व्यक्तित्व और व्यक्तित्व विकार के बीच समानता
व्यक्तित्व और व्यक्तित्व विकार आम में 2 बातें हैं (यूनियनपीडिया में): बहुव्यक्तित्व विकार, संस्कृति।
बहुव्यक्तित्व विकार
बहुव्यक्तित्व विकार व्यक्तित्व की दो परस्परविरोधी अथवा सर्वथा भिन्न शैलियों का उसकी एक ही इकाई में अपनी पृथक् सत्ता सुरक्षित रखते हुए, इकट्ठे रहने का बोध द्विव्यक्तित्व (Dual Personality) है। एक ही व्यक्ति के घेरे में रहकर भी ये अपने में सुसंबद्ध एवं व्यवस्थित होते हैं; एक दूसरे के प्रति तटस्थ एवं विस्मृत रहते हैं। जब एक व्यक्तित्व-खंड चेतना के धरातल पर सक्रिय रहता हैं तो दूसरे की स्मृति नहीं रहती, यद्यपि स्मृति के मामले में अपवाद भी होते हैं। अपने ही भिन्न स्वरूपबोधों की असंपृक्तता व्यवहार में प्रकट होकर लोगों को अचरज में डाल देती है। सर्वथा विरोधी आचरणों से उसके सामाजिक संबंध लगातार बाधित एवं व्यतिक्रमित होते हैं, टूट जाते हैं। द्विव्यक्तित्वधारी, मानसिक चिकित्सा का एक नैदानिक विषय (पैथालाजिकल केस) बन जाता है। ये व्यक्तित्व-खंड दो से ज्यादा भी होते है। इनके कई नाम भी चलते हैं- बहुव्यक्तित्व (मल्टिपुल पर्सनैलिटी), खंडित व्यक्तित्व (स्प्लिट पर्सनैलिटी); असंपृक्त व्यक्तित्व (Dissociative personality), एकांतरित तथा स्थानांतरित (आल्टर्नेंट तथा डिस्प्लेस्ड) व्यक्तित्व आदि। लोककथाओं तथ साहित्य में ऐसे व्यक्तित्व परिवर्तन के दृष्टांत मिलते हैं। राबर्ट लुई सटीवेंसन के प्रसिद्ध उपन्यास 'डॉ॰ जोकिल ऐंड मि.
बहुव्यक्तित्व विकार और व्यक्तित्व · बहुव्यक्तित्व विकार और व्यक्तित्व विकार ·
संस्कृति
संस्कृति किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों के समग्र रूप का नाम है, जो उस समाज के सोचने, विचारने, कार्य करने, खाने-पीने, बोलने, नृत्य, गायन, साहित्य, कला, वास्तु आदि में परिलक्षित होती है। संस्कृति का वर्तमान रूप किसी समाज के दीर्घ काल तक अपनायी गयी पद्धतियों का परिणाम होता है। ‘संस्कृति’ शब्द संस्कृत भाषा की धातु ‘कृ’ (करना) से बना है। इस धातु से तीन शब्द बनते हैं ‘प्रकृति’ (मूल स्थिति), ‘संस्कृति’ (परिष्कृत स्थिति) और ‘विकृति’ (अवनति स्थिति)। जब ‘प्रकृत’ या कच्चा माल परिष्कृत किया जाता है तो यह संस्कृत हो जाता है और जब यह बिगड़ जाता है तो ‘विकृत’ हो जाता है। अंग्रेजी में संस्कृति के लिये 'कल्चर' शब्द प्रयोग किया जाता है जो लैटिन भाषा के ‘कल्ट या कल्टस’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है जोतना, विकसित करना या परिष्कृत करना और पूजा करना। संक्षेप में, किसी वस्तु को यहाँ तक संस्कारित और परिष्कृत करना कि इसका अंतिम उत्पाद हमारी प्रशंसा और सम्मान प्राप्त कर सके। यह ठीक उसी तरह है जैसे संस्कृत भाषा का शब्द ‘संस्कृति’। संस्कृति का शब्दार्थ है - उत्तम या सुधरी हुई स्थिति। मनुष्य स्वभावतः प्रगतिशील प्राणी है। यह बुद्धि के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरन्तर सुधारता और उन्नत करता रहता है। ऐसी प्रत्येक जीवन-पद्धति, रीति-रिवाज रहन-सहन आचार-विचार नवीन अनुसन्धान और आविष्कार, जिससे मनुष्य पशुओं और जंगलियों के दर्जे से ऊँचा उठता है तथा सभ्य बनता है, सभ्यता और संस्कृति का अंग है। सभ्यता (Civilization) से मनुष्य के भौतिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है जबकि संस्कृति (Culture) से मानसिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है। मनुष्य केवल भौतिक परिस्थितियों में सुधार करके ही सन्तुष्ट नहीं हो जाता। वह भोजन से ही नहीं जीता, शरीर के साथ मन और आत्मा भी है। भौतिक उन्नति से शरीर की भूख मिट सकती है, किन्तु इसके बावजूद मन और आत्मा तो अतृप्त ही बने रहते हैं। इन्हें सन्तुष्ट करने के लिए मनुष्य अपना जो विकास और उन्नति करता है, उसे संस्कृति कहते हैं। मनुष्य की जिज्ञासा का परिणाम धर्म और दर्शन होते हैं। सौन्दर्य की खोज करते हुए वह संगीत, साहित्य, मूर्ति, चित्र और वास्तु आदि अनेक कलाओं को उन्नत करता है। सुखपूर्वक निवास के लिए सामाजिक और राजनीतिक संघटनों का निर्माण करता है। इस प्रकार मानसिक क्षेत्र में उन्नति की सूचक उसकी प्रत्येक सम्यक् कृति संस्कृति का अंग बनती है। इनमें प्रधान रूप से धर्म, दर्शन, सभी ज्ञान-विज्ञानों और कलाओं, सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाओं और प्रथाओं का समावेश होता है। .
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व्यक्तित्व और व्यक्तित्व विकार के बीच तुलना
व्यक्तित्व 40 संबंध है और व्यक्तित्व विकार 4 है। वे आम 2 में है, समानता सूचकांक 4.55% है = 2 / (40 + 4)।
संदर्भ
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