सामग्री की तालिका
11 संबंधों: डिप्टेरा, पूय, मल, मानव का पोषण नाल, रक्त, श्लेष्मा, जीवाणु, व्रण, अतिसार, अमीबा, उल्टी।
- अतिसार
- जलवाहित रोग
- संक्रामक आँत-सम्बन्धी रोग
डिप्टेरा
सोलह प्रकार की मक्खियों वाला पोस्टर द्विपंखी गण या डिप्टेरा (Diptera) गण के अंतर्गत वे कीट संमिलित हैं जो द्विपक्षीय (दो पंख वाले) हैं। कीट का यह सबसे बृहत् गण है। इसमें लगभग ८० हजार कीट जातियाँ हैं। इसमें मक्खी, पतिंगा, कुटकी (एक छोटा कीड़ा), मच्छर तथा इसी प्रकार के अन्य कीट भी संमिलित हैं। इस समुदाय के अंतर्गत एक ही प्रकार के सूक्ष्म तथा साधारण आकार के कीट होते हैं। ये कीट दिन तथा रात्रि दोनों में उड़ते हैं तथा जल और स्थल दोनों ही स्थान इनके वासस्थान हैं। साधारणत: ये समस्त विश्व में विस्तृत हैं, परंतु गरम देशों में तो इनका ऐसा आधिपत्य है कि प्रति वर्ष सैकड़ों मनुष्यों, तथा अन्य जंतुओं की इनके कारण मृत्यु हो जाती है। .
देखें पेचिश और डिप्टेरा
पूय
पूय, पीब, पीप या मवाद (pus) सफेद-पीला, पीला या पीला-भूरा द्रव है जो कशेरुक प्राणियों के शरीर के किसी घाव से निकलता है। श्रेणी:शरीर के द्रव.
देखें पेचिश और पूय
मल
घोड़े की लीद (मल) एवं घोड़ा मल (Feces, faeces, or fæces) वह वर्ज्य पदार्थ (waste product) है जिसे जानवर अपने पाचन नली से मलद्वार के रास्ते निकलते हैं। .
देखें पेचिश और मल
मानव का पोषण नाल
मानव का पाचक तंत्र मानव का पाचक नाल या आहार नाल (Digestive or Alimentary Canal) 25 से 30 फुट लंबी नाल है जो मुँह से लेकर मलाशय या गुदा के अंत तक विस्तृत है। यह एक संतत लंबी नली है, जिसमें आहार मुँह में प्रविष्ट होने के पश्चात् ग्रासनाल, आमाशय, ग्रहणी, क्षुद्रांत्र, बृहदांत्र, मलाशय और गुदा नामक अवयवों में होता हुआ गुदाद्वार से मल के रूप में बाहर निकल जाता है। .
देखें पेचिश और मानव का पोषण नाल
रक्त
मानव शरीर में लहू का संचरण लाल - शुद्ध लहू नीला - अशु्द्ध लहू लहू या रक्त या खून एक शारीरिक तरल (द्रव) है जो लहू वाहिनियों के अन्दर विभिन्न अंगों में लगातार बहता रहता है। रक्त वाहिनियों में प्रवाहित होने वाला यह गाढ़ा, कुछ चिपचिपा, लाल रंग का द्रव्य, एक जीवित ऊतक है। यह प्लाज़मा और रक्त कणों से मिल कर बनता है। प्लाज़मा वह निर्जीव तरल माध्यम है जिसमें रक्त कण तैरते रहते हैं। प्लाज़मा के सहारे ही ये कण सारे शरीर में पहुंच पाते हैं और वह प्लाज़मा ही है जो आंतों से शोषित पोषक तत्वों को शरीर के विभिन्न भागों तक पहुंचाता है और पाचन क्रिया के बाद बने हानिकारक पदार्थों को उत्सर्जी अंगो तक ले जा कर उन्हें फिर साफ़ होने का मौका देता है। रक्तकण तीन प्रकार के होते हैं, लाल रक्त कणिका, श्वेत रक्त कणिका और प्लैटलैट्स। लाल रक्त कणिका श्वसन अंगों से आक्सीजन ले कर सारे शरीर में पहुंचाने का और कार्बन डाईआक्साईड को शरीर से श्वसन अंगों तक ले जाने का काम करता है। इनकी कमी से रक्ताल्पता (अनिमिया) का रोग हो जाता है। श्वैत रक्त कणिका हानीकारक तत्वों तथा बिमारी पैदा करने वाले जिवाणुओं से शरीर की रक्षा करते हैं। प्लेटलेट्स रक्त वाहिनियों की सुरक्षा तथा खून बनाने में सहायक होते हैं। मनुष्य-शरीर में करीब पाँच लिटर लहू विद्यमान रहता