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किलनी

सूची किलनी

किलनी किलनी (Tick) छोटे वाह्य परजीवी जानवर हैं जो स्तनधारियों, पक्षियों और कभी-कभी सरीसृपों एवं उभयचरों के शरीर पर रहकर उनके खून चूसकर जीते हैं। इन्हें 'कुटकी' और 'चिचड़ी' भी कहते हैं। ये बहुत से रोगों के वाहक भी हैं जैसे लाइम रोग (Lyme disease), Q-ज्वर, बबेसिओसिस, आदि। .

9 संबंधों: परजीवी, बबेसिओसिस, लहसुन, साबुन, जूं, खाद्य तेल, गंधक, आयोडिन, अलसी

परजीवी

परजीवी का मतलब होता है दूसरे जीवो पर आश्रित जीव.

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बबेसिओसिस

बबेसिओसिस (Babesiosis) पशुओं में होने वाला रोग है जो रक्त प्रोटोज़ोआ के कारण होता है जो एककोशिकीय जीव है। यह मलेरिया-जैसा रोग है जो बबेसिया (Babesia) नामक प्रोटोजोवा के संक्रमण के कारण होता है। स्तनपोषी जीवों में ट्राइपैनोसोम (trypanosomes) के बाद बबेसिया दूसरा सबसे अधिक पाया जाने वाला रक्त परजीवी है। मनुष्यों में यह रोग बहुत कम पाया जाता है। बबेसिया प्रजाति के प्रोटोज़ोआ पशुओं के रक्त में चिचडियों (किलनी या कुटकी/ticks) के माध्यम से प्रवेश कर जाते हैं तथा वे रक्त की लाल रक्त कोशिकाओं में जाकर अपनी संख्या बढ़ने लगते हैं जिसके फलस्वरूप लाल रक्त कोशिकायें नष्ट होने लगती हैं। लाल रक्त किशिकाओं में मौजूद हीमोग्लोबिन पेशाब के द्वारा शरीर से बाहर निकलने लगता है जिससे पेशाब का रंग कॉफी के रंग का हो जाता है। कभी-कभी पशु को खून वाले दस्त भी लग जाते हैं। इसमें पशु खून की कमी हो जाने से बहुत कमज़ोर हो जाता है पशु में पीलिया के लक्षण भी दिखायी देने लगते हैं तथा समय इलाज ना कराया जाय तो पशु की मृत्यु हो जाती है। .

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लहसुन

लहसुन (Garlic) प्याज कुल (एलिएसी) की एक प्रजाति है। इसका वैज्ञानिक नाम एलियम सैटिवुम एल है। इसके करीबी रिश्तेदारो में प्याज, इस शलोट और हरा प्याज़ शामिल हैं। लहसुन पुरातन काल से दोनों, पाक और औषधीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग किया जा रहा है। इसकी एक खास गंध होती है, तथा स्वाद तीखा होता है जो पकाने से काफी हद तक बदल कर मृदुल हो जाता है। लहसुन की एक गाँठ (बल्ब), जिसे आगे कई मांसल पुथी (लौंग या फाँक) में विभाजित किया जा सकता इसके पौधे का सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाने वाला भाग है। पुथी को बीज, उपभोग (कच्चे या पकाया) और औषधीय प्रयोजनों के लिए उपयोग किया जाता है। इसकी पत्तियां, तना और फूलों का भी उपभोग किया जाता है आमतौर पर जब वो अपरिपक्व और नर्म होते हैं। इसका काग़ज़ी सुरक्षात्मक परत (छिलका) जो इसके विभिन्न भागों और गाँठ से जुडी़ जड़ों से जुडा़ रहता है, ही एकमात्र अखाद्य हिस्सा है। इसका इस्तेमाल गले तथा पेट सम्बन्धी बीमारियों में होता है। इसमें पाये जाने वाले सल्फर के यौगिक ही इसके तीखे स्वाद और गंध के लिए उत्तरदायी होते हैं। जैसे ऐलिसिन, ऐजोइन इत्यादि। लहसुन सर्वाधिक चीन में उत्पादित होता है उसके बाद भारत में। लहसुन में रासायनिक तौर पर गंधक की अधिकता होती है। इसे पीसने पर ऐलिसिन नामक यौगिक प्राप्त होता है जो प्रतिजैविक विशेषताओं से भरा होता है। इसके अलावा इसमें प्रोटीन, एन्ज़ाइम तथा विटामिन बी, सैपोनिन, फ्लैवोनॉइड आदि पदार्थ पाये जाते हैं। .

