भारत में यूरोपीय आगमन और लॉर्ड विलियम बैन्टिक
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भारत में यूरोपीय आगमन और लॉर्ड विलियम बैन्टिक के बीच अंतर
भारत में यूरोपीय आगमन vs. लॉर्ड विलियम बैन्टिक
१५०१ से १७३९ के बीच भारत में यूरोपीय बस्तियाँ भारत के सामुद्रिक रास्तों की खोज 15वीं सदी के अन्त में हुई जिसके बाद यूरोपीयों का भारत आना आरंभ हुआ। यद्यपि यूरोपीय लोग भारत के अलावा भी बहुत स्थानों पर अपने उपनिवेश बनाने में सफल हुए पर इनमें से कइयों का मुख्य आकर्षण भारत ही था। सत्रहवीं शताब्दी के अंत तक यूरोपीय कई एशियाई स्थानों पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुके थे और अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में वे कई जगहों पर अधिकार भी कर लिए थे। किन्तु उन्नासवीं सदी में जाकर ही अंग्रेजों का भारत पर एकाधिकार हो पाया था। भारत की समृद्धि को देखकर पश्चिमी देशों में भारत के साथ व्यापार करने की इच्छा पहले से थी। यूरोपीय नाविकों द्वारा सामुद्रिक मार्गों का पता लगाना इन्हीं लालसाओं का परिणाम था। तेरहवीं सदी के आसपास मुसलमानों का अधिपत्य भूमध्य सागर और उसके पूरब के क्षेत्रों पर हो गया था और इस कारण यूरोपी देशों को भारतीय माल की आपूर्ति ठप्प पड़ गई। उस पर भी इटली के वेनिस नगर में चुंगी देना उनको रास नहीं आता था। कोलंबस भारत का पता लगाने अमरीका पहुँच गया और सन् 1487-88 में पेडरा द कोविल्हम नाम का एक पुर्तगाली नाविक पहली बार भारत के तट पर मालाबार पहुँचा। भारत पहुचने वालों में पुर्तगाली सबसे पहले थे इसके बाद डच आए और डचों ने पुर्तगालियों से कई लड़ाईयाँ लड़ीं। भारत के अलावा श्रीलंका में भी डचों ने पुर्तगालियों को खडेड़ दिया। पर डचों का मुख्य आकर्षण भारत न होकर दक्षिण पूर्व एशिया के देश थे। अतः उन्हें अंग्रेजों ने पराजित किया जो मुख्यतः भारत से अधिकार करना चाहते थे। आरंभ में तो इन यूरोपीय देशों का मुख्य काम व्यापार ही था पर भारत की राजनैतिक स्थिति को देखकर उन्होंने यहाँ साम्राज्यवादी और औपनिवेशिक नीतियाँ अपनानी आरंभ की। . लॉर्ड विलियम बैन्टिक भारत के गवर्नर जनरल रहे थे। श्रेणी:भारत के गवर्नर जनरलये भारत के प्रथम गवर्नर जनरल थे लॉर्ड विलियम बैंटिक, जिन्हें 'विलियम कैवेंडिश बैटिंग' के नाम से भी जाना जाता है, को भारत का प्रथम गवर्नर-जनरल का पद सुशोभित करने का गौरव प्राप्त है। पहले वह मद्रास के गवर्नर बनकर भारत आये थे। उनका शासनकाल अधिकांशत: शांति का काल था। लॉर्ड विलियम बैंटिक ने भारतीय रियासतों के मामले में अहस्तक्षेप की नीति को अपनाया था। उन्होंने पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह से संधि की थी, जिसके द्वारा अंग्रेज़ और महाराजा रणजीत सिंह ने सिंध के मार्ग से व्यापार को बढ़ावा देना स्वीकार किया था। विलियम बैंटिक के भारतीय समाज में किए गए सुधार आज भी प्रसिद्ध हैं। सती प्रथा को समाप्त करने में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान था। अपने शासनकाल के अंतिम समय में वह बंगाल के गवर्नर-जनरल रहे थे। भारत आगमन लॉर्ड विलियम बैंटिक पहले मद्रास के गवर्नर की हैसियत से भारत आये थे, लेकिन 1806 ई. में वेल्लोर में सिपाही विद्रोह हो जाने पर उन्हें वापस बुला लिया