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तर्कशास्त्र

सूची तर्कशास्त्र

तर्कशास्त्र शब्द अंग्रेजी 'लॉजिक' का अनुवाद है। प्राचीन भारतीय दर्शन में इस प्रकार के नामवाला कोई शास्त्र प्रसिद्ध नहीं है। भारतीय दर्शन में तर्कशास्त्र का जन्म स्वतंत्र शास्त्र के रूप में नहीं हुआ। अक्षपाद! गौतम या गौतम (३०० ई०) का न्यायसूत्र पहला ग्रंथ है, जिसमें तथाकथित तर्कशास्त्र की समस्याओं पर व्यवस्थित ढंग से विचार किया गया है। उक्त सूत्रों का एक बड़ा भाग इन समस्याओं पर विचार करता है, फिर भी उक्त ग्रंथ में यह विषय दर्शनपद्धति के अंग के रूप में निरूपित हुआ है। न्यायदर्शन में सोलह परीक्षणीय पदार्थों का उल्लेख है। इनमें सर्वप्रथम प्रमाण नाम का विषय या पदार्थ है। वस्तुतः भारतीय दर्शन में आज के तर्कशास्त्र का स्थानापन्न 'प्रमाणशास्त्र' कहा जा सकता है। किंतु प्रमाणशास्त्र की विषयवस्तु तर्कशास्त्र की अपेक्षा अधिक विस्तृत है। .

26 संबंधों: तत्त्वमीमांसा, दशमलव पद्धति, धर्मकीर्ति, न्याय दर्शन, न्यायसूत्र, न्यायवाक्य, नीतिशास्त्र, प्रतीक, प्रमाण, प्लेटो, भारतीय तर्कशास्त्र, भारतीय दर्शन, भौतिक शास्त्र, यूरोप, साक्ष्य, सिसरो, सुकरात, सोफ़िस्त, ज्ञानमीमांसा, जॉन स्टूवर्ट मिल, विज्ञान, गणित, गणितीय तर्कशास्त्र, अनुमान, अरस्तु, उपपत्ति

तत्त्वमीमांसा

तत्त्वमीमांसा (Metaphysics), दर्शन की वह शाखा है जो किसी ज्ञान की शाखा के वास्तविकता (reality) का अध्ययन करती है। परम्परागत रूप से इसकी दो शाखाएँ हैं - ब्रह्माण्ड विद्या (Cosmology) तथा सत्तामीमांसा या आन्टोलॉजी (ontology)। तत्वमीमांसा में प्रमुख प्रश्न ये हैं-.

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दशमलव पद्धति

दशमलव पद्धति या दाशमिक संख्या पद्धति या दशाधारी संख्या पद्धति (decimal system, "base ten" or "denary") वह संख्या पद्धति है जिसमें गिनती/गणना के लिये कुल दस संख्याओं (0, 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9) का सहारा लिया जाता है। यह मानव द्वारा सर्वाधिक प्रयुक्त संख्यापद्धति है। उदाहरण के लिये 645.7 दशमलव पद्धति में लिखी एक संख्या है। (गलतफहमी से बचने के लिये यहाँ दशमलव बिन्दु के स्थान पर 'कॉमा' का प्रयोग किया गया है।) इस पद्धति की सफलता के बहुत से कारण हैं-.

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धर्मकीर्ति

धर्मकीर्ति (७वीं सती) भारत के विद्वान एवं भारतीय दार्शनिक तर्कशास्त्र के संस्थापकों में से थे। बौद्ध परमाणुवाद के मूल सिद्धान्तकारों में उनकी गणना की जाती है। वे नालन्दा में कार्यरत थे। सातवीं सदी के बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति को यूरोपीय विचारक इमैनुअल कान्ट कहा था क्योंकि वे कान्ट की ही तरह ही तार्किक थे और विज्ञानबोध को महत्व देते थे। धर्मकीर्ति बौद्ध विज्ञानबोध के सबसे बड़े दार्शनिक दिंनाग के शिष्य थे। धर्मकीर्ति, प्रमाण के महापण्डित थे। प्रमाणवार्तिक उसका सबसे बड़ा एवं सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ है जिसका प्रभाव भारत और तिब्बत के दार्शनिक चिन्तन पर पड़ा। इस पर अनेक भारतीय एवं तिब्बती विद्वानों ने टीका की है। वे योगाचार तथा सौत्रान्तिक सम्प्रदाय से भी सम्बन्धित थे। मीमांसा, न्याय, शैव और जैन सम्प्रदायों पर उनकी रचनाओं का प्रभाव पड़ा। .

