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हरि पर्वत

सूची हरि पर्वत

हरि पर्वत भारत के उत्तरतम राज्य जम्मू-कश्मीर की राजधानी श्रीनगर में डल झील के पश्चिम ओर स्थित है। इस छोटी पहाड़ी के शिखर पर इसी नाम का एक किला बना है जिसका अनुरक्षण जम्मू कश्मीर सरकार का पुरातत्व विभाग के अधीन है। इस किले में भ्रमण हेतु पर्यटकों को पहले पुरातत्त्व विभाग से अनुमति लेनी होती है। क़िले का निर्माण एक अफ़ग़ान गर्वनर मुहम्मद ख़ान ने १८वीं शताब्दी में करवाया था। उसके बाद १५९० ई॰ में मुग़ल सम्राट अकबर द्वारा इस क़िले की चहारदीवारी का निर्माण करवाया गया। .

11 संबंधों: डल झील, भारत, मुग़ल साम्राज्य, शिव, श्रीनगर, जम्मू और कश्मीर, सती, सिखों के दस गुरू, जम्मू और कश्मीर, गुरु हरगोबिन्द, कश्मीर, अकबर

डल झील

डल झील श्रीनगर, कश्मीर में एक प्रसिद्ध झील है। १८ किलोमीटर क्षेत्र में फैली हुई यह झील तीन दिशाओं से पहाड़ियों से घिरी हुई है। जम्मू-कश्मीर की दूसरी सबसे बड़ी झील है। इसमें सोतों से तो जल आता है साथ ही कश्मीर घाटी की अनेक झीलें आकर इसमें जुड़ती हैं। इसके चार प्रमुख जलाशय हैं गगरीबल, लोकुट डल, बोड डल तथा नागिन। लोकुट डल के मध्य में रूपलंक द्वीप स्थित है तथा बोड डल जलधारा के मध्य में सोनालंक द्वीप स्थित है। भारत की सबसे सुंदर झीलों में इसका नाम लिया जाता है। पास ही स्थित मुगल वाटिका से डल झील का सौंदर्य अप्रतिम नज़र आता है। पर्यटक जम्मू-कश्मीर आएँ और डल झील देखने न जाएँ ऐसा हो ही नहीं सकता। डल झील के मुख्य आकर्षण का केन्द्र है यहाँ के शिकारे या हाउसबोट। सैलानी इन हाउसबोटों में रहकर झील का आनंद उठा सकते हैं। नेहरू पार्क, कानुटुर खाना, चारचीनारी आदि द्वीपों तथा हज़रत बल की सैर भी इन शिकारों में की जा सकती है। इसके अतिरिक्त दुकानें भी शिकारों पर ही लगी होती हैं और शिकारे पर सवार होकर विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ भी खरीदी जा सकती हैं। तरह तरह की वनस्पति झील की सुंदरता को और निखार देती है। कमल के फूल, पानी में बहती कुमुदनी, झील की सुंदरता में चार चाँद लगा देती है। सैलानियों के लिए विभिन्न प्रकार के मनोरंजन के साधन जैसे कायाकिंग (एक प्रकार का नौका विहार), केनोइंग (डोंगी), पानी पर सर्फिंग करना तथा ऐंगलिंग (मछली पकड़ना) यहाँ पर उपलब्ध कराए गए हैं। डल झील में पर्यटन के अतिरिक्त मुख्य रूप से मछली पकड़ने का काम होता है। .

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भारत

भारत (आधिकारिक नाम: भारत गणराज्य, Republic of India) दक्षिण एशिया में स्थित भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे बड़ा देश है। पूर्ण रूप से उत्तरी गोलार्ध में स्थित भारत, भौगोलिक दृष्टि से विश्व में सातवाँ सबसे बड़ा और जनसंख्या के दृष्टिकोण से दूसरा सबसे बड़ा देश है। भारत के पश्चिम में पाकिस्तान, उत्तर-पूर्व में चीन, नेपाल और भूटान, पूर्व में बांग्लादेश और म्यान्मार स्थित हैं। हिन्द महासागर में इसके दक्षिण पश्चिम में मालदीव, दक्षिण में श्रीलंका और दक्षिण-पूर्व में इंडोनेशिया से भारत की सामुद्रिक सीमा लगती है। इसके उत्तर की भौतिक सीमा हिमालय पर्वत से और दक्षिण में हिन्द महासागर से लगी हुई है। पूर्व में बंगाल की खाड़ी है तथा पश्चिम में अरब सागर हैं। प्राचीन सिन्धु घाटी सभ्यता, व्यापार मार्गों और बड़े-बड़े साम्राज्यों का विकास-स्थान रहे भारतीय उपमहाद्वीप को इसके सांस्कृतिक और आर्थिक सफलता के लंबे इतिहास के लिये जाना जाता रहा है। चार प्रमुख संप्रदायों: हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख धर्मों का यहां उदय हुआ, पारसी, यहूदी, ईसाई, और मुस्लिम धर्म प्रथम सहस्राब्दी में यहां पहुचे और यहां की विविध संस्कृति को नया रूप दिया। क्रमिक विजयों के परिणामस्वरूप ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी ने १८वीं और १९वीं सदी में भारत के ज़्यादतर हिस्सों को अपने राज्य में मिला लिया। १८५७ के विफल विद्रोह के बाद भारत के प्रशासन का भार ब्रिटिश सरकार ने अपने ऊपर ले लिया। ब्रिटिश भारत के रूप में ब्रिटिश साम्राज्य के प्रमुख अंग भारत ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में एक लम्बे और मुख्य रूप से अहिंसक स्वतन्त्रता संग्राम के बाद १५ अगस्त १९४७ को आज़ादी पाई। १९५० में लागू हुए नये संविधान में इसे सार्वजनिक वयस्क मताधिकार के आधार पर स्थापित संवैधानिक लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित कर दिया गया और युनाईटेड किंगडम की तर्ज़ पर वेस्टमिंस्टर शैली की संसदीय सरकार स्थापित की गयी। एक संघीय राष्ट्र, भारत को २९ राज्यों और ७ संघ शासित प्रदेशों में गठित किया गया है। लम्बे समय तक समाजवादी आर्थिक नीतियों का पालन करने के बाद 1991 के पश्चात् भारत ने उदारीकरण और वैश्वीकरण की नयी नीतियों के आधार पर सार्थक आर्थिक और सामाजिक प्रगति की है। ३३ लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के साथ भारत भौगोलिक क्षेत्रफल के आधार पर विश्व का सातवाँ सबसे बड़ा राष्ट्र है। वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था क्रय शक्ति समता के आधार पर विश्व की तीसरी और मानक मूल्यों के आधार पर विश्व की दसवीं सबसे बडी अर्थव्यवस्था है। १९९१ के बाज़ार-आधारित सुधारों के बाद भारत विश्व की सबसे तेज़ विकसित होती बड़ी अर्थ-व्यवस्थाओं में से एक हो गया है और इसे एक नव-औद्योगिकृत राष्ट्र माना जाता है। परंतु भारत के सामने अभी भी गरीबी, भ्रष्टाचार, कुपोषण, अपर्याप्त सार्वजनिक स्वास्थ्य-सेवा और आतंकवाद की चुनौतियां हैं। आज भारत एक विविध, बहुभाषी, और बहु-जातीय समाज है और भारतीय सेना एक क्षेत्रीय शक्ति है। .

