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जी मेल एक्स्प्रेस

सूची जी मेल एक्स्प्रेस

‘जी-मेल एक्सप्रेस’ (2016) अलका सिन्हा का महत्वपूर्ण उपन्यास है। स्त्री-विमर्श के दौर में लिखे गए इस उपन्यास में पुरुष देह के शोषण की बात रखी गई है और यह दिखाया गया है कि दैहिक जरूरत अथवा दैहिक शोषण स्त्री-पुरुष में भेद नहीं करता है। कई अतृप्त स्त्रियां नई उम्र के लड़कों को अपना शिकार बनाती हैं तो कई नवयुवक जल्द से जल्द सबकुछ हासिल कर लेने की लालसा में ऐसे प्रलोभनों को स्वीकार कर इनकी चपेट में आ जाते हैं। आधुनिकता की आड़ में पनप रही जिगोलो संस्कृति अर्थात् ‘पुरुष-वेश्यावृत्ति’ की तरफ ध्यान आकर्षित करने के साथ-साथ इसमें समय और समाज के बदलते मापदंडों पर शोधपरक चिंतन किया गया है। यह उपन्यास स्त्रियों की काम-भावना की स्वीकृति का प्रश्न उठाने के साथ-साथ स्त्री-पुरुष की यौन-शुचिता को बराबरी पर विश्लेषित करने की भी मांग करता है। कबाड़ी की दुकान पर बिकती पुरानी किताबों के बीच देवेन त्रिपाठी को किसी की पर्सनल डायरी हाथ लग जाती है जिसकी कोड शैली उसके भीतर उत्सुकता जगाती है और वह अपनी तरह से उसे डिकोड करने लगता है। देवेन त्रिपाठी को अपने स्कूल-कॉलेज के दिनों का वह प्रेम याद आने लगता है जिसे अपने अंतर्मुखी स्वभाव के कारण वह कभी व्यक्त नहीं कर पाया। लिहाजा कोड्स में लिखी यह डायरी उसे बहुत आकर्षित करती है। उसे लगता है कि उस जैसा कोई व्यक्ति इस माध्यम से अपनी बात कह भी सकता है और इसमें जगजाहिर होने का खतरा भी नहीं। वह इस डायरी को बहुत आत्मीय ढंग से गढ़ने लगता है। डायरी की डिकोडिंग करते हुए त्रिपाठी अपनी युवावस्था को दोबारा जीता है और अपनी तरह से उसमें कल्पना के रंग भरता है। कहानी तीन स्तरों पर चलती है -- देवेन त्रिपाठी की निजी जिंदगी, डायरी की रचनात्मक जिंदगी और देवेन त्रिपाठी के दफ्तर तथा आसपास की दुनिया। निजी जिंदगी में देवेन त्रिपाठी कुछ अंतर्मुखी किस्म का व्यक्ति है जो घर पर अपनी पत्नी के अनुसार तथा दफ्तर में अपनी अधिकारी पूर्णिमा के अनुसार काम करता है। दफ्तर में उसका पूर्व अधिकारी धमेजा दिलफेंक तथा समय के मुताबिक चलने वाला इन्सान है। धमेजा के अचानक स्थानांतरण तथा उसकी जगह पूर्णिमा के आ जाने से त्रिपाठी अब पूर्णिमा को रिपोर्ट करने लगता है। पूर्णिमा अपने पति से अलग रहने वाली ‘सिंगल लेडी’ मगर आत्मविश्वास से भरी महिला है। दफ्तर में पूर्णिमा के अकेलेपन को लेकर बहुत छिछली बातें उछाली जाती हैं। इन तोहमतों से बेपरवाह, त्रिपाठी उसकी कार्यशैली और बुद्धिमत्ता से प्रभावित है और उसके मन में पूर्णिमा के लिए सम्मान है। देवेन त्रिपाठी को दफ्तर की ओर से किसी प्रशिक्षण में भाग लेने चेन्नएई भेजा जाता है। वह वहां अपनी पत्नी विनीता के साथ जाता है और उस वक्त का भरपूर आनंद उठाता है। पति-पत्नीा के बीच का संबंध वहां बिताए नौ-दस दिनों में और भी आत्मीय और नया हो उठता है। इस ट्रिप में वह हरदम हावी रहने वाली पत्नी विनीता को कुछ और तरीके से समझता है और उनके बीच का संबंध और प्रगाढ़ हो जाता है। चेन्न ई से वापस लौटने पर उसे पता चलता है कि इसी बीच उसके ऑफिस में छापा पड़ा और मीडिया में यह खबर उछाली जा रही है कि पूर्णिमा दफ्तर में कार्यरत उच्च महिला अधिकारियों को लड़के सप्लाई करती है। इसके बाद शुरू होता है पूछताछ का लंबा सिलसिला जिसमें त्रिपाठी को इसलिए धर लिया जाता है कि छापे के दौरान उसकी दराज से कोड शैली में लिखी वह डायरी बरामद होती है जिससे दरअसल उसका कोई वास्तविक संबंध है ही नहीं। मगर उसकी एक नहीं सुनी जाती और उसे पड़ताल की प्रतारणा झेलनी पड़ती है। डायरी के बहाने स्कूल-कॉलेज की जिंदगी के बीच पनपते अबोध प्रेम की मासूमियत को चित्रित करता देवेन त्रिपाठी जब असल जिंदगी से रूबरू होता है तब सारा तिलिस्म टूट जाता है। वह पाता है कि जिंदगी में प्रेम महज नैसर्गिक अहसास नहीं बल्कि वह तो देह व्यापार तक जा पहुंचा है। भौतिक विलासिता के प्रति आज के युवाओं की बढ़ती लोलुपता और जल्द से जल्द इसे हासिल करने की तेजी एक वर्ग को जिगोलो बनाती जा रही है तो जरूरतमंद वर्ग को उनकी मजबूरियां उन्हें इस ओर धकेल रही हैं। इस प्रकार कहानी का उत्तरार्ध तेजी से बढ़ती जिगोलो संस्कृति पर केंद्रित हो जाता है और जिगोलो संस्कृति की चपेट में आ चुके युवकों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करता है। चरित और डॉ.

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