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अकबर और जोधा अकबर (टीवी धारावाहिक)

शॉर्टकट: मतभेद, समानता, समानता गुणांक, संदर्भ

अकबर और जोधा अकबर (टीवी धारावाहिक) के बीच अंतर

अकबर vs. जोधा अकबर (टीवी धारावाहिक)

जलाल उद्दीन मोहम्मद अकबर (१५ अक्तूबर, १५४२-२७ अक्तूबर, १६०५) तैमूरी वंशावली के मुगल वंश का तीसरा शासक था। अकबर को अकबर-ऐ-आज़म (अर्थात अकबर महान), शहंशाह अकबर, महाबली शहंशाह के नाम से भी जाना जाता है। अंतरण करने वाले के अनुसार बादशाह अकबर की जन्म तिथि हुमायुंनामा के अनुसार, रज्जब के चौथे दिन, ९४९ हिज़री, तदनुसार १४ अक्टूबर १५४२ को थी। सम्राट अकबर मुगल साम्राज्य के संस्थापक जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर का पौत्र और नासिरुद्दीन हुमायूं एवं हमीदा बानो का पुत्र था। बाबर का वंश तैमूर और मंगोल नेता चंगेज खां से संबंधित था अर्थात उसके वंशज तैमूर लंग के खानदान से थे और मातृपक्ष का संबंध चंगेज खां से था। अकबर के शासन के अंत तक १६०५ में मुगल साम्राज्य में उत्तरी और मध्य भारत के अधिकाश भाग सम्मिलित थे और उस समय के सर्वाधिक शक्तिशाली साम्राज्यों में से एक था। बादशाहों में अकबर ही एक ऐसा बादशाह था, जिसे हिन्दू मुस्लिम दोनों वर्गों का बराबर प्यार और सम्मान मिला। उसने हिन्दू-मुस्लिम संप्रदायों के बीच की दूरियां कम करने के लिए दीन-ए-इलाही नामक धर्म की स्थापना की। उसका दरबार सबके लिए हर समय खुला रहता था। उसके दरबार में मुस्लिम सरदारों की अपेक्षा हिन्दू सरदार अधिक थे। अकबर ने हिन्दुओं पर लगने वाला जज़िया ही नहीं समाप्त किया, बल्कि ऐसे अनेक कार्य किए जिनके कारण हिन्दू और मुस्लिम दोनों उसके प्रशंसक बने। अकबर मात्र तेरह वर्ष की आयु में अपने पिता नसीरुद्दीन मुहम्मद हुमायुं की मृत्यु उपरांत दिल्ली की राजगद्दी पर बैठा था। अपने शासन काल में उसने शक्तिशाली पश्तून वंशज शेरशाह सूरी के आक्रमण बिल्कुल बंद करवा दिये थे, साथ ही पानीपत के द्वितीय युद्ध में नवघोषित हिन्दू राजा हेमू को पराजित किया था। अपने साम्राज्य के गठन करने और उत्तरी और मध्य भारत के सभी क्षेत्रों को एकछत्र अधिकार में लाने में अकबर को दो दशक लग गये थे। उसका प्रभाव लगभग पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर था और इस क्षेत्र के एक बड़े भूभाग पर सम्राट के रूप में उसने शासन किया। सम्राट के रूप में अकबर ने शक्तिशाली और बहुल हिन्दू राजपूत राजाओं से राजनयिक संबंध बनाये और उनके यहाँ विवाह भी किये। अकबर के शासन का प्रभाव देश की कला एवं संस्कृति पर भी पड़ा। उसने चित्रकारी आदि ललित कलाओं में काफ़ी रुचि दिखाई और उसके प्रासाद की भित्तियाँ सुंदर चित्रों व नमूनों से भरी पड़ी थीं। मुगल चित्रकारी का विकास करने के साथ साथ ही उसने यूरोपीय शैली का भी स्वागत किया। उसे साहित्य में भी रुचि थी और उसने अनेक संस्कृत पाण्डुलिपियों व ग्रन्थों का फारसी में तथा फारसी ग्रन्थों का संस्कृत व हिन्दी में अनुवाद भी करवाया था। अनेक फारसी संस्कृति से जुड़े चित्रों को अपने दरबार की दीवारों पर भी बनवाया। अपने आरंभिक शासन काल में अकबर की हिन्दुओं के प्रति सहिष्णुता नहीं थी, किन्तु समय के साथ-साथ उसने अपने आप को बदला और हिन्दुओं सहित अन्य धर्मों में बहुत रुचि दिखायी। उसने हिन्दू राजपूत राजकुमारियों से वैवाहिक संबंध भी बनाये। अकबर के दरबार में अनेक हिन्दू दरबारी, सैन्य अधिकारी व सामंत थे। उसने धार्मिक चर्चाओं व वाद-विवाद कार्यक्रमों की अनोखी शृंखला आरंभ की थी, जिसमें मुस्लिम आलिम लोगों की जैन, सिख, हिन्दु, चार्वाक, नास्तिक, यहूदी, पुर्तगाली एवं कैथोलिक ईसाई धर्मशस्त्रियों से चर्चाएं हुआ करती थीं। उसके मन में इन धार्मिक नेताओं के प्रति आदर भाव था, जिसपर उसकी निजि धार्मिक भावनाओं का किंचित भी प्रभाव नहीं पड़ता था। उसने आगे चलकर एक नये धर्म दीन-ए-इलाही की भी स्थापना की, जिसमें विश्व के सभी प्रधान धर्मों की नीतियों व शिक्षाओं का समावेश था। दुर्भाग्यवश ये धर्म अकबर की मृत्यु के साथ ही समाप्त होता चला गया। इतने बड़े सम्राट की मृत्यु होने पर उसकी अंत्येष्टि बिना किसी संस्कार के जल्दी ही कर दी गयी। परम्परानुसार दुर्ग में दीवार तोड़कर एक मार्ग बनवाया गया तथा उसका शव चुपचाप सिकंदरा के मकबरे में दफना दिया गया। . जोधा अकबर ज़ी टीवी पर प्रसारित होने वाला एक ऐतहासिक धारावाहिक है। कार्यक्रम का प्रथम प्रसारण 18 जून 2013 को हुआ था। मशहूर चलचित्र निर्माता एकता कपूर ने इस धारावाहिक का उत्पादन किया है। रजत टोकस एवं परिधि शर्मा मुख्य भूमिका में है। .

