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अनुवाद और ओविद

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अनुवाद और ओविद के बीच अंतर

अनुवाद vs. ओविद

किसी भाषा में कही या लिखी गयी बात का किसी दूसरी भाषा में सार्थक परिवर्तन अनुवाद (Translation) कहलाता है। अनुवाद का कार्य बहुत पुराने समय से होता आया है। संस्कृत में 'अनुवाद' शब्द का उपयोग शिष्य द्वारा गुरु की बात के दुहराए जाने, पुनः कथन, समर्थन के लिए प्रयुक्त कथन, आवृत्ति जैसे कई संदर्भों में किया गया है। संस्कृत के ’वद्‘ धातु से ’अनुवाद‘ शब्द का निर्माण हुआ है। ’वद्‘ का अर्थ है बोलना। ’वद्‘ धातु में 'अ' प्रत्यय जोड़ देने पर भाववाचक संज्ञा में इसका परिवर्तित रूप है 'वाद' जिसका अर्थ है- 'कहने की क्रिया' या 'कही हुई बात'। 'वाद' में 'अनु' उपसर्ग उपसर्ग जोड़कर 'अनुवाद' शब्द बना है, जिसका अर्थ है, प्राप्त कथन को पुनः कहना। इसका प्रयोग पहली बार मोनियर विलियम्स ने अँग्रेजी शब्द टांंसलेशन (translation) के पर्याय के रूप में किया। इसके बाद ही 'अनुवाद' शब्द का प्रयोग एक भाषा में किसी के द्वारा प्रस्तुत की गई सामग्री की दूसरी भाषा में पुनः प्रस्तुति के संदर्भ में किया गया। वास्तव में अनुवाद भाषा के इन्द्रधनुषी रूप की पहचान का समर्थतम मार्ग है। अनुवाद की अनिवार्यता को किसी भाषा की समृद्धि का शोर मचा कर टाला नहीं जा सकता और न अनुवाद की बहुकोणीय उपयोगिता से इन्कार किया जा सकता है। ज्त्।छैस्।ज्प्व्छ के पर्यायस्वरूप ’अनुवाद‘ शब्द का स्वीकृत अर्थ है, एक भाषा की विचार सामग्री को दूसरी भाषा में पहुँचना। अनुवाद के लिए हिंदी में 'उल्था' का प्रचलन भी है।अँग्रेजी में TRANSLATION के साथ ही TRANSCRIPTION का प्रचलन भी है, जिसे हिंदी में 'लिप्यन्तरण' कहा जाता है। अनुवाद और लिप्यंतरण का अंतर इस उदाहरण से स्पष्ट है- इससे स्पष्ट है कि 'अनुवाद' में हिंदी वाक्य को अँग्रेजी में प्रस्तुत किया गया है जबकि लिप्यंतरण में नागरी लिपि में लिखी गयी बात को मात्र रोमन लिपि में रख दिया गया है। अनुवाद के लिए 'भाषांतर' और 'रूपांतर' का प्रयोग भी किया जाता रहा है। लेकिन अब इन दोनों ही शब्दों के नए अर्थ और उपयोग प्रचलित हैं। 'भाषांतर' और 'रूपांतर' का प्रयोग अँग्रेजी के INTERPRETATION शब्द के पर्याय-स्वरूप होता है, जिसका अर्थ है दो व्यक्तियों के बीच भाषिक संपर्क स्थापित करना। कन्नडभाषी व्यक्ति और असमियाभाषी व्यक्ति के बीच की भाषिक दूरी को भाषांतरण के द्वारा ही दूर किया जाता है। 'रूपांतर' शब्द इन दिनों प्रायः किसी एक विधा की रचना की अन्य विधा में प्रस्तुति के लिए प्रयुक्त है। जैस, प्रेमचन्द के उपन्यास 'गोदान' का रूपांतरण 'होरी' नाटक के रूप में किया गया है। किसी भाषा में अभिव्यक्त विचारों को दूसरी भाषा में यथावत् प्रस्तुत करना अनुवाद है। इस विशेष अर्थ में ही 'अनुवाद' शब्द का अभिप्राय सुनिश्चित है। जिस भाषा से अनुवाद किया जाता है, वह मूलभाषा या स्रोतभाषा है। उससे जिस नई भाषा में अनुवाद करना है, वह 'प्रस्तुत भाषा' या 'लक्ष्य भाषा' है। इस तरह, स्रोत भाषा में प्रस्तुत भाव या विचार को बिना किसी परिवर्तन के लक्ष्यभाषा में प्रस्तुत करना ही अनुवाद है।