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छायावाद

सूची छायावाद

छायावाद विशेष रूप से हिंदी साहित्य के रोमांटिक उत्थान की वह काव्य-धारा है जो लगभग ई.स. १९१८ से १९३६ तक की प्रमुख युगवाणी रही। इसमें जयशंकर प्रसाद, निराला, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा आदि मुख्य कवि हुए। छायावाद-चतुष्टय -- प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी के बाद हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवियों में महाकवि गुलाब खंडेलवाल की भी गणना होती है। छायावाद सामान्य रूप से भावोच्छवास प्रेरित स्वच्छन्द कल्पना-वैभव की वह स्वच्छन्द प्रवृत्ति है जो देश-कालगत वैशिष्ट्य के साथ संसार की सभी जातियों के विभिन्न उत्थानशील युगों की आशा, आकांक्षा में निरंतर व्यक्त होती रही है। स्वच्छन्दता की इस सामान्य भावधारा की विशेष अभिव्यक्ति का नाम हिंदी साहित्य में छायावाद पड़ा। छायावाद नामकरण का श्रेय मुकुटधर पाण्डेय को जाता है। इसके आधार पर हिंदी साहित्य में छायावादी युग और छायावादी आंदोलन को भी स्थान मिला। .

18 संबंधों: द्विवेदी युग, बाङ्ला भाषा, महादेवी वर्मा, मुकुटधर पाण्डेय, मैथिलीशरण गुप्त, रबीन्द्रनाथ ठाकुर, रहस्यवाद, सियारामशरण गुप्त, सुमित्रानन्दन पन्त, स्वच्छन्दतावाद, सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला', हिन्दी, जयशंकर प्रसाद, गीतांजलि, कामायनी, अंग्रेज़ी भाषा, छायावाद, छायावादी आंदोलन

