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नीतिशास्त्र और सिनिक सम्प्रदाय

शॉर्टकट: मतभेद, समानता, समानता गुणांक, संदर्भ

नीतिशास्त्र और सिनिक सम्प्रदाय के बीच अंतर

नीतिशास्त्र vs. सिनिक सम्प्रदाय

नीतिशास्त्र (ethics) जिसे व्यवहारदर्शन, नीतिदर्शन, नीतिविज्ञान और आचारशास्त्र भी कहते हैं, दर्शन की एक शाखा हैं। यद्यपि आचारशास्त्र की परिभाषा तथा क्षेत्र प्रत्येक युग में मतभेद के विषय रहे हैं, फिर भी व्यापक रूप से यह कहा जा सकता है कि आचारशास्त्र में उन सामान्य सिद्धांतों का विवेचन होता है जिनके आधार पर मानवीय क्रियाओं और उद्देश्यों का मूल्याँकन संभव हो सके। अधिकतर लेखक और विचारक इस बात से भी सहमत हैं कि आचारशास्त्र का संबंध मुख्यत: मानंदडों और मूल्यों से है, न कि वस्तुस्थितियों के अध्ययन या खोज से और इन मानदंडों का प्रयोग न केवल व्यक्तिगत जीवन के विश्लेषण में किया जाना चाहिए वरन् सामाजिक जीवन के विश्लेषण में भी। अच्छा और बुरा, सही और गलत, गुण और दोष, न्याय और जुर्म जैसी अवधारणाओं को परिभाषित करके, नीतिशास्त्र मानवीय नैतिकता के प्रश्नों को सुलझाने का प्रयास करता हैं। बौद्धिक समीक्षा के क्षेत्र के रूप में, वह नैतिक दर्शन, वर्णात्मक नीतिशास्त्र, और मूल्य सिद्धांत के क्षेत्रों से भी संबंधित हैं। नीतिशास्त्र में अभ्यास के तीन प्रमुख क्षेत्र जिन्हें मान्यता प्राप्त हैं. एंतिस्थिनीज़ सिनिक (Cynicism) एक यूनानी दर्शन संप्रदाय, जो समाज के प्रति उपेक्षा तथा व्यक्तिगत जीवन के प्रति निषेधात्मक दृष्टि के लिए प्रसिद्ध है। इस संप्रदाय का संस्थापक एंतिस्थिनीज़ (४४५-३६५ ई. पू.) था। पहले वह सोफ़िस्त था। बाद में सुकरात के स्वतंत्र विचारों, परहितचिंतन तथा आत्मत्याग से प्रभावित होकर, वह उसे अपना गुरु मानने लगा। यूनान के जनतंत्र ने सुकरात को जब प्राण दंड (३९९ ई. पू.) दे दिया, तो एंतिस्थिनीज़ को व्यक्ति पर समाज की प्रभुता के औचित्य पर, फिर से विचार देने के लिए तैयार न था कि सुकरात के समान आत्मत्यागी व्यक्ति को प्राणदंड दे सके। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए, उसने "प्रकृति की ओर चलो" का नारा लगाया। उस प्राकृतिक जीवन की ओर संकेत किया, जिसमें प्रत्येक मनुष्य अपने आप का स्वामी था। कोई किसी का दास न था। उस जीवन को अपनाने के लिए, धन-दौलत, सम्मान आदि से विरक्त होने की आवश्यकता थी। एंतिस्थिनीज़ ने इसे सहर्ष स्वीकार किया। किंतु, इस प्रकार के जीवन का समर्थन करने में वह शिक्षा, संस्कार, अभिवृद्धि आदि के अर्थों को लुप्त नहीं होने देना चाहता था। इसलिए, उससे मानवीय जीवन की अभिवृद्धि की नैतिक व्याख्या की। वह सुकरात से प्रभावित था। सुकरात ने ज्ञान और नैतिक आचरण में कारण-कार्य-संबंध स्थापित किया था। इस सुकरातीय आदर्शों को दुहराते हुए, एंतिस्थिनीज़ ने यह दिखाने का प्रयत्न किया कि शुभों के पुनर्मूल्यांगन में बुद्धि की अभिव्यक्ति होती है, आँख मूँदकर बँधी हुई लकीरों पर चलते रहने में नहीं। बुद्धिमान व्यक्ति समाज के अधिकांश व्यक्तियों द्वारा स्वीकृत अयुक्त मूल्यांकन को समय-समय पर ठीक करता रहता है। अपने विचारों के समर्थन के विभिन्न एंतिस्थिनीज़ ने सैद्धांतिक पीठिका भी तैयार की थी। अफलातून ने "सामान्य' की निरपेक्ष सत्ता का समर्थन किया था और व्यक्ति के सत्य को "सामान्य' का भाग बताया था। एंतिस्थिनीज़ ने अफलातून की इस तत्वविद्या का विरोध किया। उसने यह दिखाया कि "सामान्य' की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं। अनेक व्यक्तियों