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एपिकुरुस और लुक्रेतिउस

शॉर्टकट: मतभेद, समानता, समानता गुणांक, संदर्भ

एपिकुरुस और लुक्रेतिउस के बीच अंतर

एपिकुरुस vs. लुक्रेतिउस

एपिकुरुस प्राचीन युनान के दार्शनिक थे। ये आनंदवाद के संस्थापक थे। एपिकुरुस का जन्म 342/1 ईसापूर्व समोस में हुआ था। . लुक्रेतिउस (99 ई.पू.- 55 ई.पू.) रोमन कवी और दार्शनिक थे। .

एपिकुरुस और लुक्रेतिउस के बीच समानता

एपिकुरुस और लुक्रेतिउस आम में 2 बातें हैं (यूनियनपीडिया में): आनंदवाद, कार्ल मार्क्स

आनंदवाद

आनंदवाद उस विचारधारा का नाम है जिसमें आनंद को ही मानव जीवन का मूल लक्ष्य माना जाता है। विश्व की विचारधारा में आनंदवाद के दो रूप मिलते हैं। प्रथम विचार के अनुसार आनंद इस जीवन में मनुष्य का चरम लक्ष्य है और दूसरी धारा के अनुसार इस जीवन में कठोर नियमों का पालन करने पर ही भविष्य में मनुष्य को परम आनंद की प्राप्ति होती है। प्रथम धारा का प्रधान प्रतिपादक ग्रीक दार्शनिक एपिक्यूरस (341-270 ई.पू.) था। उसके अनुसार इस जीवन में आनंद की प्राप्ति सभी चाहते हैं। व्यक्ति जन्म से ही आनंद चाहता है और दु:ख से दूर रहना चाहता है। सभी आनंद अच्छे हैं, सभी दु:ख बुरे हैं। किंतु मनुष्य न तो सभी आनंदों का उपभोग कर सकता है और न सभी दु:खों से दूर रह सकता है। कभी आनंद के बाद दु:ख मिलता है और कभी दु:ख के बाद आनंद। जिस कष्ट के बाद 'आनंद' मिलता है वह कष्ट उस आनंद से अच्छा है जिसके बाद दु:ख मिलता है। अत: आनंद को चुनने में सावधानी की आवश्यकता है। आनंद के भी कई भेद होते हैं जिनमें मानसिक आनंद शारीरिक आनंद से श्रेष्ठ है। आदर्श रूप में वही आनंद सर्वोच्च है जिसमें दु:ख का लेश भी न हो, किंतु समाज और राज्य द्वारा निर्धारित नियमों की अवहेलना करके जो आनंद प्राप्त होता है वह दु:ख से भी बुरा है, क्योंकि मनुष्य को उस अवहेलना का दंड भोगना पड़ता है। सदाचारी और निरपराध व्यक्ति ही अपनी मनोवृत्ति को संयमित करके आचरण के द्वारा उच्च आनंद प्राप्त कर सकता है। इस दृष्टि एपिक्यूरस का आनंदवाद विषयोपभोग की शिक्षा नहीं देता, अपितु आनंदप्राप्ति के लिए सद्गुणों को अत्यावश्यक मानता है। एपिक्यूरस का यह मत कालांतर में हेय दृष्टि से देखा जाने लगा क्योंकि इसके माननेवाले सद्गुणों की उपेक्षा करके विषयोपभोग को ही प्रधानता देने लगे। आधुनिक पाश्चात्य दर्शन में जान लाक (1632-1704), डेविड ह्यूम (1711-1776), बेंथम (1739-1832) तथा जान स्टुअर्ट मिल (1806-1873) इस विचारधारा के प्रबल समर्थकों में से थे। मिल की उपयोगितावाद के अनुसार वह आनंद जिससे अधिक से अधिक लोगों का अधिक से अधिक लाभ हो, सर्वश्रेष्ठ है। केवल परिमाण के अनुसार ही नहीं, अपितु गुण के अनुसार भी आनंद के कई भेद हैं। मूर्ख और विद्वान्‌ के आनंद में गुणगत भेद है, परिमाणगत नहीं। पापी का आनंद सद्गुणी के आनंद से हीन है अत: लोगों को सद्गुणी बनकर सच्चा आनंद प्राप्त करना चाहिए। भारत में चार्वाक दर्शन ने परलोक, ईश्वर आदि का खंडन करते हुए इस संसार में ही उपलब्ध आनंद के पूर्ण उपभोग को प्राणिमात्र का कर्तव्य माना है। काम ही सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थ है। सभी कर्तव्य काम की पूर्ति के लिए किए जाते हैं। वात्स्यायन ने धर्म और अर्थ को काम का सहायक माना है। इसका तात्पर्य यह है कि सामाजिक आचरणों के सामान्य नियमों (धर्म) का उल्लंघन करते हुए काम की