द्विवेदी युग

महावीर प्रसाद द्विवेदी का साहित्य आधुनिक हिन्दी साहित्येतिहास का आदिकाल है। इसका पहला चरण भारतेन्दु-युग है एवं दूसरा चरण द्विवेदी-युग। महावीर प्रसाद द्विवेदी एक ऐसे साहित्यकार थे, जो बहुभाषाविद् होने के साथ ही साहित्य के इतर विषयों में भी समान रुचि रखते थे। उन्होंने सरस्वती का अठारह वर्षों तक संपादन कर हिन्दी पत्रकारिता में एक महान कीर्तिमान स्थापित किया था। वे हिन्दी के पहले व्यवस्थित समालोचक थे, जिन्होंने समालोचना की कई पुस्तकें लिखी थीं। वे खड़ी बोली हिन्दी की कविता के प्रारंभिक और महत्वपूर्ण कवि थे। आधुनिक हिन्दी कहानी उन्हीं के प्रयत्नों से एक साहित्यिक विधा के रूप में मान्यता प्राप्त कर सकी थी। वे भाषाशास्त्री थे, अनुवादक थे, इतिहासज्ञ थे, अर्थशास्त्री थे तथा विज्ञान में भी गहरी रुचि रखने वाले थे। अंतत: वे युगांतर लाने वाले साहित्यकार थे या दूसरे शब्दों में कहें, युग निर्माता थे। वे अपने चिन्तन और लेखन के द्वारा हिन्दी प्रवेश में नव-जागरण पैदा करने वाले साहित्यकार थे। महावीर प्रसाद द्विवेदी हिन्दी के पहले साहित्यकार थे, जिनको ‘आचार्य’ की उपाधि मिली थी। इसके पूर्व संस्कृत में आचार्यों की एक परंपरा थी। मई, 1933 ई. में नागरी प्रचारिणी सभा ने उनकी सत्तरवीं वर्षगाँठ पर बनारस में एक बड़ा साहित्यिक आयोजन कर द्विवेदी का अभिनंदन किया था उनके सम्मान में द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ का प्रकाशन कर, उन्हें समर्पित किया था। इस अवसर पर द्विवेदी जी ने जो अपना वक्तव्य दिया था, वह ‘आत्म-निवेदन’ नाम से प्रकाशित हुआ था। इस ‘आत्म-निवेदन’ में वे कहते हैं, ‘‘मुझे आचार्य की पदवीं मिली है। क्यों मिली है, मालूम नहीं। कब, किसने दी है, यह भी मुझे मालूम नहीं। मालूम सिर्फ इतना ही है कि मैं बहुधा-इस पदवी से विभूषित किया जाता हूँ।....शंकराचार्य, मध्वाचार्य, सांख्याचार्य आदि के सदृश किसी आचार्य के चरणरज: कण की बराबरी मैं नहीं कर सकता। बनारस के संस्कृत कॉलेज या किसी विश्वविद्यालय में भी मैंने कदम नहीं रखा। फिर इस पदवी का मुस्तहक मैं कैसे हो गया ?’’ महावीर प्रसाद द्विवेदी ने मैट्रिक तक की पढ़ाई की थी। तत्पश्चात् वे रेलवे में नौकरी करने लगे थे। उसी समय इन्होंने अपने लिए सिद्धान्त निश्चित किए-वक़्त की पाबंदी करना, रिश्वत न लेना, अपना काम ईमानदारी से करना और ज्ञान-वृद्धि के लिए सतत प्रयत्न करते रहना। द्विवेदी जी ने लिखा है, ‘‘पहले तीन सिद्धान्तों के अनुकूल आचरण करना तो सहज था, पर चौथे के अनुकूल सचेत रहना कठिन था। तथापि सतत् अभ्यास से उसमें भी सफलता होती गई। तारबाबू होकर भी, टिकट बाबू, मालबाबू, स्टेशन मास्टर, यहाँ तक कि रेल पटरियाँ बिछाने और उसकी सड़क की निगरानी करनेवाले प्लेट-लेयर (Permanent way Inspector) तक का भी काम मैंने सीख लिया। फल अच्छा ही हुआ। अफ़सरों की नज़र मुझ पर पड़ी। मेरी तरक़्की़ होती गई। वह इस तरह की एक दफ़े मुझे छोड़कर तरक़्क़ी के लिए दरख़्वास्त नहीं देनी पड़ी।’’ द्विवेदी जी 15 रुपये मासिक पर रेलवे में बहाल हुए थे और जब उन्होंने 1904 ई. में नौकरी छो़ड़ी, उस वक़्त 150 रुपये मूल वेतन एवं 50 रुपये भत्ता मिलता था, यानी कुल 200 रुपये। उस ज़माने में यह एक बहुत बड़ी राशि थी। वे 18 वर्ष की उम्र में रेलवे में बहाल हुए थे। उनका जन्म 1864 ई. में हुआ था और 1882 ई, से उन्होंने नौकरी प्रारंभ की थी। नौकरी करते हुए वे अजमेर, बंबई, नागपुर, होशंगाबाद, इटारसी, जबलपुर एवं झाँसी शहरों में रहे। इसी दौरान उन्होंने संस्कृत एवं ब्रजभाषा पर अधिकार प्राप्त करते हुए पिंगल अर्थात् छंदशास्त्र का अभ्यास किया। उन्होंने अपनी पहली पुस्तक 1895 ई. में श्रीमहिम्नस्तोत्र की रचना की, जो पुष्यदंत के संस्कृत काव्य का ब्रजभाषा में काव्य रूपांतर है। द्विवेदी जी ने सभी पद्यरचनाओं का भावार्थ खड़ी बोली गद्य में ही किया है। उन्होंने इसकी भूमिका में लिखा है, ‘‘इस कार्य में हुशंगाबादस्थ बाबू हरिश्चन्द्र कुलश्रेष्ठ का जो सांप्रत मध्यप्रदेश राजधानी नागपुर में विराजमान हैं, मैं परम कृतज्ञ हूँ।’’ अपने ‘आत्म-निवेदन’ में उन्होंने लिखा है, ‘‘बचपन से मेरा अनुराग तुलसीदास की रामायण और ब्रजवासीदास के ब्रजविलास पर हो गया था। फुटकर कविता भी मैंने सैकड़ों कंठ कर लिए थे। हुशंगाबाद में रहते समय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के कविवचन सुधा और गोस्वामी राधाचरण के एक मासिक पत्र ने मेरे उस अनुराग की वृद्धि कर दी। वहीं मैंने बाबू हरिश्चंद्र कुलश्रेष्ठ नाम के एक सज्जन से, जो वहीं कचहरी में मुलाजिम थे, पिंगल का पाठ पढ़ा। फिर क्या था, मैं अपने को कवि ही नहीं, महाकवि समझने लगा। मेरा यह रोग बहुत दिनों तक ज्यों का त्यों बना रहा।’’ 1889 से 1892 ई. तक द्विवेदी जी की इस प्रकार की कई पुस्तकें प्रकाशित हुईं-विनय-विनोद, विहार-वाटिका, स्नेहमाला, ऋतु तरंगिनी, देवी स्तुति शतक, श्री गंगालहरी आदि। 1896 ई. में इन्होंने लॉर्ड बेकन के निबंधों का हिन्दी में भावार्थ मूलक रुपांतर किया, जो बेकन-विचार-रत्नावली पुस्तक में संकलित हैं। 1898 ई. में इन्होंने हिन्दी कालिदास की आलोचना लिखी, जो हिन्दी की पहली आलोचनात्मक पुस्तक है। 1988 ई. में श्रीहर्ष के नैषधीयचरितम पर इन्होंने नैषध-चरित-चर्चा नामक आलोचनात्मक एवं गवेषणात्मक पुस्तक लिखी। यह सिलसिला जो शुरू हुआ, वह 1930-31 ई. तक चला और द्विवेदी जी की कुल पच्चासी पुस्तकें प्रकाशित हुईं। जनवरी, 1903 ई. से दिसंबर, 1920 ई. तक इन्होंने सरस्वती नामक मासिक पत्रिका का संपादन कर एक कीर्तिमान स्थापित किया था, इसीलिए इस काल को हिन्दी साहित्येतिहास में ‘द्विवेदी-युग’ के नाम से जाना जाता है। अपने प्रकांड पांडित्य के कारण इन्हें ‘आचार्य’ कहा जाने लगा। उनके व्यक्तित्व के बारे में आचार्य किशोरी दास वाजपेयी ने लिखा है, ‘‘उनके सुदृढ़ विशाल और भव्य कलेवर को देखकर दर्शक पर सहसा आतंक छा जाता था और यह प्रतीत होने लगता था कि मैं एक महान ज्ञानराशि के नीचे आ गया हूँ।’’ द्विवेदी जी का मानना था कि ‘ज्ञान-राशि’ के संचित कोष का ही नाम साहित्य है।’ द्विवेदी जी स्वयं तो एक ‘महान ज्ञान-राशि’ थे ही उनका संपूर्ण वाङ्मय भी संचित ज्ञानराशि है, जिससे होकर गुज़रना अपनी जातीय परंपरा को आत्मसात करते हुए विश्वचिन्तन के समक्ष भी होना है। डॉ॰ रामविलास शर्मा ने द्विवेदी जी के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए लिखा है, ‘‘द्विवेदी जी ने अपने साहित्य जीवन के आरंभ में पहला काम यह किया कि उन्होंने अर्थशास्त्र का अध्ययन किया। उन्होंने जो पुस्तक बड़ी मेहनत से लिखी और जो आकार में उनकी और पुस्तकों से बड़ी है, वह संपत्तिशास्त्र है।.....