नागार्जुन (प्राचीन दार्शनिक) और शबरपा
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नागार्जुन (प्राचीन दार्शनिक) और शबरपा के बीच अंतर
नागार्जुन (प्राचीन दार्शनिक) vs. शबरपा
नागार्जुन (बौद्धदर्शन) शून्यवाद के प्रतिष्ठापक तथा माध्यमिक मत के पुरस्कारक प्रख्यात बौद्ध आचार्य थे। युवान् च्वाङू के यात्राविवरण से पता चलता है कि ये महाकौशल के अंतर्गत विदर्भ देश (आधुनिक बरार) में उत्पन्न हुए थे। आंध्रभृत्य कुल के किसी शालिवाहन नरेश के राज्यकाल में इनके आविर्भाव का संकेत चीनी ग्रंथों में उपलब्ध होता है। इस नरेश के व्यक्तित्व के विषय में विद्वानों में ऐकमत्य नहीं हैं। 401 ईसवी में कुमारजीव ने नागार्जुन की संस्कृत भाषा में रचित जीवनी का चीनी भाषा में अनुवाद किया। फलत: इनका आविर्भावकाल इससे पूर्ववर्ती होना सिद्ध होता है। उक्त शालिवाहन नरेश को विद्वानों का बहुमत राजा गौतमीपुत्र यज्ञश्री (166 ई. 196 ई.) से भिन्न नहीं मानता। नागार्जुन ने इस शासक के पास जो उपदेशमय पत्र लिखा था, वह तिब्बती तथा चीनी अनुवाद में आज भी उपलब्ध है। इस पत्र में नामत: निर्दिष्ट न होने पर भी राजा यज्ञश्री नागार्जुन को समसामयिक शासक माना जाता है। बौद्ध धर्म की शिक्षा से संवलित यह पत्र साहित्यिक दृष्टि से बड़ा ही रोचक, आकर्षक तथा मनोरम है। इस पत्र का नाम था - "आर्य नागार्जुन बोधिसत्व सुहृल्लेख"। नागार्जुन के नाम के आगे पीछे आर्य और बोधिसत्व की उपाधि बौद्ध जगत् में इनके आदर सत्कार तथा श्रद्धा विश्वास की पर्याप्त सूचिका है। इन्होंने दक्षिण के प्रख्यात तांत्रिक केंद्र श्रीपर्वत की गुहा में निवास कर कठिन तपस्या में अपना जीवन व्यतीत किया था। . शबरपा सिद्ध साहित्य की रचना करने वाले प्रमुख सिद्धों में से एक हैं। इनका जन्म ७८० ई॰ में क्षत्रिय कुल में हुआ था। इन्होंने सरहपा से ज्ञान प्रप्त किया। शबरों की तरह जीवन व्यतीत करने के कारण इन्हें शबरपा कहा जाने लगा। इनकी प्रसिद्ध पुस्तक चर्यापद है। शबरपा ने माया-मोह का विरोध करके सहज जीवन पर बल दिया तथा उसी को महासुख की प्राप्ति का मार्ग बताया। इनकी कविता का कुछ अंश है- हेरि ये मेरि तइला बाड़ी खसमे समतुला षुकुड़ए सेरे कपासु फुटिला। तइला वाड़िर पासेर जोह्ड़ा वाड़ी ताएला फिटेलि अंधारि रे आकाश फुलिजा।। .
नागार्जुन (प्राचीन दार्शनिक) और शबरपा के बीच समानता
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