आन्वीक्षिकी और न्याय (बौद्ध)
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आन्वीक्षिकी और न्याय (बौद्ध) के बीच अंतर
आन्वीक्षिकी vs. न्याय (बौद्ध)
आन्वीक्षिकी, न्यायशास्त्र का प्राचीन अभिधान। प्राचीन काल में आन्वीक्षिकी, विचारशास्त्र या दर्शन की सामान्य संज्ञा थी और यह त्रयी (वेदत्रयी), वार्ता (अर्थशास्त्र), दंडनीति (राजनीति) के साथ चतुर्थ विद्या के रूप में प्रतिष्ठित थी (आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दंडनीतिश्च शाश्वती। विद्या ह्येताश्चतस्रस्तु लोकसंसृतिहेतवः) जिसका उपयोग लोक के व्यवहार निर्वाह के लिए आवश्यक माना जाता था। कालांतर में इस शब्द का प्रयोग केवल न्यायशास्त्र के लिए संकुचित कर दिया गया। वात्स्यायन के न्यायभाष्य के अनुसार अन्वीक्षा द्वारा प्रवृत्त होने के कारण ही इस विद्या की संज्ञा "आन्वीक्षिकी" पड़ गई। आन्वीक्षिकी के सर्वाधिक महत्व को सर्वप्रथम चाणक्य ने प्रतिपादित किया है। उनका कहना है- 'अन्वीक्षा' के दो अर्थ हैं. बौद्धन्याय, अवैदिक भारतीय न्याय की श्रेणी में आता है। (जैनन्याय भी अवैदिक न्याय है।) बौद्धन्याय चार संप्रदायों में विभक्त है- वैभाषिक, सौत्रांतिक, योगाचार और माध्यमिक। इनमें प्रथम दो हीनयान के तथा अंतिम दो महायान के अंतर्गत हैं। हीनयान का संबंध स्थविरवादी संघ से और महायान का संबंध महासांघिक संघ से है। पहला संघ बुद्धविषयों को परिवर्तनार्ह तथा दूसरा संघ उसे अपरिर्वनार्ह मानता है। .
आन्वीक्षिकी और न्याय (बौद्ध) के बीच समानता
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संदर्भ
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