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भौतिकवाद

सूची भौतिकवाद

भौतिकवाद (Materialism) दार्शनिक एकत्ववाद का एक प्रकार हैं, जिसका यह मत है कि प्रकृति में पदार्थ ही मूल द्रव्य है, और साथ ही, सभी दृग्विषय, जिस में मानसिक दृग्विषय और चेतना भी शामिल हैं, भौतिक परस्पर संक्रिया के परिणाम हैं। भौतिकवाद का भौतिकतावाद (Physicalism) से गहरा सम्बन्ध हैं, जिसका यह मत है कि जो कुछ भी अस्तित्व में हैं, वह अंततः भौतिक हैं। भौतिक विज्ञानों की ख़ोज के साथ, दार्शनिक भौतिकतावाद भौतिकवाद से क्रम-विकासित हुआ, ताकि सिर्फ़ सामान्य पदार्थ के बजाए भौतिकता के अधिक परिष्कृत विचारों को समाहित किया जा सकें, जैसे कि, दिक्-काल, भौतिक ऊर्जाएँ और बल, डार्क मैटर, इत्यादि। अतः, कुछ लोग "भौतिकवाद" से बढ़कर "भौतिकतावाद" शब्द को वरीयता देते हैं, जबकि कुछ इन शब्दों का प्रयोग समानार्थी शब्दों के रूप में करते हैं। भौतिकवाद या भौतिकतावाद से विरुद्ध दर्शनों में आदर्शवाद, बहुलवाद, द्वैतवाद और एकत्ववाद के कुछ प्रकार सम्मिलित हैं। .

14 संबंधों: ऊर्जा, चार्वाक दर्शन, चेतना, ऐतिहासिक भौतिकवाद, डार्क मैटर, दिक्-काल, द्वैतवाद, दृग्विषय, पदार्थ, प्रकृति विज्ञान, बल, मन, समानार्थी, आदर्शवाद

ऊर्जा

दीप्तिमान (प्रकाश) ऊर्जा छोड़ता हैं। भौतिकी में, ऊर्जा वस्तुओं का एक गुण है, जो अन्य वस्तुओं को स्थानांतरित किया जा सकता है या विभिन्न रूपों में रूपांतरित किया जा सकता हैं। किसी भी कार्यकर्ता के कार्य करने की क्षमता को ऊर्जा (Energy) कहते हैं। ऊँचाई से गिरते हुए जल में ऊर्जा है क्योंकि उससे एक पहिये को घुमाया जा सकता है जिससे बिजली पैदा की जा सकती है। ऊर्जा की सरल परिभाषा देना कठिन है। ऊर्जा वस्तु नहीं है। इसको हम देख नहीं सकते, यह कोई जगह नहीं घेरती, न इसकी कोई छाया ही पड़ती है। संक्षेप में, अन्य वस्तुओं की भाँति यह द्रव्य नहीं है, यद्यापि बहुधा द्रव्य से इसका घनिष्ठ संबंध रहता है। फिर भी इसका अस्तित्व उतना ही वास्तविक है जितना किसी अन्य वस्तु का और इस कारण कि किसी पिंड समुदाय में, जिसके ऊपर किसी बाहरी बल का प्रभाव नहीं रहता, इसकी मात्रा में कमी बेशी नहीं होती। .

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चार्वाक दर्शन

चार्वाक दर्शन एक भौतिकवादी नास्तिक दर्शन है। यह मात्र प्रत्यक्ष प्रमाण को मानता है तथा पारलौकिक सत्ताओं को यह सिद्धांत स्वीकार नहीं करता है। यह दर्शन वेदबाह्य भी कहा जाता है। वेदबाह्य दर्शन छ: हैं- चार्वाक, माध्यमिक, योगाचार, सौत्रान्तिक, वैभाषिक, और आर्हत। इन सभी में वेद से असम्मत सिद्धान्तों का प्रतिपादन है। चार्वाक प्राचीन भारत के एक अनीश्वरवादी और नास्तिक तार्किक थे। ये नास्तिक मत के प्रवर्तक बृहस्पति के शिष्य माने जाते हैं। बृहस्पति और चार्वाक कब हुए इसका कुछ भी पता नहीं है। बृहस्पति को चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र ग्रन्थ में अर्थशास्त्र का एक प्रधान आचार्य माना है। .

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चेतना

१७वीं सदी से चेतना का एक चित्रण चेतना कुछ जीवधारियों में स्वयं के और अपने आसपास के वातावरण के तत्वों का बोध होने, उन्हें समझने तथा उनकी बातों का मूल्यांकन करने की शक्ति का नाम है। विज्ञान के अनुसार चेतना वह अनुभूति है जो मस्तिष्क में पहुँचनेवाले अभिगामी आवेगों से उत्पन्न होती है। इन आवेगों का अर्थ तुरंत अथवा बाद में लगाया जाता है। .