अर्थशास्त्र का अध्ययन करने के कारण द्विवेदी जी बहुत-से विषयों पर ऐसी टिप्पणियाँ लिख सके जो विशुद्ध साहित्य की सीमाएँ लाँघ जाती हैं। इसके साथ उन्होंने राजनीति विषयों का अध्ययन किया और संसार में जो महत्त्वपूर्ण राजनीति घटनाएँ हो रही थीं, उन पर उन्होंने लेख लिखे। राजनीति और अर्थशास्त्र के साथ उन्होंने आधुनिक विज्ञान से परिचय प्राप्त किया और इतिहास तथा समाजशास्त्र का अध्ययन गहराई से किया। इसके साथ भारत के प्राचीन दर्शन और विज्ञान की ओर इन्होंने ध्यान दिया और यह जानने का प्रयत्न किया कि हम अपने चिन्तन में कहाँ आगे बढ़े हुए हैं और कहाँ पिछड़े हैं। इस तरह की तैयारी उनसे पहले किसी संपादक ने न की थी। परिणाम यह हुआ कि हिन्दी प्रवेश में नवीन सामाजिक चेतना के प्रसार के लिए वह सबसे उपयुक्त व्यक्ति सिद्ध हुए।’’ ऐसे महान ज्ञान-राशि के पुंज थे आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी। किन्तु रामविलास शर्मा के पूर्व जितने भी आलोचक हुए, उन्होंने द्विवेदी जी का उचित मूल्यांकन तो नहीं ही किया, अपितु उनका अवमूल्यन ही किया। इन महान आलोचकों में रामचन्द्र शुक्ल, नंददुलारे वाजपेयी एवं हजारी प्रसाद द्विवेदी प्रमुख हैं। रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य का इतिहास में द्विवेदी जी पर जो टिप्पणी की है, उस पर एक नजर डालें, ‘‘द्विवेदी जी ने सन् 1903 ई. में सरस्वती के संपादन का भार लिया। तब से अपना सारा समय लिखने में ही लगाया। लिखने की सफलता वे इस बात में मानते थे कि पाठक भी उससे बहुत-कुछ समझ जाएँ। कई उपयोगी पुस्तकों के अतिरिक्त उन्होंने फुटकर लेख भी बहुत लिखे। पर इन लेखों में अधिकतर लेख ‘बातों के संग्रह’ के रूप में ही है। भाषा के नूतन शक्ति चमत्कार के साथ नए-नए विचारों की उद्भावना वाले निबंध बहुत ही कम मिलते हैं। स्थायी निबंधों की श्रेणी में चार ही लेख, जैसे ‘कवि और कविता’, ‘प्रतिभा’ आदि आ सकते हैं। पर ये लेखनकाल या सूक्ष्म विचार की दृष्टि से लिखे नहीं जान पड़ते। ‘कवि और कविता’ कैसा गंभीर विषय है, कहने की आवश्यकता नहीं। पर इस विषय की बहुत मोटी-मोटी बातें बहुत मोटे तौर पर कही गई हैं।’’ इसी प्रसंग में रामचन्द्र शुक्ल आगे लिखते हैं, ‘‘कहने की आवश्यकता नहीं कि द्विवेजी जी के लेख या निबंध विचारात्मक श्रेणी में आएँगे। पर विचार की वह गूढ़ गुंफित परंपरा उनमें नहीं मिलती जिससे पाठक की बुद्धि उत्तेजित होकर किसी नई विचार-पद्धति पर दौड़ पड़े। शुद्ध विचारात्मक निबंधों का चरम उत्कर्ष वही कहा जा सकता है जहाँ एक पैराग्राफ में विचार दबा-दबाकर कसे गए हों और एक-एक वाक्य किसी संबद्ध विचारखंड के लिए हों। द्विवेदी जी के लेखों को पढ़ने में ऐसा जान पड़ता है कि लेखक बहुत मोटी अक्ल के पाठकों के लिए लिख रहा है।’’ अब आप देखें कि महावीर प्रसाद द्विवेदी के लेखन के प्रति रामचंद्र शुक्ल की ये टिप्पणी पढ़कर हिन्दी का कोई भी पाठक उससे विरक्त होगा या आसक्त। रामचन्द्र शुक्ल के इतिहास को हिन्दी के विद्यार्थी साठ-पैंसठ वर्षों से आप्त वचनों की तरह याद करते आ रहे हैं। ऐसे में मूल पाठ से उनके आप्त वाक्यों का यदि मिलान कर परीक्षण न किया जाए, तो अनर्थ होगा ही। रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी के सबसे बड़े समालोचक, सबसे बड़े साहित्येतिहास-लेखक हैं। इसी इतिहास में वे महावीर प्रसाद द्विवेदी के ऐतिहासिक योगदानों को सिर्फ़ भाषा-परिष्कारकर्त्ता के रूप में स्वीकार करते हैं। उनके शब्द हैं, ‘‘यद्यपि द्विवेदी जी ने हिन्दी के बड़े-बड़े कवियों को लेकर गंभीर साहित्य समीक्षा का स्थायी साहित्य नहीं प्रस्तुत किया, पर नई निकली पुस्तकों की भाषा की खरी आलोचना करके हिन्दी साहित्य का बड़ा भारी उपकार किया है। यदि द्विवेदी जी न उठ खड़े होते तो जैसा अव्यवस्थित, व्याकरणविरुद्ध और ऊटपटाँग भाषा चारों ओर दिखाई पड़ती थी, उसकी परंपरा जल्दी न रुकती। उसके प्रभाव से लेखक सावधान हो गए और जिनमें भाषा की समझ और योग्यता थी उन्होंने अपना सुधार किया।’’ दरअसल शुक्ल जी जिस आलोचना-पद्धति का सहारा लेकर उक्त बातें लिख रहे थे, उसे अंग्रेजी़ में Judicial Criticism और हिन्दी में निर्णयात्मक आलोचना कहते हैं और इसका सबसे बड़ा दोष यह है कि इसके आलोचना के क्षेत्र में आलोचकों का ध्यान ऐतिहासिक युग, वातावरण एवं जीवन से हटाकर अधिकांशत: कलापक्ष तक ही सीमित कर दिया है। कलापक्ष की ओर ध्यान देने वाले आलोचकों का कहना हैं कि युगीन परिस्थितियाँ, युगीन चेतना और युग सत्य निरंतर परिवर्तनशील हैं अतएव इन्हें आधार नहीं बनाया जा सकता। उनकी परिवर्तनशीलता के कारण इन्हें साहित्य का स्थायी मानदंड स्वीकार किया जा सकता। लेकिन इसी के साथ यह भी सत्य है कि ऐसी दशा में निर्णयात्मक आलोचना का कोई मूल्य नहीं रहेगा। इसका मुख्य कारण है ऐसे आलोचक का रचनाकार और रचना पर फतवे जारी करना। यही कारण है कि रामचंद्र शुक्ल ने द्विवेदी जी के विचारों को, उनके संचित ज्ञान-राशि पर ध्यान नहीं दिया और उनकी भाषा पर विचार किया। ‘मोटी-मोटी बातें बहुत मोटे तौर पर’-यह अभिव्यक्ति की प्रणाली पर बात की जा रही है, जो निस्संदेह भाषा है। जब द्विवेदी जी मूर्ख या मोटे दिमाग़ वालों के लिए लिखते थे और मोटी तरह से लिखते थे तो उन्होंने भाषा परिष्कार कैसे किया ? जिस लेखक को भाषा की सतही समझ होगी, वह दूसरे लेखकों की भाषा को दुरुस्त कैसे करेगा ? पुन: रामचन्द्र शुक्ल की बातों पर विचार करें-महावीर प्रसाद द्विवेदी ने शाश्वत साहित्य या स्थायी साहित्य नहीं लिखा। उनका महत्त्व भाषा-सुधार में है और उनकी भाषा कैसी है-मोटी अक़्लवालों के लिए है। इस तरह की बातों से आचार्य शुक्ल का इतिहास भरा हुआ है। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी-नवरत्न की समीक्षा लिखते हुए लिखा है, ‘‘इस तरह की बातें किसी इतिहास कार के ग्रंथ में यदि पाई जाएँ तो उसके इतिहास का महत्व कम हुए बिना नहीं रह सकता। इतिहास-लेखक की भाषा तुली हुई होनी चाहिए। उसे बेतुकी बातें न हाँकनी चाहिए। अतिशयोक्तियाँ लिखना इतिहासकार का काम नहीं। उसे चाहिए कि वह प्रत्येक शब्द और वाक्यांश के अर्थ को अच्छी तरह समझकर उसका प्रयोग करे।’’ सन् 1933 ई. में आचार्य द्विवेदी को नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा अभिनंदन ग्रंथ भेंट किया गया। इसकी प्रस्तावना श्यामसुंदर दास एवं रायकृष्णदास के नाम से प्रकाशित हुई, किन्तु यह लिखी गई नंददुलारे वाजपेयी द्वारा। इसलिए यह 1940 ई. में प्रकाशित वाजपेयी जी की पुस्तक हिन्दी साहित्य: बीसवीं शताब्दी में संकलित है। इसमें यह विचार किया गया है कि स्थायी या शाश्वत साहित्य में द्विवेदी जी का साहित्य परिगणित हो सकता है या नहीं। इस दृष्टिकोण से महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित संपूर्ण साहित्य को अयोग्य ठहरा दिया गया। सिर्फ़ उनके द्वारा संपादित सरस्वती के अंकों को ही महत्त्व दिया गया।; श्रेणी:हिन्दी साहित्य श्रेणी:हिन्दी साहित्य का इतिहास.

