18 संबंधों: द्रव्य (जैन दर्शन), पुद्गल, मोक्ष (जैन धर्म), रत्नकरण्ड श्रावकाचार, समन्तभद्र, सम्यक् ज्ञान, सिद्ध (जैन धर्म), जैन दर्शन, जैन धर्म, जैन मुनि, जैन ग्रंथ, जैन आचार्य, जीव, गुणस्थान, केवल ज्ञान, केवली, अरिहन्त, अरिहंत।
द्रव्य (जैन दर्शन)
छः शाश्वत द्रव्य द्रव्य शब्द का प्रयोग जैन दर्शन में द्रव्य (substance) के लिए किया जाता है। जैन दर्शन के अनुसार तीन लोक में कोई भी कार्य निम्नलिखित छः द्रव्य के बिना नहीं हो सकता। अर्थात यह लोक मूल भूत इन छः द्रव्यों से बना हैं:-Grimes, John (1996).
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पुद्गल
जैन दर्शन के अनुसार स्थूल भौतिक पदार्थ पुद्गल कहलाता है क्योंकि यह अणुओं के संयोग और वियोग का खेल है। बौद्ध धर्मदर्शन में आत्मा को पुद्गल कहते हैं। यह पाँच स्कंधों- रूप, वेदना, संस्कार, संज्ञा और विज्ञान का ऐसा समूह है जो निर्वाण की अवस्था में विशीर्ष हो जाता है। .
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मोक्ष (जैन धर्म)
सिद्धशिला जहाँ सिद्ध (जिन्होंने मोक्ष प्राप्त कर लिया है) विराजते है का एक चित्र जैन धर्म में मोक्ष का अर्थ है पुद्ग़ल कर्मों से मुक्ति। जैन दर्शन के अनुसार मोक्ष प्राप्त करने के बाद जीव (आत्मा) जन्म मरण के चक्र से निकल जाता है और लोक के अग्रभाग सिद्धशिला में विराजमान हो जाती है। सभी कर्मों का नाश करने के बाद मोक्ष की प्राप्ति होती हैं। मोक्ष के उपरांत आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप (अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, और अनन्त शक्ति) में आ जाती है। ऐसी आत्मा को सिद्ध कहते है। मोक्ष प्राप्ति हर जीव के लिए उच्चतम लक्ष्य माना गया है। सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चरित्र से इसे प्राप्त किया जा सकता है। जैन धर्म को मोक्षमार्ग भी कहा जाता है। .
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
रत्नकरण्ड श्रावकाचार एक प्रमुख जैन ग्रन्थ हैं जिसके रचियता आचार्य समन्तभद्र हैं। इस ग्रंथ में जैन श्रावक की चर्या का वर्णन है। आचार्य समन्तभद्र ने जैन श्रावक कैसा होना चाहीए इसके बारे में विस्तार से बताया है| .
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समन्तभद्र
आचार्य समन्तभद्र दूसरी सदी के एक प्रमुख दिगम्बर आचार्य थे। वह जैन दर्शन के प्रमुख सिद्धांत, अनेकांतवाद के महान प्रचारक थे। उनका जन्म कांचीनगरी (शायद आज के कांजीवरम) में हुआ था। उनकी सबसे प्रख्यात रचना रत्नकरण्ड श्रावकाचार हैं। .
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सम्यक् ज्ञान
जैन धर्म में सात तत्वों का यथार्थ ज्ञान सम्यक ज्ञान कहलाता है| इसके पांचभेद है १ मतिज्ञान -इन्द्रियों और मन के निमित्त से होने वाले ज्ञान को मतिज्ञान कहते है २ श्रुतज्ञान - मतिज्ञान से जाने गए पदार्थ के विषय में विशेष जानने को श्रुतज्ञान कहते है ३ अवधिज्ञान - द्रव्य क्षेत्र कल भाव की मर्यादा लिए हुए रूपी द्रव्य के स्पष्ट प्रत्यक्ष ज्ञान को अवधि ज्ञान कहते है ४ मन:पर्यय - दुसरे के मन में स्थित रूपी द्रव्य के स्पष्ट ज्ञान को मन:पर्यय ज्ञान कहते है ५ केवलज्ञान - जो लोकालोक के तीनो कालो के समस्त पदार्थो को स्पष्ट प्रत्यक्ष एकसाथ जनता है उसे केवलज्ञान कहते है .