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ऐतिहासिक भौतिकवाद

ऐतिहासिक भौतिकवाद (Historical materialism) समाज और उसके इतिहास के अध्ययन में द्वंद्वात्मक भौतिकवाद (Dialectical materialism) के सिद्धांतों का प्रसारण है। आधुनिक काल में चूँकि इतिहास को मात्र विवरणात्मक न मानकर व्याख्यात्मक अधिक माना जाता है और वह अब केवल आकस्मिक घटनाओं का पुंज मात्र नहीं रह गया है, ऐतिहासिक भौतिकवाद ने ऐतिहासिक विचारधारा को अत्यधिक प्रभावित किया है। 17 मार्च 1883 को कार्ल मार्क्स की समाधि के पास उनके मित्र और सहयोगी एंजिल ने कहा था, ""ठीक जिस तरह जीव जगत् में डार्विन ने विकास के नियम का अनुसंधान किया, उसी तरह मानव इतिहास में मार्क्स ने विकास के नियम का अनुसंधान किया। उन्होंने इस सामान्य तथ्य को खोज निकाला (जो अभी तक आदर्शवादिता के मलबे के नीचे दबा था) कि इसके पहले कि वह राजनीति, विज्ञान, कला, धर्म और इस प्रकार की बातों में रुचि ले सके, मानव को सबसे पहले खाना पीना, वस्त्र और आवास मिलना चाहिए। इसका अभिप्राय यह है कि जीवन धारण के लिए आसन्न आवश्यक भौतिक साधनों के साथ-साथ राष्ट्र अथवा युगविशेष के तत्कालीन आर्थिक विकास की प्रावस्था उस आधार का निर्माण करती है जिसपर राज्य संस्थाएँ, विधिमूलक दृष्टिकोण और संबंधित व्यक्तियों के कलात्मक और धार्मिक विचार तक निर्मित हुए हैं। तात्पर्य यह है कि इन उत्तरवर्ती परिस्थितियों को जिन्हें पूर्वगामी परिस्थितियों की जननी समझा जाता है, वस्तुत: स्वयं उनसे प्रसूत समझा जाना चाहिए। यह ऐसी धारणा है जिसका मौलिक महत्व है और जो तत्वत: सरल है। इतिहास में (वैसे ही मानव विचार में भी) परिवर्तनों के लिए आदि प्रेरक शक्ति युगविशेष की आर्थिक उत्पादन की व्यवस्था और तज्जनित संबंधों में निहित होती है। यह धारणा उन सारी व्याख्याओं का विरोध करती है जो इतिहास के प्रारंभिक तत्वों को दैव, जगदात्मा, प्राकृतिक विवेक स्वातंत्र्य आदि जैसी भावात्मक वस्तुओं में ढूँढती हैं। इसकी उत्पत्ति वास्तविक सक्रिय मानव से होती है और उसके सही सही और महत्वपूर्ण अंत: संबंध सैद्धांतिक प्रत्यावर्तन के विकास और उनकी सजीव प्रक्रिया की प्रतिध्वनियों को प्रदर्शित करती है। संक्षेप में, चेतनता जीवन को नहीं निर्धारित करती किंतु जीवन चेतनता को निर्धारित करता है। मार्क्स ने "दर्शन की दरिद्रता" (पावर्टी ऑव फ़िलासफ़ी) में लिखा, ""हम कल्पना करें कि अपने भौतिक उत्तराधिकार में वास्तविक इतिहास, अपने पार्थिव उत्तराधिकार में, ऐसा ऐतिहासिक उत्तराधिकार है जिसमें मत, प्रवर्ग, सिद्धांतों ने अपने को अभिव्यक्त किया है। प्रत्येक सिद्धांत की अपनी निजी शताब्दी रही है जिसमें उसने अपने को उद्घाटित किया है। उदाहरण के लिए सत्ता के सिद्धांत की अपनी शताब्दी 11वीं रही है, उसी तरह जिस तरह 18वीं शताब्दी व्यक्तिवाद के सिद्धांत की प्रधानता की रही है। अत:, तर्कत: शताब्दी सिद्धांत की अनुवर्तिनी होती है, सिद्धांत शताब्दी का अनुवर्ती नहीं होता। दूसरे शब्दों में, सिद्धांत इतिहास को बनाता है, इतिहास सिद्धांत को नहीं बनाता। अब यदि हम इतिहास और सिद्धांत दोनों की रक्षा की आशा के लिए पूछें कि आखिर सत्ता का सिद्धांत 11वीं शताब्दी में ही क्यों प्रादुर्भूत हुआ और व्यक्तिवाद 18वीं में क्यों और सत्ता सिद्धांत 18वीं में या व्यक्तिवाद 11वीं में, अथवा दोनों एक ही शताब्दी में क्यों नहीं हुए, तो हमें अनिवार्य रूप से तत्कालीन परिस्थितियों के विस्तार में जाने पर बाध्य होना पड़ेगा। हमें जानना पड़ेगा कि 11वीं और 18वीं शताब्दी के लोग कैसे थे, उनकी क्रमागत आवश्यकताएँ क्या थीं। उनके उत्पादन की शक्तियाँ, उनके उत्पादन के तरीके, वे कच्चे माल जिनसे वे उत्पादन करते थे और अंत में मानव मानव के बीच क्या संबंध थे, संबंध जो अस्तित्व की इन समस्त परिस्थितियों से उत्पन्न होते थे। किंतु ज्योंही हम मानवों को अपने इतिहास के पात्र और उनके निर्माता मान लेते हैं त्योंही थोड़े चक्कर के बाद, हमें उस वास्तविक आदि स्थान का पता लग जाता है जहाँ से यात्रा आरंभ हुई थी, क्योंकि हमने उन शाश्वत सिद्धांतों को छोड़ दिया है, जहाँ से हमने आरंभ किया था।"" भोंड़े पत्थर के औजारों से धनुषबाण तक और शिकारी जीवन से आदिम पशुपालन पशुचारण तक, पत्थर के औजारों से धातु के औजारों तक (लोहे की कुल्हाड़ी, लोहे के फालवाले लकड़ी के हल आदि) कृषि के संक्रमण के साथ, सामग्री के उपयोग के लिए धातु के औजारों का आगे को विकास (लोहार की धौंकनी और बर्तनों का आरंभ), दस्तकारी के