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बाङ्ला भाषा

बाङ्ला भाषा अथवा बंगाली भाषा (बाङ्ला लिपि में: বাংলা ভাষা / बाङ्ला), बांग्लादेश और भारत के पश्चिम बंगाल और उत्तर-पूर्वी भारत के त्रिपुरा तथा असम राज्यों के कुछ प्रान्तों में बोली जानेवाली एक प्रमुख भाषा है। भाषाई परिवार की दृष्टि से यह हिन्द यूरोपीय भाषा परिवार का सदस्य है। इस परिवार की अन्य प्रमुख भाषाओं में हिन्दी, नेपाली, पंजाबी, गुजराती, असमिया, ओड़िया, मैथिली इत्यादी भाषाएँ हैं। बंगाली बोलने वालों की सँख्या लगभग २३ करोड़ है और यह विश्व की छठी सबसे बड़ी भाषा है। इसके बोलने वाले बांग्लादेश और भारत के अलावा विश्व के बहुत से अन्य देशों में भी फ़ैले हैं। .

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महादेवी वर्मा

महादेवी वर्मा (२६ मार्च १९०७ — ११ सितंबर १९८७) हिन्दी की सर्वाधिक प्रतिभावान कवयित्रियों में से हैं। वे हिन्दी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक मानी जाती हैं। आधुनिक हिन्दी की सबसे सशक्त कवयित्रियों में से एक होने के कारण उन्हें आधुनिक मीरा के नाम से भी जाना जाता है। कवि निराला ने उन्हें “हिन्दी के विशाल मन्दिर की सरस्वती” भी कहा है। महादेवी ने स्वतंत्रता के पहले का भारत भी देखा और उसके बाद का भी। वे उन कवियों में से एक हैं जिन्होंने व्यापक समाज में काम करते हुए भारत के भीतर विद्यमान हाहाकार, रुदन को देखा, परखा और करुण होकर अन्धकार को दूर करने वाली दृष्टि देने की कोशिश की। न केवल उनका काव्य बल्कि उनके सामाजसुधार के कार्य और महिलाओं के प्रति चेतना भावना भी इस दृष्टि से प्रभावित रहे। उन्होंने मन की पीड़ा को इतने स्नेह और शृंगार से सजाया कि दीपशिखा में वह जन-जन की पीड़ा के रूप में स्थापित हुई और उसने केवल पाठकों को ही नहीं समीक्षकों को भी गहराई तक प्रभावित किया। उन्होंने खड़ी बोली हिन्दी की कविता में उस कोमल शब्दावली का विकास किया जो अभी तक केवल बृजभाषा में ही संभव मानी जाती थी। इसके लिए उन्होंने अपने समय के अनुकूल संस्कृत और बांग्ला के कोमल शब्दों को चुनकर हिन्दी का जामा पहनाया। संगीत की जानकार होने के कारण उनके गीतों का नाद-सौंदर्य और पैनी उक्तियों की व्यंजना शैली अन्यत्र दुर्लभ है। उन्होंने अध्यापन से अपने कार्यजीवन की शुरूआत की और अंतिम समय तक वे प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्या बनी रहीं। उनका बाल-विवाह हुआ परंतु उन्होंने अविवाहित की भांति जीवन-यापन किया। प्रतिभावान कवयित्री और गद्य लेखिका महादेवी वर्मा साहित्य और संगीत में निपुण होने के साथ-साथ कुशल चित्रकार और सृजनात्मक अनुवादक भी थीं। उन्हें हिन्दी साहित्य के सभी महत्त्वपूर्ण पुरस्कार प्राप्त करने का गौरव प्राप्त है। भारत के साहित्य आकाश में महादेवी वर्मा का नाम ध्रुव तारे की भांति प्रकाशमान है। गत शताब्दी की सर्वाधिक लोकप्रिय महिला साहित्यकार के रूप में वे जीवन भर पूजनीय बनी रहीं। वर्ष २००७ उनकी जन्म शताब्दी के रूप में मनाया गया।२७ अप्रैल १९८२ को भारतीय साहित्य में अतुलनीय योगदान के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से इन्हें सम्मानित किया गया था। गूगल ने इस दिवस की याद में वर्ष २०१८ में गूगल डूडल के माध्यम से मनाया । .

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मुकुटधर पाण्डेय

मुकुटधर पाण्डेय छायावाद के जनक और चायावाद युग के महत्वपूर्ण कवि थे। .

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मैथिलीशरण गुप्त

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त (३ अगस्त १८८६ – १२ दिसम्बर १९६४) हिन्दी के प्रसिद्ध कवि थे। हिन्दी साहित्य के इतिहास में वे खड़ी बोली के प्रथम महत्त्वपूर्ण कवि हैं। उन्हें साहित्य जगत में 'दद्दा' नाम से सम्बोधित किया जाता था। उनकी कृति भारत-भारती (1912) भारत के स्वतंत्रता संग्राम के समय में काफी प्रभावशाली साबित हुई थी और इसी कारण महात्मा गांधी ने उन्हें 'राष्ट्रकवि' की पदवी भी दी थी। उनकी जयन्ती ३ अगस्त को हर वर्ष 'कवि दिवस' के रूप में मनाया जाता है। महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की प्रेरणा से आपने खड़ी बोली को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया और अपनी कविता के द्वारा खड़ी बोली को एक काव्य-भाषा के रूप में निर्मित करने में अथक प्रयास किया। इस तरह ब्रजभाषा जैसी समृद्ध काव्य-भाषा को छोड़कर समय और संदर्भों के अनुकूल होने के कारण नये कवियों ने इसे ही अपनी काव्य-अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। हिन्दी कविता के इतिहास में यह गुप्त जी का सबसे बड़ा योगदान है। पवित्रता, नैतिकता और परंपरागत मानवीय सम्बन्धों की रक्षा गुप्त जी के काव्य के प्रथम गुण हैं, जो 'पंचवटी' से लेकर जयद्रथ वध, यशोधरा और साकेत तक में प्रतिष्ठित एवं प्रतिफलित हुए हैं। साकेत उनकी रचना का सर्वोच्च शिखर है। .

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रबीन्द्रनाथ ठाकुर

रवीन्द्रनाथ ठाकुर (बंगाली: রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর रोबिन्द्रोनाथ ठाकुर) (७ मई, १८६१ – ७ अगस्त, १९४१) को गुरुदेव के नाम से भी जाना जाता है। वे विश्वविख्यात कवि, साहित्यकार, दार्शनिक और भारतीय साहित्य के एकमात्र नोबल पुरस्कार विजेता हैं। बांग्ला साहित्य के माध्यम से भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नयी जान फूँकने वाले युगदृष्टा थे। वे एशिया के प्रथम नोबेल पुरस्कार सम्मानित व्यक्ति हैं। वे एकमात्र कवि हैं जिसकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं - भारत का राष्ट्र-गान जन गण मन और बाँग्लादेश का राष्ट्रीय गान आमार सोनार बाँग्ला गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं। .

