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व्याडि

सूची व्याडि

व्याडि (लगभग ई. पू. 400) संस्कृत वैयाकरण थे। संस्कृत व्याकरण के दार्शनिक पक्ष का विवेचन उनके "संग्रह" नामक ग्रन्थ से आरंभ होता है जिसके कुछ वाक्य ही आज अवशेष हैं। 'परिभाषावृत्ति' नामक उनकी दूसरी प्रसिद्ध रचना है। युधिष्ठिर मीमांसक अनेक प्रमाणों के आधर पर इनका समय २९५० विक्रम पूर्व मानते हैं।1 भर्तृहरि के प्रमाण से जान पड़ता है कि ‘संग्रह’ पाणिनि-सम्प्रदाय से संबद्ध ग्रन्थ था। व्याडि स्वतन्त्र विचारक थे। भर्तृहरि के कथनानुसार संग्रह में उन्होंने चतुर्दश सहस्र विषयों पर विचार किया था। संग्रह भर्तृहरि के समय से बहुत पहले ही लुप्त हो चुका था। संग्रह के कुछ उद्धरण भर्तृहरि के ग्रन्थों में मिल जा ते हैं। उनमें भी अधिकांश वाक्यपदीय की भर्तृहरि रचित वृत्ति में हैं। जो दो-तीन उद्धरण दूसरे लेखकों द्वारा दिए गए हैं वे भी भर्तृहरि से ही लिए जान पड़ते हैं। पतंजलि ने संग्रह के बारे में कहा हैः- शोभना खलु दाक्षायणस्य संग्रहस्य कृतिः। 5 पतंजलि का ‘शोभना’ शब्द संग्रह के गौरव को व्यक्त कर देता है। जो उद्धरण उपलब्ध हैं उनसे जान पड़ता है कि व्याडि ने संग्रह में प्राकृतध्वनि, वैकृतध्वनि, वर्ण, पद, वाक्य, अर्थ, मुख्यगौणभाव, सम्बन्ध, उपसर्ग, निपात, कर्मप्रवचनीय आदि विषयों पर विचार किया था। उन्होंने ‘दशध अर्थवत्ता’ मानी थी। शब्द के स्वरूप पर मौलिक विचार प्रस्तुत किए थे। शब्द के नित्य और अनित्य स्वरूप पर भी संग्रह में पर्याप्त विवेचन किया गया था और दोनों पक्षों में गुण-दोष के विवेचन के पश्चात् यह निष्कर्ष निकाला गया था कि व्याकरण के नियम शब्दनित्यवाद तथा शब्दकार्यवाद दोनों में से चाहे किसी भी पक्ष को स्वीकारने पर अवश्यम्भावी है। .

4 संबंधों: महाभाष्य, संस्कृत शब्दकोश, संस्कृत व्याकरण का इतिहास, कोश

महाभाष्य

पतंजलि ने पाणिनि के अष्टाध्यायी के कुछ चुने हुए सूत्रों पर भाष्य लिखी जिसे व्याकरणमहाभाष्य का नाम दिया (महा+भाष्य (समीक्षा, टिप्पणी, विवेचना, आलोचना))। व्याकरण महाभाष्य में कात्यायन वार्तिक भी सम्मिलित हैं जो पाणिनि के अष्टाध्यायी पर कात्यायन के भाष्य हैं। कात्यायन के वार्तिक कुल लगभग १५०० हैं जो अन्यत्र नहीं मिलते बल्कि केवल व्याकरणमहाभाष्य में पतंजलि द्वारा सन्दर्भ के रूप में ही उपलब्ध हैं। संस्कृत के तीन महान वैयाकरणों में पतंजलि भी हैं। अन्य दो हैं - पाणिनि तथा कात्यायन (१५० ईशा पूर्व)। महाभाष्य में शिक्षा (phonology, including accent), व्याकरण (grammar and morphology) और निरुक्त (etymology) - तीनों की चर्चा हुई है। .

