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धर्मशास्त्र और मनुस्मृति

शॉर्टकट: मतभेद, समानता, समानता गुणांक, संदर्भ

धर्मशास्त्र और मनुस्मृति के बीच अंतर

धर्मशास्त्र vs. मनुस्मृति

धर्मशास्त्र संस्कृत ग्रन्थों का एक वर्ग है, जो कि शास्त्र का ही एक प्रकार है। इसमें सभी स्मृतियाँ सम्मिलित हैं। यह वह शास्त्र है जो हिन्दुओं के धर्म का ज्ञान सम्मिलित किये हुए हैं, धर्म शब्द में यहाँ पारंपरिक अर्थ में धर्म तथा साथ ही कानूनी कर्तव्य भी सम्मिलित हैं। धर्मशास्त्रों का बृहद् पाठ भारत की ब्राह्मण परंपरा का अंग है, तथा यह विद्वत्परंपरा की देन एवं एक विशद तंत्र है। इसके गहन न्यायशास्त्रीय विवेचन के कारण प्रारंभिक ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासकों द्वारा यह हिंदुओं के लिए कानून के रूप में माना गया था तब से लेकर आज भी धर्मशास्त्र को हिन्दू विधिसंहिता के रूप में देखा जाता है। धर्मशास्त्र में उपस्थित रिलीजन व कानून के बीच जो अंतर किया जाता है, दरअसल वह कृत्रिम है और बार-बार उसपर प्रश्न उठाये गये हैं। जबकि कुछ लोग, धर्मशास्त्र में धार्मिक व धर्मनिरपेक्ष कानूनों के बीच अंतर रखा गया है ऐसा पक्ष लेते हैं। धर्मशास्त्र हिन्दू परंपरा में महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि- एक, यह एक आदर्श गृहस्थ के लिए धार्मिक नियमों का स्रोत है, तथा दूसरे, यह धर्म, विधि, आचारशास्त्र आदि से संबंधित हिंदू ज्ञान का सुसंहत रूप है। "पांडुरंग वामन काणे, सामाजिक सुधार को समर्पित एक महान विद्वान्, ने इस पुरानी परंपरा को जारी रखा है। उनका धर्मशास्त्र का इतिहास, पाँच भागों में प्रकाशित है, प्राचीन भारत के सामाजिक विधियों तथा प्रथाओं का विश्वकोश है। इससे हमें प्राचीन भारत में सामाजिक प्रक्रिया को समझने में मदद मिलती है।" . मनुस्मृति हिन्दू धर्म का एक प्राचीन धर्मशास्त्र (स्मृति) है। इसे मानव-धर्म-शास्त्र, मनुसंहिता आदि नामों से भी जाना जाता है। यह उपदेश के रूप में है जो मनु द्वारा ऋषियों को दिया गया। इसके बाद के धर्मग्रन्थकारों ने मनुस्मृति को एक सन्दर्भ के रूप में स्वीकारते हुए इसका अनुसरण किया है। धर्मशास्त्रीय ग्रंथकारों के अतिरिक्त शंकराचार्य, शबरस्वामी जैसे दार्शनिक भी प्रमाणरूपेण इस ग्रंथ को उद्धृत करते हैं। परंपरानुसार यह स्मृति स्वायंभुव मनु द्वारा रचित है, वैवस्वत मनु या प्राचनेस मनु द्वारा नहीं। मनुस्मृति से यह भी पता चलता है कि स्वायंभुव मनु के मूलशास्त्र का आश्रय कर भृगु ने उस स्मृति का उपवृहण किया था, जो प्रचलित मनुस्मृति के नाम से प्रसिद्ध है। इस 'भार्गवीया मनुस्मृति' की तरह 'नारदीया मनुस्मृति' भी प्रचलित है। मनुस्मृति वह धर्मशास्त्र है जिसकी मान्यता जगविख्यात है। न केवल भारत में अपितु विदेश में भी इसके प्रमाणों के आधार पर निर्णय होते रहे हैं और आज भी होते हैं। अतः धर्मशास्त्र के रूप में मनुस्मृति को विश्व की अमूल्य निधि माना जाता है। भारत में वेदों के उपरान्त सर्वाधिक मान्यता और प्रचलन ‘मनुस्मृति’ का ही है। इसमें चारों वर्णों, चारों आश्रमों, सोलह संस्कारों तथा सृष्टि उत्पत्ति के अतिरिक्त राज्य की व्यवस्था, राजा के कर्तव्य, भांति-भांति के विवादों, सेना का प्रबन्ध आदि उन सभी विषयों पर परामर्श दिया गया है जो कि मानव मात्र के जीवन में घटित होने सम्भव है। यह सब धर्म-व्यवस्था वेद पर आधारित है। मनु महाराज के जीवन और उनके रचनाकाल के विषय में इतिहास-पुराण स्पष्ट नहीं हैं। तथापि सभी एक स्वर से स्वीकार करते हैं कि मनु आदिपुरुष थे और उनका यह शास्त्र आदिःशास्त्र है। मनुस्मृति में चार वर्णों का व्याख्यान मिलता है वहीं पर शूद्रों को अति नीच का दर्जा दिया गया और शूद्रों का जीवन नर्क से भी बदतर कर दिया गया मनुस्मृति के आधार पर ही शूद्रों को तरह तरह की यातनाएं मनुवादियों द्वारा दी जाने लगी जो कि इसकी थोड़ी सी झलक फिल्म तीसरी आजादी में भी दिखाई गई है आगे चलकर बाबासाहेब आंबेडकर ने सर्वजन हिताय संविधान का निर्माण किया और मनु स्मृति में आग लगा दी गई जो कि समाज के लिए कल्याणकारी साबित हुई और छुआछूत ऊंच-नीच का आडंबर समाप्त हो गया। .