अकबर और जोधा अकबर (टीवी धारावाहिक) के बीच समानता

अकबर और जोधा अकबर (टीवी धारावाहिक) आम में 12 बातें हैं (यूनियनपीडिया में): तानसेन, बैरम खां, मरियम उज़-ज़मानी, राजा बीरबल, राजा मान सिंह, रुक़य्या सुलतान बेगम, हमीदा बानो बेगम, हिन्दी, जयपुर, ज़ी टीवी, जोधा अकबर (2008 फ़िल्म), आशुतोष गोवरिकर

तानसेन

तानसेन या मियां तानसेन या रामतनु पाण्डेय हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के एक महान ज्ञाता थे। उन्हे सम्राट अकबर के नवरत्नों में भी गिना जाता है। संगीत सम्राट तानसेन की नगरी ग्वालियर के लिए कहावत प्रसिद्ध है कि यहाँ बच्चे रोते हैं, तो सुर में और पत्थर लुढ़कते हैं तो ताल में। इस नगरी ने पुरातन काल से आज तक एक से बढ़कर एक संगीत प्रतिभायें संगीत संसार को दी हैं और संगीत सूर्य तानसेन इनमें सर्वोपारि हैं। तानसेन को संगीत का ज्ञान कैसे प्राप्त हुआ? प्रारम्भ से ही तानसेन मे दूसरों की नकल करने की अपूर्व क्षमता थी। बालक तानसेन पशु-पक्षियों की तरह- तरह की बोलियों की सच्ची नकल करता था और हिंसक पशुओं की बोली से लोगों को डरवाया करता था। इसी बीच स्वामी हरिदास से उनकी भेंट हो गयी । मिलने की भी एक मनोरंजक घटना है। उनकी अलग-अलग बोलियों को बोलने की प्रतिभा को देखकर वो काफी प्रभावित हुए। स्वामी जी ने उन्हें उनके पिता से संगीत सिखाने के लिए माँग लिया। इस तरह तानसेन को संगीत का ज्ञान हुआ। .