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सिद्ध (जैन धर्म)
सिद्ध आत्मा को जैन मंदिरों में इस रूप में पूजा जाता हैं सिद्ध शब्द का प्रयोग जैन धर्म में भगवान के लिए किया जाता हैं। सिद्ध पद को प्राप्त कर चुकी आत्मा संसार (जीवन मरण के चक्र) से मुक्त होती है। अपने सभी कर्मों का क्षय कर चुके, सिद्ध भगवान अष्टग़ुणो से युक्त होते है। वह सिद्धशिला जो लोक के सबसे ऊपर है, वहाँ विराजते है। .
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जैन दर्शन
जैन दर्शन एक प्राचीन भारतीय दर्शन है। इसमें अहिंसा को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। जैन धर्म की मान्यता अनुसार 24 तीर्थंकर समय-समय पर संसार चक्र में फसें जीवों के कल्याण के लिए उपदेश देने इस धरती पर आते है। लगभग छठी शताब्दी ई॰ पू॰ में अंतिम तीर्थंकर, भगवान महावीर के द्वारा जैन दर्शन का पुनराव्रण हुआ । इसमें वेद की प्रामाणिकता को कर्मकाण्ड की अधिकता और जड़ता के कारण मिथ्या बताया गया। जैन दर्शन के अनुसार जीव और कर्मो का यह सम्बन्ध अनादि काल से है। जब जीव इन कर्मो को अपनी आत्मा से सम्पूर्ण रूप से मुक्त कर देता हे तो वह स्वयं भगवान बन जाता है। लेकिन इसके लिए उसे सम्यक पुरुषार्थ करना पड़ता है। यह जैन धर्म की मौलिक मान्यता है। सत्य का अनुसंधान करने वाले 'जैन' शब्द की व्युत्पत्ति ‘जिन’ से मानी गई है, जिसका अर्थ होता है- विजेता अर्थात् वह व्यक्ति जिसने इच्छाओं (कामनाओं) एवं मन पर विजय प्राप्त करके हमेशा के लिए संसार के आवागमन से मुक्ति प्राप्त कर ली है। इन्हीं जिनो के उपदेशों को मानने वाले जैन तथा उनके साम्प्रदायिक सिद्धान्त जैन दर्शन के रूप में प्रख्यात हुए। जैन दर्शन ‘अर्हत दर्शन’ के नाम से भी जाना जाता है। जैन धर्म में चौबीस तीर्थंकर (महापुरूष, जैनों के ईश्वर) हुए जिनमें प्रथम ऋषभदेव तथा अन्तिम महावीर (वर्धमान) हुए। इनके कुछ तीर्थकरों के नाम ऋग्वेद में भी मिलते हैं, जिससे इनकी प्राचीनता प्रमाणित होती है। जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ प्राकृत (मागधी) भाषा में लिखे गये हैं। बाद में कुछ जैन विद्धानों ने संस्कृत में भी ग्रन्थ लिखे। उनमें १०० ई॰ के आसपास आचार्य उमास्वामी द्वारा रचित तत्त्वार्थ सूत्र बड़ा महत्वपूर्ण है। वह पहला ग्रन्थ है जिसमें संस्कृत भाषा के माध्यम से जैन सिद्धान्तों के सभी अंगों का पूर्ण रूप से वर्णन किया गया है। इसके पश्चात् अनेक जैन विद्वानों ने संस्कृत में व्याकरण, दर्शन, काव्य, नाटक आदि की रचना की। संक्षेप में इनके सिद्धान्त इस प्रकार हैं- .