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साबुन

तरह-तरह के सजावटी साबुन साबुन उच्च अणु भार वाले कार्बनिक वसीय अम्लों के सोडियम या पोटैशियम लवण है। मृदु साबुन का सूत्र C17H35COOK एवं कठोर साबुन का सूत्र C17H35COONa है। साबुनीकरण की क्रिया में वनस्पति तेल या वसा एवं कास्टिक सोडा या कास्टिक पोटाश के जलीय घोल को गर्म करके रासायनिक प्रतिक्रिया के द्वारा साबुन का निर्माण होता तथा ग्लीसराल मुक्त होता है। साधारण तापक्रम पर साबुन नरम ठोस एवं अवाष्पशील पदार्थ है। यह कार्बनिक मिश्रण जल में घुलकर झाग उत्पन्न करता है। इसका जलीय घोल क्षारीय होता है जो लाल लिटमस को नीला कर देता है। .

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जूं

नर एवं मादा जूँ - माचिस की तिल्ली के नोक से तुलना जूं (Head Louse) एक परजीवी है जो मनुष्य के शरीर में पैदा हो जाते हैं। यह सामान्यत: बालों में पाये जाते हैं।इनका शरीर लंबा, पंखहीन और छोटे होते हैं। इनका एंटीना के चार भाग होते हैं। सिर छोटा ौर मुँह भेदक होते हैं। जब ये शरीर मे भेद करते हैं तो चेतनाशूनय होने वाले पदाथर्र्र्र्र् छोडते हैं जिससे ुनके काटते समय ददर्र्र् नहीं होता है ।ये हमारे खोपडी के नजदीक होते हैं ताकि अपने शरीर का तापमान बनाे रख सकें। भारतीय स्त्रियों में बाल रखने की प्रथा है। हर सौभाग्यवती नारी बाल रखना पसंद करती है। मनुष्य शरीर में जो परजीवी पैदा हो जाते हैं, उनमें जूं मुख्य हैं। जूं को दूसरे नामों से भी बुलाते है। चिलुआ इनका दूसरा नाम है - दोनो में जो पहिचान होती है, उसमे चिलुआ सफ़ेद रंग का होता है और जूं काले रंग का होता है। जूं सिर के बालों में पनपता है और चिलुआ शरीर मे पहने गये कपडों में पसीने वाले स्थानों में पैदा हो जाते हैं। दोनो का काम ही शरीर का खून पीना होता है| .

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खाद्य तेल

सरसों का तेल खाद्य तेल या पाक तेल (खाना पकाने में काम आने वाले तेल), वनस्पतियों से प्राप्त वसा का परिशुद्ध रूप होते हैं। यह सामान्य तापमान पर तरल अवस्था में रहते हैं। (नारियल तेल और ताड़ का तेल जैसे संतृप्त तेल अन्य तेलों की तुलना में सामान्य तापमान पर अधिक ठोस होते हैं)। खाद्य तेलों के उदाहरण हैं: सरसों का तेल, जैतून का तेल, ताड़ का तेल, सोयाबीन तेल, कनोला तेल, कद्दू के बीज का तेल, मक्का का तेल, सूरजमुखी तेल, मूंगफली तेल, तिल का तेल, चावल की भूसी का तेल आदि। इनके अलावा और भी बहुत से वनस्पति तेलों का प्रयोग खाना पकाने में किया जाता है। जब हम खास तौर पर "वनस्पति तेल" की बात करते हैं तब हमारा अभिप्राय किसी खास तेल या तेलों के मिश्रण से तैयार किसी विशिष्ट तेल से होता है। खाद्य तेलों में ताजा जड़ी बूटी, लहसुन, मिर्च आदि जैसे खाद्य पदार्थों को मिलाकर उनका खास स्वाद और खुशबू प्रदान की जा सकती है। हालांकि यदि इन खुशबूदार तेलों का भंडारण एक लंबे समय के लिए करना हो तो उनमें जीवाणु पनप सकते हैं। .

