23 संबंधों: चरक संहिता, पाचक पित्त, पित्त, पित्त, प्राण वात, भ्राजक पित्त, रसन कफ, रंजक पित्त, श्लेष्मन कफ, समान वात, साधक पित्त, सुश्रुत संहिता, स्नेहन कफ, वात, वाग्भट, व्यान वात, आयुर्वेद, आलोचक पित्त, कफ, क्लेदन कफ, अपान वात, अवलम्बन कफ, उदान वात।
चरक संहिता
चरक संहिता आयुर्वेद का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है। यह संस्कृत भाषा में है। इसके उपदेशक अत्रिपुत्र पुनर्वसु, ग्रंथकर्ता अग्निवेश और प्रतिसंस्कारक चरक हैं। प्राचीन वाङ्मय के परिशीलन से ज्ञात होता है कि उन दिनों ग्रंथ या तंत्र की रचना शाखा के नाम से होती थी। जैसे कठ शाखा में कठोपनिषद् बनी। शाखाएँ या चरण उन दिनों के विद्यापीठ थे, जहाँ अनेक विषयों का अध्ययन होता था। अत: संभव है, चरकसंहिता का प्रतिसंस्कार चरक शाखा में हुआ हो। भारतीय चिकित्साविज्ञान के तीन बड़े नाम हैं - चरक, सुश्रुत और वाग्भट। चरक संहिता, सुश्रुतसंहिता तथा वाग्भट का अष्टांगसंग्रह आज भी भारतीय चिकित्सा विज्ञान (आयुर्वेद) के मानक ग्रन्थ हैं। चिकित्सा विज्ञान जब शैशवावस्था में ही था उस समय चरकसंहिता में प्रतिपादित आयुर्वेदीय सिद्धान्त अत्यन्त श्रेष्ठ तथा गंभीर थे। इसके दर्शन से अत्यन्त प्रभावित आधुनिक चिकित्साविज्ञान के आचार्य प्राध्यापक आसलर ने चरक के नाम से अमेरिका के न्यूयार्क नगर में १८९८ में 'चरक-क्लब्' संस्थापित किया जहाँ चरक का एक चित्र भी लगा है। आचार्य चरक और आयुर्वेद का इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि एक का स्मरण होने पर दूसरे का अपने आप स्मरण हो जाता है। आचार्य चरक केवल आयुर्वेद के ज्ञाता ही नहीं थे परन्तु सभी शास्त्रों के ज्ञाता थे। उनका दर्शन एवं विचार सांख्य दर्शन एवं वैशेषिक दर्शन का प्रतिनिधीत्व करता है। आचार्य चरक ने शरीर को वेदना, व्याधि का आश्रय माना है, और आयुर्वेक शास्त्र को मुक्तिदाता कहा है। आरोग्यता को महान् सुख की संज्ञा दी है, कहा है कि आरोग्यता से बल, आयु, सुख, अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष की प्राप्ति होती है। आचार्य चरक, संहिता निर्माण के साथ-साथ जंगल-जंगल स्थान-स्थान घुम-घुमकर रोगी व्यक्ति की, चिकित्सा सेवा किया करते थे तथा इसी कल्याणकारी कार्य तथा विचरण क्रिया के कारण उनका नाम 'चरक' प्रसिद्ध हुआ। उनकी कृति चरक संहिता चिकित्सा जगत का प्रमाणिक प्रौढ़ और महान् सैद्धान्तिक ग्रन्थ है।;चरकसंहिता का आयुर्वेद को मौलिक योगदान चरकसंहिता का आयुर्वेद के क्षेत्र में अनेक मौलिक योगदान हैं जिनमें से मुख्य हैं-.
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पाचक पित्त
यह पित्त चूंकि भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य इन चार प्रकार के भोजनों को पचाता है, इसलिये इसे पाचक पित्त कहते हैं।ये अन्न रस का पाचन व बुरे बैक्टीरिया का नाश करता है। श्रेणी:आयुर्वेद.
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पित्त
लीवर की बायोप्सी करने पर '''पित्त''' पीले रंग में दिखायी दे रहा है। शरीररचना-विज्ञान तथा पाचन के सन्दर्भ में, पित्त (Bile या gall) गहरे हरे या पीले रंग का द्रव है जो पाचन में सहायक होता है। यह कशेरुक प्राणियों के यकृत (लीवर) में बनता है। मानव के शरीर में यकृत द्वारा पित्त का सतत उत्पादन होता रहता है जो पित्ताशय में एकत्र होता रहता है। .
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पित्त
कोई विवरण नहीं।
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प्राण वात
आयुर्वेद.
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भ्राजक पित्त
यह चमडे मे रहता है और कान्ति उत्पन्न करता है। त्वचा के समस्त रोग और व्याधियां इसी पित्त की विकृति से होती हैं। शरीर मे किये गये लेप, मालिश, औषधि स्नान आदि के पाचन कार्य यही पित्त करता है। श्रेणी:आयुर्वेद.
