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पानीपत का द्वितीय युद्ध और हेमचन्द्र विक्रमादित्य

शॉर्टकट: मतभेद, समानता, समानता गुणांक, संदर्भ

पानीपत का द्वितीय युद्ध और हेमचन्द्र विक्रमादित्य के बीच अंतर

पानीपत का द्वितीय युद्ध vs. हेमचन्द्र विक्रमादित्य

पानीपत का द्वितीय युद्ध उत्तर भारत के हिंदू शासक सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य (लोकप्रिय नाम- हेमू) और अकबर की सेना के बीच 5 नवम्बर 1556 को पानीपत के मैदान में लड़ा गया था। अकबर के सेनापति खान जमान और बैरम खान के लिए यह एक निर्णायक जीत थी। इस युद्ध के फलस्वरूप दिल्ली पर वर्चस्व के लिए मुगलों और अफगानों के बीच चलने वाला संघर्ष अन्तिम रूप से मुगलों के पक्ष में निर्णीत हो गया और अगले तीन सौ वर्षों तक मुगलों के पास ही रहा। . सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य या केवल हेमू (१५०१-१५५६) एक हिन्दू राजा था, जिसने मध्यकाल में १६वीं शताब्दी में भारत पर राज किया था। यह भारतीय इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण समय रहा जब मुगल एवं अफगान वंश, दोनों ही दिल्ली में राज्य के लिये तत्पर थे। कई इतिहसकारों ने हेमू को 'भारत का नैपोलियन' कहा है। .

पानीपत का द्वितीय युद्ध और हेमचन्द्र विक्रमादित्य के बीच समानता

पानीपत का द्वितीय युद्ध और हेमचन्द्र विक्रमादित्य आम में 7 बातें हैं (यूनियनपीडिया में): दिल्ली, पानीपत, बैरम खां, भारत, रेवाड़ी, हुमायूँ, अकबर

दिल्ली

दिल्ली (IPA), आधिकारिक तौर पर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली (अंग्रेज़ी: National Capital Territory of Delhi) भारत का एक केंद्र-शासित प्रदेश और महानगर है। इसमें नई दिल्ली सम्मिलित है जो भारत की राजधानी है। दिल्ली राजधानी होने के नाते केंद्र सरकार की तीनों इकाइयों - कार्यपालिका, संसद और न्यायपालिका के मुख्यालय नई दिल्ली और दिल्ली में स्थापित हैं १४८३ वर्ग किलोमीटर में फैला दिल्ली जनसंख्या के तौर पर भारत का दूसरा सबसे बड़ा महानगर है। यहाँ की जनसंख्या लगभग १ करोड़ ७० लाख है। यहाँ बोली जाने वाली मुख्य भाषाएँ हैं: हिन्दी, पंजाबी, उर्दू और अंग्रेज़ी। भारत में दिल्ली का ऐतिहासिक महत्त्व है। इसके दक्षिण पश्चिम में अरावली पहाड़ियां और पूर्व में यमुना नदी है, जिसके किनारे यह बसा है। यह प्राचीन समय में गंगा के मैदान से होकर जाने वाले वाणिज्य पथों के रास्ते में पड़ने वाला मुख्य पड़ाव था। यमुना नदी के किनारे स्थित इस नगर का गौरवशाली पौराणिक इतिहास है। यह भारत का अति प्राचीन नगर है। इसके इतिहास का प्रारम्भ सिन्धु घाटी सभ्यता से जुड़ा हुआ है। हरियाणा के आसपास के क्षेत्रों में हुई खुदाई से इस बात के प्रमाण मिले हैं। महाभारत काल में इसका नाम इन्द्रप्रस्थ था। दिल्ली सल्तनत के उत्थान के साथ ही दिल्ली एक प्रमुख राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं वाणिज्यिक शहर के रूप में उभरी। यहाँ कई प्राचीन एवं मध्यकालीन इमारतों तथा उनके अवशेषों को देखा जा सकता हैं। १६३९ में मुगल बादशाह शाहजहाँ ने दिल्ली में ही एक चारदीवारी से घिरे शहर का निर्माण करवाया जो १६७९ से १८५७ तक मुगल साम्राज्य की राजधानी रही। १८वीं एवं १९वीं शताब्दी में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने लगभग पूरे भारत को अपने कब्जे में ले लिया। इन लोगों ने कोलकाता को अपनी राजधानी बनाया। १९११ में अंग्रेजी सरकार ने फैसला किया कि राजधानी को वापस दिल्ली लाया जाए। इसके लिए पुरानी दिल्ली के दक्षिण में एक नए नगर नई दिल्ली का निर्माण प्रारम्भ हुआ। अंग्रेजों से १९४७ में स्वतंत्रता प्राप्त कर नई दिल्ली को भारत की राजधानी घोषित किया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् दिल्ली में विभिन्न क्षेत्रों से लोगों का प्रवासन हुआ, इससे दिल्ली के स्वरूप में आमूल परिवर्तन हुआ। विभिन्न प्रान्तो, धर्मों एवं जातियों के लोगों के दिल्ली में बसने के कारण दिल्ली का शहरीकरण तो हुआ ही साथ ही यहाँ एक मिश्रित संस्कृति ने भी जन्म लिया। आज दिल्ली भारत का एक प्रमुख राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं वाणिज्यिक केन्द्र है। .