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मुग़ल साम्राज्य

मुग़ल साम्राज्य (फ़ारसी:, मुग़ल सलतनत-ए-हिंद; तुर्की: बाबर इम्परातोरलुग़ु), एक इस्लामी तुर्की-मंगोल साम्राज्य था जो 1526 में शुरू हुआ, जिसने 17 वीं शताब्दी के आखिर में और 18 वीं शताब्दी की शुरुआत तक भारतीय उपमहाद्वीप में शासन किया और 19 वीं शताब्दी के मध्य में समाप्त हुआ। मुग़ल सम्राट तुर्क-मंगोल पीढ़ी के तैमूरवंशी थे और इन्होंने अति परिष्कृत मिश्रित हिन्द-फारसी संस्कृति को विकसित किया। 1700 के आसपास, अपनी शक्ति की ऊँचाई पर, इसने भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश भाग को नियंत्रित किया - इसका विस्तार पूर्व में वर्तमान बंगलादेश से पश्चिम में बलूचिस्तान तक और उत्तर में कश्मीर से दक्षिण में कावेरी घाटी तक था। उस समय 40 लाख किमी² (15 लाख मील²) के क्षेत्र पर फैले इस साम्राज्य की जनसंख्या का अनुमान 11 और 13 करोड़ के बीच लगाया गया था। 1725 के बाद इसकी शक्ति में तेज़ी से गिरावट आई। उत्तराधिकार के कलह, कृषि संकट की वजह से स्थानीय विद्रोह, धार्मिक असहिष्णुता का उत्कर्ष और ब्रिटिश उपनिवेशवाद से कमजोर हुए साम्राज्य का अंतिम सम्राट बहादुर ज़फ़र शाह था, जिसका शासन दिल्ली शहर तक सीमित रह गया था। अंग्रेजों ने उसे कैद में रखा और 1857 के भारतीय विद्रोह के बाद ब्रिटिश द्वारा म्यानमार निर्वासित कर दिया। 1556 में, जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर, जो महान अकबर के नाम से प्रसिद्ध हुआ, के पदग्रहण के साथ इस साम्राज्य का उत्कृष्ट काल शुरू हुआ और सम्राट औरंगज़ेब के निधन के साथ समाप्त हुआ, हालाँकि यह साम्राज्य और 150 साल तक चला। इस समय के दौरान, विभिन्न क्षेत्रों को जोड़ने में एक उच्च केंद्रीकृत प्रशासन निर्मित किया गया था। मुग़लों के सभी महत्वपूर्ण स्मारक, उनके ज्यादातर दृश्य विरासत, इस अवधि के हैं। .

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शिव

शिव या महादेव हिंदू धर्म में सबसे महत्वपूर्ण देवताओं में से एक है। वह त्रिदेवों में एक देव हैं। इन्हें देवों के देव भी कहते हैं। इन्हें भोलेनाथ, शंकर, महेश, रुद्र, नीलकंठ,गंगाधार के नाम से भी जाना जाता है। तंत्र साधना में इन्हे भैरव के नाम से भी जाना जाता है। हिन्दू धर्म के प्रमुख देवताओं में से हैं। वेद में इनका नाम रुद्र है। यह व्यक्ति की चेतना के अन्तर्यामी हैं। इनकी अर्धांगिनी (शक्ति) का नाम पार्वती है। इनके पुत्र कार्तिकेय और गणेश हैं, तथा पुत्री अशोक सुंदरी हैं। शिव अधिक्तर चित्रों में योगी के रूप में देखे जाते हैं और उनकी पूजा शिवलिंग तथा मूर्ति दोनों रूपों में की जाती है। शिव के गले में नाग देवता विराजित हैं और हाथों में डमरू और त्रिशूल लिए हुए हैं। कैलाश में उनका वास है। यह शैव मत के आधार है। इस मत में शिव के साथ शक्ति सर्व रूप में पूजित है। भगवान शिव को संहार का देवता कहा जाता है। भगवान शिव सौम्य आकृति एवं रौद्ररूप दोनों के लिए विख्यात हैं। अन्य देवों से शिव को भिन्न माना गया है। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार के अधिपति शिव हैं। त्रिदेवों में भगवान शिव संहार के देवता माने गए हैं। शिव अनादि तथा सृष्टि प्रक्रिया के आदिस्रोत हैं और यह काल महाकाल ही ज्योतिषशास्त्र के आधार हैं। शिव का अर्थ यद्यपि कल्याणकारी माना गया है, लेकिन वे हमेशा लय एवं प्रलय दोनों को अपने अधीन किए हुए हैं। राम, रावण, शनि, कश्यप ऋषि आदि इनके भक्त हुए है। शिव सभी को समान दृष्टि से देखते है इसलिये उन्हें महादेव कहा जाता है। .

