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निदान (संस्कृत) और बौद्ध शब्दावली

शॉर्टकट: मतभेद, समानता, समानता गुणांक, संदर्भ

निदान (संस्कृत) और बौद्ध शब्दावली के बीच अंतर

निदान (संस्कृत) vs. बौद्ध शब्दावली

आयुर्वेद में चिकित्सा आरम्भ करने के पहले रोगपरीक्षा तथा रोगीपरीक्षा करने का प्रावधान है। अर्थात् चिकित्सा के पूर्व परीक्षा अत्यन्त आवश्यक है। परीक्षा की जहां तक बात आती है तो परीक्षा रोगी की भी होती है और रोग की भी। रोग-रोगी दोनों की परीक्षा करके उनका बलाबल ज्ञान करके ही सफल चिकित्सा की जा सकती है। आयुर्वेदाचार्यों ने रोग की परीक्षा हेतु निदानपञ्चक का वर्णन किया है। आयुर्वेद के अनुसार, रोग की परीक्षा (रोग का ज्ञान) इन पांच उपायों से होता है - इन पांच उपायों को निदानपञ्चक कहते हैं। निदान– रोग के कारण को निदान कहते हैं। पूर्वरूप - रोग उत्पन्न होने के पहले जो लक्षण होते हैं उन्हें पूर्वरूप कहा जाता है। रूप - उत्पन्न हुए रोगों के चिह्नों को लक्षण या रूप कहते हैं। उपशय - औषध, अन्न व विहार के परिणाम में सुखप्रद उपयोग को उपशय कहते हैं। सम्प्राप्ति - रोग की अति प्रारम्भिक अवस्था से लेकर रोग के पूर्ण रूप से प्रगट होने तक, रोग के क्रियाकाल (pathogenesis) की छः अवस्थायें होती हैं। निदानपंचक से रोग के बल का ज्ञान होता है। इसके साथ ही साथ चिकित्सा हेतु रोगी के बल का ज्ञान भी आवश्यक है। जिससे यह निर्णय होता है कि रोगी चिकित्सा सहन करने योग्य है अथवा नहीं। इसके लिए दशविध परीक्षा का वर्णन आया है जिसके अंतर्गत विकृति परीक्षा को छोड़कर शेष परीक्षा रोगी के बल को जानने के लिए है। . यहाँ बौद्ध धर्म में प्रयुक्त प्रमुख शब्दों की व्याख्या की गयी है। 1. अग्रबोधि: यहाँ ‘अग्र’ शब्द बोधि के विशेषण के रूप में प्रयुक्त है, जिसका आशय है - आगे, श्रेष्ठ अथवा प्रमुख तथा बोधि का अर्थ है - ज्ञान । इस प्रकार अग्रबोधि का आशय श्रेष्ठ ज्ञान है । भगवान् बुद्ध इस ज्ञान की प्राप्ति के अनन्तर ही सम्यक्सम्बुद्ध कहलाये । 2. अचिन्त्य: जिसके विषय में विचार न किया जा सके । 3.

निदान (संस्कृत) और बौद्ध शब्दावली के बीच समानता

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