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ईसाई मत में ईश्वर और हिन्दू धर्म

शॉर्टकट: मतभेद, समानता, समानता गुणांक, संदर्भ

ईसाई मत में ईश्वर और हिन्दू धर्म के बीच अंतर

ईसाई मत में ईश्वर vs. हिन्दू धर्म

बाइबिल में कहीं भी ईश्वर के स्वरूप का दार्शनिक विवेचन तो नहीं मिलता किंतु मनुष्यों के साथ ईश्वर के व्यवहार का जो इतिहास इसमें प्रस्तुत किया गया है उसपर ईश्वर के अस्तित्व तथा उसके स्वरूप के विषय में ईसाइयों की धारण आधारित है। (१) बाइबिल के पूर्वार्ध का वर्ण्य विषय संसार की सृष्टि तथा यहूदियों का धार्मिक इतिहास है। उससे ईश्वर के विषय में निम्नलिखित शिक्षा मिलती है: एक ही ईश्वर है- अनादि और अनंत; सर्वशक्तिमान और अपतिकार्य, विश्व का सृष्टिकर्ता, मनुष्य मात्र का आराध्य। वह सृष्ट संसार के परे होकर उससे अलग है तथा साथ-साथ अपनी शक्ति से उसमें व्याप्त भी रहता है। कोई मूर्ति उसका स्वरूप व्यक्त करने में असमर्थ है। वह परमपावन होकर मनुष्य को पवित्र बनने का आदेश देता है, मनुष्य ईश्वरीय विधान ग्रहण कर ईश्वर की आराधना करे तथा ईश्वर के नियमानुसार अपना जीवन बितावे। जो ऐसा नहीं करता वह परलोक में दंडित होगा क्योंकि ईश्वर सब मनुष्यों का उनके कर्मों के अनुसार न्याय करेगा। पाप के कारण मनुष्य की दुर्गति देखकर ईश्वर ने प्रारंभ से ही मुक्ति की प्रतिज्ञा की थी। उस मुक्ति का मार्ग तैयार करने के लिए उसने यहूदी जाति को अपनी ही प्रजा के रूप में ग्रहण किया तथा बहुत से नबियों को उत्पन्न करके उस जाति में शुद्ध एकेश्वरवाद बनाए रखा। यद्यपि बाइबिल के पूर्वार्ध में ईश्वर का परमपावन न्यायकर्ता का रूप प्रधान है, तथापि यहूदी जाति के साथ उसके व्यवहार के वर्णन में ईश्वर की दयालुता तथा सत्यप्रतिज्ञा पर भी बहुत ही बल दिया गया है। (२) बाइबिल के उत्तरार्ध से पता चलता है कि ईसा ने ईश्वर के स्वरूप के विषय में एक नए रहस्य का उद्घाटन किया है। ईश्वर तिर्यकू है, अर्थात् एक ही ईश्वर में तीन व्यक्ति हैं- पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा। तीनों समान रूप से अनादि, अनंत और सर्वशक्तिमान् हैं क्योंकि वे तत्वत: एक हैं। ईश्वर के आभ्यंतर जीवन का वास्तविक स्वरूप है-पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा का अनर्विचनीय प्रेम। प्रेम से ही प्रेरित होकर ईश्वर ने मनुष्य को अपने आभ्यंतर जीवन का भागी बनाने के उद्देश्य से उसकी सृष्टि की थी किंतु प्रथम मनुष्य ने ईश्वर की इस योजना को ठुकरा दिया जिससे संसार में पाप का प्रवेश हुआ। मनुष्यों को पाप से मुक्त करने के लिए ईश्वर ईसा में अवतरित हुआ जिससे ईश्वर का प्रेम और स्पष्ट रूप से परिलिक्षित होता है। ईसा ने क्रूस पर मरकर मानव जाति के सब पापों का प्रायश्चित किया तथा मनुष्य