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जैन धर्म
जैन ध्वज जैन धर्म भारत के सबसे प्राचीन धर्मों में से एक है। 'जैन धर्म' का अर्थ है - 'जिन द्वारा प्रवर्तित धर्म'। जो 'जिन' के अनुयायी हों उन्हें 'जैन' कहते हैं। 'जिन' शब्द बना है 'जि' धातु से। 'जि' माने - जीतना। 'जिन' माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया और विशिष्ट ज्ञान को पाकर सर्वज्ञ या पूर्णज्ञान प्राप्त किया उन आप्त पुरुष को जिनेश्वर या 'जिन' कहा जाता है'। जैन धर्म अर्थात 'जिन' भगवान् का धर्म। अहिंसा जैन धर्म का मूल सिद्धान्त है। जैन दर्शन में सृष्टिकर्ता कण कण स्वतंत्र है इस सॄष्टि का या किसी जीव का कोई कर्ता धर्ता नही है।सभी जीव अपने अपने कर्मों का फल भोगते है।जैन धर्म के ईश्वर कर्ता नही भोगता नही वो तो जो है सो है।जैन धर्म मे ईश्वरसृष्टिकर्ता इश्वर को स्थान नहीं दिया गया है। जैन ग्रंथों के अनुसार इस काल के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव आदिनाथ द्वारा जैन धर्म का प्रादुर्भाव हुआ था। जैन धर्म की अत्यंत प्राचीनता करने वाले अनेक उल्लेख अ-जैन साहित्य और विशेषकर वैदिक साहित्य में प्रचुर मात्रा में हैं। .
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जैन मुनि
आचार्य भूतबली जी की प्रतिमा आचार्य विद्यासागर पिच्छी, कमंडल, शास्त्र जैन मुनि जैन धर्म में संन्यास धर्म का पालन करने वाले व्यक्तियों के लिए किया जाता हैं। जैन मुनि के लिए निर्ग्रन्थ शब्द का प्रयोग भी किया जाता हैं। मुनि शब्द का प्रयोग पुरुष संन्यासियों के लिए किया जाता हैं और आर्यिका शब्द का प्रयोग स्त्री संन्यासियों के लिए किया जाता हैं।Cort, John E. (2001).
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जैन ग्रंथ
जैन साहित्य बहुत विशाल है। अधिकांश में वह धार्मिक साहित्य ही है। संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं में यह साहित्य लिखा गया है। महावीर की प्रवृत्तियों का केंद्र मगध रहा है, इसलिये उन्होंने यहाँ की लोकभाषा अर्धमागधी में अपना उपदेश दिया जो उपलब्ध जैन आगमों में सुरक्षित है। ये आगम ४५ हैं और इन्हें श्वेतांबर जैन प्रमाण मानते हैं, दिगंबर जैन नहीं। दिंगबरों के अनुसार आगम साहित्य कालदोष से विच्छिन्न हो गया है। दिगंबर षट्खंडागम को स्वीकार करते हैं जो १२वें अंगदृष्टिवाद का अंश माना गया है। दिगंबरों के प्राचीन साहित्य की भाषा शौरसेनी है। आगे चलकर अपभ्रंश तथा अपभ्रंश की उत्तरकालीन लोक-भाषाओं में जैन पंडितों ने अपनी रचनाएँ लिखकर भाषा साहित्य को समृद्ध बनाया। आदिकालीन साहित्य में जैन साहित्य के ग्रन्थ सर्वाधिक संख्या में और सबसे प्रमाणिक रूप में मिलते हैं। जैन रचनाकारों ने पुराण काव्य, चरित काव्य, कथा काव्य, रास काव्य आदि विविध प्रकार के ग्रंथ रचे। स्वयंभू, पुष्प दंत, हेमचंद्र, सोमप्रभ सूरी आदि मुख्य जैन कवि हैं। इन्होंने हिंदुओं में प्रचलित लोक कथाओं को भी अपनी रचनाओं का विषय बनाया और परंपरा से अलग उसकी परिणति अपने मतानुकूल दिखाई। .
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जैन आचार्य
आचार्य कुन्दकुन्द की प्रतिमा जैन धर्म में आचार्य शब्द का अर्थ होता है मुनि संघ के नायक। दिगम्बर संघ के कुछ अति प्रसिद्ध आचार्य हैं- भद्रबाहु, कुन्दकुन्द स्वामी, आचार्य समन्तभद्र, आचार्य उमास्वामी.
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जीव
कवक जीव (Organism) शब्द जीवविज्ञान में सभी जीवन-सन्निहित प्राणियों के लिए प्रयुक्त होता है, जैसे: कशेरुकी जन्तु, कीट, पादप अथवा जीवाणु। एक जीव में एक या एक से अधिक कोशिकाएँ होते हैं। जिनमें एक कोशिका पाया जाता है उसे एक कोशिकीय जीव है; एक से अधिक कोशिका होने पर उस जीव को बहुकोशिकीय जीव कहा जाता है। मनुष्य का शरीर विशेष ऊतकों और अंगों में बांटा होता है, जिसमें कोशिकाओं के कई अरबों की रचना में बहुकोशिकीय जीव होते हैं। .