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पानीपत

हरियाणा में पानीपत पानीपत, भारतीय राज्य हरियाणा के पानीपत जिले में स्थित एक प्राचीन और ऐतिहासिक शहर है। यह दिल्ली-चंडीगढ राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या-१ पर स्थित है। यह राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, दिल्ली के अन्तर्गत आता है और दिल्ली से ९० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। भारत के इतिहास को एक नया मोड़ देने वाली तीन प्रमुख लड़ाईयां यहां लड़ी गयी थी। प्राचीन काल में पांडवों एवं कौरवों के बीच महाभारत का युद्ध इसी के पास कुरुक्षेत्र में हुआ था, अत: इसका धार्मिक महत्व भी बढ़ गया है। महाभारत युद्ध के समय में युधिष्ठिर ने दुर्योधन से जो पाँच स्थान माँगे थे उनमें से यह भी एक था। आधुनिक युग में यहाँ पर तीन इतिहासप्रसिद्ध युद्ध भी हुए हैं। प्रथम युद्ध में, सन्‌ 1526 में बाबर ने भारत की तत्कालीन शाही सेना को हराया था। द्वितीय युद्ध में, सन्‌ 1556 में अकबर ने उसी स्थल पर अफगान आदिलशाह के जनरल हेमू को परास्त किया था। तीसरे युद्ध में, सन्‌ 1761 में, अहमदशाह दुर्रानी ने मराठों को हराया था। यहाँ अलाउद्दीन द्वारा बनवाया एक मकबरा भी है। नगर में पीतल के बरतन, छुरी, काँटे, चाकू बनाने तथा कपास ओटने का काम होता है। यहाँ शिक्षा एवं अस्पताल का भी उत्तम प्रबंध है। .

