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ईड़ा

सूची ईड़ा

कई योग शास्त्रों में ईड़ा को तीन प्रमुख नाड़ियों में से एक माना गया है। अन्य दो के नाम हैं - पिंगला और सुषुम्ना। ईड़ा ऋणात्मक ऊर्जा का वाह करती है। शिव स्वरोदय ईड़ा द्वारा उत्पादित ऊर्जा को चन्द्रमा के सदृश्य मानता है अतः इसे चन्द्रनाड़ी भी कहा जाता है। इसकी प्रकृति शीतल, विश्रामदायक और चित्त को अंतर्मुखी करनेवाली मानी जाती है। इसका उद्गम मूलाधार चक्र माना जाता है - जो मेरुदण्ड के सबसे नीचे स्थित है। स्वरयोग के अनुसार जब श्वास का प्रवाह बाईँ नसिका-रंध्र में होता है तो वह मानसिक कार्यों के हेतु मनस शक्ति प्रदान करती है। इसे मांशपेशियों में शिथिलता आती है और शरीर का तापमान कम होता है। यह इस बात का भी संकेत है कि इस अवधि में मन अन्तर्मुखी तथा सृजनात्मक होता है। ऐसी स्थिति में मनुष्य को थकाने वाले और परिश्रम के कार्य को टालना चाहिए। Category:योग.

3 संबंधों: पिंगला, मेरूरज्जु, शिव स्वरोदय

पिंगला

पिंगला, योग शास्त्रों के मुताबिक तीन प्रमुख नाड़ियों में से एक है। इससे शरीर में प्राण शक्ति का वहन होता है जिसके फलस्वरूप शरीर में ताप बढ़ता है। इससे शरीर को श्रम, तनाव और थकावट सहने की क्षमता प्रदान करता है। यह मनुष्य को बहिर्मुखी बनाता है। Category:योग.

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मेरूरज्जु

कशेरूक नाल में नीचले मेरूरज्जु की स्थिति मेरूरज्जु (लैटिन: Medulla spinalis, जर्मन: Rückenmark, अंग्रेजी: Spinal cord), मध्य तंत्रिकातंत्र का वह भाग है, जो मस्तिष्क के नीचे से एक रज्जु (रस्सी) के रूप में पश्चकपालास्थि के पिछले और नीचे के भाग में स्थित महारंध्र (foramen magnum) द्वारा कपाल से बाहर आता है और कशेरूकाओं के मिलने से जो लंबा कशेरूका दंड जाता है उसकी बीच की नली में चला जाता है। यह रज्जु नीचे ओर प्रथम कटि कशेरूका तक विस्तृत है। यदि संपूर्ण मस्तिष्क को उठाकर देखें, तो यह 18 इंच लंबी श्वेत रंग की रज्जु उसके नीचे की ओर लटकती हुई दिखाई देगी। कशेरूक नलिका के ऊपरी 2/3 भाग में यह रज्जु स्थित है और उसके दोनों ओर से उन तंत्रिकाओं के मूल निकलते हैं, जिनके मिलने से तंत्रिका बनती है। यह तंत्रिका कशेरूकांतरिक रंध्रों (intervertebral foramen) से निकलकर शरीर के उसी खंड में फैल जाती हैं, जहाँ वे कशेरूक नलिका से निकली हैं। वक्ष प्रांत की बारहों मेरूतंत्रिका इसी प्रकार वक्ष और उदर में वितरित है। ग्रीवा और कटि तथा त्रिक खंडों से निकली हुई तंत्रिकाओं के विभाग मिलकर जालिकाएँ बना देते हैं जिनसे सूत्र दूर तक अंगों में फैलते हैं। इन दोनों प्रांतों में जहाँ वाहनी और कटित्रिक जालिकाएँ बनती हैं, वहाँ मेरूरज्जु अधिक चौड़ी और मोटी हो जाती है। मस्तिष्क की भाँति मेरूरज्जु भी तीनों तानिकाओं से आवेष्टित है। सब से बाहर दृढ़ तानिका है, जो सारी कशेरूक नलिका को कशेरूकाओं के भीतर की ओर से आच्छादित करती है। किंतु कपाल की भाँति परिअस्थिक (periosteum) नहीं बनाती और न उसके कोई फलक निकलकर मेरूरज्जु में जाते हैं। उसके स्तरों के पृथक होने से रक्त के लौटने के लिये शिरानाल भी नहीं बनते जैसे कपाल में बनते हैं। वास्तव में मरूरज्जु पर की दृढ़तानिका मस्तिष्क पर की दृढ़ तानिका का केवल अंत: स्तर है। दृढ़ तानिका के भीतर पारदर्शी, स्वच्छ, कोमल, जालक तानिका है। दोनों के बीच का स्थान अधोदृढ़ तानिका अवकाश (subdural space) कहा जाता है, जो दूसरे, या तीसरे त्रिक खंड तक विस्तृत है। सबसे भीतर मृदु तानिका है, जो मेरूरज्जु के भीतर अपने प्रवर्धों और सूत्रों को भेजती है। इस सूक्ष्म रक्त कोशिकाएँ होती हैं। इस तानिका के सूत्र तानिका से पृथक् नहीं किए जा सकते। मृदु तानिका और जालक तानिका के बीच के अवकाश को अधो जालक तानिका अवकाश कहा जाता है। इसमें प्रमस्तिष्क मेरूद्रव भरा रहता है। नीचे की ओर द्वितीय कटि कशेरूका पर पहुँचकर रज्जु की मोटाई घट जाती है और वह एक कोणाकार शिखर में समाप्त हो जाती है। यह मेरूरज्जु पुच्छ (canda equina) कहलाता है। इस भाग से कई तंत्रिकाएँ नीचे को चली जाती हैं और एक चमकता हुआ कला निर्मित बंध (bond) नीचे की ओर जाकर अनुत्रिक (coccyx) के भीतर की ओर चला जाता है। .

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शिव स्वरोदय

शिव स्वरोदय एक प्राचीन तान्त्रिक ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ शिव और पार्वती के संवाद के रूप में है। इसमें कुल ३९५ श्लोक हैं। १९८३ में सत्यानन्द सरस्वती ने इस पर 'स्वर योग' नाम से टीका लिखी। ग्रन्थ के आरम्भ में पार्वती भगवान शिव से पूछती हैं, हे प्रभु ! मेरे ऊपर कृपा करके सर्व सिद्धिदायक ज्ञान कहिये, ये ब्रह्माण्ड कैसे उत्पन्न हुआ, कैसे स्थित होता है, और कैसे इसका प्रलय होता है? हे देव ब्रह्मांड के निर्णय को कहिए। महादेवजी बोले, शिव आगे कहते हैं- .

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