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बैरम खां

बैरम खां की हत्या एक अफ़्गान ने पाटन में १५६१ में की थी।:अकबरनामा बैरम खां की विधवा और बच्चे को १५६१ में उसकी हत्या के बाद अहमदाबाद, ले जाया गया था।: अकबरनामा बैरम खान(بيرام خان) अब्दुल रहीम खानेखाना के पिता जाने-माने योद्धा थे। वह अकबर के संरक्षक थे। याहू जागरण व तुर्किस्तान से आए थे। उन्हीं के संरक्षण में अकबर बड़े हुए लेकिन दरबार के कुछ लोगों ने अकबर को बैरम खान के खिलाफ भड़का दिया और उन्हें संरक्षक पद से हटा दिया गया, वह जब हज के लिए जा रहे थे तो रास्ते में उनकी हत्या कर दी गई। उस समय अब्दुल रहीम ५ साल के थे। उन्हें अकबर ने अपने पास रख लिया। बैरम खाँ तेरह वर्षीय अकबर के अतालीक (शिक्षक) तथा अभिभावक थे। बैरम खाँ खान-ए-खाना की उपाधि से सम्मानित थे। वे हुमायूँ के साढ़ू और अंतरंग मित्र थे। रहीम की माँ वर्तमान हरियाणा प्रांत के मेवाती राजपूत जमाल खाँ की सुंदर एवं गुणवती कन्या सुल्ताना बेगम थी। जब रहीम पाँच वर्ष के ही थे, तब गुजरात के पाटन नगर में सन १५६१ में इनके पिता बैरम खाँ की हत्या कर दी गई। रहीम का पालन-पोषण अकबर ने अपने धर्म-पुत्र की तरह किया।। अभिव्यक्ति। डॉ॰ दर्शन सेठी मध्य कालीन युद्धों के अरबी इतिहास ग्रंथ के प्रथम अध्याय में बैरम खां द्वारा बनवाई गई `कल्ला मीनार' का उल्लेख है। इस स्थान का नाम सर मंजिल रखा गया था। सिकंदर शाह सूरी के साथ लड़ने में जितने सिर कटे थे या सैनिक मरे थे, उन्हें बटोर कर उन्हें ईंट, पत्थरें की जगह काम में लाया गया और यह ऊंची मीनार खड़ी की गई थी। मुगल बादशाहों ने और भी कितनी ही ऐसी कल्ला मीनारें युद्ध विजय के दर्प-प्रदर्शन के लिए बनवाई थीं। कल्ला, फारसी में सिर को कहते हैं। बैरम ख़ाँ हुमायूँ का सहयोगी तथा उसके नाबालिग पुत्र अकबर का वली अथवा संरक्षक था। वह बादशाह हुमायूँ का परम मित्र तथा सहयोगी भी था। अपने समस्त जीवन में बैरम ख़ाँ ने मुग़ल साम्राज्य की बहुत सेवा की थी। हुमायूँ को उसका राज्य फिर से हासिल करने तथा कितने ही युद्धों में उसे विजित कराने में बैरम ख़ाँ का बहुत बड़ा हाथ था। अकबर को भी भारत का सम्राट बनाने के लिए बैरम ख़ाँ ने असंख्य युद्ध किए और हेमू जैसे शक्तिशाली राजा को हराकर भारत में मुग़ल साम्राज्य की स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। मुग़ल साम्राज्य में अकबर की दूधमाता माहम अनगा ही थी, जो बैरम ख़ाँ के विरुद्ध साज़िश करती रहती थी। ये इन्हीं साज़िशों का नतीजा था कि बैरम को हज के लिए आदेश दिया गया, जहाँ 1561 ई. में उसकी हत्या कर दी गई। वंश परिचय बैरम ख़ाँ का सम्बन्ध तूरान (मध्य एशिया) की तुर्कमान जाति से था। हैदराबाद के निज़ाम भी तुर्कमान थे। इतिहासकार कासिम फ़रिश्ता के अनुसार वह ईरान के कराकुइलु तुर्कमानों के बहारलु शाखा से सम्बद्ध था। अलीशकर बेग तुर्कमान तैमूर के प्रसिद्ध सरदारों में से एक था, जिसे हमदान, दीनवर, खुजिस्तान आदि पर शासक नियुक्त किया गया था। अलीशकर की सन्तानों में शेरअली बेग हुआ। तैमूरी शाह हुसेन बायकरा के बाद जब तूरान में सल्तनत बरबाद हुई, तो शेरअली काबुल की तरफ भाग्य परीक्षा करने के लिए आया। उसका बेटा यारअली और पोता सैफअली अफ़ग़ानिस्तान चले आये। यारअली को बाबर ने ग़ज़नी का हाकिम नियुक्त किया। थोड़े ही दिनों के बाद उसके मरने पर बेटे सैफअली को वहीं दर्जा मिला। वह भी जल्दी ही मर गया। अल्प वयस्क बैरम अपने घरवालों के साथ बल्ख चला गया। हुमायूँ से मित्रता बल्ख में वह कुछ दिनों तक पढ़ता-लिखता रहा। फिर वह समवयस्क शाहज़ादा हुमायूँ का नौकर और बाद में उसका मित्र हो गया। बैरम ख़ाँ को साहित्य और संगीत से भी बहुत प्रेम था। वह जल्दी ही अपने स्वामी का अत्यन्त प्रिय हो गया था। 16 वर्ष की आयु में ही एक लड़ाई में बैरम ख़ाँ ने बहुत वीरता दिखाई, उसकी ख्याति बाबर तक पहुँच गई, तब बाबर ने खुद उससे कहा: शाहज़ादा के साथ दरबार में हाजिर करो। बाबर के मरने के बाद वह हुमायूँ बादशाह की छाया के तौर पर रहने लगा। हुमायूँ ने चांपानेर (गुजरात) के क़िले पर घेरा डाला। किसी तरह से दाल ग़लती न देखकर चालीस मुग़ल बहादुर सीढ़ियों के साथ क़िले में उतर गए, जिनमें बैरम ख़ाँ भी था। क़िला फ़तह कर लिया गया। शेरशाह से चौसा में लड़ते वक़्त बैरम ख़ाँ भी साथ ही था। कन्नौज में भी वह लड़ा। इन सभी घटनाओं ने हुमायूँ और बैरम ख़ाँ को एक अटूट मित्रता में बाँध दिया था। जीवन दान कन्नौज की लड़ाई में पराजय के बाद मुग़ल सेना में जिसकी सींग जिधर समाई, वह उधर भागा। बैरम ख़ाँ अपने पुराने दोस्त सम्भल के मियाँ अब्दुल वहाब के पास