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अभिनवगुप्त

सूची अभिनवगुप्त

अभिनवगुप्त (975-1025) दार्शनिक, रहस्यवादी एवं साहित्यशास्त्र के मूर्धन्य आचार्य। कश्मीरी शैव और तन्त्र के पण्डित। वे संगीतज्ञ, कवि, नाटककार, धर्मशास्त्री एवं तर्कशास्त्री भी थे। अभिनवगुप्त का व्यक्तित्व बड़ा ही रहस्यमय है। महाभाष्य के रचयिता पतंजलि को व्याकरण के इतिहास में तथा भामतीकार वाचस्पति मिश्र को अद्वैत वेदांत के इतिहास में जो गौरव तथा आदरणीय उत्कर्ष प्राप्त हुआ है वही गौरव अभिनव को भी तंत्र तथा अलंकारशास्त्र के इतिहास में प्राप्त है। इन्होंने रस सिद्धांत की मनोवैज्ञानिक व्याख्या (अभिव्यंजनावाद) कर अलंकारशास्त्र को दर्शन के उच्च स्तर पर प्रतिष्ठित किया तथा प्रत्यभिज्ञा और त्रिक दर्शनों को प्रौढ़ भाष्य प्रदान कर इन्हें तर्क की कसौटी पर व्यवस्थित किया। ये कोरे शुष्क तार्किक ही नहीं थे, प्रत्युत साधनाजगत् के गुह्य रहस्यों के मर्मज्ञ साधक भी थे। अभिनवगुप्त के आविर्भावकाल का पता उन्हीं के ग्रंथों के समयनिर्देश से भली भाँति लगता है। इनके आरंभिक ग्रंथों में क्रमस्तोत्र की रचना 66 लौकिक संवत् (991 ई.) में और भैरवस्तोत्र की 68 संवत (993 ई.) में हुई। इनकी ईश्वर-प्रत्यभिज्ञा-विमर्षिणी का रचनाकाल 90 लौकिक संवत् (1015 ई.) है। फलत: इनकी साहित्यिक रचनाओं का काल 990 ई. से लेकर 1020 ई. तक माना जा सकता है। इस प्रकार इनका समय दशम शती का उत्तरार्ध तथा एकादश शती का आरंभिक काल स्वीकार किया जा सकता है। .

31 संबंधों: झेलम नदी, तन्त्र, तन्त्रसार, तन्त्रालोक, त्रिक, ध्वन्यालोक, नाट्य शास्त्र, पतञ्जलि, प्रत्यभिज्ञा दर्शन, भरत मुनि, भामती, महाभाष्य, रस (काव्य शास्त्र), ललितादित्य मुक्तपीड, शैव, शेषनाग, साहित्य सिद्धान्त, संस्कृत भाषा, हिन्दू धर्म, जालंधर, वाचस्पति मिश्र, व्याकरण, आचार्य आनन्दवर्धन, कश्मीर, कश्मीर शैवदर्शन, क्षेमराज, क्षेमेंद्र, अद्वैत वेदान्त, अभिनवभारती, अभिव्यंजनावाद, अलंकार शास्त्र

झेलम नदी

320px झेलम उत्तरी भारत में बहनेवाली एक नदी है। वितस्ता झेलम नदी का वास्तविक नाम है। कश्मीरी भाषा में इसे व्यथ कहते हैं। इसका उद्भव वेरीनाग नामी नगर में है। .

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तन्त्र

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से सम्बन्धित तंत्र या प्रणाली या सिस्टम के बारे में तंत्र (सिस्टम) देखें। ---- तन्त्र कलाएं (ऊपर से, दक्षिणावर्त): हिन्दू तांत्रिक देवता, बौद्ध तान्त्रिक देवता, जैन तान्त्रिक चित्र, कुण्डलिनी चक्र, एक यंत्र एवं ११वीं शताब्दी का सैछो (तेन्दाई तंत्र परम्परा का संस्थापक तन्त्र, परम्परा से जुड़े हुए आगम ग्रन्थ हैं। तन्त्र शब्द के अर्थ बहुत विस्तृत है। तन्त्र-परम्परा एक हिन्दू एवं बौद्ध परम्परा तो है ही, जैन धर्म, सिख धर्म, तिब्बत की बोन परम्परा, दाओ-परम्परा तथा जापान की शिन्तो परम्परा में पायी जाती है। भारतीय परम्परा में किसी भी व्यवस्थित ग्रन्थ, सिद्धान्त, विधि, उपकरण, तकनीक या कार्यप्रणाली को भी तन्त्र कहते हैं। हिन्दू परम्परा में तन्त्र मुख्यतः शाक्त सम्प्रदाय से जुड़ा हुआ है, उसके बाद शैव सम्प्रदाय से, और कुछ सीमा तक वैष्णव परम्परा से भी। शैव परम्परा में तन्त्र ग्रन्थों के वक्ता साधारणतयः शिवजी होते हैं। बौद्ध धर्म का वज्रयान सम्प्रदाय अपने तन्त्र-सम्बन्धी विचारों, कर्मकाण्डों और साहित्य के लिये प्रसिद्ध है। तन्त्र का शाब्दिक उद्भव इस प्रकार माना जाता है - “तनोति त्रायति तन्त्र”। जिससे अभिप्राय है – तनना, विस्तार, फैलाव इस प्रकार इससे त्राण होना तन्त्र है। हिन्दू, बौद्ध तथा जैन दर्शनों में तन्त्र परम्परायें मिलती हैं। यहाँ पर तन्त्र साधना से अभिप्राय "गुह्य या गूढ़ साधनाओं" से किया जाता रहा है। तन्त्रों को वेदों के काल के बाद की रचना माना जाता है जिसका विकास प्रथम सहस्राब्दी के मध्य के आसपास हुआ। साहित्यक रूप में जिस प्रकार पुराण ग्रन्थ मध्ययुग की दार्शनिक-धार्मिक रचनायें माने जाते हैं उसी प्रकार तन्त्रों में प्राचीन-अख्यान, कथानक आदि का समावेश होता है। अपनी विषयवस्तु की दृष्टि से ये धर्म, दर्शन, सृष्टिरचना शास्त्र, प्राचीन विज्ञान आदि के इनसाक्लोपीडिया भी कहे जा सकते हैं। यूरोपीय विद्वानों ने अपने उपनिवीशवादी लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए तन्त्र को 'गूढ़ साधना' (esoteric practice) या 'साम्प्रदायिक कर्मकाण्ड' बताकर भटकाने की कोशिश की है। वैसे तो तन्त्र ग्रन्थों की संख्या हजारों में है, किन्तु मुख्य-मुख्य तन्त्र 64 कहे गये हैं। तन्त्र का प्रभाव विश्व स्तर पर है। इसका प्रमाण हिन्दू, बौद्ध, जैन, तिब्बती आदि धर्मों की तन्त्र-साधना के ग्रन्थ हैं। भारत में प्राचीन काल से ही बंगाल, बिहार और राजस्थान तन्त्र के गढ़ रहे हैं। .