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रसन कफ
यह कन्ठ में रहता है और रस को गृहण करता है। कड़वे और चरपरे रसों का ज्ञान इसी से होता है। श्रेणी:आयुर्वेद.
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रंजक पित्त
यह पित्त रंगनें का कार्य करता है। रक्त की लाली, त्वचा का रंग, आंखों की पुतलियों का रंग रंगनें का कार्य करनें से इसे रंजक पित्त कहते हैं। यह यकृत और प्लीहा में रहकर रक्त का र्निमाण करता है। श्रेणी:आयुर्वेद.
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श्लेष्मन कफ
यह कफ सन्धियों में रहता है और इन स्थानों को कफ विहीन नहीं करता है। रसन कफ: यह कन्ठ में रहता है और रस को गृहण करता है। कड़वे और चरपरे रसों का ज्ञान इसी से होता है। श्रेणी:आयुर्वेद.
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समान वात
आयुर्वेद.
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साधक पित्त
श्रेणी:आयुर्वेद.
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सुश्रुत संहिता
सुश्रुतसंहिता आयुर्वेद एवं शल्यचिकित्सा का प्राचीन संस्कृत ग्रन्थ है। सुश्रुतसंहिता आयुर्वेद के तीन मूलभूत ग्रन्थों में से एक है। आठवीं शताब्दी में इस ग्रन्थ का अरबी भाषा में 'किताब-ए-सुस्रुद' नाम से अनुवाद हुआ था। सुश्रुतसंहिता में १८४ अध्याय हैं जिनमें ११२० रोगों, ७०० औषधीय पौधों, खनिज-स्रोतों पर आधारित ६४ प्रक्रियाओं, जन्तु-स्रोतों पर आधारित ५७ प्रक्रियाओं, तथा आठ प्रकार की शल्य क्रियाओं का उल्लेख है। इसके रचयिता सुश्रुत हैं जो छठी शताब्दी ईसापूर्व काशी में जन्मे थे। सुश्रुतसंहिता बृहद्त्रयी का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। यह संहिता आयुर्वेद साहित्य में शल्यतन्त्र की वृहद साहित्य मानी जाती है। सुश्रुतसंहिता के उपदेशक काशिराज धन्वन्तरि हैं, एवं श्रोता रूप में उनके शिष्य आचार्य सुश्रुत सम्पूर्ण संहिता की रचना की है। इस सम्पूर्ण ग्रंथ में रोगों की शल्यचिकित्सा एवं शालाक्य चिकित्सा ही मुख्य उद्देश्य है। शल्यशास्त्र को आचार्य धन्वन्तरि पृथ्वी पर लाने वाले पहले व्यक्ति थे। बाद में आचार्य सुश्रुत ने गुरू उपदेश को तंत्र रूप में लिपिबद्ध किया, एवं वृहद ग्रन्थ लिखा जो सुश्रुत संहिता के नाम से वर्तमान जगत में रवि की तरह प्रकाशमान है। आचार्य सुश्रुत त्वचा रोपण तन्त्र (Plastic-Surgery) में भी पारंगत थे। आंखों के मोतियाबिन्दु निकालने की सरल कला के विशेषज्ञ थे। सुश्रुत संहिता शल्यतंत्र का आदि ग्रंथ है। .
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स्नेहन कफ
यह कफ मस्तक में रहता है और शरीर की समस्त इन्द्रियों को तृप्त करता है। इसी कारण समस्त इंद्रियां अपनें अपनें कामों में सामर्थ्यान होती हैं। श्रेणी:आयुर्वेद.
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वात
कोई विवरण नहीं।
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वाग्भट
वाग्भट नाम से कई महापुरुष हुए हैं। इनका वर्णन इस प्रकार है: .
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व्यान वात
आयुर्वेद श्रेणी:आयुर्वेद.
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आयुर्वेद
आयुर्वेद के देवता '''भगवान धन्वन्तरि''' आयुर्वेद (आयुः + वेद .
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आलोचक पित्त
ये पित्त नेत्रों में निवास करता है। नेत्रों द्वारा देखी गई वस्तुओं का आकलन करता है।.
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कफ
कोई विवरण नहीं।
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क्लेदन कफ
यह कफ अन्न को गीला करता है और आमाशय में रहता है तथा अन्न को अलग अलग करता है। श्रेणी:आयुर्वेद.
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अपान वात
वात, अपान श्रेणी:चित्र जोड़ें.
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अवलम्बन कफ
यह हृदय में रहता है और अपनें अवलम्बन कर्म द्वारा हृदय का पोषण करता है। श्रेणी:आयुर्वेद.
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उदान वात
आयुर्वेद श्रेणी:आयुर्वेद.
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यहां पुनर्निर्देश करता है:
त्रिदोष के प्रत्येक के पांच भेद, दोष।