है। लाल रक्त कणिका की आयु कुछ दिनों से लेकर १२० दिनों तक की होती है। इसके बाद इसकी कोशिकाएं तिल्ली (Phagocytosis) में टूटती रहती हैं। परन्तु इसके साथ-साथ अस्थि मज्जा (बोन मैरो) में इसका उत्पादन भी होता रहता है (In 7 steps)। यह बनने और टूटने की क्रिया एक निश्चित अनुपात में होती रहती है, जिससे शरीर में खून की कमी नहीं हो पाती। मनुष्यों में लहू ही सबसे आसानी से प्रत्यारोपित किया जा सकता है। एटीजंस से लहू को विभिन्न वर्गों में बांटा गया है और रक्तदान करते समय इसी का ध्यान रखा जाता है। महत्वपूर्ण एटीजंस को दो भागों में बांटा गया है। पहला ए, बी, ओ तथा दुसरा आर-एच व एच-आर। जिन लोगों का रक्त जिस एटीजंस वाला होता है उसे उसी एटीजंस वाला रक्त देते हैं। जिन पर कोई एटीजंस नहीं होता उनका ग्रुप "ओ" कहलाता है। जिनके रक्त कण पर आर-एच एटीजंस पाया जाता है वे आर-एच पाजिटिव और जिनपर नहीं पाया जाता वे आर-एच नेगेटिव कहलाते हैं। ओ-वर्ग वाले व्यक्ति को सर्वदाता तथा एबी वाले को सर्वग्राही कहा जाता है। परन्तु एबी रक्त वाले को एबी रक्त ही दिया जाता है। जहां स्वस्थ व्यक्ति का रक्त किसी की जान बचा सकता है, वहीं रोगी, अस्वस्थ व्यक्ति का खून किसी के लिये जानलेवा भी साबित हो सकता है। इसीलिए खून लेने-देने में बहुत सावधानी की आवश्यकता होती है। लहू का pH मान 7.4 होता है कार्य.
देखें पेचिश और रक्त
श्लेष्मा
श्लेष्मा का अर्थ होता सफेद रंग का पदार्थ जो गोंद की तरह दिखता है। ये अक्सर पेचिश रोग में मल त्याग के समय मे होता है।.
देखें पेचिश और श्लेष्मा
जीवाणु
जीवाणु जीवाणु एक एककोशिकीय जीव है। इसका आकार कुछ मिलिमीटर तक ही होता है। इनकी आकृति गोल या मुक्त-चक्राकार से लेकर छड़, आदि आकार की हो सकती है। ये अकेन्द्रिक, कोशिका भित्तियुक्त, एककोशकीय सरल जीव हैं जो प्रायः सर्वत्र पाये जाते हैं। ये पृथ्वी पर मिट्टी में, अम्लीय गर्म जल-धाराओं में, नाभिकीय पदार्थों में, जल में, भू-पपड़ी में, यहां तक की कार्बनिक पदार्थों में तथा पौधौं एवं जन्तुओं के शरीर के भीतर भी पाये जाते हैं। साधारणतः एक ग्राम मिट्टी में ४ करोड़ जीवाणु कोष तथा १ मिलीलीटर जल में १० लाख जीवाणु पाए जाते हैं। संपूर्ण पृथ्वी पर अनुमानतः लगभग ५X१०३० जीवाणु पाए जाते हैं। जो संसार के बायोमास का एक बहुत बड़ा भाग है। ये कई तत्वों के चक्र में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं, जैसे कि वायुमंडलीय नाइट्रोजन के स्थरीकरण में। हलाकि बहुत सारे वंश के जीवाणुओं का श्रेणी विभाजन भी नहीं हुआ है तथापि लगभग आधी प्रजातियों को किसी न किसी प्रयोगशाला में उगाया जा चुका है। जीवाणुओं का अध्ययन बैक्टिरियोलोजी के अन्तर्गत किया जाता है जो कि सूक्ष्म जैविकी की ही एक शाखा है। मानव शरीर में जितनी भी मानव कोशिकाएं है, उसकी लगभग १० गुणा संख्या तो जीवाणु कोष की ही है। इनमें से अधिकांश जीवाणु त्वचा तथा अहार-नाल में पाए जाते हैं। हानिकारक जीवाणु इम्यून तंत्र के रक्षक प्रभाव के कारण शरीर को नुकसान नहीं पहुंचा पाते। कुछ जीवाणु लाभदायक भी होते हैं। अनेक प्रकार के परजीवी जीवाणु कई रोग उत्पन्न करते हैं, जैसे - हैजा, मियादी बुखार, निमोनिया, तपेदिक या क्षयरोग, प्लेग इत्यादि.
