भाष्य और विज्ञानभिक्षु के बीच समानता
भाष्य और विज्ञानभिक्षु आम में 3 बातें हैं (यूनियनपीडिया में): ब्रह्मसूत्र, योगवार्तिक, सांख्य दर्शन।
ब्रह्मसूत्र
ब्रहमसूत्र, हिन्दुओं के छः दर्शनों में से एक है। इसके रचयिता बादरायण हैं। इसे वेदान्त सूत्र, उत्तर-मीमांसा सूत्र, शारीरिक सूत्र और भिक्षु सूत्र आदि के नाम से भी जाना जाता है। इस पर अनेक भाष्य भी लिखे गये हैं। वेदान्त के तीन मुख्य स्तम्भ माने जाते हैं - उपनिषद्, भगवदगीता एवं ब्रह्मसूत्र। इन तीनों को प्रस्थान त्रयी कहा जाता है। इसमें उपनिषदों को श्रुति प्रस्थान, गीता को स्मृति प्रस्थान और ब्रह्मसूत्रों को न्याय प्रस्थान कहते हैं। ब्रह्म सूत्रों को न्याय प्रस्थान कहने का अर्थ है कि ये वेदान्त को पूर्णतः तर्कपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करता है। (न्याय .
ब्रह्मसूत्र और भाष्य · ब्रह्मसूत्र और विज्ञानभिक्षु ·
योगवार्तिक
योगवार्तिक, विज्ञानभिक्षु द्वारा रचित योग का प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है। पतंजलि के योगसूत्र ग्रन्थ पर सबसे प्रमाणिक भाष्य व्यास भाष्य है और योगवार्तिक, व्यासभाष्य की सुस्पष्ट व्याख्या प्रस्तुत करता है। पतंजलि के योगसूत्र को अवगम्य करने के लिये व्यास-भाष्य प्रमाणिक व्याख्या है तो व्यास भाष्य को समझने के लिये विज्ञानभिक्षु की व्याख्या निश्चित रूप से अत्यन्त उपोयगी है। योगशास्त्र पर विभिन्न मत-मतान्तरों पर भी इस ग्रन्थ में वर्णन-आलोचन-अनुशीलन प्रस्तुत किया गया है। रामशंकर भट्टाचार्य के मतानुसार, समकालीन मतों के साथ समन्वय का प्रयास भी किया गया है।(पातंजल योगदर्शनम्, पृ.74) योगवार्तिक में योगविवेचन में गहरी अन्तर्दृष्टि दिखायी देती है। साथ ही स्मृति-पुराण आदि सन्दर्भों के द्वारा विज्ञानभिक्षु ने सांख्य-योग शास्त्र का सुष्ठुतया परिपोषण किया है। आपने अपने वार्तिकग्रन्थ में मौलिकता को भी प्रदर्शित किया है तथा योगभाष्य पर उपलब्ध अन्य ग्रन्थों से अपने विचार न मिलने को या उन ग्रन्थों में न्यूनताओं का भी उल्लेख प्रदर्शित किया है। जैसे योगसूत्र के प्रथमपाद के 19 वें तथा 21 वें सूत्र की व्याख्या में वे वाचस्पति मिश्र के मत का भी खण्डन करते है। व्याख्या के प्रसंग में भी विज्ञानभिक्षु के द्वारा सम्बन्धित अनेक सम्प्रदायों, दार्शिनिकों के वचनों तथा मतों का उल्लेख कर अपने ग्रन्थ को अधिक समृद्ध तथा उपयोगी बनाया गया है। जैसे – नास्तिक – 2/15, वेदान्तमत - 4/19, न्यायवैशेषिक दर्शनम् - 4/21, 3/13, 2/20, 2/5 योगशास्त्रविशेष - 3/30, योगशास्त्रानन्तरम् - 3/26, 3/28। इसके साथ ही योगवार्तिककार ने अपने ग्रन्थ में योगभाष्य के अनेक पाठभेद का भी निदर्शन किया है। पाठभेद से अभिप्राय है कि पातजंलि-योगसूत्र में तथा उसपर उपलब्ध व्यासभाष्य व्याख्या में एक ही सूत्र की व्याख्य़ा में किसी के द्वारा किसी शब्द तथा अन्य के द्वारा अन्य शब्द का प्रयोग किया जाना। वस्तुतः इससे व्याख्या में ही महत्वपूर्ण अन्तर पड़ता है। अतः प्रमाणिक अर्थ निरूपण के लिये पाठभेद जानना आवश्यक होता है। उपरोक्त पाठभेद विज्ञानभिक्षु के मतानुसार कुछ तो यथार्थ हैं तथा कुछ वास्तव में लेखक के प्रमाद के कारण (लेखनत्रुटि) स्वरूप उत्पन्न हुये है। .
