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ईश्वर (भारतीय दर्शन) और न्यायकुसुमाञ्जलि

शॉर्टकट: मतभेद, समानता, समानता गुणांक, संदर्भ

ईश्वर (भारतीय दर्शन) और न्यायकुसुमाञ्जलि के बीच अंतर

ईश्वर (भारतीय दर्शन) vs. न्यायकुसुमाञ्जलि

ईश्वर शब्द भारतीय दर्शन तथा अध्यात्म शास्त्रों में जगत् की सृष्टि, स्थिति और संहारकर्ता, जीवों को कर्मफलप्रदाता तथा दु:खमय जगत् से उनके उद्धारकर्ता के अर्थ में प्रयुक्त होता है। कभी-कभी वह गुरु भी माना गया है। न्यायवैशेषिकादि शास्त्रों का प्राय: यही अभिप्राय है- एको विभु: सर्वविद् एकबुद्धिसमाश्रय:। शाश्वत ईश्वराख्य:। प्रमाणमिष्टो जगतो विधाता स्वर्गापवर्गादि। पातंजल योगशास्त्र में भी ईश्वर परमगुरु या विश्वगुरु के रूप में माना गया है। इस मत में जीवों के लिए तारकज्ञानप्रदाता ईश्वर ही है। परन्तु जगत् का सृष्टिकर्ता वह नहीं है। इस मत में सृष्टि आदि व्यापार प्रकृतिपुरुष के संयोग से स्वभावत: होते हैं। ईश्वर की उपाधि प्रकृष्ट सत्व है। यह षड्विंशतत्व (२६) रूप पुरुषविशेष के नाम से प्रसिद्ध है। अविद्या आदि पाँच कलेश, शुभाशुभ कर्म, जाति, आयु और भोग का विपाक तथा आशय का संस्कार ईश्वर का स्पर्श नहीं कर सकते। पंचविंशतत्व रूप पुरुषतत्व से वह विलक्षण है। वह सदा मुक्त और सदा ही ऐश्वर्यसंपन्न है। निरीश्वर सांख्यों के मत में नित्यसिद्धि ईश्वर स्वीकृत नहीं है, परंतु उस मत में नित्येश्वर को स्वीकार न होने पर भी कार्येश्वर की सत्ता मानी जाती है। पुरुष विवेकख्याति का लाभ किए बिना ही वैराग्य के प्रकर्ष से जब प्रकृतिलीन हो जाता है तब उसे कैवल्यलाभ नहीं होता और उसका पुन: उद्भव अभिनव सृष्टि में होता है। प्रलयावस्था के अनन्तर वह पुरुष उद्बुद्ध होकर सर्वप्रथम सृष्टि के ऊर्ध्व में बुद्धिस्थरूप में प्रकाश को प्राप्त होता है। वह सृष्टि का अधिकारी पुरुष है और अस्मिता समाधि में स्थित रहता है। योगी, 'अस्मिता' नामक संप्रज्ञात समाधि में उसी के साथ तादात्म्य लाभ करते हैं। उसका ऐश्वरिक जीवन अधिकार संपद् रूपी जीवन्मुक्ति की ही एक विशेष अवस्था है। प्रारब्ध की समाप्ति पर उसकी कैवल्यमुक्ति हो जाती है। नैयायिक या वैशेषिकसंमत ईश्वर आत्मरूपी द्रव्य है और वह सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिसंपन्न परमात्मा के नाम से अभिहित है। उसकी इच्छादि शक्तियाँ भी अनन्त हैं। वह सृष्टि का निमित्त कारण है। परमाणु पुंज सृष्टि के उपादान कारण हैं। मीमांसक ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते। वे भेद को अपौरुषेय मानते हैं और जगत् की सामूहिक सृष्टि तथा प्रलय भी स्वीकार नहीं करते। उक्त मत में ईश्वर का स्थान न सृष्टिकर्ता के रूप में है और न ज्ञानदाता के रूप में। वेदान्त में ईश्वर सगुण ब्रह्म का ही नामांतर है। ब्रह्म विशुद्ध चिदानंदस्वरूप निरुपाधि तथा निर्गुण है। मायोपहित दशा में ही चैतन्य को ईश्वर कहा जाता है। चैतन्य का अविद्या से योग होने पर वह जीव हो जाता हे। वेदांत में विभिन्न दृष्टिकोणों के अनुसार ब्रह्म, ईश्वर तथा जीवतत्व के विषय में अवच्छेदवाद, प्रतिबिंबवाद, आभासवाद आदि मत स्वीकार किए गए हैं। उनके अनुसार ईश्वरकल्पना में भी भेद हैं। शैव मत में शिव को नित्यसिद्ध ईश्वर या महेश्वर कहा जाता है। वह स्वरूपत: चिदात्मक हैं और चित्-शक्ति-संपन्न हैं। उनमें सब शक्तियाँ निहित हैं। बिंदुरूप माया को उपादान रूप में ग्रहण कर शिव शुद्ध जगत् का निर्माण करते हैं। इसमें साक्षात्कर्तृत्व ईश्वर का ही है। तदुपरांत शिव माया के उपादान से अशुद्ध जगत् की रचना करते हैं, किंतु उसकी रचना साक्षात् उनके द्वारा नहीं होती, बल्कि अनन्त आदि विद्येश्वरों द्वारा परम्परा से होती है। ये विद्येश्वर सांख्य के कार्येश्वर के सदृश हैं, परमेश्वर के तुल्य नहीं। विज्ञानाकल नामक चिदणु माया तत्व का भेद कर उसके ऊपर विदेह तथा विकरण दशा में विद्यमान रहते हैं। ये सभी प्रकृति तथा माया से आत्मस्वरूप का भेदज्ञान प्राप्त कर कैवल्य अवस्था में विद्यमान रहते हैं। परंतु आणव मल या पशुत्व के निवृत्त न होने के कारण ये माया से मुक्त होकर भी शिवत्वलाभ नहीं कर पाते। परमेश्वर इस मल के परिपक्व होने पर उसके अनुसार श्रेष्ठ अधिकारियों पर अनुग्रह का संचार कर उन्हें बैंदव देह प्रदान कर ईश्वर पद पर स्थापित कर सृष्टि आदि पंचकृत्यों के संपादन का अधिकार भी प्रदान करता है। ऐसे ही अधिकारी ईश्वर होते हैं। इनमें जो प्रधान होते हैं वे ही व्यवहारजगत् में ईश्वर कहे जाते हैं। यह ईश्वर माया को क्षुब्ध कर मायिक उपादानों से ही अशुद्ध जगत् का निर्माण करता है और योग्य जीवों का अनुग्रहपूर्वक उद्धार करता है। ये ईश्वर अपना-अपना अधिकार समाप्त कर शिवत्वलाभ करते हैं। निरीश्वर सांख्य के समस्त कार्येश्वर और यहाँ के मायाधिष्ठाता ईश्वर प्राय: एक ही प्रकार के हैं। इस अंश में द्वैत तथा अद्वैत शैव मत में विशेष भेद नहीं है। भेद इतना ही है कि द्वैत मतों में परमेश्वर सृष्टि का निमित्त या कर्ता है, उसकी चित्शक्ति कारण है और बिंदु उपादान