पहुँचा। फिर लखनऊ के राजा मित्रसेन के पास जंगलों में दिन गुज़ारता रहा। शेरशाही हाकिम नसीर ख़ाँ को पता लगा। उसने बैरम ख़ाँ को पकड़ मंगवाया। नसीर ख़ाँ चाहता था कि बैरम ख़ाँ को कत्ल कर दें, पर दोस्तों की कोशिश से बैरम ख़ाँ किसी प्रकार से बच गया। अन्त में उसे शेरशाह के सामने हाजिर होना पड़ा, जिसने एक मामूली मुग़ल सरदार को महत्व न देकर उसे माफ कर दिया और जीवन दान दे दिया। कंधार के हाकिम का पद बैरम ख़ाँ फिर से गुजरात के सुल्तान महमूद के पास गया, पर उसे अपने स्वामी से मिलने की धुन थी। जब हिजरी 950 (1543-1544 ई.) में हुमायूँ ईरान से लौटकर काबुल लेते सिंध की ओर बढ़ा, तो बैरम ख़ाँ अपने आदमियों के साथ हुमायूँ की ओर से लड़ने लगा। हुमायूँ को इसकी ख़बर लगी तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। हिन्दुस्तान में सफलता मिलने वाली नहीं थी, इसलिए हुमायूँ ने ईरान का रास्ता किया। बैरम ख़ाँ भी उसके साथ था। शाही काफिले में कुल मिलाकर सत्तर आदमी से ज़्यादा नहीं थे। ईरान से लौटकर हुमायूँ ने कंधार को घेरा। उसने चाहा, भाई कामराँ को समझा-बुझाकर ख़ून-ख़राबा रोका जाए। उसे समझाने के लिए हुमायूँ ने बैरम ख़ाँ को काबुल भेजा, लेकिन वह कहाँ होने वाला था। कंधार पर अधिकार करके बैरम ख़ाँ को वहाँ का हाकिम नियुक्त किया गया। कंधार विजय के बारे में हुमायूँ ने स्वयं कहा- “रोज नौरोज बैरम’स्त इमरोज”। दिले अहबाब बेगम’स्त इमरोज। (आज नववर्ष दिन बैरम है। आज मित्रों के दिल बेफिकर हैं। ख़ानख़ाना की उपाधि जब हुमायूँ हिन्दुस्तान की ओर बढ़ते समय सतलुज नदी के किनारे माछीवाड़ा पहुँचा था, तब पता लगा दूसरी पार बेजवाड़ा में तीस हज़ार पठान डेरा डाले पड़े हैं। पठान लकड़ी जलाकर ताप रहे थे। रात को रौशनी ने लक्ष्य बतलाने में सहायता की। अपने एक हज़ार सवारों के साथ बैरम ख़ाँ उनके ऊपर टूट पड़ा। दुश्मन की संख्या का उनको पता नहीं था। तीरों की वर्षा से पठान घबरा गए। वे अपना सारा माल वहीं पर छोड़कर भाग गए। इसी विजय के उपलक्ष्य में हुमायूँ ने उसे ‘ख़ानख़ाना’ की उपाधि प्रदान की। तर्दीबेग बैरम ख़ाँ का प्रतिद्वन्द्वी था, लेकिन हेमू से हारकर भागने के समय बैरम ख़ाँ को मौक़ा मिल गया और उसने इस काँटे को निकाल बाहर किया। अकबर के गद्दी पर बैठने के दिन अबुल मसानी ने कुछ गड़बड़ी करनी चाही थी, लेकिन बैरम ख़ाँ ने जैसी ख़ूबसूरती से इस गुत्थी को सुलझाया, वह उसका ही काम था। हेमचन्द्र (हेमू) से पराजित होकर मुग़ल अमीर निराश हो चुके थे। वह काबुल लौट जाना चाहते थे, पर बैरम ख़ाँ ने उन्हें रोक दिया। साज़िश अकबर की दूधमाता माहम अनगा नित्य ही बैरम ख़ाँ के ख़िलाफ़ साज़िशें रचती रहती थी। मुग़ल दरबार में माहम अनगा का एक समूह था, जो हमेशा ही बैरम को नीचा दिखाने में लगा रहता था। हिजरी 961 (1553-1554 ई.) में इन लोगों ने चुगली लगाई कि बैरम ख़ाँ स्वतंत्र होना चाहता है, लेकिन बैरम ख़ाँ नमक-हराम नहीं था। हुमायूँ एक दिन जब स्वयं कंधार पहुँचा था, तब बैरम ख़ाँ ने बहुत चाहा कि बादशाह उसे अपने साथ ले चले, लेकिन कंधार भी एक बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान था, जिसके लिए बैरम ख़ाँ से बढ़कर अच्छा शासक नहीं मिल सक बैरम ख़ाँ हुमायूँ का सहयोगी तथा उसके नाबालिग पुत्र अकबर का वली अथवा संरक्षक था। वह बादशाह हुमायूँ का परम मित्र तथा सहयोगी भी था। अपने समस्त जीवन में बैरम ख़ाँ ने मुग़ल साम्राज्य की बहुत सेवा की थी। हुमायूँ को उसका राज्य फिर से हासिल करने तथा कितने ही युद्धों में उसे विजित कराने में बैरम ख़ाँ का बहुत बड़ा हाथ था। अकबर को भी भारत का सम्राट बनाने के लिए बैरम ख़ाँ ने असंख्य युद्ध किए और हेमू जैसे शक्तिशाली राजा को हराकर भारत में मुग़ल साम्राज्य की स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। मुग़ल साम्राज्य में अकबर की दूधमाता माहम अनगा ही थी, जो बैरम ख़ाँ के विरुद्ध साज़िश करती रहती थी। ये इन्हीं साज़िशों का नतीजा था कि बैरम को हज के लिए आदेश दिया गया, जहाँ 1561 ई. में उसकी हत्या कर दी गई। वंश परिचय बैरम ख़ाँ का सम्बन्ध तूरान (मध्य एशिया) की तुर्कमान जाति से था। हैदराबाद के निज़ाम भी तुर्कमान थे। इतिहासकार कासिम फ़रिश्ता के अनुसार वह ईरान के कराकुइलु तुर्कमानों के बहारलु शाखा से सम्बद्ध था। अलीशकर बेग तुर्कमान तैमूर के प्रसिद्ध सरदारों में से एक था, जिसे हमदान, दीनवर, खुजिस्तान आदि पर शासक नियुक्त किया गया था। अलीशकर की सन्तानों में शेरअली बेग हुआ। तैमूरी शाह हुसेन बायकरा के बाद जब तूरान में सल्तनत बरबाद हुई, तो शेरअली काबुल की तरफ भाग्य परीक्षा करने के लिए आया। उसका बेटा यारअली और पोता सैफअली अफ़ग़ानिस्तान चले आये। यारअली को बाबर ने ग़ज़नी का हाकिम नियुक्त किया। थोड़े ही दिनों के बाद उसके मरने पर बेटे सैफअली को वहीं दर्जा मिला। वह भी जल्दी ही मर गया। अल्प वयस्क बैरम अपने घरवालों के साथ बल्ख चला गया। हुमायूँ से मित्रता बल्ख में वह कुछ दिनों तक पढ़ता-लिखता रहा। फिर वह समवयस्क शाहज़ादा हुमायूँ का नौकर और बाद में उसका मित्र हो गया। बैरम ख़ाँ को साहित्य और संगीत से भी बहुत प्रेम था। वह जल्दी ही अपने स्वामी का अत्यन्त प्रिय हो गया था। 