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न्याय दर्शन

न्याय दर्शन भारत के छः वैदिक दर्शनों में एक दर्शन है। इसके प्रवर्तक ऋषि अक्षपाद गौतम हैं जिनका न्यायसूत्र इस दर्शन का सबसे प्राचीन एवं प्रसिद्ध ग्रन्थ है। जिन साधनों से हमें ज्ञेय तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त हो जाता है, उन्हीं साधनों को ‘न्याय’ की संज्ञा दी गई है। देवराज ने 'न्याय' को परिभाषित करते हुए कहा है- दूसरे शब्दों में, जिसकी सहायता से किसी सिद्धान्त पर पहुँचा जा सके, उसे न्याय कहते हैं। प्रमाणों के आधार पर किसी निर्नय पर पहुँचना ही न्याय है। यह मुख्य रूप से तर्कशास्त्र और ज्ञानमीमांसा है। इसे तर्कशास्त्र, प्रमाणशास्त्र, हेतुविद्या, वादविद्या तथा अन्वीक्षिकी भी कहा जाता है। वात्स्यायन ने प्रमाणैर्थपरीक्षणं न्यायः (प्रमाणों द्वारा अर्थ (सिद्धान्त) का परीक्षण ही न्याय है।) इस दृष्टि से जब कोई मनुष्य किसी विषय में कोई सिद्धान्त स्थिर करता है तो वहाँ न्याय की सहायता अपेक्षित होती है। इसलिये न्याय-दर्शन विचारशील मानव समाज की मौलिक आवश्यकता और उद्भावना है। उसके बिना न मनुष्य अपने विचारों एवं सिद्धान्तों को परिष्कृत एवं सुस्थिर कर सकता है न प्रतिपक्षी के सैद्धान्तिक आघातों से अपने सिद्धान्त की रक्षा ही कर सकता है। न्यायशास्त्र उच्चकोटि के संस्कृत साहित्य (और विशेषकर भारतीय दर्शन) का प्रवेशद्वार है। उसके प्रारम्भिक परिज्ञान के बिना किसी ऊँचे संस्कृत साहित्य को समझ पाना कठिन है, चाहे वह व्याकरण, काव्य, अलंकार, आयुर्वेद, धर्मग्रन्थ हो या दर्शनग्रन्थ। दर्शन साहित्य में तो उसके बिना एक पग भी चलना असम्भव है। न्यायशास्त्र वस्तुतः बुद्धि को सुपरिष्कृत, तीव्र और विशद बनाने वाला शास्त्र है। परन्तु न्यायशास्त्र जितना आवश्यक और उपयोगी है उतना ही कठिन भी, विशेषतः नव्यन्याय तो मानो दुर्बोधता को एकत्र करके ही बना है। वैशेषिक दर्शन की ही भांति न्यायदर्शन में भी पदार्थों के तत्व ज्ञान से निःश्रेयस् की सिद्धि बतायी गयी है। न्यायदर्शन में १६ पदार्थ माने गये हैं-.

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न्यायसूत्र

चार प्रमाण - '''१-प्रत्यक्ष, २-उपमान, ३-अनुमान, ४-शब्द''' न्यायसूत्र, भारतीय दर्शन का प्राचीन ग्रन्थ है। इसके रचयिता अक्षपाद गौतम हैं। यह न्यायदर्शन का सबसे प्राचीन रचना है। इसकी रचना का समय दूसरी शताब्दी ईसापूर्व है। इसका प्रथम सूत्र है - (प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अयवय, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान के तत्वज्ञान से मुक्ति प्राप्त होती है।) .

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न्यायवाक्य

न्यायवाक्य या 'सिल्लोगिज्म' (syllogism) (यूनानी: συλλογισμός – "conclusion," "inference") एक विशेष प्रकार का तर्क करने का तरीका है जिसमें दो अन्य कथनों (premises) के आधार पर तीसरा कथन (अनुमान या निष्कर्ष /proposition) निकाला जाता है। अरस्तू ने सिल्लोजिज्म को इस प्रकार परिभाषित किया है - "वह शास्त्रार्थ (discourse) जिसमें कुछ चीजें (सत्य) मान लेने के बाद इनसे कुछ नया और भिन्न चीज व्युत्पन्न होती है, क्योंकि चींजे ही ऐसी हैं।" (In Aristotle's Prior Analytics, he defines syllogism as "a in which, certain things having been supposed, something different from the things' supposed results of necessity because these things are so." (24b18–20)) परम्परागत रूप से सिल्लोगिज्म ही निगमनात्मक अनुमान का आधार रहा है। (आगमनात्मक अनुमान के लिये नहीं, जिसमें बार-बार के प्रेक्षणों के आधार पर नया निष्कर्ष निकाला जाता है)। फ्रेग (Frege) के कृतियों के कारण सिल्लोजिज्म का क्व् बजाय 'प्रेडिकेट लॉजिक' का प्रयोग किया जाने लगा। .

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नीतिशास्त्र

नीतिशास्त्र (ethics) जिसे व्यवहारदर्शन, नीतिदर्शन, नीतिविज्ञान और आचारशास्त्र भी कहते हैं, दर्शन की एक शाखा हैं। यद्यपि आचारशास्त्र की परिभाषा तथा क्षेत्र प्रत्येक युग में मतभेद के विषय रहे हैं, फिर भी व्यापक रूप से यह कहा जा सकता है कि आचारशास्त्र में उन सामान्य सिद्धांतों का विवेचन होता है जिनके आधार पर मानवीय क्रियाओं और उद्देश्यों का मूल्याँकन संभव हो सके। अधिकतर लेखक और विचारक इस बात से भी सहमत हैं कि आचारशास्त्र का संबंध मुख्यत: मानंदडों और मूल्यों से है, न कि वस्तुस्थितियों के अध्ययन या खोज से और इन मानदंडों का प्रयोग न केवल व्यक्तिगत जीवन के विश्लेषण में किया जाना चाहिए वरन् सामाजिक जीवन के विश्लेषण में भी। अच्छा और बुरा, सही और गलत, गुण और दोष, न्याय और जुर्म जैसी अवधारणाओं को परिभाषित करके, नीतिशास्त्र मानवीय नैतिकता के प्रश्नों को सुलझाने का प्रयास करता हैं। बौद्धिक समीक्षा के क्षेत्र के रूप में, वह नैतिक दर्शन, वर्णात्मक नीतिशास्त्र, और मूल्य सिद्धांत के क्षेत्रों से भी संबंधित हैं। नीतिशास्त्र में अभ्यास के तीन प्रमुख क्षेत्र जिन्हें मान्यता प्राप्त हैं.