ज . ओविद (Ovid; 20 मार्च 43 ईसापूर्व – 17/18) रोमन कवि था। उसका जन्म अगस्तस के राज्यकाल में हुआ था। इसका पूरा नाम ओविदियुस नासो (Publius Ovidius Naso (Classical Latin) था। इसका जन्म सुल्मो नामक नगर में हुआ था और यह जन्मना अश्वारोही पद का अधिकारी था। इसने रोम में विधि (कानून) और वाक्चातुर्य की शिक्षा प्राप्त की थी। अरेल्लियुस फ़ुस्फ़स और पोर्कियुस लात्रो इसके गुरु थे। यद्यपि इसके पिता ने इसे अधिवक्ता या वकील बनाना चाहा, तथापि वह अपना हृदय आरंभ से ही कविता को समर्पित कर चुका था। कुछ समय तक तो यह अपने पिता की आज्ञा मानकर अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए एथेंस में रहा किंतु तत्पश्चात् इसने सिसली और लघु एशिया (asia minor) की यात्रा की। युवावस्था में पिता की मृत्यु के पश्चात् इसने रोम नगर में अपने को कविता और प्रेम को समर्पित कर दिया। पैतृक संपत्ति के कारण यह आर्थिक चिंताओं से मुक्त था। इसने तीन बार विवाह किया और संभवत: दूसरे विवाह से उसकी एकमात्र संतान एक पुत्री का जन्म हुआ। ई.पू. १४ में उसकी प्रथम रचना 'अमोरेस' निर्मित हुई। इसमें उसने एक काल्पनिक प्रेमिका कोरिन्न के प्रति अपने हृदय की प्रेमभावना को काव्य का रूप प्रदान किया। प्रथम संस्करण में इसमें पाँच पुस्तकें (अध्याय) थीं, पर दूसरे संस्करण में पुस्तकों की संख्या घटाकर तीन कर दी गई। निर्मित होते ही इस पुस्तक के लेखक की ख्याति सारे रोम में फैल गई। इसी समय के आसपास उसने 'मीडिया' नामक ट्रैजडी की भी रचना की। परंतु आजकल इस नाटक की कुछ पंक्तियाँ ही उपलब्ध हैं। इसके पश्चात् उसने वीरांगनाओं के प्रेमपत्रों की रचना की जिनका प्रकाशन 'हेराइदेस' के नाम से हुआ। सब पत्रों की संख्या २१ है, पर मूलत: इन पत्रों की संख्या इससे अधिक थी। बंगीय कवि माइकेल मधुसूदन दत्त ने इस रचना के अनुकरण पर 'वीरांगना' नामक काव्य की रचना की है। आविद के मित्र आउलुस साबिनुस ने इन पत्रों का उत्तर लिखना आरंभ किया था। साबिनुस के भी तीन पत्र उपलब्ध हैं। ई.पू. २ में ओविद की प्रेम संबंधी सर्वोत्कृष्ट रचना 'आर्स अमातोरिया' (प्रेम की कला) है। प्रेम की देवी वेनुस के द्वारा कवि को प्रेम की कला का दीक्षागुरु नियुक्त किया गया है अतएव उसने तीन पुस्तकों में इस काव्य की रचना की, ऐसा ओविद ने इस ग्रंथ के आदि और अंत में लिखा है। उस समय की रंग-रेलियों से पूर्ण रोमन समाज की पृष्ठभूमि में इस काव्य के प्रकाशन से दो परिणाम घटित हुए। एक ओर तो कवि उस समाज का सुधार करने के लिए कटिबद्ध था तथा जिसने आचरण संबंधी शिथिलता के कारण अपनी एकमात्र संतान यूलिया (जूलिया) तक को निर्वासित कर दिया था, कवि के प्रति अत्यंत रुष्ट हो गया। कवि ने प्रायश्चितस्वरूप 'रेमेदिया अमोरिस' (प्रेम का उपचार) नामक काव्य की रचना की जो आकार में 'प्रेम की कला' के तृतीयांश के बराबर है। इस रचना में प्रेमोन्माद को दूर करने के उपाय बतलाए गए हैं। संभवतया इस समय से कुछ पहले उसने एक छोटी सी कविता साजशृंगार के संबंध में भी लिखी थी जिसका नाम 'मेदिकामिना फ़ेमिनियाए' (रमणियों के मुखड़े का इलाज) है। इसकी सामग्री यूनानी ग्रंथों से ग्रहण की गई है। 