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अपभ्रंश और स्वयंभू (अपभ्रंश के कवि)

शॉर्टकट: मतभेद, समानता, समानता गुणांक, संदर्भ

अपभ्रंश और स्वयंभू (अपभ्रंश के कवि) के बीच अंतर

अपभ्रंश vs. स्वयंभू (अपभ्रंश के कवि)

अपभ्रंश, आधुनिक भाषाओं के उदय से पहले उत्तर भारत में बोलचाल और साहित्य रचना की सबसे जीवंत और प्रमुख भाषा (समय लगभग छठी से १२वीं शताब्दी)। भाषावैज्ञानिक दृष्टि से अपभ्रंश भारतीय आर्यभाषा के मध्यकाल की अंतिम अवस्था है जो प्राकृत और आधुनिक भाषाओं के बीच की स्थिति है। अपभ्रंश के कवियों ने अपनी भाषा को केवल 'भासा', 'देसी भासा' अथवा 'गामेल्ल भासा' (ग्रामीण भाषा) कहा है, परंतु संस्कृत के व्याकरणों और अलंकारग्रंथों में उस भाषा के लिए प्रायः 'अपभ्रंश' तथा कहीं-कहीं 'अपभ्रष्ट' संज्ञा का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार अपभ्रंश नाम संस्कृत के आचार्यों का दिया हुआ है, जो आपाततः तिरस्कारसूचक प्रतीत होता है। महाभाष्यकार पतंजलि ने जिस प्रकार 'अपभ्रंश' शब्द का प्रयोग किया है उससे पता चलता है कि संस्कृत या साधु शब्द के लोकप्रचलित विविध रूप अपभ्रंश या अपशब्द कहलाते थे। इस प्रकार प्रतिमान से च्युत, स्खलित, भ्रष्ट अथवा विकृत शब्दों को अपभ्रंश की संज्ञा दी गई और आगे चलकर यह संज्ञा पूरी भाषा के लिए स्वीकृत हो गई। दंडी (सातवीं शती) के कथन से इस तथ्य की पुष्टि होती है। उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि शास्त्र अर्थात् व्याकरण शास्त्र में संस्कृत से इतर शब्दों को अपभ्रंश कहा जाता है; इस प्रकार पालि-प्राकृत-अपभ्रंश सभी के शब्द 'अपभ्रंश' संज्ञा के अंतर्गत आ जाते हैं, फिर भी पालि प्राकृत को 'अपभ्रंश' नाम नहीं दिया गया। . स्वयंभू, अपभ्रंश भाषा के महाकवि थे। स्वयंभू की उपलब्ध रचनाओं से उनके विषय में इतना ही ज्ञात होता है कि उनके पिता का नाम मारुतदेव और माता का पद्मिनी था। स्वयंभू छंदस् में एक दोहा माउरदेवकृत भी उद्धृत है, जो संभवत: कवि के पिता का ही है। उनके अनेक पुत्रों में से सबसे छोटे त्रिभुवन स्वयंभू थे, जिन्होंने कवि के उक्त दोनों काव्यों को उनकी मृत्यु के बाद अपनी रचना द्वारा पूरा किया था। कवि ने अपने रिट्ठीमिचरिउ के आरंभ में भरत, पिंगल, भामह और दण्डी के अतिरिक्त बाण और हर्ष का भी उल्लेख किया है, जिससे उनका काल ई. की सातवीं शती के मध्य के पश्चात् सिद्ध होता है। स्वयंभू का उल्लेख पुष्पदन्त ने अपने महापुराण में किया है, जो ई. सन् 965 में पूर्ण हुआ था। अतएव स्वयंभू का रचनाकाल इन्ही दो सीमाओं के भीतर सिद्ध होता है। अभी तक इनकी तीन रचनाएँ उपलब्ध हुई हैं - पउमचरिउ (पद्मचरित), रिट्ठणेमिचरिउ (अरिष्ट नेमिचरित या हरिवंश पुराण) और स्वयंभू छंदस्। इनमें की प्रथम दो रचनाएँ काव्यात्मक तथा तीसरी प्राकृत-अपभ्रंश छंदशास्त्रविषयक है। ज्ञात अपभ्रंश प्रबंध काव्यों में स्वयंभू की प्रथम दो रचनाएँ ही सर्वप्राचीन, उत्कृष्ट और विशाल पाई जाती हैं और इसीलिए उन्हें अपभ्रंश का आदि महाकवि भी कहा गया है। स्वयंभू की रचनाओं में महाकाव्य के सभी गुण सुविकसित पाए जाते हैं और उनका पश्चात्कालीन अपभ्रंश कविता पर बड़ा प्रभाव पड़ा है। पुष्पदंत आदि कवियों ने उनका नाम बड़े आदर से लिया है। स्वयंभू ने स्वयं अपने से पूर्ववर्ती चउमुह (चतुर्मुख) नामक कवि का उल्लेख किया है, जिनके पद्धडिया, छंडनी, दुबई तथा ध्रुवक छंदों को उन्होंने अपनाया है। दुर्भाग्यवश चतुर्मुख की कोई स्वतंत्र रचना अभी तक उपलब्ध नहीं हो सकी है। .