मात्र के लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर दिया। जो कोई सच्चे हृदय से पछतावा करे वह ईसा के पुण्यफलों द्वारा पापक्षमा प्राप्त कर सकता है और अनंतकाल तक पिता-पुत्र-पवित्र आत्मा के आभ्यंतर जीवन का साझी बन सकता है। इस प्रकार ईश्वर का वास्तविक स्वरूप प्रेम ही है। मनुष्य की दृष्टि से वह दयालु पिता है जिसके प्रति प्रेमपूर्ण आत्मसमर्पण होना चाहिए। बाइबिल के उत्तरार्ध में ईश्वर को लगभग ३०० बार 'पिता' कहकर पुकारा गया है। (३) बाइबिल के आधार पर ईसाइयों का विश्वास है कि मनुष्य अपनी बुद्धि के बल पर भी ईश्वर का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। अपूर्ण होते हुए भी यह ज्ञान प्रामाणिक ही है। ईसाई धर्म का किसी एक दर्शन के साथ अनिवार्य संबंध तो नहीं है, किंतु ऐतिहासिक परिस्थितियों के फलस्वरूप ईसाई तत्वज्ञ प्राय: अफलातून अथवा अरस्तू के दर्शन का सहारा लेकर ईश्वरवाद का प्रतिपादन करते हैं। ईश्वर का अस्तित्व प्राय: कार्य-कारण-संबंध के आधार पर प्रमाणित किया जाता है। ईश्वर निर्गुण, अमूर्त, अभौतिक है। वह परिवर्तनीय, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, अनंत और अनादि है। वह सृष्टि के परे होते हुए भी इसमें व्याप्त रहता है; वह अंतर्यामी है। ईसाई दार्शनिक एक ओर तो सर्वेश्वरवाद तथा अद्वैत का विरोध करते हुए सिखलाते हैं कि समस्त सृष्टि (अत: जीवात्मा भी) तत्वत: ईश्वर से भिन्न है, दसूरी ओर वे अद्वैत को भी पूर्ण रूप से ग्रहण नहीं सकते, क्योंकि उनकी धारणा है कि समस्त सृष्टि अपने अस्तित्व के लिए निरंतर ईश्वर पर निर्भर रहती है। . हिन्दू धर्म (संस्कृत: सनातन धर्म) एक धर्म (या, जीवन पद्धति) है जिसके अनुयायी अधिकांशतः भारत,नेपाल और मॉरिशस में बहुमत में हैं। इसे विश्व का प्राचीनतम धर्म कहा जाता है। इसे 'वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म' भी कहते हैं जिसका अर्थ है कि इसकी उत्पत्ति मानव की उत्पत्ति से भी पहले से है। विद्वान लोग हिन्दू धर्म को भारत की विभिन्न संस्कृतियों एवं परम्पराओं का सम्मिश्रण मानते हैं जिसका कोई संस्थापक नहीं है। यह धर्म अपने अन्दर कई अलग-अलग उपासना पद्धतियाँ, मत, सम्प्रदाय और दर्शन समेटे हुए हैं। अनुयायियों की संख्या के आधार पर ये विश्व का तीसरा सबसे बड़ा धर्म है। संख्या के आधार पर इसके अधिकतर उपासक भारत में हैं और प्रतिशत के आधार पर नेपाल में हैं। हालाँकि इसमें कई देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, लेकिन वास्तव में यह एकेश्वरवादी धर्म है। इसे सनातन धर्म अथवा वैदिक धर्म भी कहते हैं। इण्डोनेशिया में इस धर्म का औपचारिक नाम "हिन्दु आगम" है। हिन्दू केवल एक धर्म या सम्प्रदाय ही नहीं है अपितु जीवन जीने की एक पद्धति है। .