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रहस्यवाद

रहस्यवाद वह भावनात्मक अभिव्यक्ति है जिसमें कोई व्यक्ति या रचनाकर उस अलौकिक, परम, अव्यक्त सत्ता से अपने प्रेम को प्रकट करता है; वह उस अलौकिक तत्व में डूब जाना चाहता है | और जव वह व्यक्ति इस चरम आनंद की अनुभूति करता है|तो उसको वाह्य जगत में व्यक्त करने में उसे अत्यंत कठिनाई होती है | लौकिक भाषा, वस्तुएं उस आनंद को व्यक्त नहीं कर सकती.

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सियारामशरण गुप्त

सियारामशरण गुप्त (४ सितंबर १८९५ - २९ मार्च १९६३) (भाद्र पूर्णिमा सम्वत १९५२ विक्रमी) हिन्दी के साहित्यकार थे। .

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सुमित्रानन्दन पन्त

सुमित्रानंदन पंत (२० मई १९०० - २९ दिसम्बर १९७७) हिंदी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। इस युग को जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' और रामकुमार वर्मा जैसे कवियों का युग कहा जाता है। उनका जन्म कौसानी बागेश्वर में हुआ था। झरना, बर्फ, पुष्प, लता, भ्रमर-गुंजन, उषा-किरण, शीतल पवन, तारों की चुनरी ओढ़े गगन से उतरती संध्या ये सब तो सहज रूप से काव्य का उपादान बने। निसर्ग के उपादानों का प्रतीक व बिम्ब के रूप में प्रयोग उनके काव्य की विशेषता रही। उनका व्यक्तित्व भी आकर्षण का केंद्र बिंदु था। गौर वर्ण, सुंदर सौम्य मुखाकृति, लंबे घुंघराले बाल, सुगठित शारीरिक सौष्ठव उन्हें सभी से अलग मुखरित करता था। .