तृप्ति करना ही सर्वश्रेष्ठ मार्ग है। दूसरी विचारधारा के अनुसार संसार के नश्वर पदार्थों के उपभोग से उत्पन्न आनंद नाश्वान्‌ है। अत: प्राणी को अविनाशी आनंद की खोज करनी चाहिए। इसके लिए हमें इस संसार का त्याग करना पड़े तो वह भी स्वीकार होगा। उपनिषदों में सर्वप्रथम इस विचारधारा का प्रतिपादन मिलता है। मनुष्य की इंद्रियों को प्रिय लगनेवाला आनंद (प्रेय) अंत में दु:ख देता है। इसलिए उस आनंद की खोज करनी चाहिए जिसका परिणाम कल्याणकारी हो (श्रेय)। आनंद का मूल आत्मा मानी गई है और आत्मा को आनंदरूप कहा गया है। विद्वान्‌ संसार में भटकने की अपेक्षा अपने आप में स्थित आनंद को ढूँढ़ते हैं। आनंदावस्था जीव की पूर्णता है। अपनी शुद्ध आत्मा को प्राप्त करने के बाद आनंद अपने आप प्राप्त हो जाता है। उपनिषदों के दर्शन को आधार मानकर चलनेवाले सभी धार्मिक और दार्शनिक संप्रदायों में आनंद को आत्मा की चरम अभिव्यक्ति माना गया है। शंकर, रामानुज, मध्व, वल्लभ, निंबार्क, चैतन्य और तांत्रिक संप्रदाय तथा अरविंद दर्शन किसी न रूप में आनंद को आत्मा की पूर्णता का रूप मानते हैं। बौद्ध दर्शन में संसार को दु:खमय माना गया है। दु:खमय संसार को त्यागकर निर्वाणपद प्राप्त करना प्रत्येक बौद्ध का लक्ष्य है। निर्वाणावस्था को आनंदावस्था और महासुख कहा गया है। जैन संप्रदाय में भी शरीर घोर कष्ष्ट देने के बाद नित्य 'ऊर्घ्व्गमन' करता हुआ असीम आनंदोपलब्धि करता है। पूर्वमीमांसा में सांसारिक आनंद को 'अनर्थ' कहकर तिरस्कृत किया गया है और उस धर्म के पालन का विधान है जो वेदों द्वारा विहित है और जिसका परिणाम आनंद है। अफ़लातून के अनुसार सद्गुणी जीवन पूर्णानंद का जीवन है, यद्यपि आनंद स्वयं व्यक्ति का ध्येय नहीं है। अरस्तू के अनुसार वे सभी कर्म जिनसे मनुष्य-मनुष्य बनता है, कर्तव्य के अंतर्गत आते हैं। इन्हीं कर्मों का परिणाम आनंद है। एडिमोनिज्म स्तोइक दर्शन में सांसारिक आनंद को आत्मा का रोग माना गया है। इस रोग से मुक्त रहकर सद्गुणों का निरपेक्ष भाव से सेवन करने पर आध्यात्मिक आनंद प्राप्त करना ही मनुष्य का सच्चा लक्ष्य है। नव्य अफ़लातूनी दर्शन में सांसारिक विषयों की अपेक्षा ईश्वर और जीव की अभेदावस्था से उत्पन्न आनंद को उच्च माना गया है। ईसाई दार्शनिक आगस्तिन (353-430) ने बड़े जोरदार शब्दों में ईश्वरसाक्षात्कार से उत्पन्न आनंद की तुलना में सांसारिक आनंद को मरे व्यक्ति का आनंद माना है। स्पिनोज़ा (1632-1677) ने कहा, "नित्य और अनंत तत्व के प्रति जो प्रेम उत्पन्न होता है वह ऐसा आनंद प्रदान करता है जिसमें दु:ख का लेश भी नहीं है।" इमानुएल कांट (1724-1804) का कहना है कि सर्वोत्तम श्रेय (गुड) इस संसार में नहीं प्राप्त हो सकता, क्योंकि यहाँ लोग अभाव और कामनाओं के शिकार होते हैं। आचार के अनुल्लंघनीय नियमों को (एथिकल इंपरेटिव) पहचानकर चलने पर मनुष्य अपनी इंद्रियों की भूख का दमन कर सकता है। मनुष्य की इच्छा स्वतंत्र है। उसका कुछ कर्तव्य है, अत: वह करता है। कर्तव्य-कर्तव्य के लिए है। कर्तव्य का अन्य कोई लक्ष्य नहीं है। निर्विकार भाव से कर्तव्यपथ पर चलनेवाले व्यक्ति को सच्चे आनंद की प्राप्ति होनी चाहिए, किंतु इस संसार में कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति को आनंद की प्राप्ति आवश्यक नहीं है। अत: कांट के अनुसार भी वास्तविक आनंद सांसारिक नहीं, कर्तव्यपालन से उत्पन्न पारमार्थिक आनंद ही पूर्ण आनंद है। .