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बैरम खां

बैरम खां की हत्या एक अफ़्गान ने पाटन में १५६१ में की थी।:अकबरनामा बैरम खां की विधवा और बच्चे को १५६१ में उसकी हत्या के बाद अहमदाबाद, ले जाया गया था।: अकबरनामा बैरम खान(بيرام خان) अब्दुल रहीम खानेखाना के पिता जाने-माने योद्धा थे। वह अकबर के संरक्षक थे। याहू जागरण व तुर्किस्तान से आए थे। उन्हीं के संरक्षण में अकबर बड़े हुए लेकिन दरबार के कुछ लोगों ने अकबर को बैरम खान के खिलाफ भड़का दिया और उन्हें संरक्षक पद से हटा दिया गया, वह जब हज के लिए जा रहे थे तो रास्ते में उनकी हत्या कर दी गई। उस समय अब्दुल रहीम ५ साल के थे। उन्हें अकबर ने अपने पास रख लिया। बैरम खाँ तेरह वर्षीय अकबर के अतालीक (शिक्षक) तथा अभिभावक थे। बैरम खाँ खान-ए-खाना की उपाधि से सम्मानित थे। वे हुमायूँ के साढ़ू और अंतरंग मित्र थे। रहीम की माँ वर्तमान हरियाणा प्रांत के मेवाती राजपूत जमाल खाँ की सुंदर एवं गुणवती कन्या सुल्ताना बेगम थी। जब रहीम पाँच वर्ष के ही थे, तब गुजरात के पाटन नगर में सन १५६१ में इनके पिता बैरम खाँ की हत्या कर दी गई। रहीम का पालन-पोषण अकबर ने अपने धर्म-पुत्र की तरह किया।। अभिव्यक्ति। डॉ॰ दर्शन सेठी मध्य कालीन युद्धों के अरबी इतिहास ग्रंथ के प्रथम अध्याय में बैरम खां द्वारा बनवाई गई `कल्ला मीनार' का उल्लेख है। इस स्थान का नाम सर मंजिल रखा गया था। सिकंदर शाह सूरी के साथ लड़ने में जितने सिर कटे थे या सैनिक मरे थे, उन्हें बटोर कर उन्हें ईंट, पत्थरें की जगह काम में लाया गया और यह ऊंची मीनार खड़ी की गई थी। मुगल बादशाहों ने और भी कितनी ही ऐसी कल्ला मीनारें युद्ध विजय के दर्प-प्रदर्शन के लिए बनवाई थीं। कल्ला, फारसी में सिर को कहते हैं। बैरम ख़ाँ हुमायूँ का सहयोगी तथा उसके नाबालिग पुत्र अकबर का वली अथवा संरक्षक था। वह बादशाह हुमायूँ का परम मित्र तथा सहयोगी भी था। अपने समस्त जीवन में बैरम ख़ाँ ने मुग़ल साम्राज्य की बहुत सेवा की थी। हुमायूँ को उसका राज्य फिर से हासिल करने तथा कितने ही युद्धों में उसे विजित कराने में बैरम ख़ाँ का बहुत बड़ा हाथ था। अकबर को भी भारत का सम्राट बनाने के लिए बैरम ख़ाँ ने असंख्य युद्ध किए और हेमू जैसे शक्तिशाली राजा को हराकर भारत में मुग़ल साम्राज्य की स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। मुग़ल साम्राज्य में अकबर की दूधमाता माहम अनगा ही थी, जो बैरम ख़ाँ के विरुद्ध साज़िश करती रहती थी। ये इन्हीं साज़िशों का नतीजा था कि बैरम को हज के लिए आदेश दिया गया, जहाँ 1561 ई. में उसकी हत्या कर दी गई। वंश परिचय बैरम ख़ाँ का सम्बन्ध तूरान (मध्य एशिया) की तुर्कमान जाति से था। हैदराबाद के निज़ाम भी तुर्कमान थे। इतिहासकार कासिम फ़रिश्ता के अनुसार वह ईरान के कराकुइलु तुर्कमानों के बहारलु शाखा से सम्बद्ध था। अलीशकर बेग तुर्कमान तैमूर के प्रसिद्ध सरदारों में से एक था, जिसे हमदान, दीनवर, खुजिस्तान आदि पर शासक नियुक्त किया गया था। अलीशकर की सन्तानों में शेरअली बेग हुआ। तैमूरी शाह हुसेन बायकरा के बाद जब तूरान में सल्तनत बरबाद हुई, तो शेरअली काबुल की तरफ भाग्य परीक्षा करने के लिए आया। उसका बेटा यारअली और पोता सैफअली अफ़ग़ानिस्तान चले आये। यारअली को बाबर ने ग़ज़नी का हाकिम नियुक्त किया। थोड़े ही दिनों के बाद उसके मरने पर बेटे सैफअली को वहीं दर्जा मिला। वह भी जल्दी ही मर गया। अल्प वयस्क बैरम अपने घरवालों के साथ बल्ख चला गया। हुमायूँ से मित्रता बल्ख में वह कुछ दिनों तक पढ़ता-लिखता रहा। फिर वह समवयस्क शाहज़ादा हुमायूँ का नौकर और बाद में उसका मित्र हो गया। बैरम ख़ाँ को साहित्य और संगीत से भी बहुत प्रेम था। वह जल्दी ही अपने स्वामी का अत्यन्त प्रिय हो गया था। 16 वर्ष की आयु में ही एक लड़ाई में बैरम ख़ाँ ने बहुत वीरता दिखाई, उसकी ख्याति बाबर तक पहुँच गई, तब बाबर ने खुद उससे कहा: शाहज़ादा के साथ दरबार में हाजिर करो। बाबर के मरने के बाद वह हुमायूँ बादशाह की छाया के तौर पर रहने लगा। हुमायूँ ने चांपानेर (गुजरात) के क़िले पर घेरा डाला। किसी तरह से दाल ग़लती न देखकर चालीस मुग़ल बहादुर सीढ़ियों के साथ क़िले में उतर गए, जिनमें बैरम ख़ाँ भी था। क़िला फ़तह कर लिया गया। शेरशाह से चौसा में लड़ते वक़्त बैरम ख़ाँ भी साथ ही था। कन्नौज में भी वह लड़ा। इन सभी घटनाओं ने हुमायूँ और बैरम ख़ाँ को एक अटूट मित्रता में बाँध दिया था। जीवन दान कन्नौज की लड़ाई में पराजय के बाद मुग़ल सेना में जिसकी सींग जिधर समाई, वह उधर भागा। बैरम ख़ाँ अपने पुराने दोस्त सम्भल के मियाँ अब्दुल वहाब के पास