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तन्त्रसार

तंत्रसार अभिनवगुप्त की रचना है। ऐसा माना जाता है कि यह कृति अभिनवगुप्त की प्रसिद्ध रचना तन्त्रालोक का साररूप है। .

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तन्त्रालोक

तन्त्रालोक अभिनवगुप्त द्वारा रचित एक तांत्रिक ग्रन्थ है। .

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त्रिक

काश्मीर के शैव-सम्रदाय के सन्दर्भ में त्रिक तीन देवियों के समुच्चय को कहते हैं। तीन देवियाँ हैं- परा, परापरा तथा अपरा। ये नाम मालिनीविजयोत्तरतन्त्र में आया है। श्रेणी:शैव सम्प्रदाय.

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ध्वन्यालोक

ध्वन्यालोक, आचार्य आनन्दवर्धनकृत काव्यशास्त्र का ग्रन्थ है। आचार्य आनन्दवर्धन काव्यशास्त्र में 'ध्वनि सम्प्रदाय' के प्रवर्तक के रूप में प्रसिद्ध हैं। ध्वन्यालोक उद्योतों में विभक्त है। इसमें कुल चार उद्योत हैं। प्रथम उद्योत में ध्वनि सिद्धान्त के विरोधी सिद्धांतों का खण्डन करके ध्वनि-सिद्धांत की स्थापना की गयी है। द्वितीय उद्योत में लक्षणामूला (अविवक्षितवाच्य) और अभिधामूला (विवक्षितवाच्य) के भेदों और उपभेदों पर विचार किया गया है। इसके अतिरिक्त गुणों पर भी प्रकाश डाला गया है। तृतीय उद्योत पदों, वाक्यों, पदांशों, रचना आदि द्वारा ध्वनि को प्रकाशित करता है और रस के विरोधी और विरोधरहित उपादानों को भी। चतुर्थ उद्योत में ध्वनि और गुणीभूत व्यंग्य के प्रयोग से काव्य में चमत्कार की उत्पत्ति को प्रकाशित किया गया है। ध्वन्यालोक के तीन भाग हैं- कारिका भाग, उस पर वृत्ति और उदाहरण। कुछ विद्वानों के अनुसार कारिका भाग के निर्माता आचार्य सहृदय हैं और वृत्तिभाग के आचार्य आनन्दवर्धन। ऐसे विद्वान अपने उक्तमत के समर्थन में ध्वन्यालोक के अन्तिम श्लोक को आधार मानते हैं- लेकिन कुंतक, महिमभट्ट, क्षेमेन्द्र आदि आचार्यों के अनुसार कारिका भाग और वृत्ति भाग दोनों के प्रणेता आचार्य आनन्दवर्धन ही हैं। आचार्य आनन्दवर्धन भी स्वयं लिखते हैं- यहाँ उन्होंने अपने को ध्वनि सिद्धान्त का प्रवर्तक बताया है। इसके पहले वाले श्लोक में प्रयुक्त ‘सहृदय’ शब्द किसी व्यक्तिविशेष का नाम नहीं, बल्कि सहृदय लोगों का वाचक है और कारिका तथा वृत्ति, दोनों भागों के रचयिता आचार्य आनन्दवर्धन को ही मानना चाहिए। इस अनुपम ग्रंथ पर दो टीकाएँ लिखी गयीं- ‘चन्द्रिका’ और ‘लोचन’। हालाँकि केवल ‘लोचन’ टीका ही आज उपलब्ध है। जिसके लिखने वाले आचार्य अभिनव गुप्तपाद हैं। ‘चन्द्रिका’ टीका का उल्लेख इन्होंने ही किया है और उसका खण्डन भी किया है। इसी उल्लेख से पता चलता है कि‘चंद्रिका’ टीका के टीकाकार भी आचार्य अभिनवगुप्तपाद के पूर्वज थे। .

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नाट्य शास्त्र

250px नाटकों के संबंध में शास्त्रीय जानकारी को नाट्य शास्त्र कहते हैं। इस जानकारी का सबसे पुराना ग्रंथ भी नाट्यशास्त्र के नाम से जाना जाता है जिसके रचयिता भरत मुनि थे। भरत मुनि का काल ४०० ई के निकट माना जाता है। संगीत, नाटक और अभिनय के संपूर्ण ग्रंथ के रूप में भारतमुनि के नाट्य शास्त्र का आज भी बहुत सम्मान है। उनका मानना है कि नाट्य शास्त्र में केवल नाट्य रचना के नियमों का आकलन नहीं होता बल्कि अभिनेता रंगमंच और प्रेक्षक इन तीनों तत्वों की पूर्ति के साधनों का विवेचन होता है। 37 अध्यायों में भरतमुनि ने रंगमंच अभिनेता अभिनय नृत्यगीतवाद्य, दर्शक, दशरूपक और रस निष्पत्ति से संबंधित सभी तथ्यों का विवेचन किया है। भरत के नाट्य शास्त्र के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि नाटक की सफलता केवल लेखक की प्रतिभा पर आधारित नहीं होती बल्कि विभिन्न कलाओं और कलाकारों के सम्यक के सहयोग से ही होती है। .

