माया और वरुण (देव)
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माया और वरुण (देव) के बीच अंतर
माया vs. वरुण (देव)
माया शब्द का प्रयोग एक से अधिक अर्थों में होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि विचार में परिवर्तन के साथ शब्द का अर्थ बदलता गया। जब हम किसी चकित कर देनेवाली घटना को देखते हैं, तो उसे ईश्वर की माया कह देते हैं। यहाँ माया का अर्थ शक्ति है। जादूगर अपनी चतुराई से पदार्थों को विपरीत रूप में दिखाता है, पदार्थों के अभाव में भी उन्हें दिखा देता है। यह उसकी माया है। यहाँ का अर्थ मिथ्या ज्ञान या ऐसे ज्ञान का विषय है। मिथ्या ज्ञान दो प्रकार का है -- भ्रम और मतिभ्रम। भ्रम में ज्ञान का विषय विद्यमान है परंतु वास्तविक रूप में दिखाता नहीं, मतिभ्रम में बाहर कुछ होता ही नही, हम कल्पना को प्रत्यक्ष ज्ञान समझ लेते हैं। हम में से हर एक कभी न कभी भ्रम या मतिभ्रम का शिकार होता है, कभी द्रष्टा और दृष्ट के दरमियान परदा पड़ जाता है। कभी वातावरण मिथ्या ज्ञान का कारण हो जाता है व्यक्ति की हालत में इसे अविद्या कहते है। माया व्यापक अविद्या है जिसमें सभी मनुष्य फँसे हैं। कुछ विचारक इसे भ्रम के रूप में देखते हैं, कुछ मतिभ्रम के रूप में। पश्चिमी दर्शन में कांट और बर्कले इस भेद को व्यक्त करते हैं। ज्ञानलाभ के अनुसार आरंभ में हमारा मन कोरी पटिया के समान होता है जिसपर बाहर से निरंतर प्रभाव पड़ते रहते हैं। कांट ने कहा कि ज्ञान की प्राप्ति में मन क्रियाहीन नहीं होता, क्रियाशील होता है। सभी घटनाएँ देश और काल में घटती प्रतीत होती है, परंतु देश और काल कोई बाहरी पदार्थ नहीं, ये मन की गुणग्राही शक्ति की आकृतियाँ हैं। प्रत्येक उपलब्ध को इन दोनों साँचों में से गुजरना पड़ता है। इस क्रम में उनका रंग रूप बदल जाता है। इसका परिणाम यह है कि हम किसी पदार्थ को उसके वास्तविक रूप में नहीं देख सकते, चश्में में से देखते हैं, जिसे हम आरंभ से पहने हैं और जिसे उतार नहीं सकते। लॉक ने बाह्म पदार्थों के गुणों में प्रधान और अप्रधान का भेद देखा। प्रधान गुण प्राकृतिक पदार्थों में विद्यमान है, परंतु अप्रधान गुण वह प्रभाव है जो बाह्म पदार्थ हमारे मन पर डालते हैं। बर्कले ने कहा कि जो कुछ अप्रधान गुणों के मानवी होने के पक्ष में कहा जाता है, वही प्रधान गुणों के मानवी होने के पक्ष में कहा जा सकता है। पदार्थ गुणसमूह ही है और सभी गुण मानवी हैं, समस्त सत्ता चेतनों और विचारों से बनी है। हमारे उपलब्ध (Sense Experience) हम पर थोपे या आरोपित किए जाते हैं, परंतु ये प्रकृति के आघात के परिणाम नहीं, ईश्वर की क्रिया के फल हैं। भारत में मायावाद का प्रसिद्ध विवरण है-- "ब्रह्म सत्यम, जगत् मिथ्या"। इस व्यवस्था में जीवात्मा का स्थान कहाँ है? यह भी जगत् का अंश है, ज्ञाता नहीं, आप आभास है। ब्रह्म माया से आप्त होता है और अपने शुद्ध स्वरूप को छोड़कर ईश्वर बन जाता है। ईश्वर, जीव और बाह्म पदार्थ, प्राप्त ब्रह्म के ही तीन प्रकाशन हैं। ब्रह्म के अतिरिक्त तो कुछ ही नहीं, यह सारा खेल होता क्यों है? एक विचार के अनुसार मायावी अपनी दिल्लगी के लिये खेल खेलता है, दूसरे विचार के अनुसार माया एक परदा है जो शुद्ध ब्रह्म को ढक देती है। पहले विचार के अनुसार माया ब्रह्म की शक्ति है, दूसरे के