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स्वच्छन्दतावाद

स्वच्छन्दतावाद (Romanticism) कला, साहित्य तथा बौद्धिक क्षेत्र का एक आन्दोलन था जो यूरोप में अट्ठारहवीं शताब्दी के अन्त में आरम्भ हुआ। १८०० से १८५० तक के काल में यह आन्दोलन अपने चरमोत्कर्ष पर था। अट्ठारहवीं सदी से आज तक दर्शन, राजनीति, कला, साहित्य और संगीत को गहराई से प्रभावित करने वाले वैचारिक रुझान स्वच्छंदतावाद को एक या दो पंक्तियों में परिभाषित करना मुश्किल है। कुछ मानवीय प्रवृत्तियों का पूरी तरह से निषेध और कुछ को बेहद प्राथमिकता देने वाला यह विचार निर्गुण के ऊपर सगुण, अमूर्त के ऊपर मूर्त, सीमित के ऊपर असीमित, समरूपता के ऊपर विविधता, संस्कृति के ऊपर प्रकृति, यांत्रिक के ऊपर आंगिक, भौतिक और स्पष्ट के ऊपर आध्यात्मिक और रहस्यमय, वस्तुनिष्ठता के ऊपर आत्मनिष्ठता, बंधन के ऊपर स्वतंत्रता, औसत के ऊपर विलक्षण, दुनियादार किस्म की नेकी के ऊपर उन्मुक्त सृजनशील प्रतिभा और समग्र मानवता के ऊपर विशिष्ट समुदाय या राष्ट्र को तरजीह देता है। सामंती जकड़बंदी का मूलोच्छेद कर देने वाले फ़्रांसीसी क्रांति जैसे घटनाक्रम के पीछे भी स्वच्छंदतावादी प्रेरणाएँ ही थीं। फ़्रांसीसी क्रांति का युगप्रवर्तक नारा ‘समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व’ लम्बे अरसे तक स्वच्छंदतावादियों का प्रेरणा-स्रोत बना रहा। इस क्रांति के बौद्धिक नायक ज्याँ-ज़ाक रूसो को स्वच्छंदतावादी चिंतन की शुरुआत का श्रेय दिया जाता है। रूसो ने अपने ज़माने की सभ्यतामूलक उपलब्धियों पर आरोप लगाया था कि उनकी वज़ह से मानवता भ्रष्ट हो रही है। उनका विचार था कि अगर नेकी की दुनिया में लौटना है और भ्रष्टाचार से मुक्त जीवन की खोज करनी है तो प्रकृत- अवस्था की शरण में जाना होगा। 1761 में प्रकाशित रूसो की दीर्घ औपन्यासिक कृति ज़्यूली ऑर द न्यू हेलोइस और अपने ही जीवन का अनूठा अन्वेषण करने वाली उनकी आत्मकथा कनफ़ेशंस इस महान विचारक के स्वच्छंदतावादी नज़रिये का उदाहरण है। प्रेम संबंधों पर आधारित भावनाप्रवण कहानी ज़्यूली ने युरोपीय साहित्य में स्वच्छंदतावाद के परवर्ती विकास के लिए आधार का काम किया। अंग्रेज़ी भाषा में स्वच्छंदतावाद का साहित्यिक आंदोलन विकसित हुआ जिसके प्रमुख हस्ताक्षरों के रूप में ब्लैक, वर्ड्सवर्थ, कोलरिज, बायरन, शैली और कीट्स के नाम उल्लेखनीय हैं। स्वच्छंदतावाद के ही प्रभाव में जर्मन दार्शनिक हर्डर ने अपने विशिष्ट रोमांटिक नैशनलिज़म की संकल्पना की। यही प्रेरणाएँ हर्डर को ग़ैर-युरोपीय संस्कृतियों की तरफ़ ले गयीं और उन्होंने उन्हें युरोपीय सभ्यता की आदिम प्राक्-अवस्थाओं के बजाय अपनी विशिष्ट निजता, वैधता और तात्पर्यों से सम्पन्न संरचनाओं के रूप में देखा। जर्मन दार्शनिकों में आर्थर शॉपेनहॉर को स्वच्छंदतावाद की श्रेणी में रखा जाता है। उन्होंने कांट के बुद्धिवादी नीतिशास्त्र को नज़रअंदाज़ करते हुए उनकी ज्ञान-मीमांसा और सौंदर्यशास्त्र संबंधी विमर्श की पुनर्व्याख्या की। शॉपेनहाउर का लेखन जगत के प्रति निरुत्साह और हताशा से भरा हुआ है, पर उन्हें अभिलाषाओं के संसार में राहत मिलती है। शॉपेनहॉर का लेखन दर्शन रिचर्ड वागनर की संगीत-रचनाओं के लिए प्रेरक साबित हुआ। भारत में स्वच्छंदतावाद की पहली साहित्यिक अनुगूँज बांग्ला में सुनायी पड़ी। आधुनिक हिंदी साहित्य में स्वच्छंदतावाद की पहली सुसंगत अभिव्यक्ति छायावाद के रूप में मानी जाती है।  अपने प्रभावशाली राजनीतिक और दार्शनिक तात्पर्यों के अलावा स्वच्छंदतावाद की एक बहुत बड़ी उपलब्धि क्लासिकल भाषाओं को रचनाशीलता के केंद्र से विस्थापित करके जनप्रिय भाषाओं में लेखन की शुरुआत करने से जुड़ी है। एक ज़माने में केवल लैटिन में ही लेखन होता था, उसी के पाठक और प्रकाशक थे। लेकिन स्वच्छंदतावाद ने इस परम्परा का उल्लंघन करने की ज़मीन बनायी और पहले फ़्रांसीसी और फिर अंग्रेज़ी में लेखन करने का आग्रह बलवती हुआ। स्वच्छंदतावादी रचनाकारों ने मनोभावों पर नये सिरे से ज़ोर दे कर रचनाशीलता में क्लासिकीय अभिजनोन्मुखता को झटक दिया। इसका नतीजा केवल रोमानी प्रेम पर आधारित विषय-वस्तुओं में ही नहीं निकला, बल्कि साहित्य और कला ने मन के अँधेरों में छिपे भयों और दुखों की अनुभूति को भी स्पर्श करना शुरू कर दिया। स्वच्छंदतावाद की दूसरी महत्त्वपूर्ण उपलब्धि युरोपीय ज्ञानोदय द्वारा आरोपित बुद्धिवाद के ख़िलाफ़ विद्रोह के रूप में देखी जाती है। ज्ञानोदय के विचारक प्रकृति को तर्क-बुद्धि और व्यवस्थामूलक क्रम के उद्गम के तौर पर देखते थे। न्यूटन द्वारा प्रवर्तित मैकेनिक्स इसी की चरम अभिव्यक्ति है। लेकिन स्वच्छंदतावादियों ने प्रकृति को आंगिक विकास और विविधता के स्रोत के रूप में ग्रहण किया। वे प्राकृतिक और अलौकिक को अलग-अलग मानने के लिए तैयार नहीं थे। पार्थिव और अपार्थिव के द्विभाजन को नकारते हुए उन्होंने-उसे एक- दूसरे से गुँथे हुए की संज्ञा दी। ज्ञानोदय के विचार के लिए स्वच्छंदतावादियों का यह रवैया काफ़ी समस्याग्रस्त था। वे प्रकृति को भावप्रवण और आध्यात्मिक शक्ति के आदिम प्रवाह के रूप में देखने के लिए तैयार नहीं हो सकते थे। स्वच्छंदतावादियों ने क्लासिकल द्वारा रोमन और यूनानी मिथकों पर ज़ोर को नकारते हुए मध्ययुगीन और पागान सांस्कृतिक प्रवृत्तियों को अपनाया। इसका नतीजा गोथिक स्थापत्य के पुनरुद्धार में निकला। स्वच्छंदतावाद ने युरोपीय लोक-संस्कृति और कला के महत्त्व को स्वीकारा। फ़िनलैण्ड के महाकाव्यात्मक ग्रंथ कालेवाला का सृजन इसी रुझान की देन है। स्वच्छंदतावाद के विकास में फ़्रेड्रिख़ और ऑगस्त विल्हेम वॉन श्लेगल की भूमिका उल्लेखनीय है। अट्ठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के संधिकाल पर सक्रिय इन विचारकों का कहना था कि रोमानी साहित्य और कला का स्वभाव तरल और खण्डित है। इसलिए सुसंगित और सम्पूर्णता प्राप्त करने की वह महत्त्वाकांक्षा उसमें नहीं होती जो क्लासिकल साहित्य और कला का मुख्य लक्षण है। जो रोमानी है वह व्याख्या की समस्याओं से ग्रस्त रहेगा ही। श्लेगल के अनुसार कला-कृतियाँ इसीलिए समझ के धरातल पर सौ फ़ीसदी बोधगम्य होने से इनकार करती हैं। ऑगस्त श्लेगल ने रोमानी विडम्बना की थीसिस का प्रतिपादन करते हुए कविता की विरोधाभासी प्रकृति को रेखांकित किया। इसका मतलब यह था कि किसी वस्तुनिष्ठ या सुनिश्चित तात्पर्य की उपलब्धि न कराना कविता का स्वभाव है। स्वच्छंदतावादियों ने शेक्सपियर की सराहना इसलिए की कि उनमें अपने नाटकों के पात्रों के प्रति एक विडम्बनात्मक विरक्ति है। इसीलिए वे अंतर्विरोधी स्थितियों और मुद्राओं के सफल चितेरे बन पाये हैं और इसीलिए उनके नाटक किसी एक दृष्टिकोण के पक्ष में उपसंहार नहीं करते। हिंदी में स्वच्छंदतावाद का प्रभाव बीसवीं सदी के दूसरे दशक में छायावादी कविता के रूप में सामने आया। हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली के रचनाकार डॉ॰ अमरनाथ के अनुसार हिंदी में स्वच्छंदतावाद का ज़िक्र सबसे पहले रामचंद्र शुक्ल के विख्यात ग्रंथ हिंदी साहित्य का इतिहास में मिलता है जहाँ उन्होंने श्रीधर पाठक को स्वच्छंदतावाद का प्रवर्त्तक करार दिया है। अमरनाथ के अनुसार छायावाद और स्वच्छंदतावाद में गहरा साम्य है। दोनों में प्रकृति-प्रेम, मानवीय दृष्टिकोण, आत्माभिव्यंजना, रहस्यभावना, वैयक्तिक प्रेमाभिव्यक्ति, प्राचीन संस्कृति के प्रति व्यामोह, प्रतीक-योजना, निराशा, पलायन, अहं के उदात्तीकरण आदि के दर्शन होते हैं। .

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सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' (२१ फरवरी, १८९९ - १५ अक्टूबर, १९६१) हिन्दी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक माने जाते हैं। वे जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा के साथ हिन्दी साहित्य में छायावाद के प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं। उन्होंने कहानियाँ, उपन्यास और निबंध भी लिखे हैं किन्तु उनकी ख्याति विशेषरुप से कविता के कारण ही है। .