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पतञ्जलि

पतंजलि योगसूत्र के रचनाकार है जो हिन्दुओं के छः दर्शनों (न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त) में से एक है। भारतीय साहित्य में पतंजलि के लिखे हुए ३ मुख्य ग्रन्थ मिलते हैः योगसूत्र, अष्टाध्यायी पर भाष्य और आयुर्वेद पर ग्रन्थ। कुछ विद्वानों का मत है कि ये तीनों ग्रन्थ एक ही व्यक्ति ने लिखे; अन्य की धारणा है कि ये विभिन्न व्यक्तियों की कृतियाँ हैं। पतंजलि ने पाणिनि के अष्टाध्यायी पर अपनी टीका लिखी जिसे महाभाष्य का नाम दिया (महा+भाष्य (समीक्षा, टिप्पणी, विवेचना, आलोचना))। इनका काल कोई २०० ई पू माना जाता है। .

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प्रत्यभिज्ञा दर्शन

प्रत्यभिज्ञा दर्शन, काश्मीरी शैव दर्शन की एक शाखा है। यह ९वीं शताब्दी में जन्मा एक अद्वैतवादी दर्शन है। इस दर्शन का नाम उत्पलदेव द्वारा रचित ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकारिका नामक ग्रन्थ के नाम पर आधारित है। प्रत्यभिज्ञा (.

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भरत मुनि

भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र लिखा। इनका समय विवादास्पद हैं। इन्हें 400 ई॰पू॰ 100 ई॰ सन् के बीच किसी समय का माना जाता है। भरत बड़े प्रतिभाशाली थे। इतना स्पष्ट है कि भरतमुनि रचित नाट्यशास्त्र से परिचय था। इनका 'नाट्यशास्त्र' भारतीय नाट्य और काव्यशास्त्र का आदिग्रन्थ है।इसमें सर्वप्रथम रस सिद्धांत की चर्चा तथा इसके प्रसिद्द सूत्र -'विभावानुभाव संचारीभाव संयोगद्रस निष्पति:" की स्थापना की गयी है| इसमें नाट्यशास्त्र, संगीत-शास्त्र, छंदशास्त्र, अलंकार, रस आदि सभी का सांगोपांग प्रतिपादन किया गया है। 'भारतीय नाट्यशास्त्र' अपने विषय का आधारभूत ग्रन्थ माना जाता है। कहा गया है कि भरतमुनि रचित प्रथम नाटक का अभिनय, जिसका कथानक 'देवासुर संग्राम' था, देवों की विजय के बाद इन्द्र की सभा में हुआ था। आचार्य भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र की उत्पत्ति ब्रह्मा से मानी है क्योकि शंकर ने ब्रह्मा को तथा ब्रह्मा ने अन्य ऋषियो को काव्य शास्त्र का उपदेश दिया। विद्वानों का मत है कि भरतमुनि रचित पूरा नाट्यशास्त्र अब उपलब्ध नहीं है। जिस रूप में वह उपलब्ध है, उसमें लोग काफ़ी क्षेपक बताते हैं श्रेणी:संस्कृत आचार्य.

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भामती

भामती अद्वैत वेदान्त दर्शन का एक उपसम्प्रदाय है। इस सम्प्रदाय का नाम वाचस्पति मिश्र के 'भामती' नामक ग्रन्थ पर पड़ा है जो आदि शंकराचार्य कृत ब्रह्मसूत्र के भाष्य की टीका है। श्रेणी:भारतीय दर्शन.

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महाभाष्य

पतंजलि ने पाणिनि के अष्टाध्यायी के कुछ चुने हुए सूत्रों पर भाष्य लिखी जिसे व्याकरणमहाभाष्य का नाम दिया (महा+भाष्य (समीक्षा, टिप्पणी, विवेचना, आलोचना))। व्याकरण महाभाष्य में कात्यायन वार्तिक भी सम्मिलित हैं जो पाणिनि के अष्टाध्यायी पर कात्यायन के भाष्य हैं। कात्यायन के वार्तिक कुल लगभग १५०० हैं जो अन्यत्र नहीं मिलते बल्कि केवल व्याकरणमहाभाष्य में पतंजलि द्वारा सन्दर्भ के रूप में ही उपलब्ध हैं। संस्कृत के तीन महान वैयाकरणों में पतंजलि भी हैं। अन्य दो हैं - पाणिनि तथा कात्यायन (१५० ईशा पूर्व)। महाभाष्य में शिक्षा (phonology, including accent), व्याकरण (grammar and morphology) और निरुक्त (etymology) - तीनों की चर्चा हुई है। .