16 वर्ष की आयु में ही एक लड़ाई में बैरम ख़ाँ ने बहुत वीरता दिखाई, उसकी ख्याति बाबर तक पहुँच गई, तब बाबर ने खुद उससे कहा: शाहज़ादा के साथ दरबार में हाजिर करो। बाबर के मरने के बाद वह हुमायूँ बादशाह की छाया के तौर पर रहने लगा। हुमायूँ ने चांपानेर (गुजरात) के क़िले पर घेरा डाला। किसी तरह से दाल ग़लती न देखकर चालीस मुग़ल बहादुर सीढ़ियों के साथ क़िले में उतर गए, जिनमें बैरम ख़ाँ भी था। क़िला फ़तह कर लिया गया। शेरशाह से चौसा में लड़ते वक़्त बैरम ख़ाँ भी साथ ही था। कन्नौज में भी वह लड़ा। इन सभी घटनाओं ने हुमायूँ और बैरम ख़ाँ को एक अटूट मित्रता में बाँध दिया था। जीवन दान कन्नौज की लड़ाई में पराजय के बाद मुग़ल सेना में जिसकी सींग जिधर समाई, वह उधर भागा। बैरम ख़ाँ अपने पुराने दोस्त सम्भल के मियाँ अब्दुल वहाब के पास पहुँचा। फिर लखनऊ के राजा मित्रसेन के पास जंगलों में दिन गुज़ारता रहा। शेरशाही हाकिम नसीर ख़ाँ को पता लगा। उसने बैरम ख़ाँ को पकड़ मंगवाया। नसीर ख़ाँ चाहता था कि बैरम ख़ाँ को कत्ल कर दें, पर दोस्तों की कोशिश से बैरम ख़ाँ किसी प्रकार से बच गया। अन्त में उसे शेरशाह के सामने हाजिर होना पड़ा, जिसने एक मामूली मुग़ल सरदार को महत्व न देकर उसे माफ कर दिया और जीवन दान दे दिया। कंधार के हाकिम का पद बैरम ख़ाँ फिर से गुजरात के सुल्तान महमूद के पास गया, पर उसे अपने स्वामी से मिलने की धुन थी। जब हिजरी 950 (1543-1544 ई.) में हुमायूँ ईरान से लौटकर काबुल लेते सिंध की ओर बढ़ा, तो बैरम ख़ाँ अपने आदमियों के साथ हुमायूँ की ओर से लड़ने लगा। हुमायूँ को इसकी ख़बर लगी तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। हिन्दुस्तान में सफलता मिलने वाली नहीं थी, इसलिए हुमायूँ ने ईरान का रास्ता किया। बैरम ख़ाँ भी उसके साथ था। शाही काफिले में कुल मिलाकर सत्तर आदमी से ज़्यादा नहीं थे। ईरान से लौटकर हुमायूँ ने कंधार को घेरा। उसने चाहा, भाई कामराँ को समझा-बुझाकर ख़ून-ख़राबा रोका जाए। उसे समझाने के लिए हुमायूँ ने बैरम ख़ाँ को काबुल भेजा, लेकिन वह कहाँ होने वाला था। कंधार पर अधिकार करके बैरम ख़ाँ को वहाँ का हाकिम नियुक्त किया गया। कंधार विजय के बारे में हुमायूँ ने स्वयं कहा- “रोज नौरोज बैरम’स्त इमरोज”। दिले अहबाब बेगम’स्त इमरोज। (आज नववर्ष दिन बैरम है। आज मित्रों के दिल बेफिकर हैं। ख़ानख़ाना की उपाधि जब हुमायूँ हिन्दुस्तान की ओर बढ़ते समय सतलुज नदी के किनारे माछीवाड़ा पहुँचा था, तब पता लगा दूसरी पार बेजवाड़ा में तीस हज़ार पठान डेरा डाले पड़े हैं। पठान लकड़ी जलाकर ताप रहे थे। रात को रौशनी ने लक्ष्य बतलाने में सहायता की। अपने एक हज़ार सवारों के साथ बैरम ख़ाँ उनके ऊपर टूट पड़ा। दुश्मन की संख्या का उनको पता नहीं था। तीरों की वर्षा से पठान घबरा गए। वे अपना सारा माल वहीं पर छोड़कर भाग गए। इसी विजय के उपलक्ष्य में हुमायूँ ने उसे ‘ख़ानख़ाना’ की उपाधि प्रदान की। तर्दीबेग बैरम ख़ाँ का प्रतिद्वन्द्वी था, लेकिन हेमू से हारकर भागने के समय बैरम ख़ाँ को मौक़ा मिल गया और उसने इस काँटे को निकाल बाहर किया। अकबर के गद्दी पर बैठने के दिन अबुल मसानी ने कुछ गड़बड़ी करनी चाही थी, लेकिन बैरम ख़ाँ ने जैसी ख़ूबसूरती से इस गुत्थी को सुलझाया, वह उसका ही काम था। हेमचन्द्र (हेमू) से पराजित होकर मुग़ल अमीर निराश हो चुके थे। वह काबुल लौट जाना चाहते थे, पर बैरम ख़ाँ ने उन्हें रोक दिया। साज़िश अकबर की दूधमाता माहम अनगा नित्य ही बैरम ख़ाँ के ख़िलाफ़ साज़िशें रचती रहती थी। मुग़ल दरबार में माहम अनगा का एक समूह था, जो हमेशा ही बैरम को नीचा दिखाने में लगा रहता था। हिजरी 961 (1553-1554 ई.) में इन लोगों ने चुगली लगाई कि बैरम ख़ाँ स्वतंत्र होना चाहता है, लेकिन बैरम ख़ाँ नमक-हराम नहीं था। हुमायूँ एक दिन जब स्वयं कंधार पहुँचा था, तब बैरम ख़ाँ ने बहुत चाहा कि बादशाह उसे अपने साथ ले चले, लेकिन कंधार भी एक बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान था, जिसके लिए बैरम ख़ाँ से बढ़कर अच्छा शासक नहीं मिल सक .

