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उदरपाद और क्रम-विकास

शॉर्टकट: मतभेद, समानता, समानता गुणांक, संदर्भ

उदरपाद और क्रम-विकास के बीच अंतर

उदरपाद vs. क्रम-विकास

कुछ उदरपादों के वाह्य आवरण ''हेलिक्स अस्पर्सा (Helix aspersa) - बाग-बगीचों का आम घोंघा उदरपाद (गैस्ट्रोपोडा) मोलस्का समुदाय में सबसे अधिक विकसित जंतु हैं। इनके शरीर सममित नहीं होते। प्रावार (मैंटल) दो टुकड़ों में विभाजित नहीं रहता, इसलिए खोल भी दो पार्श्वीय कपाटिकाओं का नहीं वरन् एक ही असममित कपाटिका का बना हुआ रहता है। यह कपाटिका साधारणत: सर्पिल आकृति में कुंडलीकृत होती है। इसके भीतर स्थित जंतु के शरीर का पृष्ठीय भाग भी, जिसमें आंतरंग (विसरा) का अधिकांश भाग रहता है और जिसे आंतरंग कुब्ब कहते हैं, सर्पिल आकृति में कुडलीकृत रहता है। शरीर ऊपर से नीची दिशा में चपटा रहता है। प्रावारीय गुहा में दो गलफड़ स्थित रहते हैं। बहुतों में केवल एक ही गलफड़ होता है। अधिकांश में एक शिर भी होता है जिसमें आकर्षणांग स्थित रहते हैं। शिर के पीछे अच्छी प्रकार से उन्नत एक औदरिक पैर रहता है। पैर का औदरिक तल चपटा, चौड़ा और बहुत फैला रहता है। वक्त्रगुहा में एक विशेष अवयव रहता है जिसको दंतवाही (ओडोंटोफ़ोर) कहते हैं। यह नन्हें नन्हें दाँतों के सदृश अवयव का आधार होता है। वृक्क केवल एक होता है। चेतासंहति में छह जोड़ी चेतागुच्छ पाए जाते हैं। उदरपाद एकलिंगों या उभयलिंगी हो सकते हैं। कृमिवर्धन में रूपांतरण का दृश्य भी देखने में आता है। उदरपाद अधिकतर पानी में रहते हैं। इनकी आदिम जातियाँ समुद्रों में रहती हैं। ये समुद्र के पृष्ठ पर रेंगती हैं, कुछ कीचड़ या बालू में घर बनाती हैं या चट्टानों में छेद करती हैं। कुछ ऐसे भी उदरपाद हैं जो समुद्र के पृष्ठ पर उलटे रहकर तैरते हैं; विशेषकर टेरोपॉड और हेटेरोपॉड, जिनके पैर मछली के पक्षों (फ़िन्स) के समान होते हैं, खुले समुद्र के पृष्ठ पर तैरते देखे जाते हैं। उदरपाद समुद्र में १८,०० फुट की गहराई तक पाए जाते हैं। बहुतेरे उदरपाद मीठे जल में भी रहते हैं। पलमोनेट नामक उदरपाद स्थल और ऊँचे ऊँचे पहाड़ों पर भी पाए जाते हैं। निम्न केंब्रियन युग के बहुतेरे जीवाश्मभूत उदरपादों का भी पता चला है। घोंघा (स्नेल), मंथर (स्लग), पैरैला, एपलीशिया तथा ट्राइटन उदरपादों के मुख्य उदाहरण हैं। घोंघा और मंथर मनुष्य के भोजन के लिए उपयुक्त होते हैं। कुछ जंतु उद्यानों में पौधों को हानि पहुँचाते हैं। अनेक उदरपादों के खोलों से अलंकार, यंत्र तथा बरतन बनते हैं। कौड़ियों का पहले मुद्रा या सिक्के के रूप में प्रयोग होता था। शंख, जो मंदिरों में बजाया जाता है, एक विशेष उदरपाद की खोल है। . आनुवांशिकता का आधार डीएनए, जिसमें परिवर्तन होने पर नई जातियाँ उत्पन्न होती हैं। क्रम-विकास या इवोलुशन (English: Evolution) जैविक आबादी के आनुवंशिक लक्षणों के पीढ़ी दर पीढ़ी परिवर्तन को कहते हैं। क्रम-विकास की प्रक्रियायों के फलस्वरूप जैविक संगठन के हर स्तर (जाति, सजीव या कोशिका) पर विविधता बढ़ती है। पृथ्वी के सभी जीवों का एक साझा पूर्वज है, जो ३.