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श्रीनगर, जम्मू और कश्मीर

श्रीनगर भारत के जम्मू और कश्मीर प्रान्त की राजधानी है। कश्मीर घाटी के मध्य में बसा यह नगर भारत के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से हैं। श्रीनगर एक ओर जहां डल झील के लिए प्रसिद्ध है वहीं दूसरी ओर विभिन्न मंदिरों के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है। 1700 मीटर ऊंचाई पर बसा श्रीनगर विशेष रूप से झीलों और हाऊसबोट के लिए जाना जाता है। इसके अलावा श्रीनगर परम्परागत कश्मीरी हस्तशिल्प और सूखे मेवों के लिए भी विश्व प्रसिद्ध है। श्रीनगर का इतिहास काफी पुराना है। माना जाता है कि इस जगह की स्थापना प्रवरसेन द्वितीय ने 2,000 वर्ष पूर्व की थी। इस जिले के चारों ओर पांच अन्य जिले स्थित है। श्रीनगर जिला कारगिल के उत्तर, पुलवामा के दक्षिण, बुद्धगम के उत्तर-पश्चिम के बगल में स्थित है। श्रीनगर जम्मू और कश्मीर राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी है। ये शहर और उसके आस-पार के क्षेत्र एक ज़माने में दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत पर्यटन स्थल माने जाते थे -- जैसे डल झील, शालिमार और निशात बाग़, गुलमर्ग, पहलग़ाम, चश्माशाही, आदि। यहाँ हिन्दी सिनेमा की कई फ़िल्मों की शूटिंग हुआ करती थी। श्रीनगर की हज़रत बल मस्जिद में माना जाता है कि वहाँ हजरत मुहम्मद की दाढ़ी का एक बाल रखा है। श्रीनगर में ही शंकराचार्य पर्वत है जहाँ विख्यात हिन्दू धर्मसुधारक और अद्वैत वेदान्त के प्रतिपादक आदि शंकराचार्य सर्वज्ञानपीठ के आसन पर विराजमान हुए थे। डल झील और झेलम नदी (संस्कृत: वितस्ता, कश्मीरी: व्यथ) में आने जाने, घूमने और बाज़ार और ख़रीददारी का ज़रिया ख़ास तौर पर शिकारा नाम की नावें हैं। कमल के फूलों से सजी रहने वाली डल झील पर कई ख़ूबसूरत नावों पर तैरते घर भी हैं जिनको हाउसबोट कहा जाता है। इतिहासकार मानते हैं कि श्रीनगर मौर्य सम्राट अशोक द्वारा बसाया गया था। डल झील में एक शिकारा श्रीनगर से कुछ दूर एक बहुत पुराना मार्तण्ड (सूर्य) मन्दिर है। कुछ और दूर अनन्तनाग ज़िले में शिव को समर्पित अमरनाथ की गुफ़ा है जहाँ हज़ारों तीर्थयात्री जाते हैं। श्रीनगर से तीस किलोमीटर दूर मुस्लिम सूफ़ी संत शेख़ नूरुद्दिन वली की दरगाह चरार-ए-शरीफ़ है, जिसे कुछ वर्ष पहले इस्लामी आतंकवादियों ने ही जला दिया था, पर बाद में इसकी वापिस मरम्मत हुई। .

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सती

शिव अपने त्रिशूल पर सती के शव को लेकर जाते हुए सती दक्ष प्रजापति की पुत्री और भगवान शिव की पत्नी थी। इनकी उत्पत्ति तथा अंत की कथा विभिन्न पुराणों में विभिन्न रूपों में उपलब्ध होती है। शैव पुराणों में भगवान शिव की प्रधानता के कारण शिव को परम तत्त्व तथा शक्ति (शिवा) को उनकी अनुगामिनी बताया गया है। इसी के समानांतर शाक्त पुराणों में शक्ति की प्रधानता होने के कारण शक्ति (शिवा) को परमशक्ति (परम तत्त्व) तथा भगवान शिव को उनका अनुगामी बताया गया है। श्रीमद्भागवतमहापुराण में अपेक्षाकृत तटस्थ वर्णन है। इसमें दक्ष की स्वायम्भुव मनु की पुत्री प्रसूति के गर्भ से 16 कन्याओं के जन्म की बात कही गयी है। देवीपुराण (महाभागवत) में 14 कन्याओं का उल्लेख हुआ है तथा शिवपुराण में दक्ष की साठ कन्याओं का उल्लेख हुआ है जिनमें से 27 का विवाह चंद्रमा से हुआ था। इन कन्याओं में एक सती भी थी। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्मा जी को भगवान शिव के विवाह की चिंता हुई तो उन्होंने भगवान विष्णु की स्तुति की और विष्णु जी ने प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी को बताया कि यदि भगवान शिव का विवाह करवाना है तो देवी शिवा की आराधना कीजिए। उन्होंने बताया कि दक्ष से कहिए कि वह भगवती शिवा की तपस्या करें और उन्हें प्रसन्न करके अपनी पुत्री होने का वरदान मांगे। यदि देवी शिवा प्रसन्न हो जाएगी तो सारे काम सफल हो जाएंगे। उनके कथनानुसार ब्रह्मा जी ने दक्ष से भगवती शिवा की तपस्या करने को कहा और प्रजापति दक्ष ने देवी शिवा की घोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिवा ने उन्हें वरदान दिया कि मैं आप की पुत्री के रूप में जन्म लूंगी। मैं तो सभी जन्मों में भगवान शिव की दासी हूँ; अतः मैं स्वयं भगवान शिव की तपस्या करके उन्हें प्रसन्न करूँगी और उनकी पत्नी बनूँगी। साथ ही उन्होंने दक्ष से यह भी कहा कि जब आपका आदर मेरे प्रति कम हो जाएगा तब उसी समय मैं अपने शरीर को त्याग दूंगी, अपने स्वरूप में लीन हो जाऊँगी अथवा दूसरा शरीर धारण कर लूँगी। प्रत्येक सर्ग या कल्प के लिए दक्ष को उन्होंने यह वरदान दे दिया। तदनुसार भगवती शिवा सती के नाम से दक्ष की पुत्री के रूप में जन्म लेती है और घोर तपस्या करके भगवान शिव को प्रसन्न करती है तथा भगवान शिव से उनका विवाह होता है। इसके बाद की कथा श्रीमद्भागवतमहापुराण में वर्णित कथा के काफी हद तक अनुरूप ही है। प्रयाग में प्रजापतियों के एक यज्ञ में दक्ष के पधारने पर सभी देवतागण खड़े होकर उन्हें आदर देते हैं परंतु ब्रह्मा जी के साथ शिवजी भी बैठे ही रह जाते हैं। लौकिक बुद्धि से भगवान शिव को अपना जामाता अर्थात पुत्र समान मानने के कारण दक्ष उनके खड़े न होकर अपने प्रति आदर प्रकट न करने के कारण अपना अपमान महसूस करता है और इसी कारण उन्होंने भगवान शिव के प्रति अनेक कटूक्तियों का प्रयोग करते हुए उन्हें यज्ञ भाग से वंचित होने का शाप दे दिया। इसी के बाद दक्ष और भगवान शिव में मनोमालिन्य उत्पन्न हो गया। तत्पश्चात अपनी राजधानी कनखल में दक्ष के द्वारा एक विराट यज्ञ का आयोजन किया गया जिसमें उन्होंने न तो भगवान शिव को आमंत्रित किया और न ही अपनी पुत्री सती को। सती ने रोहिणी को चंद्रमा के साथ विमान से जाते देखा और सखी के द्वारा यह पता चलने पर कि वे लोग उन्हीं के पिता दक्ष के विराट यज्ञ में भाग लेने जा रहे हैं, सती का मन भी वहाँ जाने को व्याकुल हो गया। भगवान शिव के समझाने के बावजूद सती की व्याकुलता बनी रही और भगवान शिव ने अपने गणों के साथ उन्हें वहाँ जाने की आज्ञा दे दी। परंतु वहाँ जाकर भगवान शिव का यज्ञ-भाग न देखकर सती ने घोर आपत्ति जतायी और दक्ष के द्वारा अपने (सती के) तथा उनके पति भगवान शिव के प्रति भी घोर अपमानजनक बातें कहने के कारण सती ने योगाग्नि से अपने शरीर को भस्म कर डाला। शिवगणों के द्वारा उत्पात मचाये जाने पर भृगु ऋषि ने दक्षिणाग्नि में आहुति दी और उससे उत्पन्न ऋभु नामक देवताओं ने शिवगणों को भगा दिया। इस समाचार से अत्यंत कुपित भगवान शिव ने अपनी जटा से वीरभद्र को उत्पन्न किया और वीरभद्र ने गण सहित जाकर दक्ष यज्ञ का विध्वंस कर डाला; शिव के विरोधी देवताओं तथा ऋषियों को यथायोग्य दंड दिया तथा दक्ष के सिर को काट कर हवन कुंड में जला डाला। तत्पश्चात देवताओं सहित ब्रह्मा जी के द्वारा स्तुति किए जाने से प्रसन्न भगवान शिव ने पुनः यज्ञ में हुई क्षतियों की पूर्ति की तथा दक्ष का सिर जल जाने के कारण बकरे का सिर जुड़वा कर उन्हें भी जीवित कर दिया। फिर उनके अनुग्रह से