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मरियम उज़-ज़मानी

मरियम उज़-ज़मानी बेगम साहिबा (नस्तालीक़:; जन्म 1 अक्टूबर 1542, दीगर नाम: रुकमावती साहिबा,राजकुमारी हिराकुँवारी और हरखाबाई) एक राजपूत शहज़ादी थीं जो मुग़ल बादशाह जलाल उद्दीन मुहम्मद अकबर से शादी के बाद मलिका हिन्दुस्तान बनीं। वे जयपुर की राजपूत आमेर रियासत के राजा भारमल की सब से बड़ी बेटी थीं। उनके गर्भ से सल्तनत के वलीअहद और अगले बादशाह नूरुद्दीन जहाँगीर पैदा हुए। .

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राजा बीरबल

राजा बीरबल(1528-1586)-असली नाम महेश दास भट्ट(राव राजपूत) (जन्म-1528 ई.; मृत्यु- 1586 ई.) मुग़ल बादशाह अकबर के नवरत्नों में सर्वाधिक लोकप्रिय एक भट्ट ब्राह्मण(राव राजपूत) दरबारी था। बीरबल की व्यंग्यपूर्ण कहानियों और काव्य रचनाओं ने उन्हें प्रसिद्ध बनाया था। बीरबल ने दीन-ए-इलाही अपनाया था और फ़तेहपुर सीकरी में उनका एक सुंदर मकान था। बादशाह अकबर के प्रशासन में बीरबल मुग़ल दरबार का प्रमुख वज़ीर था और राज दरबार में उसका बहुत प्रभाव था। बीरबल कवियों का बहुत सम्मान करता था। वह स्वयं भी ब्रजभाषा का अच्छा जानकार और कवि था। .