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रस (काव्य शास्त्र)

श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण में जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही काव्य में रस कहलाता है। रस से जिस भाव की अनुभूति होती है वह रस का स्थायी भाव होता है। रस, छंद और अलंकार - काव्य रचना के आवश्यक अवयव हैं। रस का शाब्दिक अर्थ है - निचोड़। काव्य में जो आनन्द आता है वह ही काव्य का रस है। काव्य में आने वाला आनन्द अर्थात् रस लौकिक न होकर अलौकिक होता है। रस काव्य की आत्मा है। संस्कृत में कहा गया है कि "रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्" अर्थात् रसयुक्त वाक्य ही काव्य है। रस अन्त:करण की वह शक्ति है, जिसके कारण इन्द्रियाँ अपना कार्य करती हैं, मन कल्पना करता है, स्वप्न की स्मृति रहती है। रस आनंद रूप है और यही आनंद विशाल का, विराट का अनुभव भी है। यही आनंद अन्य सभी अनुभवों का अतिक्रमण भी है। आदमी इन्द्रियों पर संयम करता है, तो विषयों से अपने आप हट जाता है। परंतु उन विषयों के प्रति लगाव नहीं छूटता। रस का प्रयोग सार तत्त्व के अर्थ में चरक, सुश्रुत में मिलता है। दूसरे अर्थ में, अवयव तत्त्व के रूप में मिलता है। सब कुछ नष्ट हो जाय, व्यर्थ हो जाय पर जो भाव रूप तथा वस्तु रूप में बचा रहे, वही रस है। रस के रूप में जिसकी निष्पत्ति होती है, वह भाव ही है। जब रस बन जाता है, तो भाव नहीं रहता। केवल रस रहता है। उसकी भावता अपना रूपांतर कर लेती है। रस अपूर्व की उत्पत्ति है। नाट्य की प्रस्तुति में सब कुछ पहले से दिया रहता है, ज्ञात रहता है, सुना हुआ या देखा हुआ होता है। इसके बावजूद कुछ नया अनुभव मिलता है। वह अनुभव दूसरे अनुभवों को पीछे छोड़ देता है। अकेले एक शिखर पर पहुँचा देता है। रस का यह अपूर्व रूप अप्रमेय और अनिर्वचनीय है। .

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ललितादित्य मुक्तपीड

जम्मू-कश्मीर का मार्तण्ड मंदिर का दृष्य; यह चित्र सन् १८६८ में जॉन बर्क ने लिया था ललितादित्य मुक्तापीड (राज्यकाल 724-761 ई) कश्मीर के कर्कोटा वंश के हिन्दू सम्राट थे। उनके काल में कश्मीर का विस्तार मध्य एशिया और बंगाल तक पहुंच गया। उन्होने अरब के मुसलमान आक्रान्ताओं को सफलतापूर्वक दबाया तथा तिब्बती सेनाओं को भी पीछे धकेला। उन्होने राजा यशोवर्मन को भी हराया जो हर्ष का एक उत्तराधिकारी था। उनका राज्‍य पूर्व में बंगाल तक, दक्षिण में कोंकण तक पश्चिम में तुर्किस्‍तान और उत्‍तर-पूर्व में तिब्‍बत तक फैला था। उन्होने अनेक भव्‍य भवनों का निर्माण किया। कार्कोट राजवंश की स्थापना दुर्र्लभवर्धन ने की थी। दुर्र्लभवर्धन गोन्दडिया वंश के अंतिम राजा बालादित्य के राज्य में अधिकारी थे। बलादित्य ने अपनी बेटी अनांगलेखा का विवाह कायस्थ जाति के एक सुन्दर लेकिन गैर-शाही व्यक्ति दुर्र्लभवर्धन के साथ किया। कार्कोटा एक नाग का नाम है ये नागवंशी कर्कोटक क्षत्रिय थे। प्रसिद्ध इतिहासकार आर सी मजुमदार के अनुसार ललितादित्य ने दक्षिण की महत्वपूर्ण विजयों के पश्चात अपना ध्यान उत्तर की तरफ लगाया जिससे उनका साम्राज्य काराकोरम पर्वत शृंखला के सूदूरवर्ती कोने तक जा पहुँचा। साहस और पराक्रम की प्रतिमूर्ति सम्राट ललितादित्य मुक्तापीड का नाम कश्मीर के इतिहास में सर्वोच्च स्थान पर है। उसका सैंतीस वर्ष का राज्य उसके सफल सैनिक अभियानों, उसके अद्भुत कला-कौशल-प्रेम और विश्व विजेता बनने की उसकी चाह से पहचाना जाता है। लगातार बिना थके युद्धों में व्यस्त रहना और रणक्षेत्र में अपने अनूठे सैन्य कौशल से विजय प्राप्त करना उसके स्वभाव का साक्षात्कार है। ललितादित्य ने पीकिंग को भी जीता और 12 वर्ष के पश्चात् कश्मीर लौटा। कश्मीर उस समय सबसे शक्तिशाली राज्य था। उत्तर में तिब्बत से लेकर द्वारिका और उड़ीसा के सागर तट और दक्षिण तक, पूर्व में बंगाल, पश्चिम में विदिशा और मध्य एशिया तक कश्मीर का राज्य फैला हुआ था जिसकी राजधानी प्रकरसेन नगर थी। ललितादित्य की सेना की पदचाप अरण्यक (ईरान) तक पहुंच गई थी। .

