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आमाशयार्ति और जीवाणु

शॉर्टकट: मतभेद, समानता, समानता गुणांक, संदर्भ

आमाशयार्ति और जीवाणु के बीच अंतर

आमाशयार्ति vs. जीवाणु

आमाशयार्ति की अवस्था में लिया गया माइक्रोग्राम आमाशयार्ति (गैस्ट्राइटिज़ / Gastritis) में आमाशय की श्लेष्मिक कला का उग्र या जीर्ण शोथ हो जाता है। उग्र आमाशयार्ति किसी क्षोभक पदार्थ, जैसे अम्ल या क्षार या विष अथवा अपच्य भोजन पदार्थो के आमाशय में पहुँचने से उत्पन्न हो जाती है। अत्यधिक मात्रा में मद्य पीने से भी यह रोग उत्पन्न हो सकता है। आंत्रनाल के उग्र शोथ में आमाशय के विस्तृत होने से भी रोग उत्पन्न हो सकता है। रोग के लक्षण अकस्मात्‌ आरंभ हो जाते हैं। रोगी के उपरिजठर प्रदेश (एपिगैस्ट्रियम) में पीड़ा होती है, जिसके पश्चात्‌ वमन होते हैं, जिनमें रक्त मिला रहता है। अधिकतर रोगियों में कारण दूर कर देने पर रोग शीघ्र ही शांत हो जाता है। जीर्ण रोग के बहुत से कारण हो सकते हैं। मद्य का अतिमात्रा में बहुत समय तक सेवन रोग का सबसे मुख्य कारण है। अधिक मात्रा में भोजन करना, गाढ़ी चाय (जिसमें टैनिन अधिक होती है) अधिक पीना, मिर्च, तथा अन्य मसालों का अति मात्रा में प्रयोग, अति ठंडी वस्तुएँ, जैसे बर्फ, आइसक्रीम, आदि खाना, अधिक धूम्रपान तथा बिना चबाया हुआ भोजन, ये सब कारण रोग उत्पन्न कर सकते हैं। जीर्ण आमाशयार्ति उग्र आमाशयार्ति का परिणाम हो सकती है और आमाशय में अर्बुद बन जाने पर, शिराओं की रक्ताधिक्यता (कॉनजेस्चन) में, जैसे हृदरोग में अथवा यकृत के कड़ा हो जाने (सिरौसिस) में, दुष्ट रक्तक्षीणता अथवा ल्यूकीमिया के समान रक्तरोगों में तथा कैंसर या राजयक्ष्या में भी यही दशा पाई जाती है। इस रोग में विशेष विकृति यह होती है कि आमाशय में श्लेष्मिक कला से श्लेष्मा का अधिक मात्रा में स्राव होने लगता है, जो आमाशय में एकत्र होकर समय समय पर वमन के रूप में निकला करता है। आगे चलकर श्लेष्मिक कला की अपुष्टता (ऐटोफ़ी) होने लगती है। रोगी प्राय: प्रौढ़ अवस्था का होता है, जिसका मुख्य कष्ट अजीर्ण होता है। भूख न लगना, मुँह का स्वाद खराब होना, अम्लपित्त, बार-बार हवा खुलना, प्यास की अधिकता, खट्टी डकार आना या वमन, जिसमें श्लेष्मा और आमाशय का तरल पदार्थ निकलता है, विशेष लक्षण होते हैं। अधिजठर प्रांत में प्रसृत्त वेदना (टेंडरनेस) के सिवाय और कोई लक्षण नहीं होता। खाद्य की आंशिक जाँच (फ़ैक्शनल मील टेस्ट) से श्लेष्मा की अत्यधिक मात्रा का पता लगता है। मुक्त अम्ल (फ्ऱी ऐसिड) की मात्रा कम अथवा बिलकुल नहीं होती। जठरनिर्गम (पाइलोरस) के पास के भाग में रोग होने से पक्वाशय के व्रण (डुओडेनल अलसर) के समान लक्षण हो सकते हैं। आहार के नियंत्रण से तथा श्लेष्मा को घोलने के लिए क्षार के प्रयोग से रोगी की व्यथा कम होती है। . जीवाणु जीवाणु एक एककोशिकीय जीव है। इसका आकार कुछ मिलिमीटर तक ही होता है। इनकी आकृति गोल या मुक्त-चक्राकार से लेकर छड़, आदि आकार की हो सकती है। ये अकेन्द्रिक, कोशिका भित्तियुक्त, एककोशकीय सरल जीव हैं जो प्रायः सर्वत्र पाये जाते हैं। ये पृथ्वी पर मिट्टी में, अम्लीय गर्म जल-धाराओं में, नाभिकीय पदार्थों में, जल में, भू-पपड़ी में, यहां तक की कार्बनिक पदार्थों में तथा पौधौं एवं जन्तुओं के शरीर के भीतर भी पाये जाते हैं। साधारणतः एक ग्राम मिट्टी में ४ करोड़ जीवाणु कोष तथा १ मिलीलीटर जल में १० लाख जीवाणु पाए जाते हैं। संपूर्ण पृथ्वी पर अनुमानतः लगभग ५X१०३० जीवाणु पाए जाते हैं। जो संसार के बायोमास का एक बहुत बड़ा भाग है। ये कई तत्वों के चक्र में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं, जैसे कि वायुमंडलीय नाइट्रोजन के स्थरीकरण में। हलाकि बहुत सारे वंश के जीवाणुओं का श्रेणी विभाजन भी नहीं हुआ है तथापि लगभग आधी प्रजातियों को किसी न किसी प्रयोगशाला में उगाया जा चुका है। जीवाणुओं का अध्ययन बैक्टिरियोलोजी के अन्तर्गत किया जाता है जो कि सूक्ष्म जैविकी की ही एक शाखा है। मानव शरीर में जितनी भी मानव कोशिकाएं है, उसकी लगभग १० गुणा संख्या तो जीवाणु कोष की ही है। इनमें से अधिकांश जीवाणु त्वचा तथा अहार-नाल में पाए जाते हैं। हानिकारक जीवाणु इम्यून तंत्र के रक्षक प्रभाव के कारण शरीर को नुकसान नहीं पहुंचा पाते। कुछ जीवाणु लाभदायक भी होते हैं। अनेक प्रकार के परजीवी जीवाणु कई रोग उत्पन्न करते हैं, जैसे - हैजा, मियादी बुखार, निमोनिया, तपेदिक या क्षयरोग, प्लेग इत्यादि.

आमाशयार्ति और जीवाणु के बीच समानता

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आमाशयार्ति और जीवाणु के बीच तुलना

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संदर्भ

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