देखें पेचिश और जीवाणु
व्रण
एक बच्चे के पैर में अल्सर व्रण या अल्सर (Ulcer) शरीरपृष्ठ (body surface) पर संक्रमण द्वारा उत्पन्न होता है। इस संक्रमण के जीवविष (toxins) स्थानिक उपकला (epithelium) को नष्ट कर देते हैं। नष्ट हुई उपकला के ऊपर मृत कोशिकाएँ एवं पूय (pus) संचित हो जाता है। मृत कोशिकाओं तथा पूय के हट जाने पर नष्ट हुई उपकला के स्थान पर धीरे धीरे कणिकामय ऊतक (granular tissues) आने लगते हैं। इस प्रकार की विक्षति को व्रण कहते हैं। दूसरे शब्दों में संक्रमणोपरांत उपकला ऊतक की कोशिकीय मृत्यु को व्रण कहते है। किसी भी पृष्ठ के ऊपर, अथवा पार्श्व में, यदि कोई शोधयुक्त परिगलित (necrosed) भाग हो गया है, तो वहाँ व्रण उत्पन्न हो जाएगा। शीघ्र भर जानेवाले व्रण को सुदम्य व्रण कहते हैं। कभी-कभी कोई व्रण शीघ्र नहीं भरता। ऐसा व्रण दुदम्य हो जाता है, इसका कारण यह है कि उसमें या तो जीवाणुओं (bacteria) द्वारा संक्रमण होता रहता है, या व्रणवाले भाग में रक्त परिसंचरण (circulation of blood) उचित रूप से नहीं हो पाता। व्रण, पृष्ठ पर की एक कोशिका के बाद दूसरी कोशिका के नष्ट होने पर, बनता है। .
देखें पेचिश और व्रण
अतिसार
अतिसार या डायरिया (अग्रेज़ी:Diarrhea) में या तो बार-बार मल त्याग करना पड़ता है या मल बहुत पतले होते हैं या दोनों ही स्थितियां हो सकती हैं। पतले दस्त, जिनमें जल का भाग अधिक होता है, थोड़े-थोड़े समय के अंतर से आते रहते हैं। .
देखें पेचिश और अतिसार
अमीबा
अमीबा (Amoeba) जीववैज्ञानिक वर्गीकरण में एक वंश है तथा इस वंश के सदस्यों को भी प्रायः अमीबा कहा जाता है। अत्यंत सरल प्रकार का एक प्रजीव (प्रोटोज़ोआ) है जिसकी अधिकांश जातियाँ नदियों, तालाबों, मीठे पानी की झीलों, पोखरों, पानी के गड्ढों आदि में पाई जाती हैं। कुछ संबंधित जातियाँ महत्त्वपूर्ण परजीवी और रोगकारी हैं। जीवित अमीबा बहुत सूक्ष्म प्राणी है, यद्यपि इसकी कुछ जातियों के सदस्य 1/2 मि.मी.
देखें पेचिश और अमीबा
उल्टी
200px आमाशय के अन्दर के पदार्थों को बलपूर्वक शरीर के बाहर निकालने की क्रिया को उल्टी या वमन (Vomiting) कहते हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं जैसे कि गैस्ट्रीक, जहर या मस्तिष्क का ट्यूमर इत्यादि.
देखें पेचिश और उल्टी
यह भी देखें
अतिसार
जलवाहित रोग
संक्रामक आँत-सम्बन्धी रोग
- अतिसार
- आंत्र ज्वर
- कृमिरोग
- पेचिश
- हैजा
प्रवाहिका, रक्तातिसार, आमरक्तातिसार के रूप में भी जाना जाता है।