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पराशर और राजा परीक्षित को शाप

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पराशर और राजा परीक्षित को शाप के बीच अंतर

पराशर vs. राजा परीक्षित को शाप

पाराशर ज्‍योतिषियों का गोत्र है। इस गोत्र के लोग ज्‍योतिषीय गणनाएं न भी करें तो भविष्‍य देखने के प्रति और परा भौतिक दुनिया के प्रति अधिक झुकाव रखने वाले लोग होते हैं। भारद्वाज और कश्‍यप गोत्र की तुलना में ये लोग समस्‍याओं के समाधान एक साथ और स्‍थाई ढूंढने की कोशिश करते हैं और अधिकतर सांसारिक समस्‍याओं से पलायन करते हैं। ऐसे में परा से इन लोगों का अधिक संपर्क होता है। इसी कारण ओमेन में भी इन लोगों को अच्‍छा हाथ होता है। श्रेणी:गोत्र श्रेणी:ज्योतिष. एक बार राजा परीक्षित आखेट हेतु वन में गये। वन्य पशुओं के पीछे दौड़ने के कारण वे प्यास से व्याकुल हो गये तथा जलाशय की खोज में इधर उधर घूमते घूमते वे शमीक ऋषि के आश्रम में पहुँच गये। वहाँ पर शमीक ऋषि नेत्र बंद किये हुये तथा शान्तभाव से एकासन पर बैठे हुये ब्रह्मध्यान में लीन थे। राजा परीक्षित ने उनसे जल माँगा किन्तु ध्यानमग्न होने के कारण शमीक ऋषि ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। सिर पर स्वर्ण मुकुट पर निवास करते हुये कलियुग के प्रभाव से राजा परीक्षित को प्रतीत हुआ कि यह ऋषि ध्यानस्थ होने का ढोंग कर के मेरा अपमान कर रहा है। उन्हें ऋषि पर बहुत क्रोध आया। उन्होंने अपने अपमान का बदला लेने के उद्देश्य से पास ही पड़े हुये एक मृत सर्प को अपने धनुष की नोंक से उठा कर ऋषि के गले में डाल दिया और अपने नगर वापस आ गये। डारि नाग ऋषि कंठ में, नृप ने कीन्हों पाप। होनहार हो कर हुतो, ऋंगी दीन्हों शाप॥ शमीक ऋषि तो ध्यान में लीन थे उन्हें ज्ञात ही नहीं हो पाया कि उनके साथ राजा ने क्या किया है किन्तु उनके पुत्र ऋंगी ऋषि को जब इस बात का पता चला तो उन्हें राजा परीक्षित पर बहुत क्रोध आया। ऋंगी ऋषि ने सोचा कि यदि यह राजा जीवित रहेगा तो इसी प्रकार ब्राह्मणों का अपमान करता रहेगा। इस प्रकार विचार करके उस ऋषिकुमार ने कमण्डल से अपनी अंजुली में जल ले कर तथा उसे मन्त्रों से अभिमन्त्रित करके राजा परीक्षित को यह श्राप दे दिया कि जा तुझे आज से सातवें दिन तक्षक सर्प डसेगा। कुछ समय बाद शमीक ऋषि के समाधि टूटने पर उनके पुत्र ऋंगी ऋषि ने उन्हें राजा परीक्षित के कुकृत्य और अपने श्राप के विषय में बताया। श्राप के बारे में सुन कर शमीक ऋषि को बहुत दुःख हुआ और उन्होंने कहा - "अरे मूर्ख! तूने घोर पाप कर डाला। जरा सी गलती के लिये तूने उस भगवत्भक्त राजा को घोर श्राप दे डाला। मेरे गले में मृत सर्प डालने के इस कृत्य को राजा ने जान बूझ कर नहीं किया है, उस समय वह कलियुग के प्रभाव में था। उसके राज्य में प्रजा सुखी है और हम लोग निर्भीकतापूर्वक जप, तप, यज्ञादि करते रहते हैं। अब राजा के न रहने पर प्रजा में विद्रोह, वर्णसंकरतादि फैल जायेगी और अधर्म का साम्राज्य हो जायेगा। यह राजा श्राप देने योग्य नहीं था पर तूने उसे श्राप