ईसाई मत में ईश्वर और हिन्दू धर्म के बीच समानता

ईसाई मत में ईश्वर और हिन्दू धर्म आम में 2 बातें हैं (यूनियनपीडिया में): ईश्वर, अद्वैत वेदान्त

ईश्वर

यह लेख पारलौकिक शक्ति ईश्वर के विषय में है। ईश्वर फ़िल्म के लिए ईश्वर (1989 फ़िल्म) देखें। यह लेख देवताओं के बारे में नहीं है। ---- परमेश्वर वह सर्वोच्च परालौकिक शक्ति है जिसे इस संसार का स्रष्टा और शासक माना जाता है। हिन्दी में परमेश्वर को भगवान, परमात्मा या परमेश्वर भी कहते हैं। अधिकतर धर्मों में परमेश्वर की परिकल्पना ब्रह्माण्ड की संरचना से जुडी हुई है। संस्कृत की ईश् धातु का अर्थ है- नियंत्रित करना और इस पर वरच् प्रत्यय लगाकर यह शब्द बना है। इस प्रकार मूल रूप में यह शब्द नियंता के रूप में प्रयुक्त हुआ है। इसी धातु से समानार्थी शब्द ईश व ईशिता बने हैं। .

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अद्वैत वेदान्त

अद्वैत वेदान्त वेदान्त की एक शाखा। अहं ब्रह्मास्मि अद्वैत वेदांत यह भारत में प्रतिपादित दर्शन की कई विचारधाराओँ में से एक है, जिसके आदि शंकराचार्य पुरस्कर्ता थे। भारत में परब्रह्म के स्वरूप के बारे में कई विचारधाराएं हैँ। जिसमें द्वैत, अद्वैत या केवलाद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत जैसी कई सैद्धांतिक विचारधाराएं हैं। जिस आचार्य ने जिस रूप में ब्रह्म को जाना उसका वर्णन किया। इतनी विचारधाराएं होने पर भी सभी यह मानते है कि भगवान ही इस सृष्टि का नियंता है। अद्वैत विचारधारा के संस्थापक शंकराचार्य हैं, जिसे शांकराद्वैत या केवलाद्वैत भी कहा जाता है। शंकराचार्य मानते हैँ कि संसार में ब्रह्म ही सत्य है। बाकी सब मिथ्या है (ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या)। जीव केवल अज्ञान के कारण ही ब्रह्म को नहीं जान पाता जबकि ब्रह्म तो उसके ही अंदर विराजमान है। उन्होंने अपने ब्रह्मसूत्र में "अहं ब्रह्मास्मि" ऐसा कहकर अद्वैत सिद्धांत बताया है। वल्लभाचार्य अपने शुद्धाद्वैत दर्शन में ब्रह्म, जीव और जगत, तीनों को सत्य मानते हैं, जिसे वेदों, उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र, गीता तथा श्रीमद्भागवत द्वारा उन्होंने सिद्ध किया है। अद्वैत सिद्धांत चराचर सृष्टि में भी व्याप्त है। जब पैर में काँटा चुभता है तब आखोँ से पानी आता है और हाथ काँटा निकालनेके लिए जाता है। ये अद्वैत का एक उत्तम उदाहरण है। शंकराचार्य का ‘एकोब्रह्म, द्वितीयो नास्ति’ मत था। सृष्टि से पहले परमब्रह्म विद्यमान थे। ब्रह्म सत और सृष्टि जगत असत् है। शंकराचार्य के मत से ब्रह्म निर्गुण, निष्क्रिय, सत-असत, कार्य-कारण से अलग इंद्रियातीत है। ब्रह्म आंखों से नहीं देखा जा सकता, मन से नहीं जाना जा सकता, वह ज्ञाता नहीं है और न ज्ञेय ही है, ज्ञान और क्रिया के भी अतीत है। माया के कारण जीव ‘अहं ब्रह्म’ का ज्ञान नहीं कर पाता। आत्मा विशुद्ध ज्ञान स्वरूप निष्क्रिय और अनंत है, जीव को यह ज्ञान नहीं रहता। .

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ईसाई मत में ईश्वर और हिन्दू धर्म के बीच तुलना

ईसाई मत में ईश्वर 12 संबंध है और हिन्दू धर्म 113 है। वे आम 2 में है, समानता सूचकांक 1.60% है = 2 / (12 + 113)।

संदर्भ

यह लेख ईसाई मत में ईश्वर और हिन्दू धर्म के बीच संबंध को दर्शाता है। जानकारी निकाला गया था, जिसमें से एक लेख का उपयोग करने के लिए, कृपया देखें:

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