है। कार्येश्वर भी प्राय: उसी प्रकार का है- ईश्वर निमित्त रूप से कर्ता है, वामादि नौ शक्तियाँ उसकी कारण हैं तथा माया उपादान है। अद्वैत मत में निमित्त और उपादान दोनों अभिन्न हैं, जैसा अद्वैत वेदांत में है। वैष्णव संप्रदाय के रामानुज मत में ईश्वर चित् तथा अचित् दो तत्वों से विशिष्ट है। ईश्वर अंगी है और चित् तथा अचित् उसके अंग हैं। दोनों ही नित्य हैं। ईश्वर का ज्ञान, ऐश्वर्य, मंगलमय गुणावली तथा श्रीविग्रह सभी नित्य हैं। ये सभी अप्राकृत सत्वमय हैं। किसी मत में वह चिदानंदमय है। गौडीय मत में ईश्वर सच्चिदानंदमय है और उसका विग्रह भी वैसा ही है। उसकी शक्तियाँ अंतरंग, बहिरंग और तटस्थ भेद से तीन प्रकार की है। अंतरंग शक्ति सत्, आनंद के अनुरूप संधिनीसंवित तथा ह्लादिनीरूपा है। तटस्थ शक्ति जीवरूपा है। बहिरंगाशक्ति मायारूपा है। उसका स्वरूप अद्वय ज्ञानतत्व है। परंतु ज्ञानी की दृष्टि से उसे अव्यक्तशक्ति ब्रह्म माना जाता है। योगी की दृष्टि से उसे परमात्मा कहा जाता है तथा भक्त की दृष्टि से भगवान् कहा जाता है, क्योंकि उसमें सब शक्तियों की पूर्ण अभिव्यक्ति रहती हे। इस मत में भी कार्यमात्र के प्रति ईश्वर निमित्त तथा उपादान दोनों ही माना जाता है। ईश्वर चित्, अचित्, शरीरी और विभु है। उसका स्वरूप, धर्मभूत ज्ञान तथा विग्रह सभी विभु हैं। देश, काल तथा वस्तु का परिच्छेद, उसमें नहीं है। वह सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिसंपन्न है। वात्सल्य, औदार्य, कारुण्य, सौंदर्य आदि गुण उसमें सदा वर्तमान हैं। श्रीसंप्रदाय के अनुसार ईश्वर के पाँच रूप हैं- पर, व्यूह, विभव, अंतर्यामी और अर्चावतार। परमात्मा के द्वारा माया शक्ति में ईक्षण करने पर माया से जगत् की उत्पत्ति होती है। वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्व वस्तुत: परमात्मा के ही चार रूप हैं। ये चार व्यूह श्रीसंप्रदाय के अनुसार ही गौड़ीय संप्रदाय में भी माने जाते हैं। वासुदेव, षाड्गुण्य विग्रह हैं परंतु संकर्षणादि में दो ही गुण हैं। इस मत के अनुसार भगवान् के पूर्ण रूप स्वयं श्रीकृष्ण हैं और उनके विलास नारायणरूपी भगवान् हैं, परंतु गुणों की न्यूनता रहती है। प्रकाश में स्वरूप तथा गुण दोनों ही समान रहते हैं। गीता के अनुसार ईश्वर पुरुषोत्तम या उत्तम पुरुष कहा जाता है। वही परमात्मा है। क्षर और अक्षर पुरुषों से वह श्रेष्ठ है। उसके परमधाम में जिसकी गति होती है उसका फिर प्रत्यावर्तन नहीं होता। वह धाम स्वयंप्रकाश है। वहाँ चंद्र, सूर्य आदि का प्रकाश काम नहीं देता। सब भूतों के हृदय में वह परमेश्वर स्थित है और वही नियामक है। प्राचीन काल से ही ईश्वरतत्व के विषय में विभिन्न ग्रंथों की रचना होती आई है। उनमें से विचारदृष्टि से श्रेष्ठ ग्रंथों में उदयनाचार्य की न्यायकुसुमांजलि है। इस ग्रंथ में पाँच स्तवक या विभाग हैं। इसमें युक्तियों के साथ ईश्वर की सत्ता प्रमाणित की गई है। चार्वाक, मीमांसक, जैन तथा बौद्ध ये सभी संप्रदाय ईश्वरतत्व को नहीं मानते। न्यायकुसुमांजलि में नैयायिक दृष्टिकोण के अनुसार उक्त दर्शनों की विरोधी युक्तियों का खंडन किया गया हे। उदयन के बाद गंगेशोपाध्याय ने भी तत्वचिंतामणि में ईश्वरानुमान के विषय में आलोचना की है। इसके अनंतर हरिदास तर्कवागीश, महादेव पुणतांबेकर आदि ने ईश्वरवाद पर छोटी-छोटी पुस्तकें लिखी हैं। रामानुज संप्रदाय में यामुन मुनि के सिद्धित्रय में ईश्वरसिद्धि एक प्रकरण है। लोकाचार्य के तत्वत्रय में तथा वेदांतदेशिक के तत्वमुक्ताकलाप, न्यायपरिशुद्धि आदि में भी ईश्वरसिद्धि विवेचित है। यह प्रसिद्धि है कि खंडनखंडकार श्रीहर्ष ने भी 'ईश्वरसिद्धि' नामक कोई ग्रंथ लिखा था। शैव संप्रदाय में नरेश्वरपरीक्षा प्रसिद्ध ग्रंथ है। प्रत्यभिज्ञा दर्शन में ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी का स्थान भी अति उच्च है। इसके मूल में उत्पलाचार्य की कारिकाएँ हैं और उनपर अभिनवगुप्तादि विशिष्ट विद्वानों की टिप्पणियाँ तथा व्याख्याएँ हैं। बौद्ध तथा जैन संप्रदायों ने अपने विभिन्न ग्रंथों से ईश्वरवाद के खंडन का प्रयत्न किया है। ये लोग ईश्वर को नहीं मानते थे किन्तु सर्वज्ञ को मानते थे। इसीलिए ईश्वरतत्व का खंडन कर सर्वज्ञ सिद्धि के लिए इन संप्रदायों द्वारा ग्रंथ लिखे गए। महापंडित रत्नकीर्ति का 'ईश्वर-साधन-दूषण' और उनके गुरु गौड़ीय ज्ञानश्री का 'ईश्वरवाददूषण' तथा 'वार्तिक शतश्लोकी' व्याख्यान प्रसिद्ध हैं। ज्ञानश्री विक्रमशील विहार के प्रसिद्ध द्वारपंडित थे। जैनों में अकलंक से लेकर अनेक आचार्यों ने इस विषय की आलोचना की है। सर्वज्ञसिद्धि के प्रसंग में बौद्ध विद्वान् रत्नकीर्ति का ग्रंथ महत्वपूर्ण है। मीमांसक कुमारिल ईश्वर तथा सर्वज्ञ दोनों का खंडन करते हैं। परवर्ती बौद्ध तथा जैन पंडितों ने सर्वज्ञखंडन के अंश में कुमारिल की युक्तियों का भी खंडन किया है। . न्यायकुसुमांजलि, भारतीय न्यायदर्शन का प्रसिद्ध ग्रन्थ है जिसके रचयिता उदयनाचार्य हैं। इसमें आस्तिकता के पक्ष में बहुत सबल तर्क दिये गये हैं। .