धर्मशास्त्र और मनुस्मृति के बीच समानता

धर्मशास्त्र और मनुस्मृति आम में 2 बातें हैं (यूनियनपीडिया में): पांडुरंग वामन काणे, स्मृति

पांडुरंग वामन काणे

पांडुरंग वामन काणे (७ मई १८८०, दापोली, रत्नागिरि - १९७२) संस्कृत के एक विद्वान्‌ एवं प्राच्यविद्याविशारद थे। उन्हें १९६३ में भारत रत्न से सम्मानित किया गया। काणे ने अपने विद्यार्थी जीवन के दौरान संस्कृत में नैपुण्य एवं विशेषता के लिए सात स्वर्णपदक प्राप्त किए और संस्कृत में एम.एस.

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स्मृति

स्मृति हिन्दू धर्म के उन धर्मग्रन्थों का समूह है जिनकी मान्यता श्रुति से नीची श्रेणी की हैं और जो मानवों द्वारा उत्पन्न थे। इनमें वेद नहीं आते। स्मृति का शाब्दिक अर्थ है - "याद किया हुआ"। यद्यपि स्मृति को वेदों से नीचे का दर्ज़ा हासिल है लेकिन वे (रामायण, महाभारत, गीता, पुराण) अधिकांश हिन्दुओं द्वारा पढ़ी जाती हैं, क्योंकि वेदों को समझना बहुत कठिन है और स्मृतियों में आसान कहानियाँ और नैतिक उपदेश हैं। इसकी सीमा में विभिन्न धार्मिक ग्रन्थों—गीता, महाभारत, विष्णुसहस्रनाम की भी गणना की जाने लगी। शंकराचार्य ने इन सभी ग्रन्थों को स्मृति ही माना है। मनु ने श्रुति तथा स्मृति महत्ता को समान माना है। गौतम ऋषि ने भी यही कहा है कि ‘वेदो धर्ममूल तद्धिदां च स्मृतिशीले'। हरदत्त ने गौतम की व्खाख्या करते हुए कहा कि स्मृति से अभिप्राय है मनुस्मृति से। परन्तु उनकी यह व्याख्या उचित नहीं प्रतीत होती क्योंकि स्मृति और शील इन शब्दों का प्रयोग स्रोत के रूप में किया है, किसी विशिष्ट स्मृति ग्रन्थ या शील के लिए नहीं। स्मृति से अभिप्राय है वेदविदों की स्मरण शक्ति में पड़ी उन रूढ़ि और परम्पराओं से जिनका उल्लेख वैदिक साहित्य में नहीं किया गया है तथा शील से अभिप्राय है उन विद्वानों के व्यवहार तथा आचार में उभरते प्रमाणों से। फिर भी आपस्तम्ब ने अपने धर्म-सूत्र के प्रारम्भ में ही कहा है ‘धर्मज्ञसमयः प्रमाणं वेदाश्च’। स्मृतियों की रचना वेदों की रचना के बाद लगभग ५०० ईसा पूर्व हुआ। छठी शताब्दी ई.पू.

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धर्मशास्त्र और मनुस्मृति के बीच तुलना

धर्मशास्त्र 5 संबंध है और मनुस्मृति 27 है। वे आम 2 में है, समानता सूचकांक 6.25% है = 2 / (5 + 27)।

संदर्भ

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