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वर्ग संघर्ष

सूची वर्ग संघर्ष

वर्ग संघर्ष (Class struggle) मार्क्सवादी विचारधारा का प्रमुख तत्व है। मार्क्सवाद के शिल्पकार कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंजेल्स ने लिखा है, " अब तक विद्यमान सभी समाजों का लिखित इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है।" मार्क्स द्वारा प्रतिपादित वर्ग-संघर्ष का सिद्धांत ऐतिहासिक भौतिकवाद की ही उपसिधि है ओर साइर्थ ही यह अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत के अनुकूल है। मार्क्स ने आर्थिक नियतिवाद की सबसे महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति इस बात में देखी है कि समाज मे सदैव ही विरोधी आर्थिक वर्गों का अस्तित्व रहा है। एक वर्ग वह है जिसके पास उत्पादन के साधनों का स्वामित्व है ओर दूसरा वह जो केवल शारिरिक श्रम करता है। पहला वर्ग सदैव ही दूसरे वर्ग का शोषण करता है। मार्क्स के अनुसार समाज के शोषक ओर शोषित - ये दो वर्ग सदा ही आपस मे संघर्षरत रहे हैं और इनमें समझोता कभी संभव नहीं है। .

12 संबंधों: फ़ेबियन समाजवाद, फ्रेडरिक एंगेल्स, मार्क्सवादी संशोधनवाद, श्रम आंदोलन, सामाजिक स्तरीकरण, साहित्येतिहास, हो चि मिन्ह, वैज्ञानिक समाजवाद, कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र, कामगार वर्ग, कार्ल मार्क्स, क्रान्ति

फ़ेबियन समाजवाद

फ़ेबियन समाजवाद ब्रिटेन की एक सुधारवादी विचारधारा है जिसका जन्म वैज्ञानिक समाजवाद के प्रतिलोम के रूप में हुआ था। रोमन सेनापति फ़ेबियस कुंक्टेटर के नाम पर इस विचारधारा का नामकरण किया गया। फ़ेबियन समाज ब्रिटेन में १८८४ में सगठित की गयी थी और १९00 में वह साहित्यिक-पत्रकार दल के रूप में लेबर पार्टी से संलग्न हो गयी। फ़ेबियन समाज के प्रवक्ता- बी.

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फ्रेडरिक एंगेल्स

फ्रेडरिक एंगेल्स (२८ नवंबर, १८२० – ५ अगस्त, १८९५ एक जर्मन समाजशास्त्री एवं दार्शनिक थे1 एंगेल्स और उनके साथी साथी कार्ल मार्क्स मार्क्सवाद के सिद्धांत के प्रतिपादन का श्रेय प्राप्त है। एंगेल्स ने 1845 में इंग्लैंड के मजदूर वर्ग की स्थिति पर द कंडीशन ऑफ वर्किंग क्लास इन इंग्लैंड नामक पुस्तक लिखी। उन्होंने मार्क्स के साथ मिलकर 1848 में कम्युनिस्ट घोषणापत्र की रचना की और बाद में अभूतपूर्व पुस्तक "पूंजी" दास कैपिटल को लिखने के लिये मार्क्स की आर्थिक तौर पर मदद की। मार्क्स की मौत हो जाने के बाद एंगेल्स ने पूंजी के दूसरे और तीसरे खंड का संपादन भी किया। एंगेल्स ने अतिरिक्त पूंजी के नियम पर मार्क्स के लेखों को जमा करने की जिम्मेदारी भी बखूबी निभाई और अंत में इसे पूंजी के चौथे खंड के तौर पर प्रकाशित किया गया। .

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मार्क्सवादी संशोधनवाद

मार्क्सवादी आन्दोलन के अन्तर्गत, संशोधनवाद (revisionism) उन विभिन्न विचारों और सिद्धान्तों को कहते हैं जो मार्क्सवाद के मूलभूत अवधारणाओं में पर्याप्त संशोधन करके प्रस्तुत किए गये हैं। 'रिविजनिज्म' शब्द का प्रयोग वे मार्क्सवादी करते हैं जिनका विश्वास है कि मार्क्सवाद में ऐसे संशोधन अवांछित हैं और मार्क्सवाद को क्षीण करने या त्यागने के उद्देश्य से लाए गये हैं। 'वर्ग संघर्ष को नकारना' संशोधनवादी सिद्धान्त का एक आम उदाहरण है। श्रेणी:मार्क्सवाद.