दे कर घोर अपराध किया है। कहीं ऐसा न हो कि वह राजा स्वयं तुझे श्राप दे दे, किन्तु मैं जानता हूँ कि वे परम ज्ञानी है और ऐसा कदापि नहीं करेंगे।" ऋषि शमीक को अपने पुत्र के इस अपराध के कारण अत्यन्त पश्चाताप होने लगा। राजगृह में पहुँच कर जब राजा परीक्षित ने अपना मुकुट उतारा तो कलियुग का प्रभाव समाप्त हो गया और ज्ञान की पुनः उत्पत्ति हुई। वे सोचने लगे कि मैने घोर पाप कर डाला है। निरपराध ब्राह्मण के कंठ में मरे हुये सर्प को डाल कर मैंने बहुत बड़ा कुकृत्य किया है। इस प्रकार वे पश्चाताप कर रहे थे कि ऋषि शमीक का भेजा हुआ एक शिष्य ने आकर उन्हें बताया कि ऋषिकुमार ने आपको श्राप दिया है कि आज से सातवें दिन तक्षक सर्प आपको डस लेगा। राजा परीक्षित ने शिष्य को प्रसन्नतापूर्वक आसन दिया और बोले - "ऋषिकुमार ने श्राप देकर मुझ पर बहुत बड़ा उपकार किया है। मेरी भी यही इच्छा है कि मुझ जैसे पापी को मेरे पाप के लिय दण्ड मिलना ही चाहिये। आप ऋषिकुमार को मेरा यह संदेश पहुँचा दीजिये कि मैं उनके इस कृपा के लिये उनका अत्यंत आभारी हूँ।" उस शिष्य का यथोचित सम्मान कर के और क्षमायाचना कर के राजा परीक्षित ने विदा किया। राजा परीक्षित ने अपने जीवन के शेष सात दिन को ज्ञान प्राप्ति और भगवत्भक्ति में व्यतीत करने का संकल्प कर लिया। अपने समर्थ पुत्र जनमेजय का राज्याभिषेक कर दिया और समस्त राजसी वस्त्राभूषणों को त्यागकर तथा केवल चीर वस्त्र धारण कर गंगा के तट पर बैठ गये। अपनी समस्त आसक्तियों को त्याग कर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की भक्ति में स्वयं को लीन कर लिया। उनके इस त्याग और व्रत के विषय में सुन कर अत्रि, वशिष्ठ, च्यवन, अरिष्टनेमि, शारद्वान, पाराशर, अंगिरा, भृगु, परशुराम, विश्वामित्र, इन्द्रमद, उतथ्य, मेधातिथि, देवल, मैत्रेय, पिप्पलाद, गौतम, भारद्वाज, और्व, कण्डव, अगस्त्य, नारद, वेदव्यास आदि ऋषि, महर्षि और देवर्षि अपने अपने शिष्यों के साथ उनके दर्शन को पधारे। राजा परीक्षित ने उन सभी का यथोचित समयानुकूल सत्कार करके उन्हें आसन दिया, उनके चरणों की वन्दना की और कहा - "यह मेरा परम सौभाग्य है कि आप जैस देवता तुल्य ऋषियों के दर्शन प्राप्त हुये। मैंने सत्ता के मद में चूर होकर परम तेजस्वी ब्राह्मण के प्रति अपराध किया है फिर भी आप लोगों ने मुझे दर्शन देने के लिये यहाँ तक आने का कष्ट किया यह आप लोगों की महानता है। मेरी इच्छा है कि मैं अपने जीवन के शेष सात दिनों का सदुपयोग ज्ञान प्राप्ति और भगवत्भक्ति में करूँ। अतः आप सब लोगों से मेरा निवेदन है कि आप लोग वह सुगम मार्ग बताइये जिस पर चल कर मैं भगवान को प्राप्त कर सकूँ।" राजा परीक्षित के वचनों को सुन कर सभी अत्यन्त प्रसन्न हुये और यथायोग्य उनकी इच्छा को पूर्ण करने का निश्चय कर लिया। उसी समय वहाँ पर व्यास ऋषि के पुत्र, जन्म मृत्यु से रहित परमज्ञानी श्री शुकदेव जी पधारे। समस्त ऋषियों सहित राजा परीक्षित उनके सम्मान में उठ कर खड़े हो गये और उन्हें प्रणाम किया। उसके बाद अर्ध्य, पाद्य तथा माला आदि से सूर्य के समान प्रकाशमान