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प्रतीक

प्रतीक; किसी वस्तु, चित्र, लिखित शब्द, ध्वनि या विशिष्ट चिह्न को कहते हैं जो संबंध, सादृश्यता या परंपरा द्वारा किसी अन्य वस्तु का प्रतिनिधित्व करता है। उदाहरण के लिए, एक लाल अष्टकोण (औक्टागोन) "रुकिए" (स्टॉप) का प्रतीक हो सकता है। नक्शों पर दो तलवारें युद्ध क्षेत्र का संकेत हो सकती हैं। अंक, संख्या (राशि) के प्रतीक होते हैं। सभी भाषाओं में प्रतीक होते हैं। व्यक्तिगत नाम, व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रतीक होते हैं। .

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प्रमाण

प्रमाण या सिद्धि (Proof) निम्नलिखित अर्थों में प्रयुक्त हो सकता है.

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प्लेटो

प्लेटो (४२८/४२७ ईसापूर्व - ३४८/३४७ ईसापूर्व), या अफ़्लातून, यूनान का प्रसिद्ध दार्शनिक था। वह सुकरात (Socrates) का शिष्य तथा अरस्तू (Aristotle) का गुरू था। इन तीन दार्शनिकों की त्रयी ने ही पश्चिमी संस्कृति की दार्शनिक आधार तैयार किया। यूरोप में ध्वनियों के वर्गीकरण का श्रेय प्लेटो को ही है। .

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भारतीय तर्कशास्त्र

'भारतीय तर्कशास्त्र' से सीमित अर्थ में 'न्याय दर्शन' का बोध होता है। किन्तु अधिक व्यापक अर्थ में इसमें बौद्ध न्याय और जैन न्याय भी समाविष्ट किये जाते हैं। सबसे व्यापक रूप में भारतीय तर्कशास्त्र से अभिप्राय सभी भारतीय विद्वानों द्वारा प्रतिपादित सभी तार्किक (न्यायिक) सिद्धान्तों के सम्मुच्चय से है। भारतीय तर्कशास्त्र, विश्व के तीन मूल तर्कशास्त्रों में से एक है; अन्य दो हैं, यूनानी और चीनी तर्कशास्त्र। भारतीय तर्कशास्त्र की यह परम्परा नव्यन्याय के रूप में आधुनिक काल के आरम्भिक दिनों तक जारी रही। .

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भारतीय दर्शन

भारत में 'दर्शन' उस विद्या को कहा जाता है जिसके द्वारा तत्व का साक्षात्कार हो सके। 'तत्व दर्शन' या 'दर्शन' का अर्थ है तत्व का साक्षात्कार। मानव के दुखों की निवृति के लिए और/या तत्व साक्षात्कार कराने के लिए ही भारत में दर्शन का जन्म हुआ है। हृदय की गाँठ तभी खुलती है और शोक तथा संशय तभी दूर होते हैं जब एक सत्य का दर्शन होता है। मनु का कथन है कि सम्यक दर्शन प्राप्त होने पर कर्म मनुष्य को बंधन में नहीं डाल सकता तथा जिनको सम्यक दृष्टि नहीं है वे ही संसार के महामोह और जाल में फंस जाते हैं। भारतीय ऋषिओं ने जगत के रहस्य को अनेक कोणों से समझने की कोशिश की है। भारतीय दार्शनिकों के बारे में टी एस एलियट ने कहा था- भारतीय दर्शन किस प्रकार और किन परिस्थितियों में अस्तित्व में आया, कुछ भी प्रामाणिक रूप से नहीं कहा जा सकता। किन्तु इतना स्पष्ट है कि उपनिषद काल में दर्शन एक पृथक शास्त्र के रूप में विकसित होने लगा था। तत्त्वों के अन्वेषण की प्रवृत्ति भारतवर्ष में उस सुदूर काल से है, जिसे हम 'वैदिक युग' के नाम से पुकारते हैं। ऋग्वेद के अत्यन्त प्राचीन युग से ही भारतीय विचारों में द्विविध प्रवृत्ति और द्विविध लक्ष्य के दर्शन हमें होते हैं। प्रथम प्रवृत्ति प्रतिभा या प्रज्ञामूलक है तथा द्वितीय प्रवृत्ति तर्कमूलक है। प्रज्ञा के बल से ही पहली प्रवृत्ति तत्त्वों के विवेचन में कृतकार्य होती है और दूसरी प्रवृत्ति तर्क के सहारे तत्त्वों के समीक्षण में समर्थ होती है। अंग्रेजी शब्दों में पहली की हम ‘इन्ट्यूशनिस्टिक’ कह सकते हैं और दूसरी को रैशनलिस्टिक। लक्ष्य भी आरम्भ से ही दो प्रकार के थे-धन का उपार्जन तथा ब्रह्म का साक्षात्कार। प्रज्ञामूलक और तर्क-मूलक प्रवृत्तियों के परस्पर सम्मिलन से आत्मा के औपनिषदिष्ठ तत्त्वज्ञान का स्फुट आविर्भाव हुआ। उपनिषदों के ज्ञान का पर्यवसान आत्मा और परमात्मा के एकीकरण को सिद्ध करने वाले प्रतिभामूलक वेदान्त में हुआ। भारतीय मनीषियों के उर्वर मस्तिष्क से जिस कर्म, ज्ञान और भक्तिमय त्रिपथगा का प्रवाह उद्भूत हुआ, उसने दूर-दूर के मानवों के आध्यात्मिक कल्मष को धोकर उन्हेंने पवित्र, नित्य-शुद्ध-बुद्ध और सदा स्वच्छ बनाकर मानवता के विकास में योगदान दिया है। इसी पतितपावनी धारा को लोग दर्शन के नाम से पुकारते हैं। अन्वेषकों का विचार है कि इस शब्द का वर्तमान अर्थ में सबसे पहला प्रयोग वैशेषिक दर्शन में हुआ। .