यज्ञ पूर्ण हुआ। शाक्त मत में शक्ति की सर्वप्रधानता होने के कारण ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव तीनों को शक्ति की कृपा से ही उत्पन्न माना गया है। देवीपुराण (महाभागवत) में वर्णन हुआ है कि पूर्णा प्रकृति जगदंबिका ने ही ब्रहमा, विष्णु और महेश तीनों को उत्पन्न कर उन्हें सृष्टि कार्यों में नियुक्त किया। उन्होंने ही ब्रहमा को सृजनकर्ता, विष्णु को पालनकर्ता तथा अपनी इच्छानुसार शिव को संहारकर्ता होने का आदेश दिया। आदेश-पालन के पूर्व इन तीनों ने उन परमा शक्ति पूर्णा प्रकृति को ही अपनी पत्नी के रूप में पाने के लिए तप आरंभ कर दिया। जगदंबिका द्वारा परीक्षण में असफल होने के कारण ब्रह्मा एवं विष्णु को पूर्णा प्रकृति अंश रूप में पत्नी बनकर प्राप्त हुई तथा भगवान शिव की तपस्या से परम प्रसन्न होकर जगदंबिका ने स्वयं जन्म लेकर उनकी पत्नी बनने का आश्वासन दिया। तदनुसार ब्रह्मा जी के द्वारा प्रेरित किए जाने पर दक्ष ने उसी पूर्णा प्रकृति जगदंबिका की तपस्या की और उनके तप से प्रसन्न होकर जगदंबिका ने उनकी पुत्री होकर जन्म लेने का वरदान दिया तथा यह भी बता दिया कि जब दक्ष का पुण्य क्षीण हो जाएगा तब वह शक्ति जगत को विमोहित करके अपने धाम को लौट जाएगी। उक्त वरदान के अनुरूप पूर्णा प्रकृति ने सती के नाम से दक्ष की पुत्री रूप में जन्म ग्रहण किया और उसके विवाह योग्य होने पर दक्ष ने उसके विवाह का विचार किया। दक्ष अपनी लौकिक बुद्धि से भगवान शिव के प्रभाव को न समझने के कारण उनके वेश को अमर्यादित मानते थे और उन्हें किसी प्रकार सती के योग्य वर नहीं मानते थे। अतः उन्होंने विचार कर भगवान शिव से शून्य स्वयंवर सभा का आयोजन किया और सती से आग्रह किया कि वे अपनी पसंद के अनुसार वर चुन ले। भगवान शिव को उपस्थित न देख कर सती ने 'शिवाय नमः' कह कर वरमाला पृथ्वी पर डाल दी तथा महेश्वर शिव स्वयं उपस्थित होकर उस वरमाला को ग्रहण कर सती को अपनी पत्नी बनाकर कैलाश लौट गये। दक्ष बहुत दुखी हुए। अपनी इच्छा के विरुद्ध सती के द्वारा शिव को पति चुन लिए जाने से दक्ष का मन उन दोनों के प्रति क्षोभ से भर गया। इसीलिए बाद में अपनी राजधानी में आयोजित विराट यज्ञ में दक्ष ने शिव एवं सती को आमंत्रित नहीं किया। फिर भी सती ने अपने पिता के यज्ञ में जाने का हठ किया और शिव जी के द्वारा बार-बार रोकने पर अत्यंत कुपित होकर उन्हें अपना भयानक रूप दिखाया। इससे भयाक्रांत होकर शिवजी के भागने का वर्णन हुआ है और उन्हें रोकने के लिए जगदंबिका ने 10 रूप (दश महाविद्या का रूप) धारण किया। फिर शिवजी के पूछने पर उन्होंने अपने दशों रूपों का परिचय दिया। फिर शिव जी द्वारा क्षमा याचना करने के पश्चात पूर्णा प्रकृति मुस्कुरा कर अपने पिता दक्ष के यज्ञ में जाने को उत्सुक हुई तब शिव जी ने अपने गमों को कह कर बहुसंख्यक सिंहों से जुते रथ मँगवाकर उस पर आसीन करवाकर भगवती को ससम्मान दक्ष के घर भेजा। शेष कथा कतिपय अंतरों के साथ पूर्ववर्णित कथा के प्रायः अनुरूप ही है, परंतु इस कथा में कुपित सती छायासती को लीला का आदेश देकर अंतर्धान हो जाती है और उस छायासती के भस्म हो जाने पर बात खत्म नहीं होती बल्कि शिव के प्रसन्न होकर यज्ञ पूर्णता का संकेत दे देने के बाद छायासती की लाश सुरक्षित तथा देदीप्यमान रूप में दक्ष की यज्ञशाला में ही पुनः मिल जाती है और फिर देवी शक्ति द्वारा पूर्व में ही भविष्यवाणी रूप में बता दिए जाने के बावजूद लौकिक पुरुष की तरह शिवजी विलाप करते हैं तथा सती की लाश सिर पर धारण कर विक्षिप्त की तरह भटकते हैं। इससे त्रस्त देवताओं को त्राण दिलाने तथा परिस्थिति को सँभालने हेतु भगवान विष्णु सुदर्शन चक्र से सती की लाश को क्रमशः खंड-खंड कर काटते जाते हैं। इस प्रकार सती के विभिन्न अंग तथा आभूषणों के विभिन्न स्थानों पर गिरने से वे स्थान शक्तिपीठ की महिमा से युक्त हो गये। इस प्रकार 51 शक्तिपीठों का निर्माण हो गया। फिर सती की लाश न रह जाने पर भगवान् शिव ने जब व्याकुलतापूर्वक देवताओं से प्रश्न किया तो देवताओं ने उन्हें सारी बात बतायी। इस पर निःश्वास छोड़ते हुए भगवान् शिव ने भगवान विष्णु को त्रेता युग में सूर्यवंश में अवतार लेकर इसी प्रकार पत्नी से वियुक्त होने का शाप दे दिया और फिर स्वयं 51 शक्तिपीठों में सर्वप्रधान 'कामरूप' में जाकर भगवती की आराधना की और उस पूर्णा प्रकृति के द्वारा अगली बार हिमालय के घर में पार्वती के रूप में पूर्णावतार लेकर पुनः उनकी पत्नी बनने का वर प्राप्त हुआ। इस प्रकार यही सती अगले जन्म में पार्वती के रूप में हिमालय की पुत्री बनकर पुनः भगवान शिव को पत्नी रूप में प्राप्त हो गयी। .