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संस्कृत शब्दकोश

सबसे पहले शब्द-संकलन भारत में बने। भारत की यह शानदार परंपरा वेदों जितनी—कम से कम पाँच हजार वर्ष—पुरानी है। प्रजापति कश्यप का निघण्टु संसार का प्राचीनतम शब्द संकलन है। इस में १८०० वैदिक शब्दों को इकट्ठा किया गया है। निघंटु पर महर्षि यास्क की व्याख्या 'निरुक्त' संसार का पहला शब्दार्थ कोश (डिक्शनरी) एवं विश्वकोश (ऐनसाइक्लोपीडिया) है। इस महान शृंखला की सशक्त कड़ी है छठी या सातवीं सदी में लिखा अमरसिंह कृत 'नामलिंगानुशासन' या 'त्रिकांड' जिसे सारा संसार 'अमरकोश' के नाम से जानता है। अमरकोश को विश्व का सर्वप्रथम समान्तर कोश (थेसेरस) कहा जा सकता है। .

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संस्कृत व्याकरण का इतिहास

संस्कृत का व्याकरण वैदिक काल में ही स्वतंत्र विषय बन चुका था। नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात - ये चार आधारभूत तथ्य यास्क (ई. पू. लगभग 700) के पूर्व ही व्याकरण में स्थान पा चुके थे। पाणिनि (ई. पू. लगभग 550) के पहले कई व्याकरण लिखे जा चुके थे जिनमें केवल आपिशलि और काशकृत्स्न के कुछ सूत्र आज उपलब्ध हैं। किंतु संस्कृत व्याकरण का क्रमबद्ध इतिहास पाणिनि से आरंभ होता है। व्याकरण शास्त्र का वृहद् इतिहास है किन्तु महामुनि पाणिनि और उनके द्वारा प्रणीत अष्टाधयायी ही इसका केन्द्र बिन्दु हैं। पाणिनि ने अष्टाधयायी में 3995 सूत्रें की रचनाकर भाषा के नियमों को व्यवस्थित किया जिसमें वाक्यों में पदों का संकलन, पदों का प्रकृति, प्रत्यय विभाग एवं पदों की रचना आदि प्रमुख तत्त्व हैं। इन नियमों की पूर्त्ति के लिये धातु पाठ, गण पाठ तथा उणादि सूत्र भी पाणिनि ने बनाये। सूत्रों में उक्त, अनुक्त एवं दुरुक्त विषयों का विचार कर कात्यायन ने वार्त्तिक की रचना की। बाद में महामुनि पतंजलि ने महाभाष्य की रचना कर संस्कृत व्याकरण को पूर्णता प्रदान की। इन्हीं तीनों आचार्यों को 'त्रिमुनि' के नाम से जाना जाता है। प्राचीन व्याकरण में इनका अनिवार्यतः अधययन किया जाता है। नव्य व्याकरण के अन्तर्गत प्रक्रिया क्रम के अनुसार शास्त्रों का अधययन किया जाता है जिसमें भट्टोजीदीक्षित, नागेश भट्ट आदि आचार्यों के ग्रन्थों का अधययन मुख्य है। प्राचीन व्याकरण एवं नव्य व्याकरण दो स्वतंत्र विषय हैं। .

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कोश

कोश एक ऐसा शब्द है जिसका व्यवहार अनेक क्षेत्रों में होता है और प्रत्येक क्षेत्र में उसका अपना अर्थ और भाव है। यों इस शब्द का व्यापक प्रचार वाङ्मय के क्षेत्र में ही विशेष है और वहाँ इसका मूल अर्थ 'शब्दसंग्रह' (lexicon) है। किंतु वस्तुत: इसका प्रयोग प्रत्येक भाषा में अक्षरानुक्रम अथवा किसी अन्य क्रम से उस भाषा अथवा किसी अन्य भाषा में शब्दों की व्याख्या उपस्थित करनेवाले ग्रंथ के अर्थ में होता है। .

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