पहुँचा। फिर लखनऊ के राजा मित्रसेन के पास जंगलों में दिन गुज़ारता रहा। शेरशाही हाकिम नसीर ख़ाँ को पता लगा। उसने बैरम ख़ाँ को पकड़ मंगवाया। नसीर ख़ाँ चाहता था कि बैरम ख़ाँ को कत्ल कर दें, पर दोस्तों की कोशिश से बैरम ख़ाँ किसी प्रकार से बच गया। अन्त में उसे शेरशाह के सामने हाजिर होना पड़ा, जिसने एक मामूली मुग़ल सरदार को महत्व न देकर उसे माफ कर दिया और जीवन दान दे दिया। कंधार के हाकिम का पद बैरम ख़ाँ फिर से गुजरात के सुल्तान महमूद के पास गया, पर उसे अपने स्वामी से मिलने की धुन थी। जब हिजरी 950 (1543-1544 ई.) में हुमायूँ ईरान से लौटकर काबुल लेते सिंध की ओर बढ़ा, तो बैरम ख़ाँ अपने आदमियों के साथ हुमायूँ की ओर से लड़ने लगा। हुमायूँ को इसकी ख़बर लगी तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। हिन्दुस्तान में सफलता मिलने वाली नहीं थी, इसलिए हुमायूँ ने ईरान का रास्ता किया। बैरम ख़ाँ भी उसके साथ था। शाही काफिले में कुल मिलाकर सत्तर आदमी से ज़्यादा नहीं थे। ईरान से लौटकर हुमायूँ ने कंधार को घेरा। उसने चाहा, भाई कामराँ को समझा-बुझाकर ख़ून-ख़राबा रोका जाए। उसे समझाने के लिए हुमायूँ ने बैरम ख़ाँ को काबुल भेजा, लेकिन वह कहाँ होने वाला था। कंधार पर अधिकार करके बैरम ख़ाँ को वहाँ का हाकिम नियुक्त किया गया। कंधार विजय के बारे में हुमायूँ ने स्वयं कहा- “रोज नौरोज बैरम’स्त इमरोज”। दिले अहबाब बेगम’स्त इमरोज। (आज नववर्ष दिन बैरम है। आज मित्रों के दिल बेफिकर हैं। ख़ानख़ाना की उपाधि जब हुमायूँ हिन्दुस्तान की ओर बढ़ते समय सतलुज नदी के किनारे माछीवाड़ा पहुँचा था, तब पता लगा दूसरी पार बेजवाड़ा में तीस हज़ार पठान डेरा डाले पड़े हैं। पठान लकड़ी जलाकर ताप रहे थे। रात को रौशनी ने लक्ष्य बतलाने में सहायता की। अपने एक हज़ार सवारों के साथ बैरम ख़ाँ उनके ऊपर टूट पड़ा। दुश्मन की संख्या का उनको पता नहीं था। तीरों की वर्षा से पठान घबरा गए। वे अपना सारा माल वहीं पर छोड़कर भाग गए। इसी विजय के उपलक्ष्य में हुमायूँ ने उसे ‘ख़ानख़ाना’ की उपाधि प्रदान की। तर्दीबेग बैरम ख़ाँ का प्रतिद्वन्द्वी था, लेकिन हेमू से हारकर भागने के समय बैरम ख़ाँ को मौक़ा मिल गया और उसने इस काँटे को निकाल बाहर किया। अकबर के गद्दी पर बैठने के दिन अबुल मसानी ने कुछ गड़बड़ी करनी चाही थी, लेकिन बैरम ख़ाँ ने जैसी ख़ूबसूरती से इस गुत्थी को सुलझाया, वह उसका ही काम था। हेमचन्द्र (हेमू) से पराजित होकर मुग़ल अमीर निराश हो चुके थे। वह काबुल लौट जाना चाहते थे, पर बैरम ख़ाँ ने उन्हें रोक दिया। साज़िश अकबर की दूधमाता माहम अनगा नित्य ही बैरम ख़ाँ के ख़िलाफ़ साज़िशें रचती रहती थी। मुग़ल दरबार में माहम अनगा का एक समूह था, जो हमेशा ही बैरम को नीचा दिखाने में लगा रहता था। हिजरी 961 (1553-1554 ई.) में इन लोगों ने चुगली लगाई कि बैरम ख़ाँ स्वतंत्र होना चाहता है, लेकिन बैरम ख़ाँ नमक-हराम नहीं था। हुमायूँ एक दिन जब स्वयं कंधार पहुँचा था, तब बैरम ख़ाँ ने बहुत चाहा कि बादशाह उसे अपने साथ ले चले, लेकिन कंधार भी एक बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान था, जिसके लिए बैरम ख़ाँ से बढ़कर अच्छा शासक नहीं मिल सक बैरम ख़ाँ हुमायूँ का सहयोगी तथा उसके नाबालिग पुत्र अकबर का वली अथवा संरक्षक था। वह बादशाह हुमायूँ का परम मित्र तथा सहयोगी भी था। अपने समस्त जीवन में बैरम ख़ाँ ने मुग़ल साम्राज्य की बहुत सेवा की थी। हुमायूँ को उसका राज्य फिर से हासिल करने तथा कितने ही युद्धों में उसे विजित कराने में बैरम ख़ाँ का बहुत बड़ा हाथ था। अकबर को भी भारत का सम्राट बनाने के लिए बैरम ख़ाँ ने असंख्य युद्ध किए और हेमू जैसे शक्तिशाली राजा को हराकर भारत में मुग़ल साम्राज्य की स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। मुग़ल साम्राज्य में अकबर की दूधमाता माहम अनगा ही थी, जो बैरम ख़ाँ के विरुद्ध साज़िश करती रहती थी। ये इन्हीं साज़िशों का नतीजा था कि बैरम को हज के लिए आदेश दिया गया, जहाँ 1561 ई. में उसकी हत्या कर दी गई। वंश परिचय बैरम ख़ाँ का सम्बन्ध तूरान (मध्य एशिया) की तुर्कमान जाति से था। हैदराबाद के निज़ाम भी तुर्कमान थे। इतिहासकार कासिम फ़रिश्ता के अनुसार वह ईरान के कराकुइलु तुर्कमानों के बहारलु शाखा से सम्बद्ध था। अलीशकर बेग तुर्कमान तैमूर के प्रसिद्ध सरदारों में से एक था, जिसे हमदान, दीनवर, खुजिस्तान आदि पर शासक नियुक्त किया गया था। अलीशकर की सन्तानों में शेरअली बेग हुआ। तैमूरी शाह हुसेन बायकरा के बाद जब तूरान में सल्तनत बरबाद हुई, तो शेरअली काबुल की तरफ भाग्य परीक्षा करने के लिए आया। उसका बेटा यारअली और पोता सैफअली अफ़ग़ानिस्तान चले आये। यारअली को बाबर ने ग़ज़नी का हाकिम नियुक्त किया। थोड़े ही दिनों के बाद उसके मरने पर बेटे सैफअली को वहीं दर्जा मिला। वह भी जल्दी ही मर गया। अल्प वयस्क बैरम अपने घरवालों के साथ बल्ख चला गया। हुमायूँ से मित्रता बल्ख में वह कुछ दिनों तक पढ़ता-लिखता रहा। फिर वह समवयस्क शाहज़ादा हुमायूँ का नौकर और बाद में उसका मित्र हो गया। बैरम ख़ाँ को साहित्य और संगीत से भी बहुत प्रेम था। वह जल्दी ही अपने स्वामी का अत्यन्त प्रिय हो गया था। 