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राजा मान सिंह

राजा मान सिंह आमेर का राजमहल राजा मान सिंह आमेर (आम्बेर) के कच्छवाहा राजपूत राजा थे। उन्हें 'मान सिंह प्रथम' के नाम से भी जाना जाता है। राजा भगवन्त दास इनके पिता थे। वह अकबर की सेना के प्रधान सेनापति, थे। उन्होने आमेर के मुख्य महल के निर्माण कराया। महान इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने लिखा है- " भगवान दास के उत्तराधिकारी मानसिंह को अकबर के दरबार में श्रेष्ठ स्थान मिला था।..मानसिंह ने उडीसा और आसाम को जीत कर उनको बादशाह अकबर के अधीन बना दिया.

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रुक़य्या सुलतान बेगम

रुक़ैया सुल्तान बेगम (वैकल्पिक हिज्जे: रुक़य्या, रुक़ैय्याह) (1542 – 19 जनवरी 1626) 1557 से 1605 तक मुग़ल साम्राज्य की मलिका थीं। वे तीसरे मुग़ल बादशाह अकबर की पहली बीवी और मुख्य साथी थीं। 1557 से 27 अक्टूबर 1605, 48 साल तक वे सबसे लंबे समय तक मुग़ल साम्राज्ञी भी रहीं।Her tenure, from 1557 to 27 October 1605, was 48 years .

अकबर और रुक़य्या सुलतान बेगम · जोधा अकबर (टीवी धारावाहिक) और रुक़य्या सुलतान बेगम · और देखें »

हमीदा बानो बेगम

हमीदा बानो (१५२७-१६०४) प्रसिद्ध मुगल सम्राट हुमायुं की बेगम और तीसरे मुगल सम्राट अकबर की मां थी। हिदांल के गुरु की बेटी थी वो शिया थी किंतु उसका पति सुन्नी था। .

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हिन्दी

हिन्दी या भारतीय विश्व की एक प्रमुख भाषा है एवं भारत की राजभाषा है। केंद्रीय स्तर पर दूसरी आधिकारिक भाषा अंग्रेजी है। यह हिन्दुस्तानी भाषा की एक मानकीकृत रूप है जिसमें संस्कृत के तत्सम तथा तद्भव शब्द का प्रयोग अधिक हैं और अरबी-फ़ारसी शब्द कम हैं। हिन्दी संवैधानिक रूप से भारत की प्रथम राजभाषा और भारत की सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है। हालांकि, हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं है क्योंकि भारत का संविधान में कोई भी भाषा को ऐसा दर्जा नहीं दिया गया था। चीनी के बाद यह विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा भी है। विश्व आर्थिक मंच की गणना के अनुसार यह विश्व की दस शक्तिशाली भाषाओं में से एक है। हिन्दी और इसकी बोलियाँ सम्पूर्ण भारत के विविध राज्यों में बोली जाती हैं। भारत और अन्य देशों में भी लोग हिन्दी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। फ़िजी, मॉरिशस, गयाना, सूरीनाम की और नेपाल की जनता भी हिन्दी बोलती है।http://www.ethnologue.com/language/hin 2001 की भारतीय जनगणना में भारत में ४२ करोड़ २० लाख लोगों ने हिन्दी को अपनी मूल भाषा बताया। भारत के बाहर, हिन्दी बोलने वाले संयुक्त राज्य अमेरिका में 648,983; मॉरीशस में ६,८५,१७०; दक्षिण अफ्रीका में ८,९०,२९२; यमन में २,३२,७६०; युगांडा में १,४७,०००; सिंगापुर में ५,०००; नेपाल में ८ लाख; जर्मनी में ३०,००० हैं। न्यूजीलैंड में हिन्दी चौथी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। इसके अलावा भारत, पाकिस्तान और अन्य देशों में १४ करोड़ १० लाख लोगों द्वारा बोली जाने वाली उर्दू, मौखिक रूप से हिन्दी के काफी सामान है। लोगों का एक विशाल बहुमत हिन्दी और उर्दू दोनों को ही समझता है। भारत में हिन्दी, विभिन्न भारतीय राज्यों की १४ आधिकारिक भाषाओं और क्षेत्र की बोलियों का उपयोग करने वाले लगभग १ अरब लोगों में से अधिकांश की दूसरी भाषा है। हिंदी हिंदी बेल्ट का लिंगुआ फ़्रैंका है, और कुछ हद तक पूरे भारत (आमतौर पर एक सरल या पिज्जाइज्ड किस्म जैसे बाजार हिंदुस्तान या हाफ्लोंग हिंदी में)। भाषा विकास क्षेत्र से जुड़े वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी हिन्दी प्रेमियों के लिए बड़ी सन्तोषजनक है कि आने वाले समय में विश्वस्तर पर अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व की जो चन्द भाषाएँ होंगी उनमें हिन्दी भी प्रमुख होगी। 'देशी', 'भाखा' (भाषा), 'देशना वचन' (विद्यापति), 'हिन्दवी', 'दक्खिनी', 'रेखता', 'आर्यभाषा' (स्वामी दयानन्द सरस्वती), 'हिन्दुस्तानी', 'खड़ी बोली', 'भारती' आदि हिन्दी के अन्य नाम हैं जो विभिन्न ऐतिहासिक कालखण्डों में एवं विभिन्न सन्दर्भों में प्रयुक्त हुए हैं। .

