मीमांसा दर्शन और संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द के बीच समानता
मीमांसा दर्शन और संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द आम में 5 बातें हैं (यूनियनपीडिया में): धर्म, ब्रह्म, सामवेद संहिता, वैशेषिक दर्शन, वेदान्त दर्शन।
धर्म
धर्मचक्र (गुमेत संग्रहालय, पेरिस) धर्म का अर्थ होता है, धारण, अर्थात जिसे धारण किया जा सके, धर्म,कर्म प्रधान है। गुणों को जो प्रदर्शित करे वह धर्म है। धर्म को गुण भी कह सकते हैं। यहाँ उल्लेखनीय है कि धर्म शब्द में गुण अर्थ केवल मानव से संबंधित नहीं। पदार्थ के लिए भी धर्म शब्द प्रयुक्त होता है यथा पानी का धर्म है बहना, अग्नि का धर्म है प्रकाश, उष्मा देना और संपर्क में आने वाली वस्तु को जलाना। व्यापकता के दृष्टिकोण से धर्म को गुण कहना सजीव, निर्जीव दोनों के अर्थ में नितांत ही उपयुक्त है। धर्म सार्वभौमिक होता है। पदार्थ हो या मानव पूरी पृथ्वी के किसी भी कोने में बैठे मानव या पदार्थ का धर्म एक ही होता है। उसके देश, रंग रूप की कोई बाधा नहीं है। धर्म सार्वकालिक होता है यानी कि प्रत्येक काल में युग में धर्म का स्वरूप वही रहता है। धर्म कभी बदलता नहीं है। उदाहरण के लिए पानी, अग्नि आदि पदार्थ का धर्म सृष्टि निर्माण से आज पर्यन्त समान है। धर्म और सम्प्रदाय में मूलभूत अंतर है। धर्म का अर्थ जब गुण और जीवन में धारण करने योग्य होता है तो वह प्रत्येक मानव के लिए समान होना चाहिए। जब पदार्थ का धर्म सार्वभौमिक है तो मानव जाति के लिए भी तो इसकी सार्वभौमिकता होनी चाहिए। अतः मानव के सन्दर्भ में धर्म की बात करें तो वह केवल मानव धर्म है। हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, जैन या बौद्ध आदि धर्म न होकर सम्प्रदाय या समुदाय मात्र हैं। “सम्प्रदाय” एक परम्परा के मानने वालों का समूह है। (पालि: धम्म) भारतीय संस्कृति और दर्शन की प्रमुख संकल्पना है। 'धर्म' शब्द का पश्चिमी भाषाओं में कोई तुल्य शब्द पाना बहुत कठिन है। साधारण शब्दों में धर्म के बहुत से अर्थ हैं जिनमें से कुछ ये हैं- कर्तव्य, अहिंसा, न्याय, सदाचरण, सद्-गुण आदि। .
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ब्रह्म
ब्रह्म (संस्कृत: ब्रह्मन्) हिन्दू (वेद परम्परा, वेदान्त और उपनिषद) दर्शन में इस सारे विश्व का परम सत्य है और जगत का सार है। वो दुनिया की आत्मा है। वो विश्व का कारण है, जिससे विश्व की उत्पत्ति होती है, जिसमें विश्व आधारित होता है और अन्त में जिसमें विलीन हो जाता है। वो एक और अद्वितीय है। वो स्वयं ही परमज्ञान है, और प्रकाश-स्त्रोत की तरह रोशन है। वो निराकार, अनन्त, नित्य और शाश्वत है। ब्रह्म सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है। ब्रम्ह हिन्दी में ब्रह्म का ग़लत उच्चारण और लिखावट है। .
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सामवेद संहिता
सामवेद भारत के प्राचीनतम ग्रंथ वेदों में से एक है, गीत-संगीत प्रधान है। प्राचीन आर्यों द्वारा साम-गान किया जाता था। सामवेद चारों वेदों में आकार की दृष्टि से सबसे छोटा है और इसके १८७५ मन्त्रों में से ६९ को छोड़ कर सभी ऋगवेद के हैं। केवल १७ मन्त्र अथर्ववेद और यजुर्वेद के पाये जाते हैं। फ़िर भी इसकी प्रतिष्ठा सर्वाधिक है, जिसका एक कारण गीता में कृष्ण द्वारा वेदानां सामवेदोऽस्मि कहना भी है। सामवेद यद्यपि छोटा है परन्तु एक तरह से यह सभी वेदों का सार रूप है और सभी वेदों के चुने हुए अंश इसमें शामिल किये गये है। सामवेद संहिता में जो १८७५ मन्त्र हैं, उनमें से १५०४ मन्त्र ऋग्वेद के ही हैं। सामवेद संहिता के दो भाग हैं, आर्चिक और गान। पुराणों में जो विवरण मिलता है उससे सामवेद की एक सहस्त्र शाखाओं के होने की जानकारी मिलती है। वर्तमान में प्रपंच ह्रदय, दिव्यावदान, चरणव्युह तथा जैमिनि गृहसूत्र को देखने पर १३ शाखाओं का पता चलता है। इन तेरह में से तीन आचार्यों की शाखाएँ मिलती हैं- (१) कौमुथीय, (२) राणायनीय और (३) जैमिनीय। .