'प्रेम की कला' में ओविद की प्रतिभा अपनी उन्नति के शिखर पर पहुँच चुकी थी। अब उसने दो महान् रचनाओं का श्रीगणेश किया जिनमें प्रथम का नाम है मेतामोर्फ़ोसेस (रूपांतर) और दूसरी का 'फ़ास्ती' (वात्सरिक उत्सवमालिका)। यूनान और रोम दोनों ही राष्ट्रों में ऐसी प्राचीन कथाएँ मिलती हैं जिनमें अनेक वस्तुओं और मनुष्यों के रूपांतर का वर्णन पाया जाता है; जैसे अव्यवस्था का व्यवस्था में परिवर्तित हो जाना, जूलियुस कैसर (सीज़र) का मरणोपरांत तारे के रूप में बदल जाना, इत्यादि। ओविद ने कथाओं को १५ पुस्तकों में एक विशाल एवं कलापूर्ण काव्य के रूप में प्रस्तुत किया है। यह काव्य यूरोप की कला और साहित्य का आकरग्रंथ सिद्ध हुआ। पाश्चात्य जगत् की पौराणिक कथाओं से परिचित होने के लिए अकेली रचना पर्याप्त है। फ़ास्ती (वास्तरिक उत्सवमालिका) में कवि ने रोमन संवत्सर के प्रत्येक मास का ज्योतिष, इतिहास और धर्म की दृष्टि से वर्णन आरंभ किया था। परंतु इसी समय, लगभग ७ ई. में, कवि के भाग्य ने पलटा खाया और जब वह ऐल्बानामक द्वीप में था, उसको पता चला कि सम्राट् औगुस्तु ने उसको निर्वासित कर दिया। उसकी संपत्ति का अपहरण नहीं किया, और निर्वासन की आज्ञा में कोई कारण भी निर्दिष्ट नहीं किया गया। इसके अनुसार उसको अपना शेष जीवन कृष्णसागर के तट पर स्थित'तोमिस' (वर्तमान नाम कॉस्तांज़ा) में व्यतीत करना पड़ा। यह नगर सभ्यता की परिधि से परे था। इसी समय के लगभग सम्राट् ने अपनी दौहित्री छोटी यूलिया (जूलिया) को भी आचारशैथिल्य के कारण निर्वासित किया था। कुछ व्यक्ति इन दोनों निर्वासनों का संबंध जोड़ते हैं पर वास्तविकता का पता किसी को नहीं है। तोमिस में कवि का जीवन अत्यंत दु:खमय था। उसने वहाँ जो पद्यमय पत्रादि लिखे उनमें अपने निर्वासन को समाप्त करने की प्रार्थना न जाने कितने व्यक्तियों से कितनी बार और कितने प्रकार से की। परंतु उसका फल कुछ नहीं निकला। औगुस्तु के पश्चात् तिबेरियुस सम्राट् बना किंतु उसने भी आविद की एक न सुनी। अंत में यहीं ई. १७ या १८ में उसकी जीवनलीला समाप्त हो गई। तोमिस से उसने जो कवित्वमय पत्र लिखे उनका संग्रह 'तिस्तिया' कहलाता है। इसको ओविद का विशालकाय 'मेघदूत' कह सकते हैं। इन पत्रों में कवि की व्यथा का वर्णन है। जो पत्र उसने अपनी पत्नी और पुत्री को लिखे हैं वे कारुण्य से परिपूर्ण हैं। एक दूसरा पत्रसंग्रह 'ऐपिस्तुलाए ऐक्स पोत्तो' कहलाता है। व्यथित कवि ने 'इबिस' नाम से एक अभिशाप भी लिखा है जिसमें उसने एक 'अनाम' शत्रु को शाप दिया है। इसके अतिरिक्त उसने दो छोटी पुस्तकें मछलियों और अखरोट के संबंध में 'हलियुतिका' और 'नुक्स' नाम से लिखी थीं। ओविद की बहुत सी रचनाएँ आजकल विलुप्त हो चुकी हैं, उनके यत्रतत्र उल्लेख भर मिलते हैं। ओविद मुख्यतया प्रेम का कवि है। उसके चरित्र में प्राचीन रोमन वीरों की दृढ़ता नहीं थी। एक प्रकार से उसका चरित्र भावी इटालियन कासानोवा के चरित्र का पूर्वाभास था। उसकी शैली स्वच्छ और ओजस्वी है। प्राचीन यूनान और रोम के साहित्य का उसका ज्ञान अगाध था। आगे आनेवाले यूरोपीय साहित्य और कला पर उसकी प्रतिभा की छाप अमिट रूप से विद्यमान है। 'मेतामोर्फ़ोसिस' (रूपांतर) के अंत में उसने लिखा था 'पैर साइकुला ओम्निया विवाम्-मैं जीऊँगा सदा सर्वदा। श्रेणी:रोमन कवि.

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