अनुसार उसकी अशक्ति की प्रतीक है। सामान्य विचार के अनुसार मायावाद का सिद्धांत उपनिषदों, ब्रह्मसूत्रों और भगवद गीता में प्रतिपादित है। इसका प्रसार प्रमुख रूप से शंकराचार्य ने किया। उपनिषदों में मायावाद का स्पष्ट वर्णन नहीं, माया शब्द भी एक दो बार ही प्रयुक्त हुआ है। ब्रह्मसूत्रों में शंकर ने अद्वैत को देखा, रामानुज ने इसे नहीं देखा और बहुतेरे विचारकों के लिये रामानुज की व्याख्या अधिक विश्वास करने के योग्य है। भगवद्गीता दार्शनिक कविता है, दर्शन नहीं। शंकर की स्थिति प्राय: भाष्यकार की है। मायावाद के समर्थन में गौड़पाद की कारिकाओं का स्थान विशेष महत्व का है, इसपर कुछ विचार करें। गौड़पाद कारिकाओं के आरंभ में ही कहता है। स्वप्न में जो कुछ दिखाई देता है, वह शरीर के अंदर ही स्थित होता है, वहाँ उसके लिये पर्याप्त स्थान नहीं। स्वप्न देखनेवाला स्वप्न में दूर के स्थानों में जाकर दृश्य देखता है, परंतु जो काल इसमें लगता है वह उन स्थानों में पहुँचने के लिये पर्याप्त नहीं और जागने पर वह वहाँ विद्यमान नहीं होता। देश के संकोच के कारण हमें मानना पड़ता है कि स्वप्न में देखे हुए पदार्थ वस्तुगत अस्तित्व नहीं रखते, काल का संकोच भी बताता है कि स्वप्न के दृश्य वास्तविक नहीं। इसके बाद गौडपाद कहता है कि स्वप्न और जागृत अवस्थाओं में कोई भेद नहीं, दानों एक समान अस्थिर हैं। वर्तमान प्रतीति से पूर्व का अभाव स्वीकृत है, इसके पीछेश् आने वाले अनुभव का भाव अभी हुआ नहीं; जो आदि और अंत में नहीं है, वह वर्तमान में भी वैसा ही है "जिस प्रकार स्वप्न और माया देखे जाते हैं, जैसे गंधर्वनगर दिखता है, उसी तरह पंडितों ने वेदांत में इस जगत् को देखा है।' गौड़पाद के तर्क में दो भाग हैं--. वरुण हिन्दू धर्म के एक प्रमुख देवता हैं। प्राचीन वैदिक धर्म में उनका स्थान बहुत ही महत्त्वपूर्ण था पर वेदों में उसका रूप इतना अमूर्त हैं कि उसका प्राकृतिक चित्रण मुश्किल है। माना जाता है कि वरुण की स्थिति अन्य वैदिक देवताओं की अपेक्षा प्राचीन है, इसीलिए वैदिक युग में वरुण किसी प्राकृतिक उपादान का वाचक नहीं है। अग्नि व इंद्र की अपेक्षा वरुण को संबोधित सूक्तों की मात्रा बहुत कम है फिर भी उसका महत्व कम नहीं है। इंद्र को महान योद्धा के रूप में जाना जाता है तो वरुण को नैतिक शक्ति का महान पोषक माना गया है, वह ऋत (सत्य) का पोषक है। अधिकतर सूक्तों में वस्र्ण के प्रति उदात्त भक्ति की भावना दिखाई देती है। ऋग्वेद के अधिकतर सूक्तों में वरुण से किए गए पापों के लिए क्षमा प्रार्थना की गई हैं। वरुण को अन्य देवताओं जैसे इंद्र आदि के साथ भी वर्णित किया गया है। वरुण से संबंधित प्रार्थनाओं में भक्ति भावना की पराकाष्ठा दिखाई देती है। उदाहरण के लिए ऋग्वेद के सातवें मंडल में वस्र्ण के लिए सुंदर प्रार्थना गीत मिलते हैं। उनको "असुर" की उपाधी दी गयी थी, मतलब की वो "देव" देवताओं के समूह से अलग थे। उनके पास जादुई शक्ति मानी जाती थी, जिसका नाम था माया। उनको इतिहासकार मानते हैं कि असुर वरुण ही पारसी धर्म में "अहुरा मज़्दा" कहलाए। बाद की पौराणिक कथाओं में वरुण को मामूली जल-देव बना दिया गया। श्रेणी:हिन्दू धर्म श्रेणी:इन्द्र लोक के देवता.
माया और वरुण (देव) के बीच समानता
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