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हिन्दी

हिन्दी या भारतीय विश्व की एक प्रमुख भाषा है एवं भारत की राजभाषा है। केंद्रीय स्तर पर दूसरी आधिकारिक भाषा अंग्रेजी है। यह हिन्दुस्तानी भाषा की एक मानकीकृत रूप है जिसमें संस्कृत के तत्सम तथा तद्भव शब्द का प्रयोग अधिक हैं और अरबी-फ़ारसी शब्द कम हैं। हिन्दी संवैधानिक रूप से भारत की प्रथम राजभाषा और भारत की सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है। हालांकि, हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं है क्योंकि भारत का संविधान में कोई भी भाषा को ऐसा दर्जा नहीं दिया गया था। चीनी के बाद यह विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा भी है। विश्व आर्थिक मंच की गणना के अनुसार यह विश्व की दस शक्तिशाली भाषाओं में से एक है। हिन्दी और इसकी बोलियाँ सम्पूर्ण भारत के विविध राज्यों में बोली जाती हैं। भारत और अन्य देशों में भी लोग हिन्दी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। फ़िजी, मॉरिशस, गयाना, सूरीनाम की और नेपाल की जनता भी हिन्दी बोलती है।http://www.ethnologue.com/language/hin 2001 की भारतीय जनगणना में भारत में ४२ करोड़ २० लाख लोगों ने हिन्दी को अपनी मूल भाषा बताया। भारत के बाहर, हिन्दी बोलने वाले संयुक्त राज्य अमेरिका में 648,983; मॉरीशस में ६,८५,१७०; दक्षिण अफ्रीका में ८,९०,२९२; यमन में २,३२,७६०; युगांडा में १,४७,०००; सिंगापुर में ५,०००; नेपाल में ८ लाख; जर्मनी में ३०,००० हैं। न्यूजीलैंड में हिन्दी चौथी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। इसके अलावा भारत, पाकिस्तान और अन्य देशों में १४ करोड़ १० लाख लोगों द्वारा बोली जाने वाली उर्दू, मौखिक रूप से हिन्दी के काफी सामान है। लोगों का एक विशाल बहुमत हिन्दी और उर्दू दोनों को ही समझता है। भारत में हिन्दी, विभिन्न भारतीय राज्यों की १४ आधिकारिक भाषाओं और क्षेत्र की बोलियों का उपयोग करने वाले लगभग १ अरब लोगों में से अधिकांश की दूसरी भाषा है। हिंदी हिंदी बेल्ट का लिंगुआ फ़्रैंका है, और कुछ हद तक पूरे भारत (आमतौर पर एक सरल या पिज्जाइज्ड किस्म जैसे बाजार हिंदुस्तान या हाफ्लोंग हिंदी में)। भाषा विकास क्षेत्र से जुड़े वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी हिन्दी प्रेमियों के लिए बड़ी सन्तोषजनक है कि आने वाले समय में विश्वस्तर पर अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व की जो चन्द भाषाएँ होंगी उनमें हिन्दी भी प्रमुख होगी। 'देशी', 'भाखा' (भाषा), 'देशना वचन' (विद्यापति), 'हिन्दवी', 'दक्खिनी', 'रेखता', 'आर्यभाषा' (स्वामी दयानन्द सरस्वती), 'हिन्दुस्तानी', 'खड़ी बोली', 'भारती' आदि हिन्दी के अन्य नाम हैं जो विभिन्न ऐतिहासिक कालखण्डों में एवं विभिन्न सन्दर्भों में प्रयुक्त हुए हैं। .

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जयशंकर प्रसाद

जयशंकर प्रसाद (30 जनवरी 1890 - 15 नवम्बर 1937)अंतरंग संस्मरणों में जयशंकर 'प्रसाद', सं०-पुरुषोत्तमदास मोदी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी; संस्करण-2001ई०,पृ०-2(तिथि एवं संवत् के लिए)।(क)हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास, भाग-10, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी; संस्करण-1971ई०, पृ०-145(तारीख एवं ईस्वी के लिए)। (ख)www.drikpanchang.com (30.1.1890 का पंचांग; तिथ्यादि से अंग्रेजी तारीख आदि के मिलान के लिए)।, हिन्दी कवि, नाटककार, कहानीकार, उपन्यासकार तथा निबन्धकार थे। वे हिन्दी के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। उन्होंने हिंदी काव्य में एक तरह से छायावाद की स्थापना की जिसके द्वारा खड़ी बोली के काव्य में न केवल कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई, बल्कि जीवन के सूक्ष्म एवं व्यापक आयामों के चित्रण की शक्ति भी संचित हुई और कामायनी तक पहुँचकर वह काव्य प्रेरक शक्तिकाव्य के रूप में भी प्रतिष्ठित हो गया। बाद के प्रगतिशील एवं नयी कविता दोनों धाराओं के प्रमुख आलोचकों ने उसकी इस शक्तिमत्ता को स्वीकृति दी। इसका एक अतिरिक्त प्रभाव यह भी हुआ कि खड़ीबोली हिन्दी काव्य की निर्विवाद सिद्ध भाषा बन गयी। आधुनिक हिन्दी साहित्य के इतिहास में इनके कृतित्व का गौरव अक्षुण्ण है। वे एक युगप्रवर्तक लेखक थे जिन्होंने एक ही साथ कविता, नाटक, कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में हिंदी को गौरवान्वित होने योग्य कृतियाँ दीं। कवि के रूप में वे निराला, पन्त, महादेवी के साथ छायावाद के प्रमुख स्तंभ के रूप में प्रतिष्ठित हुए हैं; नाटक लेखन में भारतेंदु के बाद वे एक अलग धारा बहाने वाले युगप्रवर्तक नाटककार रहे जिनके नाटक आज भी पाठक न केवल चाव से पढ़ते हैं, बल्कि उनकी अर्थगर्भिता तथा रंगमंचीय प्रासंगिकता भी दिनानुदिन बढ़ती ही गयी है। इस दृष्टि से उनकी महत्ता पहचानने एवं स्थापित करने में वीरेन्द्र नारायण, शांता गाँधी, सत्येन्द्र तनेजा एवं अब कई दृष्टियों से सबसे बढ़कर महेश आनन्द का प्रशंसनीय ऐतिहासिक योगदान रहा है। इसके अलावा कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में भी उन्होंने कई यादगार कृतियाँ दीं। विविध रचनाओं के माध्यम से मानवीय करुणा और भारतीय मनीषा के अनेकानेक गौरवपूर्ण पक्षों का उद्घाटन। ४८ वर्षो के छोटे से जीवन में कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास और आलोचनात्मक निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाएँ की। उन्हें 'कामायनी' पर मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्राप्त हुआ था। उन्होंने जीवन में कभी साहित्य को अर्जन का माध्यम नहीं बनाया, अपितु वे साधना समझकर ही साहित्य की रचना करते रहे। कुल मिलाकर ऐसी बहुआयामी प्रतिभा का साहित्यकार हिंदी में कम ही मिलेगा जिसने साहित्य के सभी अंगों को अपनी कृतियों से न केवल समृद्ध किया हो, बल्कि उन सभी विधाओं में काफी ऊँचा स्थान भी रखता हो। .

