। .

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इतिहास

बोधिसत्व पद्मपनी, अजंता, भारत। इतिहास(History) का प्रयोग विशेषत: दो अर्थों में किया जाता है। एक है प्राचीन अथवा विगत काल की घटनाएँ और दूसरा उन घटनाओं के विषय में धारणा। इतिहास शब्द (इति + ह + आस; अस् धातु, लिट् लकार अन्य पुरुष तथा एक वचन) का तात्पर्य है "यह निश्चय था"। ग्रीस के लोग इतिहास के लिए "हिस्तरी" (history) शब्द का प्रयोग करते थे। "हिस्तरी" का शाब्दिक अर्थ "बुनना" था। अनुमान होता है कि ज्ञात घटनाओं को व्यवस्थित ढंग से बुनकर ऐसा चित्र उपस्थित करने की कोशिश की जाती थी जो सार्थक और सुसंबद्ध हो। इस प्रकार इतिहास शब्द का अर्थ है - परंपरा से प्राप्त उपाख्यान समूह (जैसे कि लोक कथाएँ), वीरगाथा (जैसे कि महाभारत) या ऐतिहासिक साक्ष्य। इतिहास के अंतर्गत हम जिस विषय का अध्ययन करते हैं उसमें अब तक घटित घटनाओं या उससे संबंध रखनेवाली घटनाओं का कालक्रमानुसार वर्णन होता है। दूसरे शब्दों में मानव की विशिष्ट घटनाओं का नाम ही इतिहास है। या फिर प्राचीनता से नवीनता की ओर आने वाली, मानवजाति से संबंधित घटनाओं का वर्णन इतिहास है।Whitney, W. D. (1889).

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कलचुरी

कलचुरी वंश बुंदेलखंड का एक महत्‍वपूर्ण शासक रहा है। उनके शासनकाल के दौरान बुंदेलखंड में कई युद्ध हुए और निरंतर अनिश्चय का वातावरण रहा। कलचुरी वंश लगभग तीन सौ वर्ष तक दक्षिणी बुंदेलखंड का शासक रहा। बारहवीं शताब्दी में चंदेल शासकों की बढ़ती शक्ति के कारण कलचुरियों का पराभव हुआ। कलचुरी शैवोपासक थे इसलिए उनके बनवाए मदिरों में शिव मंदिर अधिक हैं। उनमें त्रिदेवों की पूजा भी होती थी। स्‍थापत्‍य और मूर्तिकला को कलचुरियों ने काफी प्रोत्‍साहन दिया। ऐसी भी धारणा है कि समाज में विभिन्न वर्गों में उपजातियों का निर्माण इसी काल में हुआ था। श्रेणी:बुंदेलखंड.

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कला

राजा रवि वर्मा द्वारा चित्रित 'गोपिका' कला (आर्ट) शब्द इतना व्यापक है कि विभिन्न विद्वानों की परिभाषाएँ केवल एक विशेष पक्ष को छूकर रह जाती हैं। कला का अर्थ अभी तक निश्चित नहीं हो पाया है, यद्यपि इसकी हजारों परिभाषाएँ की गयी हैं। भारतीय परम्परा के अनुसार कला उन सारी क्रियाओं को कहते हैं जिनमें कौशल अपेक्षित हो। यूरोपीय शास्त्रियों ने भी कला में कौशल को महत्त्वपूर्ण माना है। कला एक प्रकार का कृत्रिम निर्माण है जिसमे शारीरिक और मानसिक कौशलों का प्रयोग होता है। .