५–३.८ अरब वर्ष पूर्व रहता था। इसे अंतिम सार्वजानिक पूर्वज कहते हैं। जीवन के क्रम-विकासिक इतिहास में बार-बार नयी जातियों का बनना (प्रजातिकरण), जातियों के अंतर्गत परिवर्तन (अनागेनेसिस), और जातियों का विलुप्त होना (विलुप्ति) साझे रूपात्मक और जैव रासायनिक लक्षणों (जिसमें डीएनए भी शामिल है) से साबित होता है। जिन जातियों का हाल ही में कोई साझा पूर्वज था, उन जातियों में ये साझे लक्षण ज्यादा समान हैं। मौजूदा जातियों और जीवाश्मों के इन लक्षणों के बीच क्रम-विकासिक रिश्ते (वर्गानुवंशिकी) देख कर हम जीवन का वंश वृक्ष बना सकते हैं। सबसे पुराने बने जीवाश्म जैविक प्रक्रियाओं से बने ग्रेफाइट के हैं, उसके बाद बने जीवाश्म सूक्ष्मजीवी चटाई के हैं, जबकि बहुकोशिकीय जीवों के जीवाश्म बहुत ताजा हैं। इस से हमें पता चलता है कि जीवन सरल से जटिल की तरफ विकसित हुआ है। आज की जैव विविधता को प्रजातिकरण और विलुप्ति, दोनों द्वारा आकार दिया गया है। पृथ्वी पर रही ९९ प्रतिशत से अधिक जातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं। पृथ्वी पर जातियों की संख्या १ से १.४ करोड़ अनुमानित है। इन में से १२ लाख प्रलेखित हैं। १९ वीं सदी के मध्य में चार्ल्स डार्विन ने प्राकृतिक वरण द्वारा क्रम-विकास का वैज्ञानिक सिद्धांत दिया। उन्होंने इसे अपनी किताब जीवजाति का उद्भव (१८५९) में प्रकाशित किया। प्राकृतिक चयन द्वारा क्रम-विकास की प्रक्रिया को निम्नलिखित अवलोकनों से साबित किया जा सकता है: १) जितनी संतानें संभवतः जीवित रह सकती हैं, उस से अधिक पैदा होती हैं, २) आबादी में रूपात्मक, शारीरिक और व्यवहारिक लक्षणों में विविधता होती है, ३) अलग-अलग लक्षण उत्तर-जीवन और प्रजनन की अलग-अलग संभावना प्रदान करते हैं, और ४) लक्षण एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी को दिए जाते हैं। इस प्रकार, पीढ़ी दर पीढ़ी आबादी उन शख़्सों की संतानों द्वारा प्रतिस्थापित हो जाती है जो उस बाईओफीसिकल परिवेश (जिसमें प्राकृतिक चयन हुआ था) के बेहतर अनुकूलित हों। प्राकृतिक वरण की प्रक्रिया इस आभासी उद्देश्यपूर्णता से उन लक्षणों को बनती और बरकरार रखती है जो अपनी कार्यात्मक भूमिका के अनुकूल हों। अनुकूलन का प्राकृतिक वरण ही एक ज्ञात कारण है, लेकिन क्रम-विकास के और भी ज्ञात कारण हैं। माइक्रो-क्रम-विकास के अन्य गैर-अनुकूली कारण उत्परिवर्तन और जैनेटिक ड्रिफ्ट हैं। .

उदरपाद और क्रम-विकास के बीच समानता

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उदरपाद और क्रम-विकास के बीच तुलना

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संदर्भ

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