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शैव

भगवान शिव तथा उनके अवतारों को मानने वालों को शैव कहते हैं। शैव में शाक्त, नाथ, दसनामी, नाग आदि उप संप्रदाय हैं। महाभारत में माहेश्वरों (शैव) के चार सम्प्रदाय बतलाए गए हैं: (i) शैव (ii) पाशुपत (iii) कालदमन (iv) कापालिक। शैवमत का मूलरूप ॠग्वेद में रुद्र की आराधना में हैं। 12 रुद्रों में प्रमुख रुद्र ही आगे चलकर शिव, शंकर, भोलेनाथ और महादेव कहलाए। शैव धर्म से जुड़ी महत्‍वपूर्ण जानकारी और तथ्‍य: (1) भगवान शिव की पूजा करने वालों को शैव और शिव से संबंधित धर्म को शैवधर्म कहा जाता है। (2) शिवलिंग उपासना का प्रारंभिक पुरातात्विक साक्ष्य हड़प्पा संस्कृति के अवशेषों से मिलता है। (3) ऋग्वेद में शिव के लिए रुद्र नामक देवता का उल्लेख है। (4) अथर्ववेद में शिव को भव, शर्व, पशुपति और भूपति कहा जाता है। (5) लिंगपूजा का पहला स्पष्ट वर्णन मत्स्यपुराण में मिलता है। (6) महाभारत के अनुशासन पर्व से भी लिंग पूजा का वर्णन मिलता है। (7) वामन पुराण में शैव संप्रदाय की संख्या चार बताई गई है: (i) पाशुपत (ii) काल्पलिक (iii) कालमुख (iv) लिंगायत (7) पाशुपत संप्रदाय शैवों का सबसे प्राचीन संप्रदाय है। इसके संस्थापक लवकुलीश थे जिन्‍हें भगवान शिव के 18 अवतारों में से एक माना जाता है। (8) पाशुपत संप्रदाय के अनुयायियों को पंचार्थिक कहा गया, इस मत का सैद्धांतिक ग्रंथ पाशुपत सूत्र है। (9) कापलिक संप्रदाय के ईष्ट देव भैरव थे, इस संप्रदाय का प्रमुख केंद्र शैल नामक स्थान था। (10) कालामुख संप्रदाय के अनुयायिओं को शिव पुराण में महाव्रतधर कहा जाता है। इस संप्रदाय के लोग नर-पकाल में ही भोजन, जल और सुरापान करते थे और शरीर पर चिता की भस्म मलते थे। (11) लिंगायत समुदाय दक्षिण में काफी प्रचलित था। इन्हें जंगम भी कहा जाता है, इस संप्रदाय के लोग शिव लिंग की उपासना करते थे। (12) बसव पुराण में लिंगायत समुदाय के प्रवर्तक वल्लभ प्रभु और उनके शिष्य बासव को बताया गया है, इस संप्रदाय को वीरशिव संप्रदाय भी कहा जाता था। (13) दसवीं शताब्दी में मत्स्येंद्रनाथ ने नाथ संप्रदाय की स्थापना की, इस संप्रदाय का व्यापक प्रचार प्रसार बाबा गोरखनाथ के समय में हुआ। (14) दक्षिण भारत में शैवधर्म चालुक्य, राष्ट्रकूट, पल्लव और चोलों के समय लोकप्रिय रहा। (15) नायनारों संतों की संख्या 63 बताई गई है। जिनमें उप्पार, तिरूज्ञान, संबंदर और सुंदर मूर्ति के नाम उल्लेखनीय है। (16) पल्लवकाल में शैव धर्म का प्रचार प्रसार नायनारों ने किया। (17) ऐलेरा के कैलाश मदिंर का निर्माण राष्ट्रकूटों ने करवाया। (18) चोल शालक राजराज प्रथम ने तंजौर में राजराजेश्वर शैव मंदिर का निर्माण करवाया था। (19) कुषाण शासकों की मुद्राओं पर शिंव और नंदी का एक साथ अंकन प्राप्त होता है। (20) शिव पुराण में शिव के दशावतारों के अलावा अन्य का वर्णन मिलता है। ये दसों अवतार तंत्रशास्त्र से संबंधित हैं: (i) महाकाल (ii) तारा (iii) भुवनेश (iv) षोडश (v) भैरव (vi) छिन्नमस्तक गिरिजा (vii) धूम्रवान (viii) बगलामुखी (ix) मातंग (x) कमल (21) शिव के अन्य ग्यारह अवतार हैं: (i) कपाली (ii) पिंगल (iii) भीम (iv) विरुपाक्ष (v) विलोहित (vi) शास्ता (vii) अजपाद (viii) आपिर्बुध्य (ix) शम्भ (x) चण्ड (xi) भव (22) शैव ग्रंथ इस प्रकार हैं: (i) श्‍वेताश्वतरा उपनिषद (ii) शिव पुराण (iii) आगम ग्रंथ (iv) तिरुमुराई (23) शैव तीर्थ इस प्रकार हैं: (i) बनारस (ii) केदारनाथ (iii) सोमनाथ (iv) रामेश्वरम (v) चिदम्बरम (vi) अमरनाथ (vii) कैलाश मानसरोवर (24) शैव सम्‍प्रदाय के संस्‍कार इस प्रकार हैं: (i) शैव संप्रदाय के लोग एकेश्वरवादी होते हैं। (ii) इसके संन्यासी जटा रखते हैं। (iii) इसमें सिर तो मुंडाते हैं, लेकिन चोटी नहीं रखते। (iv) इनके अनुष्ठान रात्रि में होते हैं। (v) इनके अपने तांत्रिक मंत्र होते हैं। (vi) यह निर्वस्त्र भी रहते हैं, भगवा वस्त्र भी पहनते हैं और हाथ में कमंडल, चिमटा रखकर धूनी भी रमाते हैं। (vii) शैव चंद्र पर आधारित व्रत उपवास करते हैं। (viii) शैव संप्रदाय में समाधि देने की परंपरा है। (ix) शैव मंदिर को शिवालय कहते हैं जहां सिर्फ शिवलिंग होता है। (x) यह भभूति तीलक आड़ा लगाते हैं। (25) शैव साधुओं को नाथ, अघोरी, अवधूत, बाबा,औघड़, योगी, सिद्ध कहा जाता है। .

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शेषनाग

'''शेष-शायी विष्णु''' (शेष पर शयन करते विष्णु) कद्रू से उत्पन्न कश्यप के पुत्र जो नागों में प्रमुख थे। इनके सहस्र (हजार) फणों के कारण इनका दूसरा नाम 'अनंत' है। यह सदा पाताल में ही रहते थे और इनकी एक कला क्षीरसागर में भी है जिसपर विष्णु भगवान शयन करते हैं। अपनी तपस्या द्वारा इन्होंने ब्रह्मा से संपूर्ण पृथ्वी धारण करने का वरदान प्राप्त किया था। लक्ष्मण जी शेषनाग के ही अवतार माने जाते हैं।.