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गंधक

हल्के पीले रंग के गंधक के क्रिस्टल गंधक (Sulfur) एक रासायनिक अधातुक तत्त्व है। .

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आयोडिन

जंबुकी (आयोडीन) एक रासायनिक तत्त्व है। जंबुकी हमारे आहार के प्रमुख पोषक तत्वों में से है और इसकी कमी से दिमाग़ और शरीर के विकास से जुड़ी कई बीमारियाँ होती हैं। दुनिया में प्रति वर्ष लाखों बच्चे सीखने की कमज़ोर क्षमता के साथ पैदा होते है क्योंकि उनकी माताओं ने गर्भावस्था के दौरान भोजन में आयोडिन की पर्याप्त मात्रा नहीं लीं.जंबुकी की मदद से गर्दन के पास पाई जाने वाली थायरॉयड ग्रंथि विकास के लिए ज़रूरी हार्मोन पैदा करती है। आयोडिन की कमी के कारण बच्चों का बौद्धिक स्तर 10 से 15 प्रतिशत तक कम हो सकता है। .

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अलसी

अलसी या तीसी समशीतोष्ण प्रदेशों का पौधा है। रेशेदार फसलों में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। इसके रेशे से मोटे कपड़े, डोरी, रस्सी और टाट बनाए जाते हैं। इसके बीज से तेल निकाला जाता है और तेल का प्रयोग वार्निश, रंग, साबुन, रोगन, पेन्ट तैयार करने में किया जाता है। चीन सन का सबसे बड़ा उत्पादक देश है। रेशे के लिए सन को उपजाने वाले देशों में रूस, पोलैण्ड, नीदरलैण्ड, फ्रांस, चीन तथा बेल्जियम प्रमुख हैं और बीज निकालने वाले देशों में भारत, संयुक्त राज्य अमरीका तथा अर्जेण्टाइना के नाम उल्लेखनीय हैं। सन के प्रमुख निर्यातक रूस, बेल्जियम तथा अर्जेण्टाइना हैं। तीसी भारतवर्ष में भी पैदा होती है। लाल, श्वेत तथा धूसर रंग के भेद से इसकी तीन उपजातियाँ हैं इसके पौधे दो या ढाई फुट ऊँचे, डालियां बंधती हैं, जिनमें बीज रहता है। इन बीजों से तेल निकलता है, जिसमें यह गुण होता है कि वायु के संपर्क में रहने के कुछ समय में यह ठोस अवस्था में परिवर्तित हो जाता है। विशेषकर जब इसे विशेष रासायनिक पदार्थो के साथ उबला दिया जाता है। तब यह क्रिया बहुत शीघ्र पूरी होती है। इसी कारण अलसी का तेल रंग, वारनिश और छापने की स्याही बनाने के काम आता है। इस पौधे के एँठलों से एक प्रकार का रेशा प्राप्त होता है जिसको निरंगकर लिनेन (एक प्रकार का कपड़ा) बनाया जाता है। तेल निकालने के बाद बची हुई सीठी को खली कहते हैं जो गाय तथा भैंस को बड़ी प्रिय होती है। इससे बहुधा पुल्टिस बनाई जाती है। आयुर्वेद में अलसी को मंदगंधयुक्त, मधुर, बलकारक, किंचित कफवात-कारक, पित्तनाशक, स्निग्ध, पचने में भारी, गरम, पौष्टिक, कामोद्दीपक, पीठ के दर्द ओर सूजन को मिटानेवाली कहा गया है। गरम पानी में डालकर केवल बीजों का या इसके साथ एक तिहाई भाग मुलेठी का चूर्ण मिलाकर, क्वाथ (काढ़ा) बनाया जाता है, जो रक्तातिसार और मूत्र संबंधी रोगों में उपयोगी कहा गया है। .

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