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भौतिक शास्त्र

भौतिकी के अन्तर्गत बहुत से प्राकृतिक विज्ञान आते हैं भौतिक शास्त्र अथवा भौतिकी, प्रकृति विज्ञान की एक विशाल शाखा है। भौतिकी को परिभाषित करना कठिन है। कुछ विद्वानों के मतानुसार यह ऊर्जा विषयक विज्ञान है और इसमें ऊर्जा के रूपांतरण तथा उसके द्रव्य संबन्धों की विवेचना की जाती है। इसके द्वारा प्राकृत जगत और उसकी आन्तरिक क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है। स्थान, काल, गति, द्रव्य, विद्युत, प्रकाश, ऊष्मा तथा ध्वनि इत्यादि अनेक विषय इसकी परिधि में आते हैं। यह विज्ञान का एक प्रमुख विभाग है। इसके सिद्धांत समूचे विज्ञान में मान्य हैं और विज्ञान के प्रत्येक अंग में लागू होते हैं। इसका क्षेत्र विस्तृत है और इसकी सीमा निर्धारित करना अति दुष्कर है। सभी वैज्ञानिक विषय अल्पाधिक मात्रा में इसके अंतर्गत आ जाते हैं। विज्ञान की अन्य शाखायें या तो सीधे ही भौतिक पर आधारित हैं, अथवा इनके तथ्यों को इसके मूल सिद्धांतों से संबद्ध करने का प्रयत्न किया जाता है। भौतिकी का महत्व इसलिये भी अधिक है कि अभियांत्रिकी तथा शिल्पविज्ञान की जन्मदात्री होने के नाते यह इस युग के अखिल सामाजिक एवं आर्थिक विकास की मूल प्रेरक है। बहुत पहले इसको दर्शन शास्त्र का अंग मानकर नैचुरल फिलॉसोफी या प्राकृतिक दर्शनशास्त्र कहते थे, किंतु १८७० ईस्वी के लगभग इसको वर्तमान नाम भौतिकी या फिजिक्स द्वारा संबोधित करने लगे। धीरे-धीरे यह विज्ञान उन्नति करता गया और इस समय तो इसके विकास की तीव्र गति देखकर, अग्रगण्य भौतिक विज्ञानियों को भी आश्चर्य हो रहा है। धीरे-धीरे इससे अनेक महत्वपूर्ण शाखाओं की उत्पत्ति हुई, जैसे रासायनिक भौतिकी, तारा भौतिकी, जीवभौतिकी, भूभौतिकी, नाभिकीय भौतिकी, आकाशीय भौतिकी इत्यादि। भौतिकी का मुख्य सिद्धांत "उर्जा संरक्षण का नियम" है। इसके अनुसार किसी भी द्रव्यसमुदाय की ऊर्जा की मात्रा स्थिर होती है। समुदाय की आंतरिक क्रियाओं द्वारा इस मात्रा को घटाना या बढ़ाना संभव नहीं। ऊर्जा के अनेक रूप होते हैं और उसका रूपांतरण हो सकता है, किंतु उसकी मात्रा में किसी प्रकार परिवर्तन करना संभव नहीं हो सकता। आइंस्टाइन के सापेक्षिकता सिद्धांत के अनुसार द्रव्यमान भी उर्जा में बदला जा सकता है। इस प्रकार ऊर्जा संरक्षण और द्रव्यमान संरक्षण दोनों सिद्धांतों का समन्वय हो जाता है और इस सिद्धांत के द्वारा भौतिकी और रसायन एक दूसरे से संबद्ध हो जाते हैं। .