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साहित्य सिद्धान्त

साहित्य सिद्धान्त (Literary theory) साहित्य की प्रकृति का क्रमबद्ध अध्ययन एवं साहित्य के विश्लेषण की विधि है। वह विद्या या शास्त्र जिसमें रचनाओं के साहित्य पक्ष तथा स्वरूप पर शास्त्रीय ढंग से विचार किया जाता है। प्राचीन काव्यशास्त्र, जिसमें रसों, अलंकारों रीतियों आदि पर विचार किया जाता था, भी साहित्यशास्त्र है। .

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संस्कृत भाषा

संस्कृत (संस्कृतम्) भारतीय उपमहाद्वीप की एक शास्त्रीय भाषा है। इसे देववाणी अथवा सुरभारती भी कहा जाता है। यह विश्व की सबसे प्राचीन भाषा है। संस्कृत एक हिंद-आर्य भाषा हैं जो हिंद-यूरोपीय भाषा परिवार का एक शाखा हैं। आधुनिक भारतीय भाषाएँ जैसे, हिंदी, मराठी, सिन्धी, पंजाबी, नेपाली, आदि इसी से उत्पन्न हुई हैं। इन सभी भाषाओं में यूरोपीय बंजारों की रोमानी भाषा भी शामिल है। संस्कृत में वैदिक धर्म से संबंधित लगभग सभी धर्मग्रंथ लिखे गये हैं। बौद्ध धर्म (विशेषकर महायान) तथा जैन मत के भी कई महत्त्वपूर्ण ग्रंथ संस्कृत में लिखे गये हैं। आज भी हिंदू धर्म के अधिकतर यज्ञ और पूजा संस्कृत में ही होती हैं। .

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हिन्दू धर्म

हिन्दू धर्म (संस्कृत: सनातन धर्म) एक धर्म (या, जीवन पद्धति) है जिसके अनुयायी अधिकांशतः भारत,नेपाल और मॉरिशस में बहुमत में हैं। इसे विश्व का प्राचीनतम धर्म कहा जाता है। इसे 'वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म' भी कहते हैं जिसका अर्थ है कि इसकी उत्पत्ति मानव की उत्पत्ति से भी पहले से है। विद्वान लोग हिन्दू धर्म को भारत की विभिन्न संस्कृतियों एवं परम्पराओं का सम्मिश्रण मानते हैं जिसका कोई संस्थापक नहीं है। यह धर्म अपने अन्दर कई अलग-अलग उपासना पद्धतियाँ, मत, सम्प्रदाय और दर्शन समेटे हुए हैं। अनुयायियों की संख्या के आधार पर ये विश्व का तीसरा सबसे बड़ा धर्म है। संख्या के आधार पर इसके अधिकतर उपासक भारत में हैं और प्रतिशत के आधार पर नेपाल में हैं। हालाँकि इसमें कई देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, लेकिन वास्तव में यह एकेश्वरवादी धर्म है। इसे सनातन धर्म अथवा वैदिक धर्म भी कहते हैं। इण्डोनेशिया में इस धर्म का औपचारिक नाम "हिन्दु आगम" है। हिन्दू केवल एक धर्म या सम्प्रदाय ही नहीं है अपितु जीवन जीने की एक पद्धति है। .

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जालंधर

जालंधर भारत के पंजाब (भारत) प्रांत का एक शहर है। जालंधर एक बड़ा औद्योगिक शहर है। यहां चमड़े और खेल की वस्तुओं का अधिक उत्पादन होता है। जिस कारण यह सम्पूर्ण विश्व में विख्यात है। जालंधर पंजाब का सबसे पुराना शहर है। जालंधर वह जगह है जिसने देश को कई वीर योद्धा दिए है। जालंधर में ऐसे कई मंदिर, गुरूद्वारे, किले और संग्रहालय है जहां घूमा जा सकता है। .

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वाचस्पति मिश्र

वाचस्पति मिश्र (९०० - ९८० ई) भारत के दार्शनिक थे जिन्होने अद्वैत वेदान्त का भामती नामक सम्प्रदाय स्थापित किया। वाचस्पति मिश्र ने नव्य-न्याय दर्शन पर आरम्भिक कार्य भी किया जिसे मिथिला के १३वी शती के गंगेश उपाध्याय ने आगे बढ़ाया। .

