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निद्रा और वेदनाहर

शॉर्टकट: मतभेद, समानता, समानता गुणांक, संदर्भ

निद्रा और वेदनाहर के बीच अंतर

निद्रा vs. वेदनाहर

सोऐ हुए बच्चे बिल्ली का बच्चा सो रहा है नींद अपेक्षाकृत निलंबित संवेदी और संचालक गतिविधि की चेतना की एक प्राकृतिक बार-बार आनेवाली रूपांतरित स्थिति है, जो लगभग सभी स्वैच्छिक मांसपेशियों की निष्क्रियता की विशेषता लिए हुए होता है। इसे एकदम से जाग्रत अवस्था, जब किसी उद्दीपन या उत्तेजन पर प्रतिक्रिया करने की क्षमता कम हो जाती है और अचेतावस्था से भी अलग रखा जाता है, क्योंकि शीत नींद या कोमा की तुलना में नींद से बाहर आना कहीं आसान है। नींद एक उन्नत निर्माण क्रिया विषयक (एनाबोलिक) स्थिति है, जो विकास पर जोर देती है और जो रोगक्षम तंत्र (इम्यून), तंत्रिका तंत्र, कंकालीय और मांसपेशी प्रणाली में नयी जान डाल देती है। सभी स्तनपायियों में, सभी पंछियों और अनेक सरीसृपों, उभयचरों और मछलियों में इसका अनुपालन होता है। नींद के उद्देश्य और प्रक्रिया सिर्फ आंशिक रूप से ही स्पष्ट हैं और ये गहन शोध के विषय हैं। . ऐसी सारी ओषधियाँ एवं प्रणालियाँ जिनसे पीड़ा का निवारण हो सकता है, वेदनाहर या पीड़ापहारक (analgesic) कहलाती हैं। बहुत सी औषधियों में अन्यान्य गुणों के साथ-साथ पीड़ापहरण के गुण भी होते हैं। लेकिन वास्तविक पीड़ापहारक केवल उन्हीं औषधियों को कहते हैं जिनसे बिना निद्रा अथवा अचेतनता उत्पन्न किए ही पीड़ापहरण हो सके, उदाहरणार्थ ऐसीटिल सैलिसिलिक अम्ल। कुछ औषधियाँ ऐसी हैं जो मस्तिष्क में पीड़ा चेतना की प्रवेशात्मक शक्ति को कम करने का गुण रखती हैं, अथवा पीड़ा के प्रवाह को नाड़ियों में ही रोक देती हैं, उदाहरणत: अफीम और कोकेग। कुछ अन्य पीड़ापहारक औषधियाँ पीड़ा के कारणों को दूर करके पीड़ापहरण में सफल होती हैं, अर्थात् जकड़ी हुई मांसपेशियों को ढीला करके अथवा शरीर के रक्तहीन अंगों में रक्तप्रवाह बढ़ाकर, जैसे पापैवरिन हैं। 'पीड़ापहरण' को अंग्रेजी में ऐनलजीसिया (analgesia) की संज्ञा दी गई है। यह शब्द ऐल्जीसिस (algesis) से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ है व्यथा होना। पीड़ापहरण में व्यथा का अभाव अथवा लोप हो जाता है। पीड़ा के अभाव के दो कारण हो सकते हैं: प्रथम, जिसमें पीड़ा की चेतना का प्रवाह नाड़ियों में किसी औषधि या किसी अन्य क्रिया द्वारा रोक दिया जाए और वह मस्तिष्क तक न पहुँच सके तथा द्वितीय, जिसमें मस्तिष्क स्वयं ही पीड़ा का किसी कारणवश अनुभव कर सके। अगर शरीर के केवल निश्चित अंग की नाड़ियों में पीड़ा-हरण किया जाय तो इसे स्थानिक संवेदनहारी (Local analgesia) कहा जाता है। पर अगर सारा शरीर औषधि का किसी अन्य प्रणाली से पीड़ारहित कर दिया जाए, तो इसे सार्वदैहिक पीड़ापहरण (General analgesia) कहा जाता है। पीड़ा के बहुत से कारण होते हैं। इन कारणों के दो प्रमुख अंग हैं: प्रथम वह जिसमें शरीरविज्ञान का और दूसरा वह जिसमें मानस विज्ञान का आधार हो। इसलिए जिन औषधियों तथा प्रणालियों से प्राणी की शारीरीक क्रियाओं, या मानसिक अवस्था में, हेर फेर लाया जाता है, वे पीड़ापहारक हो सकते हैं; अर्थात् मानसिक एवं शारीरिक अवस्था के परिवर्तन से पीड़ा में, एवं पीड़ापहारक औषधियों के असर में, परिवर्तन आ जाता है। भिन्न-भिन्न चेतनाएँ, जैसे स्पर्श चेतना, ताप चेतना और पीड़ा चेतना शरीर के हर भाग से सुषुम्ना कांड तक इंद्रिय-ज्ञान-वाहक नाड़ियों द्वारा पहुँचती हैं। इसलिए इन नाड़ियों के रोगों में सभी चेतनाएँ लुप्त हो जाती हैं। परंतु सुषुम्ना कांड में प्रवेश के बाद इन चेतनाओं को ले जानेवाले ज्ञानतंतु सुषुम्ना कांड में अलग-अलग हो जाते हैं। इसलिए कुछ रोगों में सारी चेतनाओं पर एक-सा ही असर नहीं होता, जैसे सिरिंगो मायलिया में स्पर्श चेतना वर्तमान रहती है, किंतु पीड़ाचेतना एवं तापचेतना अपेक्षित या लुप्त हो जाती है। .

निद्रा और वेदनाहर के बीच समानता

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निद्रा और वेदनाहर के बीच तुलना

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संदर्भ

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