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यूरोप

यूरोप पृथ्वी पर स्थित सात महाद्वीपों में से एक महाद्वीप है। यूरोप, एशिया से पूरी तरह जुड़ा हुआ है। यूरोप और एशिया वस्तुतः यूरेशिया के खण्ड हैं और यूरोप यूरेशिया का सबसे पश्चिमी प्रायद्वीपीय खंड है। एशिया से यूरोप का विभाजन इसके पूर्व में स्थित यूराल पर्वत के जल विभाजक जैसे यूराल नदी, कैस्पियन सागर, कॉकस पर्वत शृंखला और दक्षिण पश्चिम में स्थित काले सागर के द्वारा होता है। यूरोप के उत्तर में आर्कटिक महासागर और अन्य जल निकाय, पश्चिम में अटलांटिक महासागर, दक्षिण में भूमध्य सागर और दक्षिण पश्चिम में काला सागर और इससे जुड़े जलमार्ग स्थित हैं। इस सबके बावजूद यूरोप की सीमायें बहुत हद तक काल्पनिक हैं और इसे एक महाद्वीप की संज्ञा देना भौगोलिक आधार पर कम, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक आधार पर अधिक है। ब्रिटेन, आयरलैंड और आइसलैंड जैसे देश एक द्वीप होते हुए भी यूरोप का हिस्सा हैं, पर ग्रीनलैंड उत्तरी अमरीका का हिस्सा है। रूस सांस्कृतिक दृष्टिकोण से यूरोप में ही माना जाता है, हालाँकि इसका सारा साइबेरियाई इलाका एशिया का हिस्सा है। आज ज़्यादातर यूरोपीय देशों के लोग दुनिया के सबसे ऊँचे जीवनस्तर का आनन्द लेते हैं। यूरोप पृष्ठ क्षेत्रफल के आधार पर विश्व का दूसरा सबसे छोटा महाद्वीप है, इसका क्षेत्रफल के १०,१८०,००० वर्ग किलोमीटर (३,९३०,००० वर्ग मील) है जो पृथ्वी की सतह का २% और इसके भूमि क्षेत्र का लगभग ६.८% है। यूरोप के ५० देशों में, रूस क्षेत्रफल और आबादी दोनों में ही सबसे बड़ा है, जबकि वैटिकन नगर सबसे छोटा देश है। जनसंख्या के हिसाब से यूरोप एशिया और अफ्रीका के बाद तीसरा सबसे अधिक आबादी वाला महाद्वीप है, ७३.१ करोड़ की जनसंख्या के साथ यह विश्व की जनसंख्या में लगभग ११% का योगदान करता है, तथापि, संयुक्त राष्ट्र के अनुसार (मध्यम अनुमान), २०५० तक विश्व जनसंख्या में यूरोप का योगदान घटकर ७% पर आ सकता है। १९०० में, विश्व की जनसंख्या में यूरोप का हिस्सा लगभग 25% था। पुरातन काल में यूरोप, विशेष रूप से यूनान पश्चिमी संस्कृति का जन्मस्थान है। मध्य काल में इसी ने ईसाईयत का पोषण किया है। यूरोप ने १६ वीं सदी के बाद से वैश्विक मामलों में एक प्रमुख भूमिका अदा की है, विशेष रूप से उपनिवेशवाद की शुरुआत के बाद.

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साक्ष्य

मोटे तौर पर साक्ष्य (Evidence) में वे सभी चीजें सम्मिलित हैं जो किसी कथन की सत्यता सिद्ध करने के लिये प्रयोग की जाती हैं। साक्ष्य देना वह प्रक्रिया है जिसमें वे चीजें प्रस्तुत की जाती हैं जो -.

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सिसरो

सिसरो मार्कस टुलियस सिसरो (Marcus Tullius Cicero; /ˈsɪsɨroʊ/; क्लासिकल लैटिन:; प्राचीन यूनानी: Κικέρων Kikerōn; 3 जनवरी 106 ईसापूर्व – 7 दिसम्बर 43 ईसापूर्व) रोम का दार्शनिक, राजनेता, कानूनविद, वक्ता, राजनैतिक सिद्धान्तकार तथा संविधानवादी था। .

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सुकरात

सुकरात को सूफियों की भाँति मौलिक शिक्षा और आचार द्वारा उदाहरण देना ही पसंद था। वस्तुत: उसके समसामयिक भी उसे सूफी समझते थे। सूफियों की भाँति साधारण शिक्षा तथा मानव सदाचार पर वह जोर देता था और उन्हीं की तरह पुरानी रूढ़ियों पर प्रहार करता था। वह कहता था, ""सच्चा ज्ञान संभव है बशर्ते उसके लिए ठीक तौर पर प्रयत्न किया जाए; जो बातें हमारी समझ में आती हैं या हमारे सामने आई हैं, उन्हें तत्संबंधी घटनाओं पर हम परखें, इस तरह अनेक परखों के बाद हम एक सचाई पर पहुँच सकते हैं। ज्ञान के समान पवित्रतम कोई वस्तु नहीं हैं।' बुद्ध की भाँति सुकरात ने कोई ग्रंथ नहीं लिखा। बुद्ध के शिष्यों ने उनके जीवनकाल में ही उपदेशों को कंठस्थ करना शुरु किया था जिससे हम उनके उपदेशों को बहुत कुछ सीधे तौर पर जान सकते हैं; किंतु सुकरात के उपदेशों के बारे में यह भी सुविधा नहीं। सुकरात का क्या जीवनदर्शन था यह उसके आचरण से ही मालूम होता है, लेकिन उसकी व्याख्या भिन्न-भिन्न लेखक भिन्न-भिन्न ढंग से करते हैं। कुछ लेखक सुक्रात की प्रसन्नमुखता और मर्यादित जीवनयोपभोग को दिखलाकर कहते हैं कि वह भोगी था। दूसरे लेखक शारीरिक कष्टों की ओर से उसकी बेपर्वाही तथा आवश्यकता पड़ने पर जीवनसुख को भी छोड़ने के लिए तैयार रहने को दिखलाकर उसे सादा जीवन का पक्षपाती बतलाते हैं। सुकरात को हवाई बहस पसंद न थी। वह अथेन्स के बहुत ही गरीब घर में पैदा हुआ था। गंभीर विद्वान् और ख्यातिप्राप्त हो जाने पर भी उसने वैवाहिक जीवन की लालसा नहीं रखी। ज्ञान का संग्रह और प्रसार, ये ही उसके जीवन के मुख्य लक्ष्य थे। उसके अधूरे कार्य को उसके शिष्य अफलातून और अरस्तू ने पूरा किया। इसके दर्शन को दो भागों में बाँटा जा सकता है, पहला सुक्रात का गुरु-शिष्य-यथार्थवाद और दूसरा अरस्तू का प्रयोगवाद। तरुणों को बिगाड़ने, देवनिंदा और नास्तिक होने का झूठा दोष उसपर लगाया गया था और उसके लिए उसे जहर देकर मारने का दंड मिला था। सुकरात ने जहर का प्याला खुशी-खुशी पिया और जान दे दी। उसे कारागार से भाग जाने का आग्रह उसे शिष्यों तथा स्नेहियों ने किया किंतु उसने कहा- भाइयो, तुम्हारे इस प्रस्ताव का मैं आदर करता हूँ कि मैं यहाँ से भाग जाऊँ। प्रत्येक व्यक्ति को जीवन और प्राण के प्रति मोह होता है। भला प्राण देना कौन चाहता है? किंतु यह उन साधारण लोगों के लिए हैं जो लोग इस नश्वर शरीर को ही सब कुछ मानते हैं। आत्मा अमर है फिर इस शरीर से क्या डरना? हमारे शरीर में जो निवास करता है क्या उसका कोई कुछ बिगाड़ सकता है? आत्मा ऐसे शरीर को बार बार धारण करती है अत: इस क्षणिक शरीर की रक्षा के लिए भागना उचित नहीं है। क्या मैंने कोई अपराध किया है? जिन लोगों ने इसे अपराध बताया है उनकी बुद्धि पर अज्ञान का प्रकोप है। मैंने उस समय कहा था-विश्व कभी भी एक ही सिद्धांत की परिधि में नहीं बाँधा जा सकता। मानव मस्तिष्क की अपनी सीमाएँ हैं। विश्व को जानने और समझने के लिए अपने अंतस् के तम को हटा देना चाहिए। मनुष्य यह नश्वर कायामात्र नहीं, वह सजग और चेतन आत्मा में निवास करता है। इसलिए हमें आत्मानुसंधान की ओर ही मुख्य रूप से प्रवृत्त होना चाहिए। यह आवश्यक है कि हम अपने जीवन में सत्य, न्याय और ईमानदारी का अवलंबन करें। हमें यह बात मानकर ही आगे बढ़ना है कि शरीर नश्वर है। अच्छा है, नश्वर शरीर अपनी सीमा समाप्त कर चुका। टहलते-टहलते थक चुका हूँ। अब संसार रूपी रात्रि में लेटकर आराम कर रहा हूँ। सोने के बाद मेरे ऊपर चादर उड़ देना। .