श्री शुकदेव जी की पूजा की और बैठने के लिये उच्चासन प्रदान किया। उनके बैठने के बाद अन्य ऋषि भी अपने अपने आसन पर बैठ गये। सभी के आसन ग्रहण करने के पश्चात् राजा परीक्षित ने मधुर वाणी में कहा - "हे ब्रह्मरूप योगेश्वर! हे महाभाग! भगवान नारायण के सम्मुख आने से जिस प्रकार दैत्य भाग जाते हैं उसी प्रकार आपके पधारने से महान पाप भी अविलंब भाग खड़े होते हैं। आप जैसे योगेश्वर के दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है पर आपने स्वयं मेरी मृत्यु के समय पधार कर मुझ पापी को दर्शन देकर मुझे मेरे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दिया है। आप योगियों के भी गुरु हैं, आपने परम सिद्धि प्राप्त की है। अतः कृपा करके यह बताइये कि मरणासन्न प्राणी के लिये क्या कर्तव्य है? उसे किस कथा का श्रवण, किस देवता का जप, अनुष्ठान, स्मरण तथा भजन करना चाहिये और किन किन बातों का त्याग कर देना चाहिये? समस्त ऋषियों ने राजा परीक्षित के इन प्रश्नों के पूछने के लिये साधुवाद दिया और उनके प्रश्नों के उत्तर देने के लिये महायोगी श्री शुकदेव जी से आग्रह किया। समस्त धर्मों के ज्ञाता परमज्ञानी श्री शुकदेव जी जिन्होंने नाल छेदन के समय से ही इस संसार की माया को त्याग कर परमहंस व्रत से ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया है उनके प्रश्नों का उत्तर देने के लिये तैयार हो गये। महायोगेश्वर श्री शुकदेव जी बोले - "हे राजा परीक्षित! एक राजा होने के नाते तुम अपने कल्याण के साथ ही साथ सभी के कल्याण की चिन्ता रहती है इसीलिये तुमने यह अति उत्तम प्रश्न किया है। इससे तुम्हारे कल्याण के साथ ही साथ दूसरों का भी कल्याण अवश्य ही होगा। मनुष्य जन्म लेने के पश्चात् संसार के मायाजाल में फँस जाता है और उसे मनुष्य योनि का वास्तविक लाभ प्राप्त नहीं हो पाता। उसका दिन काम धंधों में और रात नींद तथा स्त्री प्रसंग में बीत जाता है। अज्ञानी मनुष्य स्त्री, पुत्र, शरीर, धन, सम्पत्ति सम्बंधियों आदि को अपना सब कुछ समझ बैठता है। वह मूर्ख पागल की भाँति उनमें रम जाता है और उनके मोह में अपनी मृत्यु से भयभीत रहता है पर अन्त में मृत्यु का ग्रास हो कर चला जाता है। मनुष्य को मृत्यु के आने पर भयभीत तथा व्याकुल नहीं होना चाहिये। उस समय अपने ज्ञान से वैराग्य लेकर सम्पूर्ण मोह को दूर कर लेना चाहिये। अपनी इन्द्रियों को वश में करके उन्हें सांसारिक विषय वासनाओं से हटाकर चंचल मन को दीपक की लौ के समान स्थिर कर लेना चाहिये। इस समस्त प्रक्रिया के मध्य ॐ का निरन्तर जाप करते रहना चाहिये जिससे कि मन इधर उधर न भटके। इस प्रकार ध्यान करते करते मन भगवत् प्रेम के आनन्द से भर जाता है। फिर चित्त वहाँ से हटने को नहीं करता है। यदि मूढ़ मन रजोगुण और तमोगुण के कारण स्थिर न रहे तो साधक को व्याकुल न हो कर धीरे धीरे धैर्य के साथ उसे अपने वश में करने का उपाय करना चाहिये। उसी योग धारणा से योगी को भगवान के दर्शन हृदय में हो जाते हैं और भक्ति की प्राप्ति होती है।" राजा परीक्षित ने पूछा - "हे महाभाग! वह कौन