ईश्वर (भारतीय दर्शन) और न्यायकुसुमाञ्जलि के बीच समानता

ईश्वर (भारतीय दर्शन) और न्यायकुसुमाञ्जलि आम में 3 बातें हैं (यूनियनपीडिया में): न्याय दर्शन, ईश्वर, उदयनाचार्य

न्याय दर्शन

न्याय दर्शन भारत के छः वैदिक दर्शनों में एक दर्शन है। इसके प्रवर्तक ऋषि अक्षपाद गौतम हैं जिनका न्यायसूत्र इस दर्शन का सबसे प्राचीन एवं प्रसिद्ध ग्रन्थ है। जिन साधनों से हमें ज्ञेय तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त हो जाता है, उन्हीं साधनों को ‘न्याय’ की संज्ञा दी गई है। देवराज ने 'न्याय' को परिभाषित करते हुए कहा है- दूसरे शब्दों में, जिसकी सहायता से किसी सिद्धान्त पर पहुँचा जा सके, उसे न्याय कहते हैं। प्रमाणों के आधार पर किसी निर्नय पर पहुँचना ही न्याय है। यह मुख्य रूप से तर्कशास्त्र और ज्ञानमीमांसा है। इसे तर्कशास्त्र, प्रमाणशास्त्र, हेतुविद्या, वादविद्या तथा अन्वीक्षिकी भी कहा जाता है। वात्स्यायन ने प्रमाणैर्थपरीक्षणं न्यायः (प्रमाणों द्वारा अर्थ (सिद्धान्त) का परीक्षण ही न्याय है।) इस दृष्टि से जब कोई मनुष्य किसी विषय में कोई सिद्धान्त स्थिर करता है तो वहाँ न्याय की सहायता अपेक्षित होती है। इसलिये न्याय-दर्शन विचारशील मानव समाज की मौलिक आवश्यकता और उद्भावना है। उसके बिना न मनुष्य अपने विचारों एवं सिद्धान्तों को परिष्कृत एवं सुस्थिर कर सकता है न प्रतिपक्षी के सैद्धान्तिक आघातों से अपने सिद्धान्त की रक्षा ही कर सकता है। न्यायशास्त्र उच्चकोटि के संस्कृत साहित्य (और विशेषकर भारतीय दर्शन) का प्रवेशद्वार है। उसके प्रारम्भिक परिज्ञान के बिना किसी ऊँचे संस्कृत साहित्य को समझ पाना कठिन है, चाहे वह व्याकरण, काव्य, अलंकार, आयुर्वेद, धर्मग्रन्थ हो या दर्शनग्रन्थ। दर्शन साहित्य में तो उसके बिना एक पग भी चलना असम्भव है। न्यायशास्त्र वस्तुतः बुद्धि को सुपरिष्कृत, तीव्र और विशद बनाने वाला शास्त्र है। परन्तु न्यायशास्त्र जितना आवश्यक और उपयोगी है उतना ही कठिन भी, विशेषतः नव्यन्याय तो मानो दुर्बोधता को एकत्र करके ही बना है। वैशेषिक दर्शन की ही भांति न्यायदर्शन में भी पदार्थों के तत्व ज्ञान से निःश्रेयस् की सिद्धि बतायी गयी है। न्यायदर्शन में १६ पदार्थ माने गये हैं-.

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ईश्वर

यह लेख पारलौकिक शक्ति ईश्वर के विषय में है। ईश्वर फ़िल्म के लिए ईश्वर (1989 फ़िल्म) देखें। यह लेख देवताओं के बारे में नहीं है। ---- परमेश्वर वह सर्वोच्च परालौकिक शक्ति है जिसे इस संसार का स्रष्टा और शासक माना जाता है। हिन्दी में परमेश्वर को भगवान, परमात्मा या परमेश्वर भी कहते हैं। अधिकतर धर्मों में परमेश्वर की परिकल्पना ब्रह्माण्ड की संरचना से जुडी हुई है। संस्कृत की ईश् धातु का अर्थ है- नियंत्रित करना और इस पर वरच् प्रत्यय लगाकर यह शब्द बना है। इस प्रकार मूल रूप में यह शब्द नियंता के रूप में प्रयुक्त हुआ है। इसी धातु से समानार्थी शब्द ईश व ईशिता बने हैं। .

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उदयनाचार्य

उदयनाचार्य प्रसिद्ध नैयायिक। उन्होने नास्तिकता के विरोध में ईश्वरसिद्धि के लिए आज से हजारों वर्ष पूर्व न्यायकुसुमांजलि नामक एक अत्यन्त पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थ लिखा। .

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ईश्वर (भारतीय दर्शन) और न्यायकुसुमाञ्जलि के बीच तुलना

ईश्वर (भारतीय दर्शन) 27 संबंध है और न्यायकुसुमाञ्जलि 3 है। वे आम 3 में है, समानता सूचकांक 10.00% है = 3 / (27 + 3)।

संदर्भ

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