विकास और उसका कृषि से प्रारंभिक औद्योगिक निर्माण के रूप में पृथक्करण, मशीनों की ओर संक्रमण और तब आधुनिक बड़े पैमाने के उद्योगों का औद्योगिक क्रांति के आधार पर उदय–प्राचीन काल से हमारे युग तक की उत्पादक शक्तियों के क्रमिक विकास की यह एक मोटी रूपरेखा है। परिवर्तनों के इस क्रम के साथ-साथ मनुष्य के आर्थिक संबंध भी बदलते गए हैं और उनका विकास होता गया है। इतिहास को उत्पादन संबंधों के पाँच मुख्य प्रकार ज्ञात हैं–आदिम जातिवादी, दासप्रधान, सामंती, पूँजीवादी और समाजवादी। इन व्यवस्थाओं के विचार और प्रकार, यथा पूँजीवाद में मुनाफा, मजदूरी और लगान, शाश्वत नहीं बल्कि उत्पादन के सामाजिक संबंधों की सैद्धांतिक अभिव्यक्ति मात्र हैं। भौतिक परिवेश में विकसित होनेवाली ठोस आवश्यकताएँ एक व्यवस्था से दूसरी व्यवस्था के परिवर्तन के ऐतिहासिक क्रम को जन्म देती हैं। जब भीतरी अंतर्विरोधों के कारण आर्थिक आच्छादन फट जाता है, जैसा कि समाजवादी विश्लेषण का दावा है कि पूँजीवाद में घटित हो रहा है, तब इतिहास का एक नया अध्याय आरंभ हो जाता है। इस धारणा के अनुसार मनुष्य की भूमिका किसी भी प्रकार निष्क्रियता की नहीं सक्रियता की है। एंजिल्स के कथानानुसार स्वतंत्रता आवश्यकता की स्वीकृति है। व्यक्ति प्राकृतिक नियमों से कहाँ तक बँधा है, यह जान लेना अपनी स्वतंत्रता की सीमाओं को जान लेना है। इच्छा मात्र से आदमी अपनी ऊँचाई हाथ भर भी नहीं बढ़ा सकता। किंतु मनुष्य ने उन भौतिक नियमों का राज समझकर उड़ना सीख लिया है जिनके बिना उसका उड़ना असंभव होता है। नि:संदेह मानव इतिहास का निर्माण करता है किंतु अपनी मनचाही रीति से नहीं। यह कहना कि यह विचारधारा मनुष्य पर स्वार्थ के उद्देश्यों को आरोपित करती है, इस विचार को फूहड़ बनाना है। यह हास्यास्पद होता, यदि सिद्धांत यह कहता कि आदमी सदा भौतिक स्वार्थ के लिए काम करता है। किंतु उसका मात्र इतना आग्रह है कि आदर्श स्वर्ग से बने बनाए नहीं टपक पड़ते किंतु प्रस्तुत परिस्थितियों द्वारा विकसित होते हैं। इसलिए इसका कारण खोजना होगा कि युगविशेष में आदर्शविशेष ही क्यों प्रचलित थे, दूसरे नहीं। 1890 में एंजिल्स ने लिखा, ""अंततोगत्वा इतिहास के रूप को निश्चित करनेवाले तत्व वास्तविक जीवन में उत्पादन और पुनरुत्पादन है। इससे अधिक का न तो मार्क्स ने और न मैंने ही कभी दावा किया है। इसलिए अगर कोई इसको इस वक्तव्य में तोड़ मरोड़कर रखता है कि आर्थिक तत्व ही एकमात्र निर्णायक है, तो वह उसे अर्थहीन, विमूर्त और तर्करहित वक्तव्य बना देता है। आर्थिक परिस्थिति आधार निश्चय है, किंतु ऊपरी ढाँचे के विभिन्न सफल संग्राम के बाद विजयी वर्ग द्वारा स्थापित संविधान आदि–कानून के रूप–फिर संघर्ष करनेवालों के दिमाग में इन वास्तविक संघर्षो के परावर्तन, राजनीतिक, कानूनी, दार्शनिक सिद्धांत, धार्मिक विचार और हठधर्मी सिद्धांत के रूप में उनका विकास–यह भी ऐतिहासिक संघर्षो की गति पर अपना प्रभाव डालते हैं और अधिकतर अवस्थाओं में उनका रूप स्थित करने में प्रधानता: सफल होते हैं। इन तत्वों की एक दूसरे के प्रति एक क्रिया भी होती है–अन्यथा इस सिद्धांत को इतिहास के किसी युग पर आरोपित करना अनन्य-साधारण-समीकरण को हल करने से भी सरल होता।"" वास्तव में यह विचार इस बात को स्वीकार करता है कि ""सिद्धांत ज्योंही जनता पर अपना अधिकार स्थापित कर लेते हैं, वे भौतिक शक्ति बन जाते हैं।"" बुनियादी तौर पर तो नि:संदेह इसका आग्रह है कि सामाजिक परिवर्तनों के अंतिम कारणों को ""दर्शन में नहीं प्रत्येक विशिष्ट युग के अर्थशास्त्र"" में ढूँढ़ना होगा। सत्य तो यह है कि आरंभ में "कार्य" थे, शब्द नहीं। इस विचारधारा का एक गत्यात्मक पक्ष भी है जो इस बात पर जोर देता है कि प्रतयेक सजीव समाज में उत्पादन की विकासशील शक्तियों और प्रतिगत्यात्मक संस्थाओं में, उन लोगों में जो स्थितियों को जैसी की तैसी रहने देना चाहते हैं और जो उन्हें बदलना चाहते हैं, विरोध उत्पन्न होता है। यह विरोध जब इस मात्रा तक पहुँच जाता है कि उत्पादन संबंध समाज की "बेड़ियाँ बन जाते हैं" तब क्रांति हो जाती है। इस विश्लेषण के अनुसार पूँजी का एकाधिपत्य उत्पादन पर बेड़ी बनकर बैठ गया है और यही कारण है कि समाजवादी क्रांतियाँ हुई और जहाँ अभी तक नहीं हुई हैं वहाँ पूँजीवाद स्थायी रूप से संकट में पड़ गया है। यह समय समय में युद्धों और उसकी निरंतर तैयारियों से ही दूर हो सकता है। समाजवादी समाज में जो अंतविरोध पैदा होंगे, वे, वास्तव में, अभी तो निश्चय से अधिक कल्पना की वस्तु हैं। .