में व्याप्त होने से किसी तत्व को "सामान्य' माना जाता है। व्यक्तियों से पृथक्‌ उसका कोई अस्तित्व नहीं। इस प्रकार, अफलातून के सामान्यतावाद (यूनीवर्सलिज्म) के विरुद्ध एंतिस्थिनीज़ ने "नामवाद' (नामिनलिज्म) की स्थापना की। यहाँ तक उसने "गुणकथक पर निर्भर परिभाषा' का खंडन किया। वह प्राय: वस्तु को विशिष्ट वस्तु अथवा व्यक्ति मानता था। व्यक्ति निर्णय वाक्यों के उद्देश्य बनते हैं। परिभाषा भी एक प्रकार का निर्णय वाक्य है। किंतु, सामान्य गुण किसी विशिष्ट वस्तु का विघन नहीं हो सकता। इस सैद्धांतिक पीठिका पर, एंतिस्थिनीज़ ने व्यक्तिवादी दर्शन का प्रारंभ किया जिसके अनुसार बुद्धिमान (नैतिक) व्यक्ति समाज का सदस्य नहीं, आलोचक हो सकता है। एंतिस्थिनीज़ के विचारों को आगे बढ़ाने का श्रेय उसके शिरो दिओजिनिस को दिया जाता है। वह कहता था, "मैं समाज की कुरीतियों पर भौंकने वाला कुत्ता हूँ; मेरा काम प्रचलित मूल्यों में उचित मान निर्धारित करना है' इन्हीं दोनों के साथ सिनिक संप्रदाय का अंत नहीं हुआ। उनकी परंपरा यूनानी दर्शन के अंत तक चलती रही। सिनिक समाजविरोधी न थे। उनके विचार से समाज को उचित मार्ग पर चलाने के लिए कुछ सचेत तथा निष्पक्ष समीक्षकों की आवश्यकता थी, जो स्वीकृत मूल्यों में समय-समय पर संशोधन करते रहें। किंतु, ऐसे समीक्षकों के लिए, वे बौद्धिक विकास एवं नैतिक आचरण के साथ, निस्पृहता तथा समाज से अलगाव की आवश्यकता को समझते थे। अपना कार्य उचित रूप से कर सकने के लिए, सिनिक दार्शनिकों ने विशेष प्रकार का रहन-सहन अपनाया था। वे अच्छे घरों की, स्वादिष्ट भोजन और सुखद वस्त्रों की आवश्यकता नहीं समझते थे। कहा जाता है, दिओजिनिस ने किसी पुरानी नाँद में अपना जीवन व्यतीत किया। वही उसका घर था। सुकरात के लिए कहा जाता है कि उसने कभी जूते नहीं पहने; सर्दी, गर्मी के अनुसार अपने वस्त्रों में परिवर्तन नहीं किया। किंतु वह एथेंस नगर में घूम-घूमकर, गलत काम करने वालों की आलोचना किया करता था। इस काम में व्यस्त रहने से वह कभी अपने पैत्रिक व्यवसाय में रुचि न ले सका। सिनिकों ने सुकुरात के जीवन से शिक्षा प्राप्त की थी। वे समझते थे कि अपनी समस्याओं का निराकरण करके ही समाज की चौकसी की जा सकती है। सिनिकों का उद्देश्य समाज का हित करना था; किंतु, जिस रूप में वे अपना दृष्टिकोण व्यक्त करते थे, उससे वे घोर व्यक्तिवादी तथा समाज के निंदक प्रतीत होते थे। सिनिक आदर्शों का संप्रदाय के रूप में समुचित निर्वाह अधिक समय तक संभव न था। अंतिम सिनिक परिस्थितियों के अनुसार जीवनयापन में सिनिक आदर्शों की पूर्ति मानने लगे थे। उत्तराधिकारियों के लिए प्रारंभिक उपदेष्टाओं की भाँति विरक्त एवं आत्मत्यागी होना संभव न था। इसीलिए, कालांतर में सिनिक का सामान्य अर्थ समाज की उपेक्षा करने वाला व्यक्ति रह गया। किंतु मानवीय चिंतन से सिनिक तत्व का सर्वथा अभाव न हो सका। समय-समय पर, ऐसे समाज के हितचिंतक होते रहे हैं, जो समाज की भ्रांतियों से क्षुब्ध होकर, एक अलगाव का भाव व्यक्त करते रहे हैं और ऐसी टीका टिप्पणियाँ करते रहे हैं, जिनसे उचित मार्ग का संकेत प्राप्त हो। स्वर्गीय बर्नार्ड शा को बीसवीं सदी का बहुत बड़ा सिनिक कहा जा सकता है। उनके साहित्य में व्याप्त सामाजिक आलोचना, प्राय: उपेक्षा की सतह तक पहुँच जाती है किंतु, उस उपेक्षावृत्ति में अंतर्हित सामाजिक हित कामना बिना खोजे हुए हम "सिनिक' के अर्थ तक नहीं पहुँच सकते। .

नीतिशास्त्र और सिनिक सम्प्रदाय के बीच समानता

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