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कलिंजर

उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में स्थित कालिंजर बुंदेलखंड का ऐतिहासिक और सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण नगर है। प्राचीन काल में यह जेजाकभुक्ति साम्राज्य के अधीन था। यहां का किला भारत के सबसे विशाल और अपराजेय किलों में एक माना जाता है। 9वीं से 15वीं शताब्दी तक यहां चंदेल शासकों का शासन था। चंदेल राजाओं के शासनकाल में कालिंजर पर महमूद गजनवी, कुतुबुद्दीन ऐबक,शेर शाह सूरी और हुमांयू ने आक्रमण किए लेकिन जीतने में असफल रहे। अनेक प्रयासों के बावजूद मुगल कालिंजर के किले को जीत नहीं पाए। अन्तत: 1569 में अकबर ने यह किला जीता और अपने नवरत्नों में एक बीरबल को उपहारस्वरूप प्रदान किया। बीरबल क बाद यह किला बुंदेल राजा छत्रसाल के अधीन हो गया। छत्रसाल के बाद किले पर पन्ना के हरदेव शाह का अधिकार हो गया। 1812 में यह किला अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया। एक समय कालिंजर चारों ओर से ऊंची दीवार से घिरा हुआ था और इसमें चार प्रवेश द्वार थे। वर्तमान में कामता द्वार, पन्ना द्वार और रीवा द्वार नामक तीन प्रवेश द्वार ही शेष बचे हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण यह नगर पर्यटकों को बहुत पसंद आता है। पर्यटक यहां इतिहास से रूबरू होने के लिए नियमित रूप से आते रहते हैं। धार्मिक लेख बताते हैं, कि प्रत्येक युग में इस स्थान के भिन्न नाम रहे.

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अजयगढ़

मध्यप्रदेश के ऐतिहासिक जिले पन्ना के निकट बसा ६.८१ वर्ग किलोमीटर में फैला अजयगढ़ अपने लगभग २५० साल पुराने दुर्ग, प्राकृतिक सुषमा और वन्य-सम्पदा के लिए प्रसिद्ध है। यह नगर पंचायत है। .