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श्रम आंदोलन

श्रम आंदोलन या लेबर मूवमेंट श्रमवर्ग लोगों के एक सामूहिक संगठन के विकास के लिए अपने कर्मचारियों और सरकारों से, विशेष रूप से श्रम संबंधों को शासित करने वाले विशिष्ट कानूनों के कार्यान्वयन के माध्यम से बेहतर आचरण के लिए अपने स्वयं के हित में अभियान चलाने में इस्तेमाल किया जाने वाला एक व्यापक शब्द है। ट्रेड यूनियन समाजों के भीतर सामूहिक संगठनों के रूप में हैं जिन्हें श्रमिकों और कामगार वर्ग के हितों का प्रतिनिधित्व करने के उद्देश्य से गठित किया गया है। शासक वर्ग के कई लोग तथा राजनीतिक समूह भी श्रम आंदोलन में सक्रिय और इसका एक हिस्सा हो सकते हैं। कुछ देशों में, खासकर ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया में श्रम आंदोलन को एक औपचारिक "राजनीतिक पक्ष" को घेरने वाला समझा जाता है जिसे अक्सर लेबर पार्टी या वर्कर्स पार्टी के नाम से जाना जाता है जो उपरोक्त "औद्योगिक पक्ष" का पूरक बनते हैं। .

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सामाजिक स्तरीकरण

सामाजिक स्तरीकरण (social stratification) वह प्रक्रिया है जिसमे व्यक्तियों के समूहों को उनकी प्रतिष्ठा, संपत्ति और शक्ति की मात्रा के सापेक्ष पदानुक्रम में विभिन्न श्रेणियों में उच्च से निम्न रूप में स्तरीकृत किया जाता है। वर्ग स्‍तरीकरण वि‍श्‍वव्‍यापी है और उसके उत्‍पन्‍न होने के अनेक कारण हैं जैसे पूंजीपति‍ और श्रमि‍क वर्ग औद्योगीकरण की देन हैं; धन की वि‍भि‍न्‍न अवस्‍था धनी, मध्‍यम और र्नि‍धन वर्ग को जन्‍म देती है। .

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साहित्येतिहास

साहित्येतिहास (साहित्य + इतिहास) से आशय गद्य और पद्य के रूप में लिखे गये सम्पूर्ण साहित्य के विकास के इतिहास से है। साहित्य के अन्तर्गत वह सब कुछ आ जाता है जो पाठकों/श्रोताओं/दर्शकों को मनोरंजन प्रदान करे, शिक्षा दे या उनका प्रबोधन करे। .

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हो चि मिन्ह

हो चि मिन्ह हो-चि मिन्ह (19 मई सन् 1890 - 2 सितम्बर 1969), विश्व में मार्क्स, ऐंगेल्स, लेनिन, स्टालिन की साम्यवादी परंपरा की एशियाई कड़ी माने जाने वाले विचारक हैं। वे वियतनाम के राष्ट्रपति थे। उनके जीवन की प्रत्येक दृष्टि साम्यवादियों के लिए सर्वहारा क्रांति तथा राष्ट्रवादियों के लिए विश्व की प्रबलतम साम्राज्यवादी शक्तियों - फ्रांस और अमेरिका - के विरुद्ध संघर्ष की लंबी शिक्षाप्रद कहानी रही है। इन सभी संग्रामों का प्रेरणास्रोत हो चि मिन्ह के इच्छापत्र के अनुसार मार्क्सवाद, लेनिनवाद और सर्वहारा का अंतरराष्ट्रीयतावाद ही रहा है। यदि लेनिन ने रूस में "वर्गसंघर्ष" का उदाहरण प्रस्तुत किया तो हो चि मिन्ह ने "राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष" का उदाहरण वियतनाम के माध्यम से प्रस्तुत किया। उन्होंने स्पष्ट कहा, जिस प्रकार पूँजीवाद का अंतरराष्ट्रीय रूप साम्राज्यवाद है उसी प्रकार वर्गसंघर्ष का अंतरराष्ट्रीय रूप मुक्तिसंघर्ष है। .