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जयपुर

जयपुर जिसे गुलाबी नगर के नाम से भी जाना जाता है, भारत में राजस्थान राज्य की राजधानी है। आमेर के तौर पर यह जयपुर नाम से प्रसिद्ध प्राचीन रजवाड़े की भी राजधानी रहा है। इस शहर की स्थापना १७२८ में आमेर के महाराजा जयसिंह द्वितीय ने की थी। जयपुर अपनी समृद्ध भवन निर्माण-परंपरा, सरस-संस्कृति और ऐतिहासिक महत्व के लिए प्रसिद्ध है। यह शहर तीन ओर से अरावली पर्वतमाला से घिरा हुआ है। जयपुर शहर की पहचान यहाँ के महलों और पुराने घरों में लगे गुलाबी धौलपुरी पत्थरों से होती है जो यहाँ के स्थापत्य की खूबी है। १८७६ में तत्कालीन महाराज सवाई रामसिंह ने इंग्लैंड की महारानी एलिज़ाबेथ प्रिंस ऑफ वेल्स युवराज अल्बर्ट के स्वागत में पूरे शहर को गुलाबी रंग से आच्छादित करवा दिया था। तभी से शहर का नाम गुलाबी नगरी पड़ा है। 2011 की जनगणना के अनुसार जयपुर भारत का दसवां सबसे अधिक जनसंख्या वाला शहर है। राजा जयसिंह द्वितीय के नाम पर ही इस शहर का नाम जयपुर पड़ा। जयपुर भारत के टूरिस्ट सर्किट गोल्डन ट्रायंगल (India's Golden Triangle) का हिस्सा भी है। इस गोल्डन ट्रायंगल में दिल्ली,आगरा और जयपुर आते हैं भारत के मानचित्र में उनकी स्थिति अर्थात लोकेशन को देखने पर यह एक त्रिभुज (Triangle) का आकार लेते हैं। इस कारण इन्हें भारत का स्वर्णिम त्रिभुज इंडियन गोल्डन ट्रायंगल कहते हैं। भारत की राजधानी दिल्ली से जयपुर की दूरी 280 किलोमीटर है। शहर चारों ओर से दीवारों और परकोटों से घिरा हुआ है, जिसमें प्रवेश के लिए सात दरवाजे हैं। बाद में एक और द्वार भी बना जो 'न्यू गेट' कहलाया। पूरा शहर करीब छह भागों में बँटा है और यह १११ फुट (३४ मी.) चौड़ी सड़कों से विभाजित है। पाँच भाग मध्य प्रासाद भाग को पूर्वी, दक्षिणी एवं पश्चिमी ओर से घेरे हुए हैं और छठा भाग एकदम पूर्व में स्थित है। प्रासाद भाग में हवा महल परिसर, व्यवस्थित उद्यान एवं एक छोटी झील हैं। पुराने शह के उत्तर-पश्चिमी ओर पहाड़ी पर नाहरगढ़ दुर्ग शहर के मुकुट के समान दिखता है। इसके अलावा यहां मध्य भाग में ही सवाई जयसिंह द्वारा बनावायी गईं वेधशाला, जंतर मंतर, जयपुर भी हैं। जयपुर को आधुनिक शहरी योजनाकारों द्वारा सबसे नियोजित और व्यवस्थित शहरों में से गिना जाता है। देश के सबसे प्रतिभाशाली वास्तुकारों में इस शहर के वास्तुकार विद्याधर भट्टाचार्य का नाम सम्मान से लिया जाता है। ब्रिटिश शासन के दौरान इस पर कछवाहा समुदाय के राजपूत शासकों का शासन था। १९वीं सदी में इस शहर का विस्तार शुरु हुआ तब इसकी जनसंख्या १,६०,००० थी जो अब बढ़ कर २००१ के आंकड़ों के अनुसार २३,३४,३१९ और २०१२ के बाद ३५ लाख हो चुकी है। यहाँ के मुख्य उद्योगों में धातु, संगमरमर, वस्त्र-छपाई, हस्त-कला, रत्न व आभूषण का आयात-निर्यात तथा पर्यटन-उद्योग आदि शामिल हैं। जयपुर को भारत का पेरिस भी कहा जाता है। इस शहर के वास्तु के बारे में कहा जाता है कि शहर को सूत से नाप लीजिये, नाप-जोख में एक बाल के बराबर भी फ़र्क नहीं मिलेगा। .

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ज़ी टीवी

ज़ी टीवी एक भारतीय हिन्दी चैनल है। इसकी स्थापना 1 अक्टूबर और प्रसारण 2 अक्टूबर 1992 से शुरू हुआ और यह भारत का पहला हिन्दी केबल चैनल बना। .

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जोधा अकबर (2008 फ़िल्म)

जोधा अकबर 2008 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। .

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आशुतोष गोवरिकर

आशुतोष गोवरिकर हिन्दी फ़िल्मों के एक अभिनेता, लेखक एवं निर्देशक हैं। .

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अकबर और जोधा अकबर (टीवी धारावाहिक) के बीच तुलना

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संदर्भ

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