16 वर्ष की आयु में ही एक लड़ाई में बैरम ख़ाँ ने बहुत वीरता दिखाई, उसकी ख्याति बाबर तक पहुँच गई, तब बाबर ने खुद उससे कहा: शाहज़ादा के साथ दरबार में हाजिर करो। बाबर के मरने के बाद वह हुमायूँ बादशाह की छाया के तौर पर रहने लगा। हुमायूँ ने चांपानेर (गुजरात) के क़िले पर घेरा डाला। किसी तरह से दाल ग़लती न देखकर चालीस मुग़ल बहादुर सीढ़ियों के साथ क़िले में उतर गए, जिनमें बैरम ख़ाँ भी था। क़िला फ़तह कर लिया गया। शेरशाह से चौसा में लड़ते वक़्त बैरम ख़ाँ भी साथ ही था। कन्नौज में भी वह लड़ा। इन सभी घटनाओं ने हुमायूँ और बैरम ख़ाँ को एक अटूट मित्रता में बाँध दिया था। जीवन दान कन्नौज की लड़ाई में पराजय के बाद मुग़ल सेना में जिसकी सींग जिधर समाई, वह उधर भागा। बैरम ख़ाँ अपने पुराने दोस्त सम्भल के मियाँ अब्दुल वहाब के पास पहुँचा। फिर लखनऊ के राजा मित्रसेन के पास जंगलों में दिन गुज़ारता रहा। शेरशाही हाकिम नसीर ख़ाँ को पता लगा। उसने बैरम ख़ाँ को पकड़ मंगवाया। नसीर ख़ाँ चाहता था कि बैरम ख़ाँ को कत्ल कर दें, पर दोस्तों की कोशिश से बैरम ख़ाँ किसी प्रकार से बच गया। अन्त में उसे शेरशाह के सामने हाजिर होना पड़ा, जिसने एक मामूली मुग़ल सरदार को महत्व न देकर उसे माफ कर दिया और जीवन दान दे दिया। कंधार के हाकिम का पद बैरम ख़ाँ फिर से गुजरात के सुल्तान महमूद के पास गया, पर उसे अपने स्वामी से मिलने की धुन थी। जब हिजरी 950 (1543-1544 ई.) में हुमायूँ ईरान से लौटकर काबुल लेते सिंध की ओर बढ़ा, तो बैरम ख़ाँ अपने आदमियों के साथ हुमायूँ की ओर से लड़ने लगा। हुमायूँ को इसकी ख़बर लगी तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। हिन्दुस्तान में सफलता मिलने वाली नहीं थी, इसलिए हुमायूँ ने ईरान का रास्ता किया। बैरम ख़ाँ भी उसके साथ था। शाही काफिले में कुल मिलाकर सत्तर आदमी से ज़्यादा नहीं थे। ईरान से लौटकर हुमायूँ ने कंधार को घेरा। उसने चाहा, भाई कामराँ को समझा-बुझाकर ख़ून-ख़राबा रोका जाए। उसे समझाने के लिए हुमायूँ ने बैरम ख़ाँ को काबुल भेजा, लेकिन वह कहाँ होने वाला था। कंधार पर अधिकार करके बैरम ख़ाँ को वहाँ का हाकिम नियुक्त किया गया। कंधार विजय के बारे में हुमायूँ ने स्वयं कहा- “रोज नौरोज बैरम’स्त इमरोज”। दिले अहबाब बेगम’स्त इमरोज। (आज नववर्ष दिन बैरम है। आज मित्रों के दिल बेफिकर हैं। ख़ानख़ाना की उपाधि जब हुमायूँ हिन्दुस्तान की ओर बढ़ते समय सतलुज नदी के किनारे माछीवाड़ा पहुँचा था, तब पता लगा दूसरी पार बेजवाड़ा में तीस हज़ार पठान डेरा डाले पड़े हैं। पठान लकड़ी जलाकर ताप रहे थे। रात को रौशनी ने लक्ष्य बतलाने में सहायता की। अपने एक हज़ार सवारों के साथ बैरम ख़ाँ उनके ऊपर टूट पड़ा। दुश्मन की संख्या का उनको पता नहीं था। तीरों की वर्षा से पठान घबरा गए। वे अपना सारा माल वहीं पर छोड़कर भाग गए। इसी विजय के उपलक्ष्य में हुमायूँ ने उसे ‘ख़ानख़ाना’ की उपाधि प्रदान की। तर्दीबेग बैरम ख़ाँ का प्रतिद्वन्द्वी था, लेकिन हेमू से हारकर भागने के समय बैरम ख़ाँ को मौक़ा मिल गया और उसने इस काँटे को निकाल बाहर किया। अकबर के गद्दी पर बैठने के दिन अबुल मसानी ने कुछ गड़बड़ी करनी चाही थी, लेकिन बैरम ख़ाँ ने जैसी ख़ूबसूरती से इस गुत्थी को सुलझाया, वह उसका ही काम था। हेमचन्द्र (हेमू) से पराजित होकर मुग़ल अमीर निराश हो चुके थे। वह काबुल लौट जाना चाहते थे, पर बैरम ख़ाँ ने उन्हें रोक दिया। साज़िश अकबर की दूधमाता माहम अनगा नित्य ही बैरम ख़ाँ के ख़िलाफ़ साज़िशें रचती रहती थी। मुग़ल दरबार में माहम अनगा का एक समूह था, जो हमेशा ही बैरम को नीचा दिखाने में लगा रहता था। हिजरी 961 (1553-1554 ई.) में इन लोगों ने चुगली लगाई कि बैरम ख़ाँ स्वतंत्र होना चाहता है, लेकिन बैरम ख़ाँ नमक-हराम नहीं था। हुमायूँ एक दिन जब स्वयं कंधार पहुँचा था, तब बैरम ख़ाँ ने बहुत चाहा कि बादशाह उसे अपने साथ ले चले, लेकिन कंधार भी एक बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान था, जिसके लिए बैरम ख़ाँ से बढ़कर अच्छा शासक नहीं मिल सक .