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अकबर

जलाल उद्दीन मोहम्मद अकबर (१५ अक्तूबर, १५४२-२७ अक्तूबर, १६०५) तैमूरी वंशावली के मुगल वंश का तीसरा शासक था। अकबर को अकबर-ऐ-आज़म (अर्थात अकबर महान), शहंशाह अकबर, महाबली शहंशाह के नाम से भी जाना जाता है। अंतरण करने वाले के अनुसार बादशाह अकबर की जन्म तिथि हुमायुंनामा के अनुसार, रज्जब के चौथे दिन, ९४९ हिज़री, तदनुसार १४ अक्टूबर १५४२ को थी। सम्राट अकबर मुगल साम्राज्य के संस्थापक जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर का पौत्र और नासिरुद्दीन हुमायूं एवं हमीदा बानो का पुत्र था। बाबर का वंश तैमूर और मंगोल नेता चंगेज खां से संबंधित था अर्थात उसके वंशज तैमूर लंग के खानदान से थे और मातृपक्ष का संबंध चंगेज खां से था। अकबर के शासन के अंत तक १६०५ में मुगल साम्राज्य में उत्तरी और मध्य भारत के अधिकाश भाग सम्मिलित थे और उस समय के सर्वाधिक शक्तिशाली साम्राज्यों में से एक था। बादशाहों में अकबर ही एक ऐसा बादशाह था, जिसे हिन्दू मुस्लिम दोनों वर्गों का बराबर प्यार और सम्मान मिला। उसने हिन्दू-मुस्लिम संप्रदायों के बीच की दूरियां कम करने के लिए दीन-ए-इलाही नामक धर्म की स्थापना की। उसका दरबार सबके लिए हर समय खुला रहता था। उसके दरबार में मुस्लिम सरदारों की अपेक्षा हिन्दू सरदार अधिक थे। अकबर ने हिन्दुओं पर लगने वाला जज़िया ही नहीं समाप्त किया, बल्कि ऐसे अनेक कार्य किए जिनके कारण हिन्दू और मुस्लिम दोनों उसके प्रशंसक बने। अकबर मात्र तेरह वर्ष की आयु में अपने पिता नसीरुद्दीन मुहम्मद हुमायुं की मृत्यु उपरांत दिल्ली की राजगद्दी पर बैठा था। अपने शासन काल में उसने शक्तिशाली पश्तून वंशज शेरशाह सूरी के आक्रमण बिल्कुल बंद करवा दिये थे, साथ ही पानीपत के द्वितीय युद्ध में नवघोषित हिन्दू राजा हेमू को पराजित किया था। अपने साम्राज्य के गठन करने और उत्तरी और मध्य भारत के सभी क्षेत्रों को एकछत्र अधिकार में लाने में अकबर को दो दशक लग गये थे। उसका प्रभाव लगभग पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर था और इस क्षेत्र के एक बड़े भूभाग पर सम्राट के रूप में उसने शासन किया। सम्राट के रूप में अकबर ने शक्तिशाली और बहुल हिन्दू राजपूत राजाओं से राजनयिक संबंध बनाये और उनके यहाँ विवाह भी किये। अकबर के शासन का प्रभाव देश की कला एवं संस्कृति पर भी पड़ा। उसने चित्रकारी आदि ललित कलाओं में काफ़ी रुचि दिखाई और उसके प्रासाद की भित्तियाँ सुंदर चित्रों व नमूनों से भरी पड़ी थीं। मुगल चित्रकारी का विकास करने के साथ साथ ही उसने यूरोपीय शैली का भी स्वागत किया। उसे साहित्य में भी रुचि थी और उसने अनेक संस्कृत पाण्डुलिपियों व ग्रन्थों का फारसी में तथा फारसी ग्रन्थों का संस्कृत व हिन्दी में अनुवाद भी करवाया था। अनेक फारसी संस्कृति से जुड़े चित्रों को अपने दरबार की दीवारों पर भी बनवाया। अपने आरंभिक शासन काल में अकबर की हिन्दुओं के प्रति सहिष्णुता नहीं थी, किन्तु समय के साथ-साथ उसने अपने आप को बदला और हिन्दुओं सहित अन्य धर्मों में बहुत रुचि दिखायी। उसने हिन्दू राजपूत राजकुमारियों से वैवाहिक संबंध भी बनाये। अकबर के दरबार में अनेक हिन्दू दरबारी, सैन्य अधिकारी व सामंत थे। उसने धार्मिक चर्चाओं व वाद-विवाद कार्यक्रमों की अनोखी शृंखला आरंभ की थी, जिसमें मुस्लिम आलिम लोगों की जैन, सिख, हिन्दु, चार्वाक, नास्तिक, यहूदी, पुर्तगाली एवं कैथोलिक ईसाई धर्मशस्त्रियों से चर्चाएं हुआ करती थीं। उसके मन में इन धार्मिक नेताओं के प्रति आदर भाव था, जिसपर उसकी निजि धार्मिक भावनाओं का किंचित भी प्रभाव नहीं पड़ता था। उसने आगे चलकर एक नये धर्म दीन-ए-इलाही की भी स्थापना की, जिसमें विश्व के सभी प्रधान धर्मों की नीतियों व शिक्षाओं का समावेश था। दुर्भाग्यवश ये धर्म अकबर की मृत्यु के साथ ही समाप्त होता चला गया। इतने बड़े सम्राट की मृत्यु होने पर उसकी अंत्येष्टि बिना किसी संस्कार के जल्दी ही कर दी गयी। परम्परानुसार दुर्ग में दीवार तोड़कर एक मार्ग बनवाया गया तथा उसका शव चुपचाप सिकंदरा के मकबरे में दफना दिया गया। .

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उज्जयिनी

उज्जैन का प्रसिद्ध महाकालेश्वर मंदिर वर्तमान उज्जैन नगर, जो कि भारत के मध्य प्रदेश में स्थित है, उसे प्राचीन काल में उज्जयिओनी कहा जाता था। इसी से वर्तमान नाम उज्जैन पड़ा है। यह सात मोक्षदायिनी नगरियों, सप्तपुरियों में आता है। .

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