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डार्क मैटर

खगोलशास्त्र तथा ब्रह्माण्ड विज्ञान में आन्ध्र पदार्थ या डार्क मैटर (dark matter) एक,प्रायोगिक आधार पर अप्रमाणित परंतु गणितीय आधार पर प्रमाणित, पदार्थ है। इसकी विशेषता है कि अन्य पदार्थ अपने द्वारा उत्सर्जित विकिरण से पहचाने जा सकते हैं किन्तु आन्ध्र पदार्थ अपने द्वारा उत्सर्जित विकिरण से पहचाने नहीं जा सकते। इनके अस्तित्व (presence) का अनुमान दृष्यमान पदार्थों पर इनके द्वारा आरोपित गुरुत्वीय प्रभावों से किया जाता है। आन्ध्र पदार्थ के बारे में माना जाता है कि इस ब्रह्मांड का 85 प्रतिशत आन्ध्र पदार्थ का ही बना है और यूरोप के वैज्ञानिकों का अनुमान है कि उन्होंने आन्ध्र पदार्थ खोज निकाला है। वैज्ञानिकों का मानना है कि आन्ध्र पदार्थ न्यूट्रालिनॉस नाम के कणों या पार्टिकल से बना है। इसकी खासियत है कि यह साधारण मैटर से कोई क्रिया नहीं करता। हर सेकंड हमारे शरीर के आर-पार हजारों न्यूट्रालिनॉस गुजरते रहते हैं। वे अदृश्य हैं। इसी वजह से हम अंतरिक्ष में मौजूद आन्ध्र पदार्थ के बादल के दूसरी ओर मौजूद आकाशगंगाओं को देख पाते हैं। पामेला नाम के एक यूरोपियन स्पेस प्रोब ने कुछ ऐसे हाई एनर्जी पार्टिकल खोजे हैं, जो हमारी आकाशगंगा के केंद्र से निकले हैं। उनसे निकलने वाला रेडिएशन ठीक उसी तरह का है, जैसा आन्ध्र पदार्थ के लिए तय किया गया था। इस खोज के डिटेल स्वीडन के स्टॉकहोम में आयोजित एक कॉन्फरन्स में रखे गए। गौरतलब है कि, यूरोप में शुरू हुई महामशीन या लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर के ढेरों मकसदों में से एक आन्ध्र पदार्थ की खोज करना भी है। .