गया। इक्कीस वर्षों के बाद लॉर्ड एमहर्स्ट द्वारा त्यागपत्र दे देने पर उन्हें गवर्नर-जनरल नियुक्त किया गया था और उन्होंने जुलाई 1828 ई. में यह पद ग्रहण कर लिया। सामाजिक सुधार के कार्य विलियम बैंटिक के शासन का महत्त्व उनके प्रशासकीय एवं सामाजिक सुधारों के कारण है, जिनके फलस्वरूप वह बहुत ही लोकप्रिय हुए। इनका आरम्भ सैनिक और असैनिक सेवाओं में किफ़ायतशारी बरतने से हुआ। उन्होंने राजस्व, विशेषकर अफ़ीम के एकाधिकार से होने वाली आय में भारी वृद्धि की। फलत: जिस वार्षिक बजट में घाटे होते रहते थे, उनमें बहुत बचत होने लगी। उन्होंने भारतीय सेना में प्रचलित कोड़े लगाने की प्रथा को भी समाप्त कर दिया। भारतीय नदियों में स्टीमर चलवाने आरम्भ किये, आगरा क्षेत्र में कृषि भूमि का बंदोबस्त कराया, जिससे राजस्व में वृद्धि हुई, तथा किसानों के द्वारा दी जाने वाली मालगुज़ारी का उचित निर्धारण कर उन्हें अधिकार के अभिलेख दिलवाये। बैंटिक ने लॉर्ड कार्नवालिस की भारतीयों को कम्पनी की निम्न नौकरियों को छोड़कर ऊँची नौकरियों से अलग रखने की ग़लत नीति को उलट दिया और भारतीयों की सहायक जज जैसे उच्च पदों पर नियुक्तियाँ कीं। ज़िला मजिस्ट्रेट तथा ज़िला कलेक्टर के पद को मिलाकर एक कर दिया, प्रादेशिक अदालतों को समाप्त कर दिया, भारतीयों की नियुक्तियाँ अच्छे वेतन पर डिप्टी मजिस्ट्रेट जैसे प्राशासकीय पदों पर की तथा 'डिवीजनल कमिश्नरों (मंडल आयुक्त)' के पदों की स्थापना की। इस प्रकार उसने भारतीय प्रशासकीय ढाँचे को उसका आधुनिक रूप प्रदान किया। भारतीयों में लोकप्रियता लॉर्ड बैंटिक के सामाजिक सुधार भी कुछ कम महत्त्व के नहीं थे। 1829 ई. में उसने सती प्रथा को समाप्त कर दिया। कर्नल स्लीमन के सहयोग से उसने ठगी का उन्मूलन किया। उस समय ठगों का देशव्यापी गुप्त संगठन था, वे देश भर में घूता करते थे और भोले-भाले यात्रियों की रुमाल से गला घोंटकर हत्या कर दिया करते थे और उनका सारा माल लूट लेते थे। 1832 ई. में धर्म-परिवर्तन से होने वाली सभी अयोग्यताओं को समाप्त कर दिया गया। 1833 ई. में कम्पनी के अधिकार पत्र को अगले बीस वर्षों के लिए नवीन कर दिया गया। इससे कम्पनी चीन के व्यवसाय पर एकाधिकार से वंचित हो गई। अब वह मात्र प्रशासकीय संस्था रह गई। नये चार्टर एक्ट के द्वारा अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किये गये। बंगाल के गवर्नर-जनरल के पद का नाम बदलकर भारत का गवर्नर-जनरल कर दिया गया। गवर्नर-जनरल की कौंसिल की सदस्य संख्या बढ़ाकर चार कर दी गई तथा यह सिद्धान्त निर्दिष्ट किया गया कि कोई भी भारतीय, मात्र अपने धर्म, जन्म अथवा रंग के कारण कम्पनी के अंतर्गत किसी पद से, यदि वह उसके लिए योग्य हो, वंचित नहीं किया जायेगा। समाचार-पत्रों की स्वतंत्रता लॉर्ड विलियम बैंटिक ने सरकारी सेवाओं में भेद-भावपूर्ण व्यवहार को ख़त्म करने के लिए 1833 ई. के एक्ट की धारा 87 के अनुसार जाति या रंग के स्थान पर योग्यता को ही सेवा का आधार माना। विलियम बैंटिक ने समाचार-पत्रों के प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाते हुए उनकी स्वतन्त्रता की वकालत की। वह इसे ‘असन्तोष से रक्षा का अभिद्वार’ मानते थे। उन्होंने मद्रास के सैनिक विद्रोह का उल्लेख करते हुए बताया कि, कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) और मद्रास दोनों जगह स्थिति एक जैसी थी, किन्तु मद्रास में विद्रोह इसलिए था, क्योंकि वहाँ समाचार-पत्रों की स्वतंत्रता नहीं थी। इस प्रकार विलियम बैंटिक भारतीय समाचार-पत्रों को मुक्त करना चाहते थे। किन्तु 1835 ई.