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व्याकरण

किसी भी भाषा के अंग प्रत्यंग का विश्लेषण तथा विवेचन व्याकरण (ग्रामर) कहलाता है। व्याकरण वह विद्या है जिसके द्वारा किसी भाषा का शुद्ध बोलना, शुद्ध पढ़ना और शुद्ध लिखना आता है। किसी भी भाषा के लिखने, पढ़ने और बोलने के निश्चित नियम होते हैं। भाषा की शुद्धता व सुंदरता को बनाए रखने के लिए इन नियमों का पालन करना आवश्यक होता है। ये नियम भी व्याकरण के अंतर्गत आते हैं। व्याकरण भाषा के अध्ययन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। किसी भी "भाषा" के अंग प्रत्यंग का विश्लेषण तथा विवेचन "व्याकरण" कहलाता है, जैसे कि शरीर के अंग प्रत्यंग का विश्लेषण तथा विवेचन "शरीरशास्त्र" और किसी देश प्रदेश आदि का वर्णन "भूगोल"। यानी व्याकरण किसी भाषा को अपने आदेश से नहीं चलाता घुमाता, प्रत्युत भाषा की स्थिति प्रवृत्ति प्रकट करता है। "चलता है" एक क्रियापद है और व्याकरण पढ़े बिना भी सब लोग इसे इसी तरह बोलते हैं; इसका सही अर्थ समझ लेते हैं। व्याकरण इस पद का विश्लेषण करके बताएगा कि इसमें दो अवयव हैं - "चलता" और "है"। फिर वह इन दो अवयवों का भी विश्लेषण करके बताएगा कि (च् अ ल् अ त् आ) "चलता" और (ह अ इ उ) "है" के भी अपने अवयव हैं। "चल" में दो वर्ण स्पष्ट हैं; परंतु व्याकरण स्पष्ट करेगा कि "च" में दो अक्षर है "च्" और "अ"। इसी तरह "ल" में भी "ल्" और "अ"। अब इन अक्षरों के टुकड़े नहीं हो सकते; "अक्षर" हैं ये। व्याकरण इन अक्षरों की भी श्रेणी बनाएगा, "व्यंजन" और "स्वर"। "च्" और "ल्" व्यंजन हैं और "अ" स्वर। चि, ची और लि, ली में स्वर हैं "इ" और "ई", व्यंजन "च्" और "ल्"। इस प्रकार का विश्लेषण बड़े काम की चीज है; व्यर्थ का गोरखधंधा नहीं है। यह विश्लेषण ही "व्याकरण" है। व्याकरण का दूसरा नाम "शब्दानुशासन" भी है। वह शब्दसंबंधी अनुशासन करता है - बतलाता है कि किसी शब्द का किस तरह प्रयोग करना चाहिए। भाषा में शब्दों की प्रवृत्ति अपनी ही रहती है; व्याकरण के कहने से भाषा में शब्द नहीं चलते। परंतु भाषा की प्रवृत्ति के अनुसार व्याकरण शब्दप्रयोग का निर्देश करता है। यह भाषा पर शासन नहीं करता, उसकी स्थितिप्रवृत्ति के अनुसार लोकशिक्षण करता है। .

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आचार्य आनन्दवर्धन

आचार्य आनन्दवर्धन, काव्यशास्त्र में ध्वनि सम्प्रदाय के प्रवर्तक के रूप में प्रसिद्ध हैं। काव्यशास्त्र के ऐतिहासिक पटल पर आचार्य रुद्रट के बाद आचार्य आनन्दवर्धन आते हैं और इनका ग्रंथ ‘ध्वन्यालोक’ काव्य शास्त्र के इतिहास में मील का पत्थर है। आचार्य आनन्दवर्धन कश्मीर के निवासी थे और ये तत्कालीन कश्मीर नरेश अवन्तिवर्मन के समकालीन थे। इस सम्बंध में महाकवि कल्हण ‘राजतरंगिणी’ में लिखते हैं: कश्मीर नरेश अवन्तिवर्मन का राज्यकाल 855 से 884 ई. है। अतएव आचार्य आनन्दवर्धन का काल भी नौवीं शताब्दी मानना चाहिए। इन्होंने पाँच ग्रंथों की रचना की है- विषमबाणलीला, अर्जुनचरित, देवीशतक, तत्वालोक और ध्वन्यालोक। .

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कश्मीर

ये लेख कश्मीर की वादी के बारे में है। इस राज्य का लेख देखने के लिये यहाँ जायें: जम्मू और कश्मीर। एडवर्ड मॉलीनक्स द्वारा बनाया श्रीनगर का दृश्य कश्मीर (कश्मीरी: (नस्तालीक़), कॅशीर) भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे उत्तरी भौगोलिक क्षेत्र है। कश्मीर एक मुस्लिमबहुल प्रदेश है। आज ये आतंकवाद से जूझ रहा है। इसकी मुख्य भाषा कश्मीरी है। जम्मू और कश्मीर के बाक़ी दो खण्ड हैं जम्मू और लद्दाख़। .

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कश्मीर शैवदर्शन

कश्मीर शैवदर्शन के अनुसार ३६ तत्व हैं। वसुगुप्त कृत शिवसूत्र इसका मूल ग्रन्थ है। क्रम, कुल, स्पन्द और प्रत्यभिज्ञ इसके चार अंग माने जाते हैं। यह एक अद्वैत दर्शन है। अभिनवगुप्त का तन्त्रालोक इसका महान ग्रन्थ है। शैवदर्शन, कश्मीर शैवदर्शन, कश्मीर.

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क्षेमराज

क्षेमराज (१०वीं शताब्दी का उत्तरार्ध -- ११वीं शताब्दी का पूर्वार्ध) एक दार्शनिक थे। वे अभिनवगुप्त के शिष्य थे। क्षेमराज तन्त्र, योग, काव्यशास्त्र तथा नाट्यशास्त्र के पण्डित थे। उनके जीवन एवं माता-पिता आदि के बारे में बहुत कम ज्ञात है। प्रत्याभिज्ञानहृदयम् नामक उनकी कृति का कश्मीर के 'त्रिक' साहित्य में वही स्थान है जो वेदान्तसार का अद्वैत दर्शन में। .

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क्षेमेंद्र

क्षेमेन्द्र (जन्म लगभग 1025-1066) संस्कृत के प्रतिभासंपन्न काश्मीरी महाकवि थे। ये विद्वान ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हुए थे। ये सिंधु के प्रपौत्र, निम्नाशय के पौत्र और प्रकाशेंद्र के पुत्र थे। इन्होंने प्रसिद्ध आलोचक तथा तंतरशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान् अभिनवगुप्त से साहित्यशास्त्र का अध्ययन किया था। इनके पुत्र सोमेन्द्र ने पिता की रचना बोधिसत्त्वावदानकल्पलता को एक नया पल्लव (कथा) जोड़कर पूरा किया था। .