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दिक्-काल

दिक्-काल या स्पेस-टाइम (spacetime) की संकल्पना, अल्बर्ट आइंस्टीन द्वारा उनके सापेक्षता के सिद्धांत में दी गई थी| उनके अनुसार तीन दिशाओं की तरह, समय भी एक आयाम है और भौतिकी में इन्हें एक साथ चार आयामों के रूप में देखना चाहिए। उन्होंने कहा कि वास्तव में ब्रह्माण्ड की सभी चीज़ें इस चार-आयामी दिक्-काल में रहती हैं। उन्होंने यह भी कहा कि कभी-कभी ऐसी परिस्थितियाँ बन जाती हैं जब भिन्न वस्तुओं को इन सभी-आयामों का अनुभव अलग-अलग प्रतीत हो। दिक् (space) और काल (time) का संबध हमारे नित्य व्यवहार में इतना अधिक आता है कि इनके विषय में कुछ अधूरी सी किंतु दृढ़ धारणाएँ हमारे मन में बचपन से ही होना स्वाभाविक है। कवियों ने दिक्‌ और काल की गंभीर, विशाल तथा सुंदर कल्पनाओं का वर्णन किया है। दर्शन में और पाश्चात्य मनोविज्ञान में भी इनके विषय में पुरातन काल से सोच विचार होता आ रहा है। कणाद (३०० ई. पू.) के वैशेषिक दर्शन में आकाश, दिक्‌ और काल की धारणाएँ सुस्पष्ट दी गई हैं और इनके गुणों का भी वर्णन किया गया है। इंद्रियजन्य अनुभवों से जो ज्ञान मिलता है उसमें दिक्‌ और काल का संबंध अवश्य ही होता है। इस ज्ञान की यदि वास्तविकता समझा जाए तो दिक्‌ और काल वस्तविकता से अलग नहीं हो सकते। प्रत्येक दार्शनिक संप्रदाय ने वस्तविकता, दिक्‌ और काल, इनके परस्पर संबंधों की अपनी अपनी धारणाएँ दी हैं, जिनमें ऐकमत्य नहीं है। गणित में भी दिक्‌ और काल का अप्रत्यक्ष रीति से संबंध आता है। अत: प्रतिष्ठित भौतिकी (क्लासिकल फिजिक्स) का विकास इन्हीं धारणाओं पर निर्भर रहा। भौतिकी के कुछ प्रायोगिक फल जब इन धारणाओं से विसंगत दिखाई देने लगे, तब ये धारणाएँ विचलित होने लगीं एवं आपेक्षितावाद ने दिक्‌ और काल का नया स्वरूप स्थापित किया, जो अनेक प्रयोगों द्वारा प्रमाणित और फलत: अब सर्वसम्मत हो चुका है। दिक्‌ तथा काल का यह नया स्वरूप केवल भिन्न ही नहीं वरन्‌ (हमारी इनके विषय की व्यावहारिक कल्पनाओं के कारण) समझने में भी अत्यंत कठिन है, क्योंकि इसके प्रतिपादन में विशिष्ट गणित का उपयोग आवश्यक होता है। अत: जहाँ-जहाँ दिक्‌ तथा काल संबंध आता है उसका स्पष्टीकरण पहले स्थूल दृष्टि से, तत्पश्चात्‌ सूक्ष्म दृष्टि से और अंत में भौतिकी की दृष्टि से करना अधिक सरल होगा। इंद्रियजन्य अनुभवों से जो दिक्‌ के गुणों का प्रत्यय आता है, उससे दिक्‌ के विभिन्न प्रकार माने जा सकते हैं। अनुभवों के बुद्धि पर जो परिणाम होते हैं उनका पृथक्करण करके धारणाएँ बनती हैं। इस प्रकार स्वानुभव से दिक्‌ की जो धारणा बनती है उसे "स्व-दिक्‌' अथवा "व्यक्तिगत दिक्‌' कहा जाता है। इंद्रियजन्य अनुभवों में अनेक अनुभव समस्त व्यक्तियों के लिए समान होते हैं और ऐसे अनुभव जिस घटना से मिलते हैं, उसे "वास्तव' कहा जाता है। वास्तव घटनाओं के समुदायों से "वास्तविकता' की धारणा बनती है। इंद्रियों से दृष्टि, स्पर्श, ध्वनि, रस और गंध के अनुभव मिलते हैं, किंतु ये अनुभव सर्वदा विश्वास के योग्य होते हैं, ऐसा नहीं है। प्रकाशकीय संभ्रम तो सुप्रसिद्ध हैं ही। स्पर्श के भी संभ्रम व्यवहार में नित्य प्रतीत होते हैं, जैसे दो दाँतों के बीच की खोह जीभ को जितनी लगती है उससे कम छोटी उँगली को लगती है। प्राय: ऐसा ही प्रकार सब तरह के इंद्रियजन्य अनुभवों का होता है। अत: इन अपूर्ण अनुभवों से व्यक्तिगत दिक्‌ की जो धारणा बनती है वह भ्रममूलक ही होती है। मापनदंड तथा अन्य उचित यंत्रों की सहायता से इंद्रियों की मर्यादित ग्राहकता बढ़ाई जा सकती है और इस प्रकार अनेक घटनाओं का भ्रमनिरसन हो सकता है। प्रयोगों में मापन करके दिक्‌ की जो धारणा होती है उसे "भौतिक दिक्‌ कहा जाता है। मापन के लिए मापनदंड का उपयोग किया जाता है। अनुभवों में दिक्‌ का संबंध चार प्रकार से आता है और इन चारों