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सिखों के दस गुरू

श्रेणी:सिख धर्म.

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जम्मू और कश्मीर

जम्मू और कश्मीर भारत के सबसे उत्तर में स्थित राज्य है। पाकिस्तान इसके उत्तरी इलाके ("पाक अधिकृत कश्मीर") या तथाकथित "आज़ाद कश्मीर" के हिस्सों पर क़ाबिज़ है, जबकि चीन ने अक्साई चिन पर कब्ज़ा किया हुआ है। भारत इन कब्ज़ों को अवैध मानता है जबकि पाकिस्तान भारतीय जम्मू और कश्मीर को एक विवादित क्षेत्र मानता है। राज्य की आधिकारिक भाषा उर्दू है। जम्मू नगर जम्मू प्रांत का सबसे बड़ा नगर तथा जम्मू-कश्मीर राज्य की जाड़े की राजधानी है। वहीं कश्मीर में स्थित श्रीनगर गर्मी के मौसम में राज्य की राजधानी रहती है। जम्मू और कश्मीर में जम्मू (पूंछ सहित), कश्मीर, लद्दाख, बल्तिस्तान एवं गिलगित के क्षेत्र सम्मिलित हैं। इस राज्य का पाकिस्तान अधिकृत भाग को लेकर क्षेत्रफल 2,22,236 वर्ग कि॰मी॰ एवं उसे 1,38,124 वर्ग कि॰मी॰ है। यहाँ के निवासियों अधिकांश मुसलमान हैं, किंतु उनकी रहन-सहन, रीति-रिवाज एवं संस्कृति पर हिंदू धर्म की पर्याप्त छाप है। कश्मीर के सीमांत क्षेत्र पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सिंक्यांग तथा तिब्बत से मिले हुए हैं। कश्मीर भारत का महत्वपूर्ण राज्य है। .