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गुणस्थान
जैन दर्शन में गुण स्थान, उन चौदह चरणों के लिए प्रयोग किया गया हैं जिनसे जीव आध्यात्मिक विकास के दौरान धीरे-धीरे गुजरता है, इससे पहले कि वह मोक्ष प्राप्त करें। जैन दर्शन के अनुसार, यह पुद्गल कर्मों पर आश्रित होने से लेकर उनसे पूर्णता पृथक होने तक आत्मा की भाव दशा हैं। यहाँ शब्द के आधार पर इसका मतलब एक साधारण नैतिक गुणवत्ता नहीं है, अपितु यह आत्मा की प्रकृति — ज्ञान, विश्वास और आचरण के लिए उपयोग किया गया है। दर्शन, मोहनीय आदि कर्मों के उदय, उपशम, क्षयोपशम और क्षय के निमित्त से होनेवाले जीव के आंतरिक भावों को गुणस्थान गुणस्थान कहते हैं (पंचसंग्रह, गाथा ३)। गुणस्थान, १४ हैं। चौथे कर्म मोहनीय को कर्मों का राजा कहा गया है। दर्शन और चरित्र मोहनीय के भेद से दो प्रकार के हैं। प्रथम दृष्टि या श्रद्धा को और दूसरा आचरण को विरूप देता है। तब जीवादि सात तत्वों और पुण्य पापादि में इस जीव का विश्वास नहीं होता और यह प्रथम (मिथ्यात्व) गुणस्थान में रहता है। दर्शन मोहनीय और अनंतानुबंधी क्रोध-मान-माया-लोभ के उपशम या क्षम से सम्यकत्व (चौथा गुणस्थान) होता है। श्रद्धा के डिगने पर अस्पष्ट मिथ्यात्व रूप तीसरा (सासादन) और मिली श्रद्धा रूप तीसरा (मित्र) गुणस्थान होता है। सम्यक्त्व के साथ आंशिक त्याग होने पर पाँचवाँ (देशविरत) और पूर्ण त्याग होने पर भी प्रसाद रहने से छठा (प्रमत विरत) तथा प्रमाद हट जाने पर सातवाँ (अप्रमत्त विरत) होता है। संसारचक्र में अब तक न हुए शुभ भावों के होने से आठवाँ (अपूर्वकरण) तथा नौवाँ (अनिवृत्तिकरण) होते हैं। बहुत थोड़ी लोभ की छाया शेष रहने से दसवाँ (सूक्ष्मसांपराय) और मोह के उपशम अथवा क्षय से ११वाँ (उपरांत मोह) या १२वाँ (क्षीण मोह) होता है। कैवल्य के साथ योग रहने से १३वाँ (संयोग केवली) और योग भी समाप्त हो जाने से १४वाँ (अयोग केवली) होता है और क्षणों में ही मोक्ष चला जाता है। .
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केवल ज्ञान
जैन दर्शन के अनुसार केवल विशुद्धतम ज्ञान को कहते हैं। इस ज्ञान के चार प्रतिबंधक कर्म होते हैं- मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनवरण तथा अंतराय। इन चारों कर्मों का क्षय होने से केवलज्ञान का उदय होता हैं। इन कर्मों में सर्वप्रथम मोहकर का, तदनन्तर इतर तीनों कर्मों का एक साथ ही क्षय होता है। केवलज्ञान का विषय है- सर्वद्रव्य और सर्वपर्याय (सर्वद्रव्य पर्यायेषु केवलस्य-तत्वार्थसूत्र, १.३०)। इसका तात्पर्य यह है कि ऐसी कोई भी वस्तु नहीं, ऐसा कोई पर्याय नहीं जिसे केवलज्ञान से संपन्न व्यक्ति नहीं जानता। फलत: आत्मा की ज्ञानशक्ति का पूर्णतम विकास या आविर्भाव केवलज्ञान में लक्षित होता हैं। यह पूर्णता का सूचक ज्ञान है। इसका उदय होते ही अपूर्णता से युक्त, मति, श्रुत आदि ज्ञान सर्वदा के लिये नष्ट हो जाते हैं। उस पूर्णता की स्थिति में यह अकेले ही स्थित रहता है और इसी लिये इसका यह विशेष अभिधान है। जैन दर्शन के अनुसार जीव १३वें गुणस्थान में केवल ज्ञान की प्राप्ति करता है। १४ गुणस्थान इस प्रकार है।.