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कार्ल मार्क्स

कार्ल हेनरिख मार्क्स (1818 - 1883) जर्मन दार्शनिक, अर्थशास्त्री और वैज्ञानिक समाजवाद का प्रणेता थे। इनका जन्म 5 मई 1818 को त्रेवेस (प्रशा) के एक यहूदी परिवार में हुआ। 1824 में इनके परिवार ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया। 17 वर्ष की अवस्था में मार्क्स ने कानून का अध्ययन करने के लिए बॉन विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। तत्पश्चात्‌ उन्होंने बर्लिन और जेना विश्वविद्यालयों में साहित्य, इतिहास और दर्शन का अध्ययन किया। इसी काल में वह हीगेल के दर्शन से बहुत प्रभावित हुए। 1839-41 में उन्होंने दिमॉक्रितस और एपीक्यूरस के प्राकृतिक दर्शन पर शोध-प्रबंध लिखकर डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। शिक्षा समाप्त करने के पश्चात्‌ 1842 में मार्क्स उसी वर्ष कोलोन से प्रकाशित 'राइनिशे जीतुंग' पत्र में पहले लेखक और तत्पश्चात्‌ संपादक के रूप में सम्मिलित हुआ किंतु सर्वहारा क्रांति के विचारों के प्रतिपादन और प्रसार करने के कारण 15 महीने बाद ही 1843 में उस पत्र का प्रकाशन बंद करवा दिया गया। मार्क्स पेरिस चला गया, वहाँ उसने 'द्यूस फ्रांजोसिश' जारबूशर पत्र में हीगेल के नैतिक दर्शन पर अनेक लेख लिखे। 1845 में वह फ्रांस से निष्कासित होकर ब्रूसेल्स चला गया और वहीं उसने जर्मनी के मजदूर सगंठन और 'कम्युनिस्ट लीग' के निर्माण में सक्रिय योग दिया। 1847 में एजेंल्स के साथ 'अंतराष्ट्रीय समाजवाद' का प्रथम घोषणापत्र (कम्युनिस्ट मॉनिफेस्टो) प्रकाशित किया 1848 में मार्क्स ने पुन: कोलोन में 'नेवे राइनिशे जीतुंग' का संपादन प्रारंभ किया और उसके माध्यम से जर्मनी को समाजवादी क्रांति का संदेश देना आरंभ किया। 1849 में इसी अपराघ में वह प्रशा से निष्कासित हुआ। वह पेरिस होते हुए लंदन चला गया जीवन पर्यंत वहीं रहा। लंदन में सबसे पहले उसने 'कम्युनिस्ट लीग' की स्थापना का प्रयास किया, किंतु उसमें फूट पड़ गई। अंत में मार्क्स को उसे भंग कर देना पड़ा। उसका 'नेवे राइनिश जीतुंग' भी केवल छह अंको में निकल कर बंद हो गया। कोलकाता, भारत 1859 में मार्क्स ने अपने अर्थशास्त्रीय अध्ययन के निष्कर्ष 'जुर क्रिटिक दर पोलिटिशेन एकानामी' नामक पुस्तक में प्रकाशित किये। यह