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गुरु हरगोबिन्द

गुरू हरगोबिन्द सिखों के छठें गुरू थे। साहिब की सिक्ख इतिहास में गुरु अर्जुन देव जी के सुपुत्र गुरु हरगोबिन्द साहिब की दल-भंजन योद्धा कहकर प्रशंसा की गई है। गुरु हरगोबिन्द साहिब की शिक्षा दीक्षा महान विद्वान् भाई गुरदास की देख-रेख में हुई। गुरु जी को बराबर बाबा बुड्डाजी का भी आशीर्वाद प्राप्त रहा। छठे गुरु ने सिक्ख धर्म, संस्कृति एवं इसकी आचार-संहिता में अनेक ऐसे परिवर्तनों को अपनी आंखों से देखा जिनके कारण सिक्खी का महान बूटा अपनी जडे मजबूत कर रहा था। विरासत के इस महान पौधे को गुरु हरगोबिन्द साहिब ने अपनी दिव्य-दृष्टि से सुरक्षा प्रदान की तथा उसे फलने-फूलने का अवसर भी दिया। अपने पिता श्री गुरु अर्जुन देव की शहीदी के आदर्श को उन्होंने न केवल अपने जीवन का उद्देश्य माना, बल्कि उनके द्वारा जो महान कार्य प्रारम्भ किए गए थे, उन्हें सफलता पूर्वक सम्पूर्ण करने के लिए आजीवन अपनी प्रतिबद्धता भी दिखलाई। बदलते हुए हालातों के मुताबिक गुरु हरगोबिन्दसाहिब ने शस्त्र एवं शास्त्र की शिक्षा भी ग्रहण की। वह महान योद्धा भी थे। विभिन्न प्रकार के शस्त्र चलाने का उन्हें अद्भुत अभ्यास था। गुरु हरगोबिन्दसाहिब का चिन्तन भी क्रान्तिकारी था। वह चाहते थे कि सिख कौम शान्ति, भक्ति एवं धर्म के साथ-साथ अत्याचार एवं जुल्म का मुकाबला करने के लिए भी सशक्त बने। वह अध्यात्म चिन्तन को दर्शन की नई भंगिमाओं से जोडना चाहते थे। गुरु- गद्दी संभालते ही उन्होंने मीरी एवं पीरी की दो तलवारें ग्रहण की। मीरी और पीरी की दोनों तलवारें उन्हें बाबा बुड्डाजीने पहनाई। यहीं से सिख इतिहास एक नया मोड लेता है। गुरु हरगोबिन्दसाहिब मीरी-पीरी के संकल्प के साथ सिख-दर्शन की चेतना को नए अध्यात्म दर्शन के साथ जोड देते हैं। इस प्रक्रिया में राजनीति और धर्म एक दूसरे के पूरक बने। गुरु जी की प्रेरणा से श्री अकाल तख्त साहिब का भी भव्य अस्तित्व निर्मित हुआ। देश के विभिन्न भागों की संगत ने गुरु जी को भेंट स्वरूप शस्त्र एवं घोडे देने प्रारम्भ किए। अकाल तख्त पर कवि और ढाडियोंने गुरु-यश व वीर योद्धाओं की गाथाएं गानी प्रारम्भ की। लोगों में मुगल सल्तनत के प्रति विद्रोह जागृत होने लगा। गुरु हरगोबिन्दसाहिब नानक राज स्थापित करने में सफलता की ओर बढने लगे। जहांगीर ने गुरु हरगोबिन्दसाहिब को ग्वालियर के किले में बन्दी बना लिया। इस किले में और भी कई राजा, जो मुगल सल्तनत के विरोधी थे, पहले से ही कारावास भोग रहे थे। गुरु हरगोबिन्दसाहिब लगभग तीन वर्ष ग्वालियर के किले में बन्दी रहे। महान सूफी फकीर मीयांमीर गुरु घर के श्रद्धालु थे। जहांगीर की पत्‍‌नी नूरजहांमीयांमीर की सेविका थी। इन लोगों ने भी जहांगीर को गुरु जी की महानता और प्रतिभा से परिचित करवाया। बाबा बुड्डाव भाई गुरदास ने भी गुरु साहिब को बन्दी बनाने का विरोध किया। जहांगीर ने केवल गुरु जी को ही ग्वालियर के किले से आजाद नहीं किया, बल्कि उन्हें यह स्वतन्त्रता भी दी कि वे 52राजाओं को भी अपने साथ लेकर जा सकते हैं। इसीलिए सिख इतिहास में गुरु जी को बन्दी छोड़ दाता कहा जाता है। ग्वालियर में इस घटना का साक्षी गुरुद्वारा बन्दी छोड़ है। अपने जीवन मूल्यों पर दृढ रहते गुरु जी ने शाहजहां के साथ चार बार टक्कर ली। वे युद्ध के दौरान सदैव शान्त, अभय एवं अडोल रहते थे। उनके पास इतनी बडी सैन्य शक्ति थी कि मुगल सिपाही प्राय: भयभीत रहते थे। गुरु जी ने मुगल सेना को कई बार कड़ी पराजय दी। गुरु हरगोबिन्दसाहिब ने अपने व्यक्तित्व और कृत्तित्वसे एक ऐसी अदम्य लहर पैदा की, जिसने आगे चलकर सिख संगत में भक्ति और शक्ति की नई चेतना पैदा की। गुरु जी ने अपनी सूझ-बूझ से गुरु घर के श्रद्धालुओं को सुगठित भी किया और सिख-समाज को नई दिशा भी प्रदान की। अकाल तख्त साहिब सिख समाज के लिए ऐसी सर्वोच्च संस्था के रूप में उभरा, जिसने भविष्य में सिख शक्ति को केन्द्रित किया तथा उसे अलग सामाजिक और ऐतिहासिक पहचान प्रदान की। इसका श्रेय गुरु हरगोबिन्दसाहिब को ही जाता है। गुरु हरगोबिन्दसाहिब जी बहुत परोपकारी योद्धा थे। उनका जीवन दर्शन जन-साधारण के कल्याण से जुडा हुआ था। यही कारण है कि उनके समय में गुरमतिदर्शन राष्ट्र के कोने-कोने तक पहुंचा। श्री गुरु ग्रन्थ साहिब के महान संदेश ने गुरु-परम्परा के उन कार्यो को भी प्रकाशमान बनाया जिसके कारण भविष्य में मानवता का महा कल्याण होने जा रहा था। गुरु जी के इन अथक प्रयत्‍‌नों के कारण सिख परम्परा नया रूप भी ले रही थी तथा अपनी विरासत की गरिमा को पुन:नए सन्दर्भो में परिभाषित भी कर रही थी। गुरु हरगोबिन्दसाहिब की चिन्तन की दिशा को नए व्यावहारिक अर्थ दे रहे थे। वास्तव में यह उनकी आभा और शक्ति का प्रभाव था। गुरु जी के व्यक्तित्व और कृत्तित्वका गहरा प्रभाव पूरे परिवेश पर भी पडने लगा था। गुरु हरगोबिन्दसाहिब जी ने अपनी सारी शक्ति हरमन्दिरसाहिब व अकाल तख्त साहिब के आदर्श स्थापित करने में लगाई। गुरु हरगोबिन्दसाहिब प्राय: पंजाब से बाहर भी सिख धर्म के प्रचार हेतु अपने शिष्यों को भेजा करते थे। गुरु हरगोबिन्दसाहिब ने सिक्ख जीवन दर्शन को सम-सामयिक समस्याओं से केवल जोडा ही नहीं, बल्कि एक ऐसी जीवन दृष्टि का निर्माण भी किया जो गौरव पूर्ण समाधानों की संभावना को भी उजागर करता था। सिख लहर को प्रभावशाली बनाने में गुरु जी का अद्वितीय योगदान रहा। गुरु जी कीरतपुर साहिब में ज्योति-जोत समाए। गुरुद्वारा पातालपुरीगुरु जी की याद में आज भी हजारों व्यक्तियों को शान्ति का संदेश देता है। भाई गुरुदास ने गुरु हरगोबिन्दसाहिब की गौरव गाथा का इन शब्दों में उल्लेख किया है: पंज पिआलेपंजपीर छटम्पीर बैठा गुर भारी, अर्जुन काया पलट के मूरत हरगोबिन्दसवारी, चली पीढीसोढियांरूप दिखावनवारो-वारी, दल भंजन गुर सूरमा वडयोद्धा बहु-परउपकारी॥ सिखों के दस गुरू हैं। .

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कश्मीर

ये लेख कश्मीर की वादी के बारे में है। इस राज्य का लेख देखने के लिये यहाँ जायें: जम्मू और कश्मीर। एडवर्ड मॉलीनक्स द्वारा बनाया श्रीनगर का दृश्य कश्मीर (कश्मीरी: (नस्तालीक़), कॅशीर) भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे उत्तरी भौगोलिक क्षेत्र है। कश्मीर एक मुस्लिमबहुल प्रदेश है। आज ये आतंकवाद से जूझ रहा है। इसकी मुख्य भाषा कश्मीरी है। जम्मू और कश्मीर के बाक़ी दो खण्ड हैं जम्मू और लद्दाख़। .