में ख़राब स्वास्थ्य के आधार पर विलियम बैंटिक द्वारा इस्तीफ़ा देने के कारण समाचार-पत्रों से प्रतिबन्ध हटा लेने का श्रेय उसके परवर्ती गवर्नर-जनरल चार्ल्स मेटकॉफ़ को मिला। शैक्षिक सुधार शिक्षा के क्षेत्र में विलियम बैंटिक ने महत्त्वपूर्ण सुधार किये। उन्होंने शिक्षा के उद्देश्य एवं माध्यम, दोनों पर पर गहरा अध्ययन किया। शिक्षा के लिए अनुदान का प्रयोग कैसे किया जाय, यह विचारणीय विषय रहा। विवाद फँसा था कि, अनुदान का प्रयोग प्राच्य साहित्य के विकास के लिए किया जाय या फिर पाश्चात्य साहित्य के विकास के लिए। प्राच्य शिक्षा के समर्थकों का नेतृत्व 'विल्सन' व 'प्रिंसेप' ने किया तथा पाश्चात्य विद्या के समर्थकों का नेतृत्व ‘ट्रेवलियन’ ने, जिसको राजा राममोहन राय का भी समर्थन प्राप्त था। अन्ततः इस विवाद के निपटारे के लिए लॉर्ड मैकाले की अध्यक्षता में एक समिति बनी, जिसने पाश्चात्य विद्या के समर्थन में अपना निर्णय दिया। उसने अपने विचारों को 2 फ़रवरी, 1835 ई. के सुप्रसिद्ध स्मरण पत्र में प्रतिपादित किया। अपने प्रस्तावों में लॉर्ड मैकाले की योजना थी कि, "एक ऐसा वर्ग बनाया जाय, जो रंग तथा रक्त से तो भारतीय हो, परन्तु प्रवृति, विचार, नैतिकता तथा बुद्धि से अंग्रेज़ हो।' मैकाले के विचार 7 मार्च, 1835 ई. को एक प्रस्ताव द्वारा अनुमोदि कर दिए गए, जिससे यह निश्चित हुआ कि, उच्च स्तरीय प्रशासन की भाषा अंग्रेज़ी होगी। 1835 ई. में ही लॉर्ड विलियम बैंटिक ने कलकत्ता में ‘कलकत्ता मेडिकल कॉलेज’ की नींव रखी। कम्पनी के राजस्व में वृद्धि वित्तीय सुधारों के अन्तर्गत विलियम बैंटिक ने सैनिकों को दी जाने वाली भत्ते की राशि को कम कर दिया। अब कलकत्ता के 400 मील की परिधि में नियुक्त होने पर भत्ता आधा कर दिया गया। बंगाल में भू-राजस्व को एकत्र करने के क्षेत्र में प्रभावकारी प्रयास किये गये। 'राबर्ट माटिन्स बर्ड' के निरीक्षण में 'पश्चिमोत्तर प्रांत' में (आधुनिक उत्तर प्रदेश) ऐसी भू-कर व्यवस्था की गई, जिससे अधिक कर एकत्र होने लगा। अफीम के व्यापार को नियमित करते हुए इसे केवल बम्बई बंदरगाह से निर्यात की सुविधा दी गई। इसका परिणाम यह हुआ कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी को निर्यात कर का भी भाग मिलने लगा, जिससे उसके राजस्व में बड़ी ज़बर्दस्त वृद्धि हुई। न्याललय की भाषा लॉर्ड विलियम बैंटिक ने लॉर्ड कॉर्नवॉलिस द्वारा स्थापित प्रान्तीय, अपीलीय तथा सर्किट न्यायालयों को बन्द करवाकर, इसका कार्य मजिस्ट्रेट तथा कलेक्टरों में बांट दिया। न्यायलयों की भाषा फ़ारसी के स्थान पर विकल्प के रूप में स्थानीय भाषाओं के प्रयोग की अनुमति दी गई। ऊंचे स्तर के न्यायलयों में अंग्रेज़ी का प्रयोग होता था।.
भारत में यूरोपीय आगमन और लॉर्ड विलियम बैन्टिक के बीच समानता
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भारत में यूरोपीय आगमन और लॉर्ड विलियम बैन्टिक के बीच तुलना
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