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सोफ़िस्त

आधुनिक प्रचलन में, सोफ़िस्त वह व्यक्ति है, जो दूसरों को अपने मत में करने के लिए युक्तियों, एवं व्याख्याओं का आविष्कार कर सके। किंतु यह "सोफ़िस्त" का मूल अर्थ नहीं है। प्राचीन यूनानी दर्शनकाल में, ज्ञानाश्रयी दार्शनिक ही सोफ़िस्त थे। तब "फ़िलॉसफ़ॉस" का प्रचलन न था। ईसा पूर्व पाँचवीं तथा चौथी शताब्दियों में यूनान के कुछ सीमावर्ती दार्शनिकों ने सांस्कृतिक विचारों के विरुद्ध आंदोलन किया। एथेंस नगर प्राचीन यूनानी संस्कृति का केंद्र था। वहाँ इस आंदोलन की हँसी उड़ाई गई। अफलातून (प्लेटो) के कुछ संवादों के नाम सोफ़िस्त कहे जानेवाले दार्शनिकों के नामों पर हैं। उनमें सुकरात और प्रमुख सोफ़िस्तों के बीच विवाद प्रस्तुत करते हुए अंत में सोफ़िस्तों को निरुतर करा दिया गया है। सुकरात के आत्मत्याग से यूनान में उसका सम्मान इतना अधिक हो गया था कि सुकरात को सोफिस्त आंदोलन का विरोधी समझकर, परंपरा ने "सोफ़िस्त" शब्द अपमानसूचक मान लिया। .