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भारत

भारत (आधिकारिक नाम: भारत गणराज्य, Republic of India) दक्षिण एशिया में स्थित भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे बड़ा देश है। पूर्ण रूप से उत्तरी गोलार्ध में स्थित भारत, भौगोलिक दृष्टि से विश्व में सातवाँ सबसे बड़ा और जनसंख्या के दृष्टिकोण से दूसरा सबसे बड़ा देश है। भारत के पश्चिम में पाकिस्तान, उत्तर-पूर्व में चीन, नेपाल और भूटान, पूर्व में बांग्लादेश और म्यान्मार स्थित हैं। हिन्द महासागर में इसके दक्षिण पश्चिम में मालदीव, दक्षिण में श्रीलंका और दक्षिण-पूर्व में इंडोनेशिया से भारत की सामुद्रिक सीमा लगती है। इसके उत्तर की भौतिक सीमा हिमालय पर्वत से और दक्षिण में हिन्द महासागर से लगी हुई है। पूर्व में बंगाल की खाड़ी है तथा पश्चिम में अरब सागर हैं। प्राचीन सिन्धु घाटी सभ्यता, व्यापार मार्गों और बड़े-बड़े साम्राज्यों का विकास-स्थान रहे भारतीय उपमहाद्वीप को इसके सांस्कृतिक और आर्थिक सफलता के लंबे इतिहास के लिये जाना जाता रहा है। चार प्रमुख संप्रदायों: हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख धर्मों का यहां उदय हुआ, पारसी, यहूदी, ईसाई, और मुस्लिम धर्म प्रथम सहस्राब्दी में यहां पहुचे और यहां की विविध संस्कृति को नया रूप दिया। क्रमिक विजयों के परिणामस्वरूप ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी ने १८वीं और १९वीं सदी में भारत के ज़्यादतर हिस्सों को अपने राज्य में मिला लिया। १८५७ के विफल विद्रोह के बाद भारत के प्रशासन का भार ब्रिटिश सरकार ने अपने ऊपर ले लिया। ब्रिटिश भारत के रूप में ब्रिटिश साम्राज्य के प्रमुख अंग भारत ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में एक लम्बे और मुख्य रूप से अहिंसक स्वतन्त्रता संग्राम के बाद १५ अगस्त १९४७ को आज़ादी पाई। १९५० में लागू हुए नये संविधान में इसे सार्वजनिक वयस्क मताधिकार के आधार पर स्थापित संवैधानिक लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित कर दिया गया और युनाईटेड किंगडम की तर्ज़ पर वेस्टमिंस्टर शैली की संसदीय सरकार स्थापित की गयी। एक संघीय राष्ट्र, भारत को २९ राज्यों और ७ संघ शासित प्रदेशों में गठित किया गया है। लम्बे समय तक समाजवादी आर्थिक नीतियों का पालन करने के बाद 1991 के पश्चात् भारत ने उदारीकरण और वैश्वीकरण की नयी नीतियों के आधार पर सार्थक आर्थिक और सामाजिक प्रगति की है। ३३ लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के साथ भारत भौगोलिक क्षेत्रफल के आधार पर विश्व का सातवाँ सबसे बड़ा राष्ट्र है। वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था क्रय शक्ति समता के आधार पर विश्व की तीसरी और मानक मूल्यों के आधार पर विश्व की दसवीं सबसे बडी अर्थव्यवस्था है। १९९१ के बाज़ार-आधारित सुधारों के बाद भारत विश्व की सबसे तेज़ विकसित होती बड़ी अर्थ-व्यवस्थाओं में से एक हो गया है और इसे एक नव-औद्योगिकृत राष्ट्र माना जाता है। परंतु भारत के सामने अभी भी गरीबी, भ्रष्टाचार, कुपोषण, अपर्याप्त सार्वजनिक स्वास्थ्य-सेवा और आतंकवाद की चुनौतियां हैं। आज भारत एक विविध, बहुभाषी, और बहु-जातीय समाज है और भारतीय सेना एक क्षेत्रीय शक्ति है। .