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केवली
जैन दर्शन के अनुसार केवल ज्ञान से संपन्न व्यक्ति केवली कहलाता है। उसे चारों प्रकार के प्रतिबंधक कर्मों का क्षय होने से कैवल्य की सद्य: प्राप्ति होती है (तत्त्वार्थसूत्र 10.1)। जैन दर्शन के अनुसार केवली जीव के उच्चतम आदर्श तथा उन्नति का सूचक है। प्रतिबंधक कर्मों में मोह की मुख्यतः होती है और इसलिये केवलज्ञान होने पर मोह ही सर्वप्रथम क्षीण होता है और तदनंतर मुहूर्त के बाद ही शेष तीनों प्रतिबंध कर्म-ज्ञानावरणीय, दर्शनवरणीय तथा अंतराय-एक साथ क्षीण हो जाते हैं। मोह ज्ञान से अधिक बलवान होता है; उसके नाश के बाद ही अन्य कर्मों का नाश होता है। प्रतिबंधकों के क्षय से केवल उपयोग का उदय होता है। उपयोग का अर्थ है-बोधरूप व्यापार। केवल उपयोग का आशय है सामान्य और विशेष दोनों प्रकार का संपूर्ण बोध। इसी दशा में सर्वज्ञत्व और सर्वदर्शित्व का उदय होता है केवली व्यक्ति में। केवली में दर्शन तथा ज्ञान की उत्पति को लेकर आचार्यों में पर्याप्त मतभेद है। आवश्यक नियुक्ति के अनुसार केवली में दर्शन (निर्विकल्पक ज्ञान) तथा (सविकल्पक ज्ञान) का उदय क्रमश: होता है। दिगंबर मान्यता के अनुसार केवली में केवलदर्शन युगपद् (एक साथ) होते हैं। इस मत के प्रख्यात कुन्दकुन्द स्वामी का स्पष्ट कथन है कि जिस प्रकार सूर्य में प्रकाश तथा ताप एक साथ रहते हैं, उसी प्रकार केवली के दर्शन और ज्ञान एक साथ रहते है (नियमानुसार,159)। तीसरी परंपरा सिद्धसेन दिवाकर की है जिसके अनुसार केवलज्ञान में किसी प्रकार का अंतर नहीं होता, प्रत्युत ये दोनों अभिन्न होते हैं। केवली ही 'सर्वज्ञ' के नाम से अभिहित होता है, क्योंकि केवलज्ञान का उदय होते ही उसके लिये कोई पदार्थ अज्ञात नहीं रह जाता। विश्व के समस्त पदार्थ केवली के सामने दर्पण के समान प्रतीत होते हैं। .
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अरिहन्त
अर्हत् (संस्कृत) और अरिहंत (प्राकृत) पर्यायवाची शब्द हैं। अतिशय पूजासत्कार के योग्य होने से इन्हें (अर्ह योग्य होना) कहा गया है। मोहरूपी शत्रु (अरि) का अथवा आठ कर्मों का नाश करने के कारण ये 'अरिहंत' (अरि का नाश करनेवाला) कहे जाते हैं। अर्हत, सिद्ध से एक चरण पूर्व की स्थिति है। जैनों के णमोकार मंत्र में पंचपरमेष्ठियों में सर्वप्रथम अरिहंतों को नमस्कार किया गया है। सिद्ध परमात्मा हैं लेकिन अरिहंत भगवान लोक के परम उपकारक हैं, इसलिए इन्हें सर्वोत्तम कहा गया है। एक में एक ही अरिहंत जन्म लेते हैं। जैन आगमों को अर्हत् द्वारा भाषित कहा गया है। अरिहंत तीर्थकर, केवली और सर्वज्ञ होते हैं। महावीर जैन धर्म के चौबीसवें (अंतिम) तीर्थकर माने जाते हैं। बुरे कर्मों का नाश होने पर केवल ज्ञान द्वारा वे समस्त पदार्थों को जानते हैं इसलिए उन्हें 'केवली' कहा है। सर्वज्ञ भी उसे ही कहते हैं। श्रेणी:जैन धर्म.
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अरिहंत
कोई विवरण नहीं।
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