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अमेरिकी भाषाएँ और भाषा

शॉर्टकट: मतभेद, समानता, समानता गुणांक, संदर्भ

अमेरिकी भाषाएँ और भाषा के बीच अंतर

अमेरिकी भाषाएँ vs. भाषा

अमरीकी भाषाओं के अंतर्गत अमेरीका महाद्वीप के सभी (उत्तरी, दक्षिणी और मध्य) भागों के मूल निवासियों द्वारा बोली जानेवाली भाषाएँ आती हैं। ईसवी 15वीं सदी के अंत में यूरोप से एक जहाज भारतवर्ष की खोज करता हुआ, भ्रम से चक्कर खाकर अमरीका पहुँच गया और तभी से यहाँ के मूल निवासियों का नाम 'इंडियन' पड़ गया। अनुमान है कि कोलंबस के समय अमरीका के समस्त मूल निवासियों की संख्या चार पाँच करोड़ रही होगी, जो अब घटते घटते डेढ़ करोड़ रह गई है। इन लोगों में लिखने का कोई रिवाज नहीं था। विशेष घटनाओं की याद, रंग बिंरगी रस्सियों में गाँठें बाँधकर रखी जाती थी। पत्थरों, घोंघों तथा चमड़े आदि पर भी भाँति-भाँति के चित्र और निशान भी है तो उसे मूल निवासी बताते नहीं। तथापि नहुअत्ल और मय भाषाओं में अब लिपि मिलती है। मय भाषा की पुस्तकों में साथ ही साथ स्पेनी भाषा में अनुवाद भी मिलता है। तुलनात्मक व्याकरण के और बहुधा अन्य व्योरेवार ग्रंथों के अभाव मे इन भाषाओं के विषय में विशेष विवरण नहीं दिया जा सकता। इनमें क्लिक और महाप्राण ध्वनियाँ मिलती हैं। ऐसा अनुमान किया जाता है कि इन मूल निवासियों की जातियाँ इधर-उधर आती जाती और एक दूसरे पर आधिपत्य जमाती रही हैं, इसीलिए भाषा संबंधी सामान्य लक्षणों के साथ विशेषताओं और अपवादों का बड़ा भारी मिश्रण मिलता है। कभी कभी कोई कोई बोली इतनी अधिक प्रभावशाली रही कि उसने विजित जातियों की बोलियों को बिलकुल नष्ट ही कर दिया। कोलंबस के आगमन के पहले दक्षिणी अमरीका में इंका नाम के साम्राज्य की राजभाषा कुइचुआ थी। स्पेनी विजेताओं ने इसी का प्रयोग मूल निवासियों के बीच ईसाई धर्म के प्रचार के निमित किया। इसी प्रकार विस्तृत क्षेत्र में होने के कारण, गुअर्नी तुपी का भी प्रयोग ईसाई पादरियों ने धर्मप्रचार के लिए किया। करीब और अरोवक भाषाएँ भी पारस्परिक जय-पराजय से प्रभावित हैं। अरोवक जाति पर करीब जाति ने विजय प्राप्त कर ली और उसके पुरूष वर्ग को या तो बीन बीनकर मार डाला या दूर भगा दिया। स्त्रियों को रख लिया। ये बराबर अरोवक ही बोलती रहीं। बाद की पीढ़ियाँ भी इसी प्रकार दोनों भाषाएँ आज तक बोलती चली आ रहीं हैं। और पुरुष वर्ग की करीब भाषा पर स्त्री वर्ग की अरोवक भाषा का प्रभाव पड़ता दिखाई देता है। यद्यपि इन भाषाओं के बारे में अभी विशेष अनुसंधान नहीं हो पाया है, तब भी मोटे तौर पर इनको कई परिवारों में बाँटा जा सकता है। अनुमान है कि इन परिवारों की संख्या सौ सवा सौ के लगभग है। प्राय: इन सभी भाषाओं में एक सामान्य लक्षण प्रश्लिष्ट योगात्मक के रूप में पाया जाता है। इनमें बहुधा पूरा-पूरा वाक्य ही एक लंबे शब्द द्वारा व्यक्त किया जाता है। यह संस्कृति की तरह विभिन्न पदों को जोड़कर समास के रूप में नही होता, बल्कि प्रत्येक पद का एक-एक प्रधान अक्षर या ध्वनि लेकर सबको एक साथ मिला दिया जता है। चेरोकी भाषा के पद नधोलिनिन (हमारे लिए डोंगी