भाष्य और योगवार्तिक · योगवार्तिक और विज्ञानभिक्षु ·
सांख्य दर्शन
भारतीय दर्शन के छः प्रकारों में से सांख्य भी एक है जो प्राचीनकाल में अत्यंत लोकप्रिय तथा प्रथित हुआ था। यह अद्वैत वेदान्त से सर्वथा विपरीत मान्यताएँ रखने वाला दर्शन है। इसकी स्थापना करने वाले मूल व्यक्ति कपिल कहे जाते हैं। 'सांख्य' का शाब्दिक अर्थ है - 'संख्या सम्बंधी' या विश्लेषण। इसकी सबसे प्रमुख धारणा सृष्टि के प्रकृति-पुरुष से बनी होने की है, यहाँ प्रकृति (यानि पंचमहाभूतों से बनी) जड़ है और पुरुष (यानि जीवात्मा) चेतन। योग शास्त्रों के ऊर्जा स्रोत (ईडा-पिंगला), शाक्तों के शिव-शक्ति के सिद्धांत इसके समानान्तर दीखते हैं। भारतीय संस्कृति में किसी समय सांख्य दर्शन का अत्यंत ऊँचा स्थान था। देश के उदात्त मस्तिष्क सांख्य की विचार पद्धति से सोचते थे। महाभारतकार ने यहाँ तक कहा है कि ज्ञानं च लोके यदिहास्ति किंचित् सांख्यागतं तच्च महन्महात्मन् (शांति पर्व 301.109)। वस्तुत: महाभारत में दार्शनिक विचारों की जो पृष्ठभूमि है, उसमें सांख्यशास्त्र का महत्वपूर्ण स्थान है। शान्ति पर्व के कई स्थलों पर सांख्य दर्शन के विचारों का बड़े काव्यमय और रोचक ढंग से उल्लेख किया गया है। सांख्य दर्शन का प्रभाव गीता में प्रतिपादित दार्शनिक पृष्ठभूमि पर पर्याप्त रूप से विद्यमान है। इसकी लोकप्रियता का कारण एक यह अवश्य रहा है कि इस दर्शन ने जीवन में दिखाई पड़ने वाले वैषम्य का समाधान त्रिगुणात्मक प्रकृति की सर्वकारण रूप में प्रतिष्ठा करके बड़े सुंदर ढंग से किया। सांख्याचार्यों के इस प्रकृति-कारण-वाद का महान गुण यह है कि पृथक्-पृथक् धर्म वाले सत्, रजस् तथा तमस् तत्वों के आधार पर जगत् की विषमता का किया गया समाधान बड़ा बुद्धिगम्य प्रतीत होता है। किसी लौकिक समस्या को ईश्वर का नियम न मानकर इन प्रकृतियों के तालमेल बिगड़ने और जीवों के पुरुषार्थ न करने को कारण बताया गया है। यानि, सांख्य दर्शन की सबसे बड़ी महानता यह है कि इसमें सृष्टि की उत्पत्ति भगवान के द्वारा नहीं मानी गयी है बल्कि इसे एक विकासात्मक प्रक्रिया के रूप में समझा गया है और माना गया है कि सृष्टि अनेक अनेक अवस्थाओं (phases) से होकर गुजरने के बाद अपने वर्तमान स्वरूप को प्राप्त हुई है। कपिलाचार्य को कई अनीश्वरवादी मानते हैं पर भग्वदगीता और सत्यार्थप्रकाश जैसे ग्रंथों में इस धारणा का निषेध किया गया है। .
सूची के ऊपर निम्न सवालों के जवाब
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भाष्य और विज्ञानभिक्षु के बीच तुलना
भाष्य 39 संबंध है और विज्ञानभिक्षु 9 है। वे आम 3 में है, समानता सूचकांक 6.25% है = 3 / (39 + 9)।
संदर्भ
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