प्रकारों पर विचार करके दिक्‌ के गुणों की व्यावहारिक कल्पनाएँ बनती हैं। किसी वस्तु के स्थल का निर्देश जब वहाँ कहकर किया जाता है, तब दिक्‌ के एक स्वरूप की कल्पना आती है और इसका अर्थ यह भी माना जाता है कि दिक्‌ का अस्तित्व (अनुभवों से) स्वतंत्र है। किसी वस्तु के स्थल का निर्देश अन्य वस्तु के "सापेक्ष' करने पर दिक्‌ की "सापेक्ष स्थिति' में दूसरा स्वरूप दिखई देता है। दिक्‌ का तीसरा स्वरूप वस्तुओं के "आकार' से मिलता है, जिससे दिक्‌ की विभाज्यता की भी कल्पना की जा सकती है। आकाश की ओर देखने से दिक्‌ की "विशालता' (अथवा अनंतता) का चौथा स्वरूप दिखाई देता है। इन चार प्रकार के स्वरूपों से ही प्राय: दिक्‌ के संबध में व्यावहारिक धारणाएँ बनती हैं और दिक्‌ के गुण भी सूचित होते हैं। घटनाओं से प्राप्त इंद्रियजन्य अनुभवों का विचर किया जाए तो उनके दो प्रकार होते हैं। घटनाओं के स्थानभेद से दिक्‌ की कल्पना होती है और उनके क्रम-भेद से काल की कल्पना होती है। इस प्रकार दिक्‌ और काल हमारी विचारधारा में संदिग्ध रूप से प्रवेश करते हैं। दिक्‌ जैसा ही काल भी व्यक्तिगत (अथवा स्व-काल) होता है और प्रत्येक व्यक्ति की कालगणना स्वतंत्र तथा स्वेच्छ होती है। इतना ही नहीं, इस स्व-काल की गणना में भी परिवर्तन होता है और वह व्यक्ति के स्वास्थ्य, अवस्था इत्यादि स्थितियों पर निर्भर करता है, जैसे, किसी कार्य में मनुष्य मग्न हो तो काल तेजी से कटता है। अत: व्यक्तिगत अथवा स्व-काल विश्वास योग्य नहीं रहता। किसी प्राकृतिक घटना से - दिन और रात से - जो काल का मापन होगा वह व्यक्तिगत नहीं रहेगा और सब लोगों के लिए समान होगा। अत: ऐसे काल को सार्वजनिक काल कहा जाता है। दिन और रात काल के स्थूल विभाग हैं। इनके छोटे विभाग किए जाएँ तो व्यवहार में कालमापन के लिए वे अधिक उपयुक्त होते हैं। इसलिए प्रहर, घटिका, पल विपल अथवा घंटा, मिनट, सेकंड इत्यादि विभाग किए गए। सामान्यत: काल का मापन घड़ी से होता है। दिक्‌ की भाँति काल के भी चार स्वरूप व्यवहार में दिखाई देते हैं। किसी घटना अथवा अनुभव से "कब?' प्रश्न उपस्थित होता है और इसका दिक्‌ विषयक "कहाँ' से साम्य है। इस कल्पना से काल का अस्तित्व (अनुभवों से) स्वतंत्र समझा जाता है। किसी घटना के काल के सापेक्ष दूसरी घटना का वर्णन करते समय काल का सापेक्ष स्वरूप दिखाई देता है। दो घटनाओं के बीच के काल से काल का जो स्वरूप दिखाई देता है वह दिक्‌ के आकार से समान है। वैसे ही काल के अनादि, अनंत इत्यादि विशेषणों से काल की विशालता दिखाई दती है। दिक्‌ तथा काल के चारों स्वरूपों को, या गुणों को कहिए, मिलाकर विचार करने पर इनके विषय में हमारी जो धारणाएँ बनती हैं उनको "स्व' या "व्यक्तिगत' अथवा "मनोवैज्ञानिक' दिक्‌ और काल कहा जाता है। दिक्‌ तथा काल की धारणाओं को निश्चित रूप देने के लिए उनका मापन करने के साधन आवश्यक होते हैं। दिक्‌ के मापन के लिए दृढ़ पदार्थों के दंड, औजार तथा यंत्र उपयोग में लाए जाते हैं। इन उपकरणों से लंबाई, कोण, क्षेत्रफल, आयतन इत्यादि वस्तुओं के गुणों के मापन होते है। इन मापनों के समय बिंदु, रेखा, समतल इत्यादि की धारणाएँ बनती जाती हैं। जब अनेक पुनरावृत्तियों से ये धारणाएँ दृढ़ हो जाती हैं, तब बिंदु, रेखा, समतल इत्यादि का स्थान मौलिक होता है और भौतिक वस्तुएँ इन धारणाओं से दूर हो जाती हैं। अब इन धारणाओं की और यूक्लिडीय ज्यामिति की मौलिक धारणाओं की समानता स्पष्ट होगी। दृढ़ वस्तुओं को समाविष्ट करके दिक्‌ के, अथवा वस्तुओं के, मापन से दिक्‌ की जो धारणा होती है उसे ज्यामितीय अथवा यूक्लिडीय दिक्‌ कहा जाता है। यह स्पष्ट है कि दिक्‌ की इस धारणा से उसके जो गुण समझे जाते हैं वे केवल यूक्लिडीय ज्यामिति की परिभाषाओं, स्वयंसिद्ध और कल्पनाओं के ऊपर ही निर्भर होते हैं। दिक्‌ की हमारी व्यावहारिक धारणा और मापन से निश्चित