लाओ) में इसी प्रकार तीन शब्द नतेन (लाओ), अमोरतोल (नाव, डोंगी) और निन (हमको) मिले हुए हैं। कभी-कभी इस प्रकार के एक दर्जन शब्दों तक के ध्वनि या वर्णसंकलन एक पद के रूप में संगठित मिलते हैं और उन सभी शब्दों का पदार्थ एक साथ वाक्यार्थ के रूप में श्रोता को मालूम हो जाता है। स्वतंत्र शब्दों का प्रयोग इन भाषाओं में बहुत कम है। ये सभी जातियाँ जंगली नहीं हैं। इन जातियों में से कुछ ने साम्राज्य स्थापित किए। मेक्सिको के साम्राज्य का अंत 16वीं सदी में यूरोपवालों ने वहाँ पहुँचकर किया। वहाँ की मय और नहुअत्ल भाषाएँ सुसंस्कृत हैं और उनमें साहित्य भी मिलता है। इन भाषाओं का वर्गीकरण प्राय: भौगोलिक आधार पर किया जाता है जो शास्त्रीय भले न हो, सुविधाजनक अवश्य है: देशनाम -- भाषानाम ग्रीनलैंड -- एस्किमो उत्तरी अमरीका, कनाडा -- अथबक्सी (समूह) संयुक्त राज्य -- अल्गोनकी (आदि), नहुअत्ल (प्राचीन) मेक्सिको -- अज्ऱतेक (वर्तमान) उत्तरी प्रदेश -- करीब, अरोवक मध्य प्रदेश -- गुअर्नी तुपी दक्षिणी अमेरिका पश्चिमी प्रदेश -- अरौकन, कुइचुआ (पेरू और चिली) दक्षिणी प्रदेश -- चको, तियरादेलफूगो दक्षिणी प्रदेश पेरू और चिली की भाषा चको, तियरादेलफूगी हैं। इनमें से तियरादेलफूगो भाषा और उसके बोलनेवाले लोग संसार में सबसे अधिक संस्कृतहीन माने जाते हैं। एस्किमो के बारे में कुछ विद्वानों का मत है कि यह उराल-अल्ताई परिवार की है। . भाषा वह साधन है जिसके द्वारा हम अपने विचारों को व्यक्त करते है और इसके लिये हम वाचिक ध्वनियों का उपयोग करते हैं। भाषा मुख से उच्चारित होनेवाले शब्दों और वाक्यों आदि का वह समूह है जिनके द्वारा मन की बात बतलाई जाती है। किसी भाषा की सभी ध्वनियों के प्रतिनिधि स्वन एक व्यवस्था में मिलकर एक सम्पूर्ण भाषा की अवधारणा बनाते हैं। व्यक्त नाद की वह समष्टि जिसकी सहायता से किसी एक समाज या देश के लोग अपने मनोगत भाव तथा विचार एक दूसरे पर प्रकट करते हैं। मुख से उच्चारित होनेवाले शब्दों और वाक्यों आदि का वह समूह जिनके द्वारा मन की बात बतलाई जाती है। बोली। जबान। वाणी। विशेष— इस समय सारे संसार में प्रायः हजारों प्रकार की भाषाएँ बोली जाती हैं जो साधारणतः अपने भाषियों को छोड़ और लोगों की समझ में नहीं आतीं। अपने समाज या देश की भाषा तो लोग बचपन से ही अभ्यस्त होने के कारण अच्छी तरह जानते हैं, पर दूसरे देशों या समाजों की भाषा बिना अच्छी़ तरह नहीं आती। भाषाविज्ञान के ज्ञाताओं ने भाषाओं के आर्य, सेमेटिक, हेमेटिक आदि कई वर्ग स्थापित करके उनमें से प्रत्येक की अलग अलग शाखाएँ स्थापित की हैं और उन शाखाकों के भी अनेक वर्ग उपवर्ग बनाकर उनमें बड़ी बड़ी भाषाओं और उनके प्रांतीय भेदों, उपभाषाओं अथाव बोलियों को रखा है। जैसे हमारी हिंदी भाषा भाषाविज्ञान की दृष्टि से भाषाओं के आर्य वर्ग की भारतीय आर्य शाखा की एक भाषा है; और ब्रजभाषा, अवधी, बुंदेलखंडी आदि इसकी उपभाषाएँ या बोलियाँ हैं। पास पास बोली जानेवाली अनेक उपभाषाओं या बोलियों में बहुत कुछ साम्य होता है; और उसी साम्य के आधार पर उनके वर्ग या कुल स्थापित किए जाते हैं। यही बात बड़ी बड़ी भाषाओं