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ज्ञानमीमांसा

ज्ञानमीमांसा (Epistemology) दर्शन की एक शाखा है। ज्ञानमीमांसा ने आधुनिक काल में विचारकों का ध्यान आकृष्ट किया। दर्शनशास्त्र का ध्येय सत् के स्वरूप को समझना है। सदियों से विचारक यह खोज करते रहे हैं, परंतु किसी निश्चित निष्कर्ष से अब भी उतने ही दूर प्रतीत होते हैं, जितना पहले थे। आधुनिक काल में देकार्त (1596-1650 ई) का ध्यान आया कि प्रयत्न की असफलता का कारण यह है कि दार्शनिक कुछ अग्रिम कल्पनाओं को लेकर चलते रहे हैं। दर्शनशास्त्र को गणित की निश्चितता तभी प्राप्त हो सकती है, जब यह किसी धारणा को, जो स्वत:सिद्ध नहीं, प्रमाणित किए बिना न मानें। उसने व्यापक संदेह से आरंभ किया। उसकी अपनी चेतना उसे ऐसी वस्तु दिखाई दी, जिसके अस्तित्व में संदेह ही नहीं हो सकता: संदेह तो अपने आप चेतना का एक आकार या स्वरूप है। इस नींव पर उसने, अपने विचार में, परमात्मा और सृष्टि के अस्तित्व को सिद्ध किया। देकार्त की विवेचन-विधि नई थी, परंतु पूर्वजों की तरह उसका अनुराग भी तत्वज्ञान में ही थाु। जॉन लॉक (1632-1704 ई) ने अपने लिये नया मार्ग चुना। सदियों से सत् के विषय में विवाद होता रहा है। पहले तो यह जानना आवश्यक है कि हमारे ज्ञान की पहुँच कहाँ तक है। इसी से ये प्रश्न भी जुड़े थे कि ज्ञान क्या है और कैसे प्राप्त होता है। यूरोप महाद्वीप के दार्शनिकों ने दर्शन को गणित का प्रतिरूप देना चाहा था, लॉक ने अपना ध्यान मनोविज्ञान की ओर फेरा "मानव बुद्धि पर निबंध" की रचना की। यह युगांतकारी पुस्तक सिद्ध हुई, इसे अनुभववाद का मूलाधार समझा जाता है। जार्ज बर्कले (1684-1753) ने लॉक की आलोचना में "मानवज्ञान" के नियम लिखकर अनुभववाद को आगे बढ़ाया और डेविड ह्यूम (1711-1776 ईदृ) ने "मानव प्रकृति" में इसे चरम सीमा तक पहुँचा दिया। ह्यूम के विचारों का विशेष महत्व यह है कि उन्होंने कांट (1724-1804 ईदृ) के "आलोचनवाद" के लिये मार्ग खोल दिया। कांट ने ज्ञानमीमांसा को दर्शनशास्त्र का केंद्रीय प्रश्न बना दिया। किंतु पश्चिम में ज्ञानमीमांसा को उचित पद प्रप्त करने में बड़ी देर लगी। भारत में कभी इसकी उपेक्षा हुई ही नहीं। गौतम के न्यायसूत्रों में पहले सूत्र में ही 16 विचारविषयों का वर्णन हुआ है, जिसके यथार्थ ज्ञान से नि:श्रेयस की प्राप्ति होती है। इनमें प्रथम दो विषय "प्रमाण" और "प्रमेय" हैं। ये दोनों ज्ञानमीमांसा और ज्ञेय तत्व ही हैं। यह उल्लेखनीय है कि इन दोनों में भी प्रथम स्थान "प्रमाण" को दिया गया है। .

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जॉन स्टूवर्ट मिल

जॉन स्टूवर्ट मिल (सन १८६५ में) जॉन स्टूवर्ट मिल (John Stuart Mill) (1806 - 1873) प्रसिद्ध आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, एवं दार्शनिक चिन्तक तथा प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता और अर्थशास्त्री जेम्स मिल का पुत्र। .

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विज्ञान

संक्षेप में, प्रकृति के क्रमबद्ध ज्ञान को विज्ञान (Science) कहते हैं। विज्ञान वह व्यवस्थित ज्ञान या विद्या है जो विचार, अवलोकन, अध्ययन और प्रयोग से मिलती है, जो किसी अध्ययन के विषय की प्रकृति या सिद्धान्तों को जानने के लिये किये जाते हैं। विज्ञान शब्द का प्रयोग ज्ञान की ऐसी शाखा के लिये भी करते हैं, जो तथ्य, सिद्धान्त और तरीकों को प्रयोग और परिकल्पना से स्थापित और व्यवस्थित करती है। इस प्रकार कह सकते हैं कि किसी भी विषय के क्रमबद्ध ज्ञान को विज्ञान कह सकते है। ऐसा कहा जाता है कि विज्ञान के 'ज्ञान-भण्डार' के बजाय वैज्ञानिक विधि विज्ञान की असली कसौटी है। .

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गणित

पुणे में आर्यभट की मूर्ति ४७६-५५० गणित ऐसी विद्याओं का समूह है जो संख्याओं, मात्राओं, परिमाणों, रूपों और उनके आपसी रिश्तों, गुण, स्वभाव इत्यादि का अध्ययन करती हैं। गणित एक अमूर्त या निराकार (abstract) और निगमनात्मक प्रणाली है। गणित की कई शाखाएँ हैं: अंकगणित, रेखागणित, त्रिकोणमिति, सांख्यिकी, बीजगणित, कलन, इत्यादि। गणित में अभ्यस्त व्यक्ति या खोज करने वाले वैज्ञानिक को गणितज्ञ कहते हैं। बीसवीं शताब्दी के प्रख्यात ब्रिटिश गणितज्ञ और दार्शनिक बर्टेंड रसेल के अनुसार ‘‘गणित को एक ऐसे विषय के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसमें हम जानते ही नहीं कि हम क्या कह रहे हैं, न ही हमें यह पता होता है कि जो हम कह रहे हैं वह सत्य भी है या नहीं।’’ गणित कुछ अमूर्त धारणाओं एवं नियमों का संकलन मात्र ही नहीं है, बल्कि दैनंदिन जीवन का मूलाधार है। .

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गणितीय तर्कशास्त्र

गणितीय तर्कशास्त्र (Mathematical logic) गणित की शाखा है किसका संगणक विज्ञान एवं दार्शनिक तर्कशास्त्र से निकट का सम्बन्ध है। तर्कशास्त्र का गणितीय अध्ययन तथा गणित के अन्य विधाओं में तर्कशास्त्र (formal logic) के अनुप्रयोग दोनो ही इसके अंतर्गत आते हैं। प्राय: गणितीय तर्कशास्त्र को समुच्चय सिद्धान्त, मॉडल सिद्धान्त (model theory), रिकर्सन सिद्धान्त (recursion theory) तथा सिद्धि सिद्धान्त (proof theory) नामक क्षेत्रों में विभक्त किया जाता है। .