की हुई यह ज्यामितीय धारणा, क्रमश: हमारी स्थूल दृष्टि और सूक्ष्म दृष्टि के स्वरूप हैं। यूक्लिडीय ज्यामिति पर निर्धारित दिक्‌ की यह धारणा यद्यपि स्वाभाविक दिखाई देती होगी, तथापि इसका विश्लेषण करने की आवश्यता है। यूक्लिडीय ज्यामिति में कुछ परिभाषाएँ (जैसे बिंदु, रेखा, तल इत्यादि) तथा कुछ स्वयंसिद्ध तथ्य दिए हुए हैं और इनका तार्किक दृष्टि से विकास किया गया है। ये धारणाएँ केवल काल्पनिक और स्वतंत्र हैं। थोड़ा ही विचार करने पर यह स्पष्ट होगा कि यूक्लिडीय ज्यामिति का व्यवहार की वस्तुओं से कोई भी वास्तविक संबंध नहीं है। अपनी मूल कल्पनाओं को विकसित करते समय उनका परस्पर तर्कसंगत संबंध रखना और एक "काल्पनिक' गणित शास्त्र का निर्मांण करना, इतना ही इस ज्यामिति का मूल उद्देश्य था। इस उद्देश्य में यह ज्यामिति अत्यंत ही सफल रही। इस ज्यामिति का और भी विस्तार करके उसे "व्यावहारिक' बनाने के लिए "आदर्श दृढ़ वस्तु' की परिभाषा यह है कि इसके दो बिंदुओं का अंतर किसी भी परिस्थिति में उतना ही रहता है। मापन दंड अथवा अन्य औजारों का उपयोग इसी विशेषता पर निर्भर करता है। वस्तुत: इस प्रकार "आदर्श दृढ़ वस्तु' को समाविष्ट करने पर यूक्लिडीय ज्यामिति का स्वरूप बदल जाता है और उसको अब हम भौतिकी का एक विभाग समझ सकते हैं। किंतु व्यवहार में यूक्लिडीय ज्यामिति का यह परिवर्तन इस दृष्टि से नहीं देखा जाता। मापन करने पर व्यावहारिक वस्तुओं के मापन के लिए यूक्लिडीय ज्यामिति के सिद्धांत यथार्थ दिखाई देते हैं। इसलिए यूक्लिडीय ज्यामिति को "वास्तविक' समझा जाने लगा। व्यावहारिक अनुभव और यूक्लिडीय ज्यामिति का दृष्टि से न्यूटन ने अपनी दिक्‌ और काल की धारणाएँ निश्चित रूप से प्रस्तुत की और प्रतिष्ठित भौतिकी का विकास प्राय: वर्तमान शताब्दी के प्रारंभ तक इन्हीं धारणाओं पर निर्भर रहा। न्यूटन ने दिक्‌ को स्वतंत्र सत्ता समझकर उसके गुण भी दिए। न्यूटन के अनुसार दिक्‌ के गुण सर्व दिशाओं में तथा सर्व बिंदुओं पर समान ही होते हैं, अर्थात्‌ दिक्‌ समदिक्‌, समांग तथा एक समान है। अत: पदार्थों के गुण दिक्‌ में सभी स्थानों पर समान ही होते हैं। दिक्‌ अनंत है और न्यूटन के दिक्‌ में लंबाई, काल तथा गति से अबाधित रहती है। काल के विषय में भी न्यूटन ने अपनी धारणा दी है और यह धारणा भी उस समय के भौतिकी के विकास के अनुसार ही थी। न्यूटन के अनुसार काल भी एक स्वतंत्र सत्ता है। काल का विशेष गुण यह है कि वह समान गति से सतत और सर्वत्र "बहता' है और किसी भी परिस्थिति का उसके ऊपर कोई भी परिणाम नहीं होता। काल भी अनंत है। सारांश में, न्यूटन के अनुसार दिक्‌ तथा काल दोनों ही स्वतंत्र और निरपेक्ष सत्ताएँ होती हैं। न्यूटन आदि की यांत्रिकी इन्हीं धारणाओं पर निर्भर थी। यांत्रिकी में गति और त्वरण, इन दोनों के लिए दिक्‌ और काल को निश्चित रूप देना आवश्यक था और उस समय तो इन धारणाओं में कोई भी त्रुटि दिखाई नहीं देती थी। वैसे ही भौतिकी में न्यूटन का इतना प्रभाव था कि इन धारणाओं पर शंका प्रदर्शित करना संभव नहीं था। बोल्याई, लोबातचेवस्की, रीमान इत्यादि गणितज्ञों ने यह सिद्ध किया कि यूक्लिडीय ज्यामिति के कुछ स्वयंतथ्यों में उचित परिवर्तन करने पर अयूक्लिडीय ज्यामितियों का निर्माण हो सकता है। यद्यपि अयूक्लिडीय ज्यामितियों के अनेक सिद्धांत यूक्लिडीय ज्यामिति के सिद्धांतों से भिन्न होते हैं, तथापि वे अयोग्य नहीं होते हैं। विशेषत: रीमान के अयूक्लिडीय ज्यामिति से यह स्पष्ट हुआ कि यूक्लिडीय ज्यामिति ही केवल मौलिक नहीं है। यद्यपि अयूक्लिडीय ज्यामितियाँ कल्पना करने में कठिन होती हैं, तथापि तर्कसम्मत होने से उनके फल अत्यंत रोचक तथा उपयुक्त होते हैं। इनमें तीन से अधिक विमितियों के दिक्‌ की (जिसे हम "अति दिक्‌' कह सकते हैं) जो कल्पना होती है, उस दिक्‌ की वक्रता की कल्पना विशेष रूप से उपयुक्त हुई। .