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रेवाड़ी

रेवाड़ी एक ऐतिहासिक शहर है। बलराम भगवान की राजधानी और उनके बाद कृष्ण भगवान के प्रपौत्र महाराज बज्रभान आभीरीया शासन को आगे बढ़ाया। हालाँकि यह शहर अपनी पुरानी छवि खोता जा रहा है। खाने के हिसाब से यहाँ की रेवड़ियाँ बहुत मशहूर हैं। .

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हुमायूँ

मिर्जा मुहम्मद हाकिम, पुत्र अकीकेह बेगम, पुत्री बख्शी बानु बेगम, पुत्री बख्तुन्निसा बेगम, पुत्री | --> हुमायूँ एक मुगल शासक था। प्रथम मुग़ल सम्राट बाबर के पुत्र नसीरुद्दीन हुमायूँ (६ मार्च १५०८ – २२ फरवरी, १५५६) थे। यद्यपि उन के पास साम्राज्य बहुत साल तक नही रहा, पर मुग़ल साम्राज्य की नींव में हुमायूँ का योगदान है। बाबर की मृत्यु के पश्चात हुमायूँ ने १५३० में भारत की राजगद्दी संभाली और उनके सौतेले भाई कामरान मिर्ज़ा ने काबुल और लाहौर का शासन ले लिया। बाबर ने मरने से पहले ही इस तरह से राज्य को बाँटा ताकि आगे चल कर दोनों भाइयों में लड़ाई न हो। कामरान आगे जाकर हुमायूँ के कड़े प्रतिद्वंदी बने। हुमायूँ का शासन अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान और उत्तर भारत के हिस्सों पर १५३०-१५४० और फिर १५५५-१५५६ तक रहा। भारत में उन्होने शेरशाह सूरी से हार पायी। १० साल बाद, ईरान साम्राज्य की मदद से वे अपना शासन दोबारा पा सके। इस के साथ ही, मुग़ल दरबार की संस्कृति भी मध्य एशियन से इरानी होती चली गयी। हुमायूँ के बेटे का नाम जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर था। .