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अकबर

जलाल उद्दीन मोहम्मद अकबर (१५ अक्तूबर, १५४२-२७ अक्तूबर, १६०५) तैमूरी वंशावली के मुगल वंश का तीसरा शासक था। अकबर को अकबर-ऐ-आज़म (अर्थात अकबर महान), शहंशाह अकबर, महाबली शहंशाह के नाम से भी जाना जाता है। अंतरण करने वाले के अनुसार बादशाह अकबर की जन्म तिथि हुमायुंनामा के अनुसार, रज्जब के चौथे दिन, ९४९ हिज़री, तदनुसार १४ अक्टूबर १५४२ को थी। सम्राट अकबर मुगल साम्राज्य के संस्थापक जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर का पौत्र और नासिरुद्दीन हुमायूं एवं हमीदा बानो का पुत्र था। बाबर का वंश तैमूर और मंगोल नेता चंगेज खां से संबंधित था अर्थात उसके वंशज तैमूर लंग के खानदान से थे और मातृपक्ष का संबंध चंगेज खां से था। अकबर के शासन के अंत तक १६०५ में मुगल साम्राज्य में उत्तरी और मध्य भारत के अधिकाश भाग सम्मिलित थे और उस समय के सर्वाधिक शक्तिशाली साम्राज्यों में से एक था। बादशाहों में अकबर ही एक ऐसा बादशाह था, जिसे हिन्दू मुस्लिम दोनों वर्गों का बराबर प्यार और सम्मान मिला। उसने हिन्दू-मुस्लिम संप्रदायों के बीच की दूरियां कम करने के लिए दीन-ए-इलाही नामक धर्म की स्थापना की। उसका दरबार सबके लिए हर समय खुला रहता था। उसके दरबार में मुस्लिम सरदारों की अपेक्षा हिन्दू सरदार अधिक थे। अकबर ने हिन्दुओं पर लगने वाला जज़िया ही नहीं समाप्त किया, बल्कि ऐसे अनेक कार्य किए जिनके कारण हिन्दू और मुस्लिम दोनों उसके प्रशंसक बने। अकबर मात्र तेरह वर्ष की आयु में अपने पिता नसीरुद्दीन मुहम्मद हुमायुं की मृत्यु उपरांत दिल्ली की राजगद्दी पर बैठा था। अपने शासन काल में उसने शक्तिशाली पश्तून वंशज शेरशाह सूरी के आक्रमण बिल्कुल बंद करवा दिये थे, साथ ही पानीपत के द्वितीय युद्ध में नवघोषित हिन्दू राजा हेमू को पराजित किया था। अपने साम्राज्य के गठन करने और उत्तरी और मध्य भारत के सभी क्षेत्रों को एकछत्र अधिकार में लाने में अकबर को दो दशक लग गये थे। उसका प्रभाव लगभग पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर था और इस क्षेत्र के एक बड़े भूभाग पर सम्राट के रूप में उसने शासन किया। सम्राट के रूप में अकबर ने शक्तिशाली और बहुल हिन्दू राजपूत राजाओं से राजनयिक संबंध बनाये और उनके यहाँ विवाह भी किये। अकबर के शासन का प्रभाव देश की कला एवं संस्कृति पर भी पड़ा। उसने चित्रकारी आदि ललित कलाओं में काफ़ी रुचि दिखाई और उसके प्रासाद की भित्तियाँ सुंदर चित्रों व नमूनों से भरी पड़ी थीं। मुगल चित्रकारी का विकास करने के साथ साथ ही उसने यूरोपीय शैली का भी स्वागत किया। उसे साहित्य में भी रुचि थी और उसने अनेक संस्कृत पाण्डुलिपियों व ग्रन्थों का फारसी में तथा फारसी ग्रन्थों का संस्कृत व हिन्दी में अनुवाद भी करवाया था। अनेक फारसी संस्कृति से जुड़े चित्रों को अपने दरबार की दीवारों पर भी बनवाया। अपने आरंभिक शासन काल में अकबर की हिन्दुओं के प्रति सहिष्णुता नहीं थी, किन्तु समय के साथ-साथ उसने अपने आप को बदला और हिन्दुओं सहित अन्य धर्मों में बहुत रुचि दिखायी। उसने हिन्दू राजपूत राजकुमारियों से वैवाहिक संबंध भी बनाये। अकबर के दरबार में अनेक हिन्दू दरबारी, सैन्य अधिकारी व सामंत थे। उसने धार्मिक चर्चाओं व वाद-विवाद कार्यक्रमों की अनोखी शृंखला आरंभ की थी, जिसमें मुस्लिम आलिम लोगों की जैन, सिख, हिन्दु, चार्वाक, नास्तिक, यहूदी, पुर्तगाली एवं कैथोलिक ईसाई धर्मशस्त्रियों से चर्चाएं हुआ करती थीं। उसके मन में इन धार्मिक नेताओं के प्रति आदर भाव था, जिसपर उसकी निजि धार्मिक भावनाओं का किंचित भी प्रभाव नहीं पड़ता था। उसने आगे चलकर एक नये धर्म दीन-ए-इलाही की भी स्थापना की, जिसमें विश्व के सभी प्रधान धर्मों की नीतियों व शिक्षाओं का समावेश था। दुर्भाग्यवश ये धर्म अकबर की मृत्यु के साथ ही समाप्त होता चला गया। इतने बड़े सम्राट की मृत्यु होने पर उसकी अंत्येष्टि बिना किसी संस्कार के जल्दी ही कर दी गयी। परम्परानुसार दुर्ग में दीवार तोड़कर एक मार्ग बनवाया गया तथा उसका शव चुपचाप सिकंदरा के मकबरे में दफना दिया गया। .

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