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आदिवासी साहित्‍य

सूची आदिवासी साहित्‍य

आदिवासी साहित्‍य दिल्‍ली से प्रकाशित होने वाली आदिवासी लेखन की पहली राष्‍ट्रीय पत्रिका है जिसके संपादक डॉ॰ गंगा सहाय मीणा हैं। पत्रिका की संपादकीय टीम में देशभर के सभी प्रमुख आदिवासी साहित्‍यकार शामिल हैं, जिनमें प्रमुख नाम हैं- वाहरू सोनवणे, मोतीरावण कंगाली, रोज केरकेट्टा, तेमसुला आओ, वाल्‍टर भेंगरा 'तरुण', वंदना टेटे, शांति खलखो, अनुज लुगुन आदि। सौ पृष्‍ठों की यह त्रैमासिक पत्रिका निम्‍न स्‍तंभों में बॅंटी हुई है- कहन-गायन, मुंहामुंही, दर्शन-वैचारिकी, रंग-रोगन, देस-दिसुम, सकम और अखड़ा.

3 संबंधों: तेमसुला आओ, रोज केरकेट्टा, वंदना टेटे

तेमसुला आओ

तेमसुला आओ या तेमसुला अओ अंग्रेज़ी भाषा की एक जानी-मानी कवयित्री, कथाकार और वाचिक संग्रहकर्ता (एथनोग्राफर) हैं। वे नॉर्थ ईस्टर्न हिल युनिवर्सिटी (एनईएचयू) से अंग्रेजी की सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं, जहां उन्होंने 1975 में अध्यापकीय जीवन शुरू किया था। 2013 में साहित्य अकादमी ने उनके अंग्रेजी कहानी संग्रह लबरनम फ़ॉर माइ हेड को अकादमी पुरस्कार से नवाजा है। वर्तमान में वे नागालैंड राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष भी हैं। .

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रोज केरकेट्टा

रोज केरकेट्टा (5 दिसंबर, 1940) आदिवासी भाषा खड़िया और हिन्दी की एक प्रमुख लेखिका, शिक्षाविद्, आंदोलनकारी और मानवाधिकारकर्मी हैं। आपका जन्म सिमडेगा (झारखंड) के कइसरा सुंदरा टोली गांव में खड़िया आदिवासी समुदाय में हुआ। झारखंड की आदि जिजीविषा और समाज के महत्वपूर्ण सवालों को सृजनशील अभिव्यक्ति देने के साथ ही जनांदोलनों को बौद्धिक नेतृत्व प्रदान करने तथा संघर्ष की हर राह में आप अग्रिम पंक्ति में रही हैं। आदिवासी भाषा-साहित्य, संस्कृति और स्त्री सवालों पर डा.

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वंदना टेटे

वंदना टेटे (जन्मः 13 सितम्बर 1969) एक भारतीय आदिवासी लेखिका, कवि, प्रकाशक, एक्टिविस्ट और आदिवासी दर्शन ‘आदिवासियत’ की प्रबल पैरोकार हैं। सामुदायिक आदिवासी जीवनदर्शन एवं सौंदर्यबोध को अपने लेखन और देश भर के साहित्यिक व अकादमिक संगोष्ठियों में दिए गए वक्तव्यों के जरिए उन्होंने आदिवासी विमर्श को नया आवेग प्रदान किया है। आदिवासियत की वैचारिकी और सौंदर्यबोध को कलाभिव्यक्तियों का मूल तत्व मानते हुए उन्होंने आदिवासी साहित्य को ‘प्रतिरोध का साहित्य’ की बजाय ‘रचाव और बचाव’ का साहित्य कहा है। आदिवासी साहित्य की दार्शनिक अवधारणा प्रस्तुत करते हुए उनकी स्थापना है कि आदिवासियों की साहित्यिक परंपरा औपनिवेशिक और ब्राह्मणवादी शब्दावलियों और विचारों से बिल्कुल भिन्न है। आदिवासी जीवनदृष्टि पक्ष-प्रतिपक्ष को स्वीकार नहीं करता। आदिवासियों की दृष्टि समतामूलक है और उनके समुदायों में व्यक्ति केन्द्रित और शक्ति संरचना के किसी भी रूप का कोई स्थान नहीं है। वे आदिवासी साहित्य का ‘लोक’ और ‘शिष्ट’ साहित्य के रूप में विभाजन को भी नकारती हैं और कहती हैं कि आदिवासी समाज में समानता सर्वोपरि है, इसलिए उनका साहित्य भी विभाजित नहीं है। वह एक ही है। वे अपने साहित्य को ‘ऑरेचर’ कहती हैं। ऑरेचर अर्थात् ऑरल लिटरेचर। उनकी स्थापना है कि उनके आज का लिखित साहित्य भी उनकी वाचिक यानी पुरखा (लोक) साहित्य की परंपरा का ही साहित्य है। उनकी यह भी स्थापना है कि गैर-आदिवासियों द्वारा आदिवासियों पर रिसर्च करके लिखी जा रही रचनाएं शोध साहित्य है, आदिवासी साहित्य नहीं। आदिवासियत को नहीं समझने वाले हिंदी-अंग्रेजी के लेखक आदिवासी साहित्य लिख भी नहीं सकते। .

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