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वैशेषिक दर्शन
वैशेषिक हिन्दुओं के षडदर्शनों में से एक दर्शन है। इसके मूल प्रवर्तक ऋषि कणाद हैं (ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी)। यह दर्शन न्याय दर्शन से बहुत साम्य रखता है किन्तु वास्तव में यह एक स्वतंत्र भौतिक विज्ञानवादी दर्शन है। इस प्रकार के आत्मदर्शन के विचारों का सबसे पहले महर्षि कणाद ने सूत्र रूप में लिखा। कणाद एक ऋषि थे। ये "उच्छवृत्ति" थे और धान्य के कणों का संग्रह कर उसी को खाकर तपस्या करते थे। इसी लिए इन्हें "कणाद" या "कणभुक्" कहते थे। किसी का कहना है कि कण अर्थात् परमाणु तत्व का सूक्ष्म विचार इन्होंने किया है, इसलिए इन्हें "कणाद" कहते हैं। किसी का मत है कि दिन भर ये समाधि में रहते थे और रात्रि को कणों का संग्रह करते थे। यह वृत्ति "उल्लू" पक्षी की है। किस का कहना है कि इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ईश्वर ने उलूक पक्षी के रूप में इन्हें शास्त्र का उपदेश दिया। इन्हीं कारणों से यह दर्शन "औलूक्य", "काणाद", "वैशेषिक" या "पाशुपत" दर्शन के नामों से प्रसिद्ध है। पठन-पाठन में विशेष प्रचलित न होने के कारण वैशेषिक सूत्रों में अनेक पाठभेद हैं तथा 'त्रुटियाँ' भी पर्याप्त हैं। मीमांसासूत्रों की तरह इसके कुछ सूत्रों में पुनरुक्तियाँ हैं - जैसे "सामान्यविशेषाभावेच" (4 बार) "सामान्यतोदृष्टाच्चा विशेष:" (2 बार), "तत्त्वं भावेन" (4 बार), "द्रव्यत्वनित्यत्वे वायुना व्यख्याते" (3 बार), "संदिग्धस्तूपचार:" (2 बार)। .
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वेदान्त दर्शन
वेदान्त ज्ञानयोग की एक शाखा है जो व्यक्ति को ज्ञान प्राप्ति की दिशा में उत्प्रेरित करता है। इसका मुख्य स्रोत उपनिषद है जो वेद ग्रंथो और अरण्यक ग्रंथों का सार समझे जाते हैं। उपनिषद् वैदिक साहित्य का अंतिम भाग है, इसीलिए इसको वेदान्त कहते हैं। कर्मकांड और उपासना का मुख्यत: वर्णन मंत्र और ब्राह्मणों में है, ज्ञान का विवेचन उपनिषदों में। 'वेदान्त' का शाब्दिक अर्थ है - 'वेदों का अंत' (अथवा सार)। वेदान्त की तीन शाखाएँ जो सबसे ज्यादा जानी जाती हैं वे हैं: अद्वैत वेदान्त, विशिष्ट अद्वैत और द्वैत। आदि शंकराचार्य, रामानुज और श्री मध्वाचार्य जिनको क्रमश: इन तीनो शाखाओं का प्रवर्तक माना जाता है, इनके अलावा भी ज्ञानयोग की अन्य शाखाएँ हैं। ये शाखाएँ अपने प्रवर्तकों के नाम से जानी जाती हैं जिनमें भास्कर, वल्लभ, चैतन्य, निम्बारक, वाचस्पति मिश्र, सुरेश्वर और विज्ञान भिक्षु। आधुनिक काल में जो प्रमुख वेदान्ती हुये हैं उनमें रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, अरविंद घोष, स्वामी शिवानंद राजा राममोहन रॉय और रमण महर्षि उल्लेखनीय हैं। ये आधुनिक विचारक अद्वैत वेदान्त शाखा का प्रतिनिधित्व करते हैं। दूसरे वेदान्तो के प्रवर्तकों ने भी अपने विचारों को भारत में भलिभाँति प्रचारित किया है परन्तु भारत के बाहर उन्हें बहुत कम जाना जाता है। .
मीमांसा दर्शन और वेदान्त दर्शन · वेदान्त दर्शन और संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द ·
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मीमांसा दर्शन और संख्यावाची विशिष्ट गूढ़ार्थक शब्द के बीच तुलना
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संदर्भ
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