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अद्वैत वेदान्त

अद्वैत वेदान्त वेदान्त की एक शाखा। अहं ब्रह्मास्मि अद्वैत वेदांत यह भारत में प्रतिपादित दर्शन की कई विचारधाराओँ में से एक है, जिसके आदि शंकराचार्य पुरस्कर्ता थे। भारत में परब्रह्म के स्वरूप के बारे में कई विचारधाराएं हैँ। जिसमें द्वैत, अद्वैत या केवलाद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत जैसी कई सैद्धांतिक विचारधाराएं हैं। जिस आचार्य ने जिस रूप में ब्रह्म को जाना उसका वर्णन किया। इतनी विचारधाराएं होने पर भी सभी यह मानते है कि भगवान ही इस सृष्टि का नियंता है। अद्वैत विचारधारा के संस्थापक शंकराचार्य हैं, जिसे शांकराद्वैत या केवलाद्वैत भी कहा जाता है। शंकराचार्य मानते हैँ कि संसार में ब्रह्म ही सत्य है। बाकी सब मिथ्या है (ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या)। जीव केवल अज्ञान के कारण ही ब्रह्म को नहीं जान पाता जबकि ब्रह्म तो उसके ही अंदर विराजमान है। उन्होंने अपने ब्रह्मसूत्र में "अहं ब्रह्मास्मि" ऐसा कहकर अद्वैत सिद्धांत बताया है। वल्लभाचार्य अपने शुद्धाद्वैत दर्शन में ब्रह्म, जीव और जगत, तीनों को सत्य मानते हैं, जिसे वेदों, उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र, गीता तथा श्रीमद्भागवत द्वारा उन्होंने सिद्ध किया है। अद्वैत सिद्धांत चराचर सृष्टि में भी व्याप्त है। जब पैर में काँटा चुभता है तब आखोँ से पानी आता है और हाथ काँटा निकालनेके लिए जाता है। ये अद्वैत का एक उत्तम उदाहरण है। शंकराचार्य का ‘एकोब्रह्म, द्वितीयो नास्ति’ मत था। सृष्टि से पहले परमब्रह्म विद्यमान थे। ब्रह्म सत और सृष्टि जगत असत् है। शंकराचार्य के मत से ब्रह्म निर्गुण, निष्क्रिय, सत-असत, कार्य-कारण से अलग इंद्रियातीत है। ब्रह्म आंखों से नहीं देखा जा सकता, मन से नहीं जाना जा सकता, वह ज्ञाता नहीं है और न ज्ञेय ही है, ज्ञान और क्रिया के भी अतीत है। माया के कारण जीव ‘अहं ब्रह्म’ का ज्ञान नहीं कर पाता। आत्मा विशुद्ध ज्ञान स्वरूप निष्क्रिय और अनंत है, जीव को यह ज्ञान नहीं रहता। .

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अभिनवभारती

अभिनवभारती, अभिनवगुप्त की रचना है। यह भरत मुनि के नाट्यशास्त्र की टीका है। वस्तुत: नाट्यशास्त्र की यह एकमात्र पुरानी टीका है। इसमें अभिनवगुप्त ने आनन्दवर्धन के ध्वन्यालोक में प्रतिपादित 'अभिव्यक्ति के सिद्धान्त' और कश्मीर के प्रत्यभिज्ञा दर्शन के प्रकाश में भरतमुनि के रससूत्र की व्याख्या की है। .

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अभिव्यंजनावाद

'''मैके''': रूसी बैलेट (१९१२) अभिव्यंजनावाद इटली,जर्मनी और आस्ट्रिया से प्रादुर्भूत प्रधानत: मध्य यूरोप की एक चित्र-मूर्ति-शैली है जिसका प्रयोग साहित्य, नृत्य और सिनेमा के क्षेत्र में भी हुआ है। सिद्धांत रूप में इसका साहित्यिक प्रतिपादन इटली के विचारक बेनेदितो क्रोचे ने किया। क्रोचे के अनुसार "अंतःप्रज्ञा के क्षणों में आत्मा की सहजानुभूति ही अभिव्यंजना है"। कला के क्षेत्र में इसे आवाँ गार्द (हिरावल दस्ते) के रूप में जाना जाता है। अभिव्यंजनावाद की मूल संकल्पना है कि कला का अनुभव बिजली की कौंध की तरह होता है, अतः यह शैली वर्णनात्मक अथवा चाक्षुष न होकर विश्लेषणात्मक और आभ्यंतरिक होती है। उस भाववादी (इंप्रेशनिस्टिक) शैली के विपरीत जिसमें कलाकार की अभिरुचि प्रकाश और गति में ही केंद्रित होती है। यहीं तक सीमित न होकर अभिव्यंजनावादी प्रकाश का प्रयोग बाह्म रूप को भेद भीतर का तथ्य प्राप्त कर लेने, आंतरिक सत्य से साक्षात्कार करने और गति के भावप्रक्षेपण आत्मान्वेषण के लिए करता है। वह रूप, रंगादि के विरूपण द्वारा वस्तुओं का स्वाभाविक आकार नष्ट कर अनेक आंतरिक आवेगात्मक सत्य को ढूँढ़ता है। .

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अलंकार शास्त्र

संस्कृत आलोचना के अनेक अभिधानों में अलंकारशास्त्र ही नितांत लोकप्रिय अभिधान है। इसके प्राचीन नामों में क्रियाकलाप (क्रिया काव्यग्रंथ; कल्प विधान) वात्स्यायन द्वारा निर्दिष्ट 64 कलाओं में से अन्यतम है। राजशेखर द्वारा उल्लिखित "साहित्य विद्या" नामकरण काव्य की भारतीय कल्पना के ऊपर आश्रित है, परंतु ये नामकरण प्रसिद्ध नहीं हो सके। "अलंकारशास्त्र" में अलंकार शब्द का प्रयोग व्यापक तथा संकीर्ण दोनों अर्थों में समझना चाहिए। अलंकार के दो अर्थ मान्य हैं -.

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यहां पुनर्निर्देश करता है:

अभिनव गुप्त

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