सी धारणा है जो अज्ञानरूपी मैल को शीघ्र दूर कर देती है और उस धारणा को कैसे किया जाता है?" उनके इस प्रश्न के उत्तर में श्री शुकदेव जी ने कहा - "हे परीक्षित! योग की साधना करने वाले साधक को सबसे पहले अपनेशरीर को वश में करने के लिये यथोचित आसन में बैठना चाहिये। तत्पश्चात् क्रिया शक्ति को वश में करने के लिये प्राणायाम का साधन करना चाहिये। साथ ही साथ विषय एवं कामनाओं को त्याग कर इन्द्रियों को अपने नियन्त्रण में करना चाहिये। फिर ज्ञान का प्रयोग कर मन को चारों ओर से इस प्रकार समेट लेना चाहिये जैसे कि कछुवा अपने सिर पैर को समेट लेता है। इतना करने के पश्चात् भगवान के विराट रूप का ध्यान करना चाहिये। उसे यह समझना चाहिये कि जल, वायु, अग्नि, आकाश, पथ्वी आदि पंचतत्व, अहंकार और प्रकृति इन सात पदों से आवृत यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड विराट भगवान का ही शरीर है, वही इन सबको धारण किये हुये हैं। तत्वज्ञानी पुरुषों के अनुसार पाताल विराट भगवान के तलवे, रसातल उनके पंजे, महातल उनकी एड़ी के ऊपर की गाँठें, तलातल उनकी पिंडली, सुतल उनके घुटने, वितल और अतल उनकी जाँघें तथा भूतल उनका पेडू है। हे परीक्षित! आकाश उनकी नाभि, स्वर्गलोक उनकी छाती, महालोक उनका कंठ, जनलोक उनका मुख, तपलोक उनका मस्तक और सत्यलोक उनके सहस्त्र सिर हैं। दिशाएँ उनके कान, दोनों अश्वनीकुमार उनकी नासिका, अग्नि उनका मुख, अन्तरिक्ष उनके नेत्र और सूर्य उन नेत्रों की ज्योति है। दिन और रात्रि उनकी पलकें हैं, ब्रह्मलोक उनका भ्रू-विलास है, जल उनका तालू और रस उनकी जिव्ह्या है। वेद उनकी मस्तकरेखाएँ और यम उनकी दाढ़ें हैं। स्नेह उनके दाँत हैं और जगत को मोहित करने वाली माया उनकी मुस्कान है। लज्जा उनकी ऊपरी ओंठ तथा लोभ निचली ओंठ है। धर्म उनके स्तन और अधर्म उनकी पीठ है। प्रजापति ब्रह्मा उनकी मूत्रेन्द्रिय, मित्रावरुण उनके अण्डकोष और समुद्र उनका कोख है। पर्वत उनकी हड्डियाँ और नदियाँ उनकी नाड़ियाँ हैं। वृक्ष उनके रोम और वायु उनका श्वास है। बादल उनके केश है। सन्ध्या उनका वस्त्र है। मूल प्रकृति उनका हृदय है और चन्द्रमा उनका मन है। महातत्व उनका चित्त और रुद्रदेव उनका अहंकार है। वन्य पशु उनका कमर तथा हाथी, घोड़े, खच्चर आदि उनके नख हैं। अनेकों प्रकार के पक्षी उनकी कलाएँ हैं। बुद्धि उनका मन है और मनुष्य उनका निवास स्थान है। अप्सरा, चारण, गन्धर्व आदि उनके स्वर हैं। देवताओं के निमित्त किये गये यज्ञ उनके कर्म हैं। दैत्य तथा राक्षस उनके वीर्य, ब्राह्मण उनकी मुखारविन्दु, क्षत्रिय उनकी बाँहें, वैश्य उनकी जंघायें तथा शूद्र उनके चरणों से उत्पन्न होते हैं। "अतः बुद्धि और ज्ञान से अपने मन को वश में कर के भगवान के इसी विराट रूप का ध्यान करना चाहिये।" .

पराशर और राजा परीक्षित को शाप के बीच समानता

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पराशर और राजा परीक्षित को शाप के बीच तुलना

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संदर्भ

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