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अकबर

जलाल उद्दीन मोहम्मद अकबर (१५ अक्तूबर, १५४२-२७ अक्तूबर, १६०५) तैमूरी वंशावली के मुगल वंश का तीसरा शासक था। अकबर को अकबर-ऐ-आज़म (अर्थात अकबर महान), शहंशाह अकबर, महाबली शहंशाह के नाम से भी जाना जाता है। अंतरण करने वाले के अनुसार बादशाह अकबर की जन्म तिथि हुमायुंनामा के अनुसार, रज्जब के चौथे दिन, ९४९ हिज़री, तदनुसार १४ अक्टूबर १५४२ को थी। सम्राट अकबर मुगल साम्राज्य के संस्थापक जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर का पौत्र और नासिरुद्दीन हुमायूं एवं हमीदा बानो का पुत्र था। बाबर का वंश तैमूर और मंगोल नेता चंगेज खां से संबंधित था अर्थात उसके वंशज तैमूर लंग के खानदान से थे और मातृपक्ष का संबंध चंगेज खां से था। अकबर के शासन के अंत तक १६०५ में मुगल साम्राज्य में उत्तरी और मध्य भारत के अधिकाश भाग सम्मिलित थे और उस समय के सर्वाधिक शक्तिशाली साम्राज्यों में से एक था। बादशाहों में अकबर ही एक ऐसा बादशाह था, जिसे हिन्दू मुस्लिम दोनों वर्गों का बराबर प्यार और सम्मान मिला। उसने हिन्दू-मुस्लिम संप्रदायों के बीच की दूरियां कम करने के लिए दीन-ए-इलाही नामक धर्म की स्थापना की। उसका दरबार सबके लिए हर समय खुला रहता था। उसके दरबार में मुस्लिम सरदारों की अपेक्षा हिन्दू सरदार अधिक थे। अकबर ने हिन्दुओं पर लगने वाला जज़िया ही नहीं समाप्त किया, बल्कि ऐसे अनेक कार्य किए जिनके कारण हिन्दू और मुस्लिम दोनों उसके प्रशंसक बने। अकबर मात्र तेरह वर्ष की आयु में अपने पिता नसीरुद्दीन मुहम्मद हुमायुं की मृत्यु उपरांत दिल्ली की राजगद्दी पर बैठा था। अपने शासन काल में उसने शक्तिशाली पश्तून वंशज शेरशाह सूरी के आक्रमण बिल्कुल बंद करवा दिये थे, साथ ही पानीपत के द्वितीय युद्ध में नवघोषित हिन्दू राजा हेमू को पराजित किया था। अपने साम्राज्य के गठन करने और उत्तरी और मध्य भारत के सभी क्षेत्रों को एकछत्र अधिकार में लाने में अकबर को दो दशक लग गये थे। उसका प्रभाव लगभग पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर था और इस क्षेत्र के एक बड़े भूभाग पर सम्राट के रूप में उसने शासन किया। सम्राट के रूप में अकबर ने शक्तिशाली और बहुल हिन्दू राजपूत राजाओं से राजनयिक संबंध बनाये और उनके यहाँ विवाह भी किये। अकबर के शासन का प्रभाव देश की कला एवं संस्कृति पर भी पड़ा। उसने चित्रकारी आदि ललित कलाओं में काफ़ी रुचि दिखाई और उसके प्रासाद की भित्तियाँ सुंदर चित्रों व नमूनों से भरी पड़ी थीं। मुगल चित्रकारी का विकास करने के साथ साथ ही उसने यूरोपीय शैली का भी स्वागत किया। उसे साहित्य में भी रुचि थी और उसने अनेक संस्कृत पाण्डुलिपियों व ग्रन्थों का फारसी में तथा फारसी ग्रन्थों का संस्कृत व हिन्दी में अनुवाद भी करवाया था। अनेक फारसी संस्कृति से जुड़े चित्रों को अपने दरबार की दीवारों पर भी बनवाया। अपने आरंभिक शासन काल में अकबर की हिन्दुओं के प्रति सहिष्णुता नहीं थी, किन्तु समय के साथ-साथ उसने अपने आप को बदला और हिन्दुओं सहित अन्य धर्मों में बहुत रुचि दिखायी। उसने हिन्दू राजपूत राजकुमारियों से वैवाहिक संबंध भी बनाये। अकबर के दरबार में अनेक हिन्दू दरबारी, सैन्य अधिकारी व सामंत थे। उसने धार्मिक चर्चाओं व वाद-विवाद कार्यक्रमों की अनोखी शृंखला आरंभ की थी, जिसमें मुस्लिम आलिम लोगों की जैन, सिख, हिन्दु, चार्वाक, नास्तिक, यहूदी, पुर्तगाली एवं कैथोलिक ईसाई धर्मशस्त्रियों से चर्चाएं हुआ करती थीं। उसके मन में इन धार्मिक नेताओं के प्रति आदर भाव था, जिसपर उसकी निजि धार्मिक भावनाओं का किंचित भी प्रभाव नहीं पड़ता था। उसने आगे चलकर एक नये धर्म दीन-ए-इलाही की भी स्थापना की, जिसमें विश्व के सभी प्रधान धर्मों की नीतियों व शिक्षाओं का समावेश था। दुर्भाग्यवश ये धर्म अकबर की मृत्यु के साथ ही समाप्त होता चला गया। इतने बड़े सम्राट की मृत्यु होने पर उसकी अंत्येष्टि बिना किसी संस्कार के जल्दी ही कर दी गयी। परम्परानुसार दुर्ग में दीवार तोड़कर एक मार्ग बनवाया गया तथा उसका शव चुपचाप सिकंदरा के मकबरे में दफना दिया गया। .

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पानीपत का द्वितीय युद्ध और हेमचन्द्र विक्रमादित्य के बीच तुलना

पानीपत का द्वितीय युद्ध 16 संबंध है और हेमचन्द्र विक्रमादित्य 21 है। वे आम 7 में है, समानता सूचकांक 18.92% है = 7 / (16 + 21)।

संदर्भ

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