पुस्तक मार्क्स की उस बृहत्तर योजना का एक भाग थी, जो उसने संपुर्ण राजनीतिक अर्थशास्त्र पर लिखने के लिए बनाई थी। किंतु कुछ ही दिनो में उसे लगा कि उपलब्ध साम्रगी उसकी योजना में पूर्ण रूपेण सहायक नहीं हो सकती। अत: उसने अपनी योजना में परिवर्तन करके नए सिरे से लिखना आंरभ किया और उसका प्रथम भाग 1867 में दास कैपिटल (द कैपिटल, हिंदी में पूंजी शीर्षक से प्रगति प्रकाशन मास्‍को से चार भागों में) के नाम से प्रकाशित किया। 'द कैपिटल' के शेष भाग मार्क्स की मृत्यु के बाद एंजेल्स ने संपादित करके प्रकाशित किए। 'वर्गसंघर्ष' का सिद्धांत मार्क्स के 'वैज्ञानिक समाजवाद' का मेरूदंड है। इसका विस्तार करते हुए उसने इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या और बेशी मूल्य (सरप्लस वैल्यू) के सिद्धांत की स्थापनाएँ कीं। मार्क्स के सारे आर्थिक और राजनीतिक निष्कर्ष इन्हीं स्थापनाओं पर आधारित हैं। 1864 में लंदन में 'अंतरराष्ट्रीय मजदूर संघ' की स्थापना में मार्क्स ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। संघ की सभी घोषणाएँ, नीतिश् और कार्यक्रम मार्क्स द्वारा ही तैयार किये जाते थे। कोई एक वर्ष तक संघ का कार्य सुचारू रूप से चलता रहा, किंतु बाकुनिन के अराजकतावादी आंदोलन, फ्रांसीसी जर्मन युद्ध और पेरिस कम्यूनों के चलते 'अंतरराष्ट्रीय मजदूर संघ' भंग हो गया। किंतु उसकी प्रवृति और चेतना अनेक देशों में समाजवादी और श्रमिक पार्टियों के अस्तित्व के कारण कायम रही। 'अंतरराष्ट्रीय मजदूर संघ' भंग हो जाने पर मार्क्स ने पुन: लेखनी उठाई। किंतु निरंतर अस्वस्थता के कारण उसके शोधकार्य में अनेक बाधाएँ आईं। मार्च 14, 1883 को मार्क्स के तूफानी जीवन की कहानी समाप्त हो गई। मार्क्स का प्राय: सारा जीवन भयानक आर्थिक संकटों के बीच व्यतीत हुआ। उसकी छह संतानो में तीन कन्याएँ ही जीवित रहीं। .

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एपिकुरुस और लुक्रेतिउस के बीच तुलना

एपिकुरुस 12 संबंध है और लुक्रेतिउस 9 है। वे आम 2 में है, समानता सूचकांक 9.52% है = 2 / (12 + 9)।

संदर्भ

यह लेख एपिकुरुस और लुक्रेतिउस के बीच संबंध को दर्शाता है। जानकारी निकाला गया था, जिसमें से एक लेख का उपयोग करने के लिए, कृपया देखें:

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