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अनुमान

अनुमान, दर्शन और तर्कशास्त्र का पारिभाषिक शब्द है। भारतीय दर्शन में ज्ञानप्राप्ति के साधनों का नाम प्रमाण हैं। अनुमान भी एक प्रमाण हैं। चार्वाक दर्शन को छोड़कर प्राय: सभी दर्शन अनुमान को ज्ञानप्राप्ति का एक साधन मानते हैं। अनुमान के द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता हैं उसका नाम अनुमिति हैं। प्रत्यक्ष (इंद्रिय सन्निकर्ष) द्वारा जिस वस्तु के अस्तित्व का ज्ञान नहीं हो रहा हैं उसका ज्ञान किसी ऐसी वस्तु के प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर, जो उस अप्रत्यक्ष वस्तु के अस्तित्व का संकेत इस ज्ञान पर पहुँचने की प्रक्रिया का नाम अनुमान है। इस प्रक्रिया का सरलतम उदाहरण इस प्रकार है-किसी पर्वत के उस पार धुआँ उठता हुआ देखकर वहाँ पर आग के अस्तित्व का ज्ञान अनुमिति है और यह ज्ञान जिस प्रक्रिया से उत्पन्न होता है उसका नाम अनुमान है। यहाँ प्रत्यक्ष का विषय नहीं है, केवल धुएँ का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। पर पूर्वकाल में अनेक बार कई स्थानों पर आग और धुएँ के साथ-साथ प्रत्यक्ष ज्ञान होने से मन में यह धारणा बन गई है कि जहाँ-जहाँ धुआँ होता है वहीं-वहीं आग भी होती है। अब जब हम केवल धुएँ का प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं और हमको यह स्मरण होता है कि जहाँ-जहाँ धुआँ है वहाँ-वहाँ आग होती है, तो हम सोचते हैं कि अब हमको जहाँ धुआँ दिखाई दे रहा हैं वहाँ आग अवश्य होगी: अतएव पर्वत के उस पार जहाँ हमें इस समय धुएँ का प्रत्यक्ष ज्ञान हो रहा है अवश्य ही आग वर्तमान होगी। इस प्रकार की प्रक्रिया के मुख्य अंगों के पारिभाषिक शब्द ये हैं.

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अरस्तु

अरस्तु अरस्तु (384 ईपू – 322 ईपू) यूनानी दार्शनिक थे। वे प्लेटो के शिष्य व सिकंदर के गुरु थे। उनका जन्म स्टेगेरिया नामक नगर में हुआ था ।  अरस्तु ने भौतिकी, आध्यात्म, कविता, नाटक, संगीत, तर्कशास्त्र, राजनीति शास्त्र, नीतिशास्त्र, जीव विज्ञान सहित कई विषयों पर रचना की। अरस्तु ने अपने गुरु प्लेटो के कार्य को आगे बढ़ाया। प्लेटो, सुकरात और अरस्तु पश्चिमी दर्शनशास्त्र के सबसे महान दार्शनिकों में एक थे।  उन्होंने पश्चिमी दर्शनशास्त्र पर पहली व्यापक रचना की, जिसमें नीति, तर्क, विज्ञान, राजनीति और आध्यात्म का मेलजोल था।  भौतिक विज्ञान पर अरस्तु के विचार ने मध्ययुगीन शिक्षा पर व्यापक प्रभाव डाला और इसका प्रभाव पुनर्जागरण पर भी पड़ा।  अंतिम रूप से न्यूटन के भौतिकवाद ने इसकी जगह ले लिया। जीव विज्ञान उनके कुछ संकल्पनाओं की पुष्टि उन्नीसवीं सदी में हुई।  उनके तर्कशास्त्र आज भी प्रासांगिक हैं।  उनकी आध्यात्मिक रचनाओं ने मध्ययुग में इस्लामिक और यहूदी विचारधारा को प्रभावित किया और वे आज भी क्रिश्चियन, खासकर रोमन कैथोलिक चर्च को प्रभावित कर रही हैं।  उनके दर्शन आज भी उच्च कक्षाओं में पढ़ाये जाते हैं।  अरस्तु ने अनेक रचनाएं की थी, जिसमें कई नष्ट हो गई। अरस्तु का राजनीति पर प्रसिद्ध ग्रंथ पोलिटिक्स है। .

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उपपत्ति

प्रकरण से प्रतिपादित अर्थ के साधन में जो युक्ति प्रस्तुत की जाती है उसे उपपत्ति कहते हैं- ज्ञान के साधन में उपपत्ति का महत्वपूर्ण स्थान है। आत्मज्ञान की प्राप्ति में जो तीन क्रमिक श्रेणियाँ उपनिषदों में बतलाई गई हैं उनमें मनन की सिद्धि उपपत्ति के ही द्वारा होती है। वेद के उपदेश को श्रुतिवाक्यों से प्रथमतः सुनना चाहिए (श्रवण) और तदनन्तर उनका मनन करना चाहिए (मनन)। युक्तियों के सहारे ही कोई तत्व दृढ़ और हृदयंगम बताया जा सकता है। बिना युक्ति के मनन निराधार रहता है और यह आत्मविश्वास नहीं उत्पन्न कर सकता। मनन की सिद्धि के अनंतर निदिध्यासन करने पर ही आत्मा की पूर्ण साधना निष्पन्न होती है। "मन्तव्यश्चोपपत्तिभिः" की व्याख्या में माथुरी उपपत्ति को हेतु का पर्याय मानती है। .

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