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क्रम-विकास और पराप्राकृतिक विश्वास का वैज्ञानिक अध्ययन

शॉर्टकट: मतभेद, समानता, समानता गुणांक, संदर्भ

क्रम-विकास और पराप्राकृतिक विश्वास का वैज्ञानिक अध्ययन के बीच अंतर

क्रम-विकास vs. पराप्राकृतिक विश्वास का वैज्ञानिक अध्ययन

आनुवांशिकता का आधार डीएनए, जिसमें परिवर्तन होने पर नई जातियाँ उत्पन्न होती हैं। क्रम-विकास या इवोलुशन (English: Evolution) जैविक आबादी के आनुवंशिक लक्षणों के पीढ़ी दर पीढ़ी परिवर्तन को कहते हैं। क्रम-विकास की प्रक्रियायों के फलस्वरूप जैविक संगठन के हर स्तर (जाति, सजीव या कोशिका) पर विविधता बढ़ती है। पृथ्वी के सभी जीवों का एक साझा पूर्वज है, जो ३.५–३.८ अरब वर्ष पूर्व रहता था। इसे अंतिम सार्वजानिक पूर्वज कहते हैं। जीवन के क्रम-विकासिक इतिहास में बार-बार नयी जातियों का बनना (प्रजातिकरण), जातियों के अंतर्गत परिवर्तन (अनागेनेसिस), और जातियों का विलुप्त होना (विलुप्ति) साझे रूपात्मक और जैव रासायनिक लक्षणों (जिसमें डीएनए भी शामिल है) से साबित होता है। जिन जातियों का हाल ही में कोई साझा पूर्वज था, उन जातियों में ये साझे लक्षण ज्यादा समान हैं। मौजूदा जातियों और जीवाश्मों के इन लक्षणों के बीच क्रम-विकासिक रिश्ते (वर्गानुवंशिकी) देख कर हम जीवन का वंश वृक्ष बना सकते हैं। सबसे पुराने बने जीवाश्म जैविक प्रक्रियाओं से बने ग्रेफाइट के हैं, उसके बाद बने जीवाश्म सूक्ष्मजीवी चटाई के हैं, जबकि बहुकोशिकीय जीवों के जीवाश्म बहुत ताजा हैं। इस से हमें पता चलता है कि जीवन सरल से जटिल की तरफ विकसित हुआ है। आज की जैव विविधता को प्रजातिकरण और विलुप्ति, दोनों द्वारा आकार दिया गया है। पृथ्वी पर रही ९९ प्रतिशत से अधिक जातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं। पृथ्वी पर जातियों की संख्या १ से १.४ करोड़ अनुमानित है। इन में से १२ लाख प्रलेखित हैं। १९ वीं सदी के मध्य में चार्ल्स डार्विन ने प्राकृतिक वरण द्वारा क्रम-विकास का वैज्ञानिक सिद्धांत दिया। उन्होंने इसे अपनी किताब जीवजाति का उद्भव (१८५९) में प्रकाशित किया। प्राकृतिक चयन द्वारा क्रम-विकास की प्रक्रिया को निम्नलिखित अवलोकनों से साबित किया जा सकता है: १) जितनी संतानें संभवतः जीवित रह सकती हैं, उस से अधिक पैदा होती हैं, २) आबादी में रूपात्मक, शारीरिक और व्यवहारिक लक्षणों में विविधता होती है, ३) अलग-अलग लक्षण उत्तर-जीवन और प्रजनन की अलग-अलग संभावना प्रदान करते हैं, और ४) लक्षण एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी को दिए जाते हैं। इस प्रकार, पीढ़ी दर पीढ़ी आबादी उन शख़्सों की संतानों द्वारा प्रतिस्थापित हो जाती है जो उस बाईओफीसिकल परिवेश (जिसमें प्राकृतिक चयन हुआ था) के बेहतर अनुकूलित हों। प्राकृतिक वरण की प्रक्रिया इस आभासी उद्देश्यपूर्णता से उन लक्षणों को बनती और बरकरार रखती है जो अपनी कार्यात्मक भूमिका के अनुकूल हों। अनुकूलन का प्राकृतिक वरण ही एक ज्ञात कारण है, लेकिन क्रम-विकास के और भी ज्ञात कारण हैं। माइक्रो-क्रम-विकास के अन्य गैर-अनुकूली कारण उत्परिवर्तन और जैनेटिक ड्रिफ्ट हैं। . पराप्राकृतिक विश्वास का वैज्ञानिक अध्ययन मानव जीवन और धर्म के मधुर सम्बंधों पर नयी खोजों का संक्षेप में परिचय है। वैज्ञानिकों का मानना है कि पराप्राकृतिक विश्वास का लोगों के जीवन में लम्बे समय से महत्त्व रहा है, शामन या ओझा के पुनःनिर्मित इतिहास के आधार पर यह अवधि ६५००० वर्ष होगी। सभ्यता के विकास के साथ-साथ पराप्राकृतिक विश्वास ने धर्म का रूप लिया, और साहित्य, कला तथा समाज को प्रभावित किया। अनुमान है कि पूरे विश्व में लगभग १०००० धर्म हैं, और प्रत्येक धर्म में अनेकों अलौकिक तत्व (देव और असुर)। वैज्ञानिकों की सोच है कि, अधिकतर देवी-देवता छोटे-छोटे समुदायों (गाँव) तक सीमित हैं, परन्तु कुछ देवता लगभग १२००० वर्ष पहले से बड़े धर्मों में विकसित होना शुरू हुए होंगे और विश्व में फ़ैल गए। पिछले कुछ दशकों में, पराप्राकृतिक विश्वास के जैविक और सांस्कृतिक उद्विकास पर नई खोजों में वैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया कि उनका आशय किसी अलौकिक तत्व की भौतिक सत्ता से नहीं था, उन्होंने पाया कि देवी-देवताओं में विश्वास समूह के सदस्यों में सहयोग, मानसिक स्वास्थ्य तथा स्नेह की भावना के विकास में सहायक है। साहित्य और कला में हुई खोज से पता चलता है कि इनके अन्दर भी पराप्राकृतिक विश्वास की गहरी पैठ है, और अलौकिक तत्वों का अनोखा समावेश है, जैसे, रसल की चायदानी, उड़न तश्तरी, स्पाइडर-मैन, आदि। देवी-देवताओं में विश्वास पर हुए इन अध्ययनों के चार मुख्य पहलू ग्रामीण परिवेश, मानसिक स्वास्थ्य, सहयोग, और स्नेह की भावना हैं। .

क्रम-विकास और पराप्राकृतिक विश्वास का वैज्ञानिक अध्ययन के बीच समानता

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संदर्भ

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