में भी है जिनका पारस्परिक साम्य उतना अधिक तो नहीं, पर फिर भी बहुत कुछ होता है। संसार की सभी बातों की भाँति भाषा का भी मनुष्य की आदिम अवस्था के अव्यक्त नाद से अब तक बराबर विकास होता आया है; और इसी विकास के कारण भाषाओं में सदा परिवर्तन होता रहता है। भारतीय आर्यों की वैदिक भाषा से संस्कुत और प्राकृतों का, प्राकृतों से अपभ्रंशों का और अपभ्रंशों से आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास हुआ है। सामान्यतः भाषा को वैचारिक आदान-प्रदान का माध्यम कहा जा सकता है। भाषा आभ्यंतर अभिव्यक्ति का सर्वाधिक विश्वसनीय माध्यम है। यही नहीं वह हमारे आभ्यंतर के निर्माण, विकास, हमारी अस्मिता, सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान का भी साधन है। भाषा के बिना मनुष्य सर्वथा अपूर्ण है और अपने इतिहास तथा परम्परा से विच्छिन्न है। इस समय सारे संसार में प्रायः हजारों प्रकार की भाषाएँ बोली जाती हैं जो साधारणतः अपने भाषियों को छोड़ और लोगों की समझ में नहीं आतीं। अपने समाज या देश की भाषा तो लोग बचपन से ही अभ्यस्त होने के कारण अच्छी तरह जानते हैं, पर दूसरे देशों या समाजों की भाषा बिना अच्छी़ तरह सीखे नहीं आती। भाषाविज्ञान के ज्ञाताओं ने भाषाओं के आर्य, सेमेटिक, हेमेटिक आदि कई वर्ग स्थापित करके उनमें से प्रत्येक की अलग अलग शाखाएँ स्थापित की हैं और उन शाखाओं के भी अनेक वर्ग-उपवर्ग बनाकर उनमें बड़ी बड़ी भाषाओं और उनके प्रांतीय भेदों, उपभाषाओं अथाव बोलियों को रखा है। जैसे हिंदी भाषा भाषाविज्ञान की दृष्टि से भाषाओं के आर्य वर्ग की भारतीय आर्य शाखा की एक भाषा है; और ब्रजभाषा, अवधी, बुंदेलखंडी आदि इसकी उपभाषाएँ या बोलियाँ हैं। पास पास बोली जानेवाली अनेक उपभाषाओं या बोलियों में बहुत कुछ साम्य होता है; और उसी साम्य के आधार पर उनके वर्ग या कुल स्थापित किए जाते हैं। यही बात बड़ी बड़ी भाषाओं में भी है जिनका पारस्परिक साम्य उतना अधिक तो नहीं, पर फिर भी बहुत कुछ होता है। संसार की सभी बातों की भाँति भाषा का भी मनुष्य की आदिम अवस्था के अव्यक्त नाद से अब तक बराबर विकास होता आया है; और इसी विकास के कारण भाषाओं में सदा परिवर्तन होता रहता है। भारतीय आर्यों की वैदिक भाषा से संस्कृत और प्राकृतों का, प्राकृतों से अपभ्रंशों का और अपभ्रंशों से आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास हुआ है। प्रायः भाषा को लिखित रूप में व्यक्त करने के लिये लिपियों की सहायता लेनी पड़ती है। भाषा और लिपि, भाव व्यक्तीकरण के दो अभिन्न पहलू हैं। एक भाषा कई लिपियों में लिखी जा सकती है और दो या अधिक भाषाओं की एक ही लिपि हो सकती है। उदाहरणार्थ पंजाबी, गुरूमुखी तथा शाहमुखी दोनो में लिखी जाती है जबकि हिन्दी, मराठी, संस्कृत, नेपाली इत्यादि सभी देवनागरी में लिखी जाती है। .

अमेरिकी भाषाएँ और भाषा के बीच समानता

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अमेरिकी भाषाएँ और भाषा के बीच तुलना

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संदर्भ

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