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द्वैतवाद

द्वैतवाद (संस्कृत शब्द द्वैत अर्थात दो से) दो भागों में अथवा दो भिन्न रूपों वाली स्थिति को निरूपित करने वाला एक शब्द है। इस शब्द के अर्थ में विषयवार भिन्नता आ सकती है। दर्शन अथवा धर्म में इसका अर्थ पूजा अर्चना से लिया जाता है जिसके अनुसार प्रार्थना करने वाला और सुनने वाला दो अलग रूप हैं। इन दोनों की मिश्रित रचना को द्वैतवाद कहा जाता है। .

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दृग्विषय

दियासलाई की तिल्ली का जलना एक ऐसी घटना है जिसे देखा जा सकता है; अत: यह एक परिघटना है। observed as appearing differently. दृग्विषय या परिघटना (phenomenon, बहुवचन phenomena, phainomenon, phainein क्रिया से) कोई वह चीज़ हैं जो स्वयं प्रकट होती हैं। भले सदैव नहीं, पर आम तौर पर दृग्विषयों को "चीजें जो दृष्टिगोचर होती हैं" या संवेदन-समर्थ जीवों के "अनुभव" समझे जाते हैं, या वे जो सैद्धान्तिक रूप से हो सकते हैं। यह शब्द इमानुएल काण्ट के द्वारा आधुनिक दार्शनिक प्रयोग में आया, जिन्होंने इसे मनस्विषय के विपरीत बताया। दृग्विषय के विपरीत, मनस्विषय अन्वेषण के द्वारा प्रत्यक्ष रूप से अभिगम्य नहीं हैं। काण्ट Gottfried Wilhelm Leibniz के दर्शन के इस भाग से बेहद प्रभावित थे, जिसमें, दृग्विषय और मनस्विषय पारस्पारिक तकनीकी शब्द थे। श्रेणी:तत्वमीमांसा की अवधारणाएँ.

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पदार्थ

रसायन विज्ञान और भौतिक विज्ञान में पदार्थ (matter) उसे कहते हैं जो स्थान घेरता है व जिसमे द्रव्यमान (mass) होता है। पदार्थ और ऊर्जा दो अलग-अलग वस्तुएं हैं। विज्ञान के आरम्भिक विकास के दिनों में ऐसा माना जाता था कि पदार्थ न तो उत्पन्न किया जा सकता है, न नष्ट ही किया जा सकता है, अर्थात् पदार्थ अविनाशी है। इसे पदार्थ की अविनाशिता का नियम कहा जाता था। किन्तु अब यह स्थापित हो गया है कि पदार्थ और ऊर्जा का परस्पर परिवर्तन सम्भव है। यह परिवर्तन आइन्स्टीन के प्रसिद्ध समीकरण E.

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प्रकृति विज्ञान

प्रकृति विज्ञान प्रकृतिक पत्वों से संबंधित जानकारी देता है। श्रेणी:विज्ञान.

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बल

भौतिकि संबंधी बल के लिए देखें बल (भौतिकी) बल, जिसे ताकत भी कहा जाता है, कार्य करने की शक्ति है। परंपरागत रूप से इसे शरीर से जोड़कर देखा जाता रहा है। इसलिए प्रायः यह शारिरिक बल का प्रतिनिधित्व करता है। लेकिन इसके अतिरिक्त मानसिक एवं आध्यात्मिक बल की संकल्पना भी की गई है। .

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मन

मन मस्तिष्क की उस क्षमता को कहते हैं जो मनुष्य को चिंतन शक्ति, स्मरण-शक्ति, निर्णय शक्ति, बुद्धि, भाव, इंद्रियाग्राह्यता, एकाग्रता, व्यवहार, परिज्ञान (अंतर्दृष्टि), इत्यादि में सक्षम बनाती है।Dictionary.com, "mind": "1.

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समानार्थी

समानार्थी का अर्थ होता हैं (सामान+अर्थ) अर्थात किसी शब्द का सामान अर्थ वाले दूसरे शब्द या उसी के सामान कोई दूसरा नाम (वस्तु)। सामान्यत: हिन्दी में एक ही वस्तु के अनेक समान अर्थ वाले शब्द है। तळे.

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आदर्शवाद

विचारवाद या आदर्शवाद या प्रत्ययवाद (Idealism; Ideal.

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