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गीतांजलि

गीतांजलि (बंगला उच्चारण - गीतांजोलि) रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविताओ का संग्रह है, जिनके लिए उन्हे सन् १९१३ में नोबेल पुरस्कार मिला था। 'गीताँजलि' शब्द गीत और अन्जलि को मिला कर बना है जिसका अर्थ है - गीतों का उपहार (भेंट)। यह अंग्रेजी में लिखी १०३ कविताएँ हैं (ज्यादातर अनुवाद)। यह अनुवाद इंग्लैड के दौरे पर शुरु किये गये थे जहां इन कविताओं को बहुत ही प्रशंसा से ग्रहण किया गया था। एक पतली किताब १९१३ में प्रकाशित की गई थी जिसमें डब्ल्यू बी यीट्स (W. B. Yeats) नें बहुत ही उत्साह से प्राक्कथन (preface) लिखा था। और उसी साल में रविंद्रनाथ टैगोर जी नें तीन पुस्तिकाओं का संग्रह लिखा जिसे नोबल पुरस्कार मिला। इस से रबिन्द्रनाथ टैगोर पहले ऐसे व्यक्ति थे जो यूरोपवासी न होते हुये भी नोबल पुरस्कार मिला। गीतांजलि पश्चिमीजगत में बहुत ही प्रसिद्ध हुई हैं और इनके बहुत से अनुवाद किये गये हैं। इस रचना का मूल संस्करण बंगला में था जिसमें ज्यादातर भक्तिमय गाने थे। .

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कामायनी

कामायनी हिंदी भाषा का एक महाकाव्य है। इसके रचयिता जयशंकर प्रसाद हैं। यह आधुनिक छायावादी युग का सर्वोत्तम और प्रतिनिधि हिंदी महाकाव्य है। 'प्रसाद' जी की यह अंतिम काव्य रचना 1936 ई. में प्रकाशित हुई, परंतु इसका प्रणयन प्राय: 7-8 वर्ष पूर्व ही प्रारंभ हो गया था। 'चिंता' से प्रारंभ कर 'आनंद' तक 15 सर्गों के इस महाकाव्य में मानव मन की विविध अंतर्वृत्तियों का क्रमिक उन्मीलन इस कौशल से किया गया है कि मानव सृष्टि के आदि से अब तक के जीवन के मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक विकास का इतिहास भी स्पष्ट हो जाता है। कला की दृष्टि से कामायनी छायावादी काव्यकला का सर्वोत्तम प्रतीक माना जा सकता है। चित्तवृत्तियों का कथानक के पात्र के रूप में अवतरण इस काव्य की अन्यतम विशेषता है। और इस दृष्टि से लज्जा, सौंदर्य, श्रद्धा और इड़ा का मानव रूप में अवतरण हिंदी साहित्य की अनुपम निधि है।कामायनी प्रत्यभिज्ञा दर्शन पर आधारित है। साथ ही इस पर अरविन्द दर्शन और गांधी दर्शन का भी प्रभाव यत्र तत्र मिल जाता है। .

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अंग्रेज़ी भाषा

अंग्रेज़ी भाषा (अंग्रेज़ी: English हिन्दी उच्चारण: इंग्लिश) हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार में आती है और इस दृष्टि से हिंदी, उर्दू, फ़ारसी आदि के साथ इसका दूर का संबंध बनता है। ये इस परिवार की जर्मनिक शाखा में रखी जाती है। इसे दुनिया की सर्वप्रथम अन्तरराष्ट्रीय भाषा माना जाता है। ये दुनिया के कई देशों की मुख्य राजभाषा है और आज के दौर में कई देशों में (मुख्यतः भूतपूर्व ब्रिटिश उपनिवेशों में) विज्ञान, कम्प्यूटर, साहित्य, राजनीति और उच्च शिक्षा की भी मुख्य भाषा है। अंग्रेज़ी भाषा रोमन लिपि में लिखी जाती है। यह एक पश्चिम जर्मेनिक भाषा है जिसकी उत्पत्ति एंग्लो-सेक्सन इंग्लैंड में हुई थी। संयुक्त राज्य अमेरिका के 19 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध और ब्रिटिश साम्राज्य के 18 वीं, 19 वीं और 20 वीं शताब्दी के सैन्य, वैज्ञानिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रभाव के परिणाम स्वरूप यह दुनिया के कई भागों में सामान्य (बोलचाल की) भाषा बन गई है। कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों और राष्ट्रमंडल देशों में बड़े पैमाने पर इसका इस्तेमाल एक द्वितीय भाषा और अधिकारिक भाषा के रूप में होता है। ऐतिहासिक दृष्टि से, अंग्रेजी भाषा की उत्पत्ति ५वीं शताब्दी की शुरुआत से इंग्लैंड में बसने वाले एंग्लो-सेक्सन लोगों द्वारा लायी गयी अनेक बोलियों, जिन्हें अब पुरानी अंग्रेजी कहा जाता है, से हुई है। वाइकिंग हमलावरों की प्राचीन नोर्स भाषा का अंग्रेजी भाषा पर गहरा प्रभाव पड़ा है। नॉर्मन विजय के बाद पुरानी अंग्रेजी का विकास मध्य अंग्रेजी के रूप में हुआ, इसके लिए नॉर्मन शब्दावली और वर्तनी के नियमों का भारी मात्र में उपयोग हुआ। वहां से आधुनिक अंग्रेजी का विकास हुआ और अभी भी इसमें अनेक भाषाओँ से विदेशी शब्दों को अपनाने और साथ ही साथ नए शब्दों को गढ़ने की प्रक्रिया निरंतर जारी है। एक बड़ी मात्र में अंग्रेजी के शब्दों, खासकर तकनीकी शब्दों, का गठन प्राचीन ग्रीक और लैटिन की जड़ों पर आधारित है। .

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छायावाद

छायावाद विशेष रूप से हिंदी साहित्य के रोमांटिक उत्थान की वह काव्य-धारा है जो लगभग ई.स. १९१८ से १९३६ तक की प्रमुख युगवाणी रही। इसमें जयशंकर प्रसाद, निराला, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा आदि मुख्य कवि हुए। छायावाद-चतुष्टय -- प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी के बाद हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवियों में महाकवि गुलाब खंडेलवाल की भी गणना होती है। छायावाद सामान्य रूप से भावोच्छवास प्रेरित स्वच्छन्द कल्पना-वैभव की वह स्वच्छन्द प्रवृत्ति है जो देश-कालगत वैशिष्ट्य के साथ संसार की सभी जातियों के विभिन्न उत्थानशील युगों की आशा, आकांक्षा में निरंतर व्यक्त होती रही है। स्वच्छन्दता की इस सामान्य भावधारा की विशेष अभिव्यक्ति का नाम हिंदी साहित्य में छायावाद पड़ा। छायावाद नामकरण का श्रेय मुकुटधर पाण्डेय को जाता है। इसके आधार पर हिंदी साहित्य में छायावादी युग और छायावादी आंदोलन को भी स्थान मिला। .

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छायावादी आंदोलन

छायावादी आंदोलन भारतीय साहित्य का एक काव्य आंदोलन था जिसमें छायावाद की प्रवृत्तियाँ थीं। ये प्रवृत्तियाँ जिस युग के काव्य में पाई गईं उस साहित्यिक युग को छायावादी युग के नाम से जाना गया। इन प्रवृत्तियों में लिखने वाले लेखकों को छायावादी कवि कहा गया। श्रेणी:साहित्यिक आंदोलन.

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यहां पुनर्निर्देश करता है:

छायावाद युग, छायावादी युग

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