अपभ्रंश और स्वयंभू (अपभ्रंश के कवि) के बीच समानता

अपभ्रंश और स्वयंभू (अपभ्रंश के कवि) आम में 5 बातें हैं (यूनियनपीडिया में): दण्डी, पउमचरिउ, पुष्पदन्त, भामह, महापुराण

दण्डी

दण्डी संस्कृत भाषा के प्रसिद्ध साहित्यकार हैं। इनके जीवन के संबंध में प्रामाणिक सूचनाओं का अभाव है। कुछ विद्वान इन्हें सातवीं शती के उत्तरार्ध या आठवीं शती के प्रारम्भ का मानते हैं तो कुछ विद्वान इनका जन्म 550 और 650 ई० के मध्य मानते हैं। .

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पउमचरिउ

पउमचरिउ, रामकथा पर आधारित अपभ्रंश का एक महाकाव्य है जिसके रचयिता जैन कवि स्वयंभू (सत्यभूदेव) हैं। लगभग छठी से बारहवीं शती तक उत्तर भारत में साहित्य और बोलचाल में व्यवहृत प्राकृति की उत्तराधिकारिणी भाषाएँ अपभ्रंश कहलाईं। अपभ्रंश के प्रबंधात्मक साहित्य के प्रमुख प्रतिनिधि कवि थे- स्वयंभू, जिनका जन्म लगभग साढ़े आठ सौ वर्ष पूर्व बरार प्रांत में हुआ था। स्वयंभू जैन मत के माननेवाले थे। उन्होंने रामकथा पर आधारित पउम चरिउ की रचना की जिसमें बारह हजार पद हैं। जैन मत में राजा राम के लिए 'पद्म' शब्द का प्रयोग होता है, इसलिए स्वयंभू की रामायण को 'पद्म चरित' (पउम चरिउ) कहा गया। इसकी सूचना छह वर्ष तीन मास ग्यारह दिन में पूरी हुई। मूलरूप से इस रामायण में कुल 92 सर्ग थे, जिनमें स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन ने अपनी ओर से 16 सर्ग और जोड़े। गोस्वामी तुलसीदास के 'रामचरित मानस' पर महाकवि स्वयंभू रचित 'पउम चरिउ' का प्रभाव स्पष्ट दिखलाई पड़ता है। .

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पुष्पदन्त

पुष्पदन्त नाम के कई प्रसिद्ध व्यक्ति हुए हैं।.

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भामह

आचार्य भामह संस्कृत भाषा के सुप्रसिद्ध आचार्य थे। उन का काल निर्णय भी अन्य पूर्ववर्ती आचार्यों की तरह विवादपूर्ण है। परंतु अनेक प्रमाणो से यह सिद्ध होता है कि भामह ३०० ई० से ६०० ई० के मध्ये हुए। उन्होंने अपने काव्य अलंकार ग्रन्थ के अन्त में अपने पिता का नाम रकृतगोविन बताया है। आचार्य भरतमुनि के बाद प्रथम आचार्य भामह ही हैं काव्यशास्त्र पर काव्यालंकार नामक ग्रंथ उपलब्ध है। यह अलंकार शास्त्र का प्रथम उपलब्ध ग्रन्थ है। जो विंशति (२०वी) शताब्दी के आरंभ में प्रकाशित हुआ था। इन्हें अलंकार संप्रदाय का जनक कहते हैं। श्रेणी:संस्कृत ग्रंथ श्रेणी:संस्कृत साहित्य.

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महापुराण

महापुराण जैन धर्म से संबंधित दो भिन्न प्रकार के काव्य ग्रंथों का नाम है, जिनमें से एक की रचना संस्कृत में हुई है तथा दूसरे की अपभ्रंश में। संस्कृत में रचित 'महापुराण' के पूर्वार्ध (आदिपुराण) के रचयिता आचार्य जिनसेन हैं तथा उत्तरार्ध (उत्तरपुराण) के रचयिता आचार्य गुणभद्र। अपभ्रंश में रचित बृहत् ग्रंथ 'महापुराण' के रचयिता महाकवि पुष्पदन्त हैं। .

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सूची के ऊपर निम्न सवालों के जवाब

अपभ्रंश और स्वयंभू (अपभ्रंश के कवि) के बीच तुलना

अपभ्रंश 23 संबंध है और स्वयंभू (अपभ्रंश के कवि) 12 है। वे आम 5 में है, समानता सूचकांक 14.29% है = 5 / (23 + 12)।

संदर्भ

यह लेख अपभ्रंश और स्वयंभू (अपभ्रंश के कवि) के बीच संबंध को दर्शाता है। जानकारी निकाला गया था, जिसमें से एक लेख का उपयोग करने के लिए, कृपया देखें:

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