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वैज्ञानिक समाजवाद

फ्रेडरिक इंगेल्स ने कार्ल मार्क्स द्वारा प्रतिपादित सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक सिद्धान्त को वैज्ञानिक समाजवाद (Scientific Socialism) का नाम दिया। मार्क्स ने यद्यपि कभी भी वैज्ञानिक समाजवाद शब्द का प्रयोग नहीं किया किन्तु उन्होने यूटोपियन समाजवाद की आलोचना की। मार्क्स को वैज्ञानिक समाजवाद का प्रणेता माना जाता है। मार्क्स जर्मन देश के एक राज्य का रहनेवाला था और जर्मनी 1871 ई. के पूर्व राजनीतिक रूप से कई राज्यों में विभाजित, तथा आर्थिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ था। अत: यहाँ पर समाजवादी विचारों का प्रचार देर से हुआ। यद्यपि जोहान फिख्टे (Johaan Fichte, 1761-1815) के विचारों में समाजवाद की झलक है, परंतु जर्मनी का सर्वप्रथम और प्रमुख समाजवादी विचारक कार्ल मार्क्स ही माना जाता है। मार्क्स के विचारों पर हीगेल के आदर्शवाद, फोरवाक (Feuerbach) के भौतिकवाद, ब्रिटेन के शास्त्रीय अर्थशास्त्र, तथा फ्रांस की क्रांतिकारी राजनीति का प्रभाव है। मार्क्स ने अपने पूर्वगामी और समकालीन समाजवादी विचारों का समन्वय किया है। उसके अभिन्न मित्र और सहकारी एंगिल्स ने भी समाजवादी विचार प्रतिपादित किए हैं, परंतु उनमें अधिकांशत: मार्क्स के सिद्धांतों की व्याख्या है, अत: उसके लेख मार्क्सवाद के ही अंग माने जाते हैं। मार्क्स के दर्शन को द्वंद्वात्मक भौतिकवाद (Dialectical materialism) कहा जाता है। मार्क्स के लिए वास्तविकता विचार मात्र नहीं भौतिक सत्य है; विचार स्वयं पदार्थ का विकसित रूप है। उसका भौतिकवाद, विकासवान् है परंतु यह विकास द्वंद्वात्मक प्रकार से होता है। इस प्रकार मार्क्स, हीगल के विचारवाद का विरोधी है परंतु उसकी द्वंद्वात्मक प्रणाली को स्वीकार करता है। मार्क्स के विचारों की दूसरी विशेषता उसका ऐतिहासिक भौतिकवाद (Historical materialism) है। कुछ लेखक इसको इतिहास की अर्थशास्त्रीय व्याख्या भी कहते हैं। मार्क्स ने सिद्ध किया कि सामाजिक परिवर्तनों का आधार उत्पादन के साधन और उससे प्रभावित उत्पादन संबंधों में परिवर्तन हैं। अपनी प्रतिभा के अनुसार मनुष्य सदैव की उत्पादन के साधनों में उन्नति करता है, परंतु एक स्थिति आती है जब इस कारण उत्पादन संबंधों पर भी असर पड़ने लगता है और उत्पादन के साधनों के स्वामी-शोषक-और इन साधनों का प्रयोग करनेवाला शोषित वर्ग में संघर्ष आरंभ हो जाता है। स्वामी पुरानी अवस्था को कायम रखकर शोषण का क्रम जारी रखना चाहता है, परंतु शोषित वर्ग का और समाज का हित नए उत्पादन संबंध स्थापित कर नए उत्पादन के साधनों का प्रयोग करने में होता है। अत: शोषक और शोषित के बीच वर्गसंघर्ष क्रांति का रूप धारण करता है और उसके द्वारा एक नए समाज का जन्म होता है। इसी प्रक्रिया द्वारा समाज आदिकालीन कबायली साम्यवाद, प्राचीन गुलामी, मध्यकालीन सामंतवाद और आधुनिक पूँजीवाद, इन अवस्थाओं से गुजरा है। अभी तक का इतिहास वर्गसंघर्ष का इतिहास है, आज भी पूँजीपति और सर्वहारा वर्ग के बीच यह संघर्ष है, जिसका अंत सर्वहारा क्रांति द्वारा समाजवाद की स्थापना से होगा। भावी साम्यवादी अवस्था इस समाजवादी समाज का ही एक श्रेष्ठ रूप होगी। मार्क्स ने पूंजीवादी समाज का गूढ़ और विस्तृत विश्लेषण किया है। उसकी प्रमुख पुस्तक का नाम das पूँजी (Capital) है। इस संबंध में उसके अर्घ (Value) और अतिरिक्त अर्घ (Surplus value) संबंधी सिद्धांत मुख्य हैं। उसका कहना है कि पूँजीवादी समाज की विशेषता अधिकांशत: पण्यों (Commodities) की पैदावार है, पूँजीपति अधिकतर चीजें बेचने के लिए बनाता है, अपने प्रयोग मात्र के लिए नहीं। पण्य वस्तुएँ अपने अर्घ के आधार पर खरीदी बेची जाती हैं। परंतु पूँजीवादी समाज में मजदूर की श्रमशक्ति भी पण्य बन जाती है और वह भी अपने अर्घ के आधार पर बेची जाती है। प्रत्येक चीज के अर्घ का आधार उसके अंदर प्रयुक्त सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम है जिसका मापदंड समय है। मजदूर अपनी श्रमशक्ति द्वारा पूँजीपति के लिए बहुत सामथ्र्य (पण्य) पैदा करता है, परंतु उसकी श्रमशक्ति का अर्घ बहुत कम होता है। इन दोनों का अंतर अतिरिक्त अर्घ है और यह अतिरिक्त अर्घ जिसका आधार मजदूर का श्रम है पूँजीवादी मुनाफे, सूद, कमीशन आदि का आधार है। सारांश यह कि पूँजी का स्रोत श्रमशोषण है। मार्क्स का यह विचार वर्गसंघर्ष को प्रोत्साहन देता है। पूँजीवाद की विशेषता है कि इसमें स्पर्धा होती है और बड़ा पूँजीपति छोटे पूँजीपति को परास्त कर उसका नाश कर देता है तथा उसकी पूँजी का स्वयं अधिकारी हो जाता है। वह अपनी पूँजी और उसके लाभ को भी फिर से उत्पादन के क्रम में लगा देता है। इस प्रकार पूँजी और पैदावार दोनों की वृद्धि होती है। परंतु क्योंकि इसके अनुपात में मजदूरी नहीं बढ़ती, अत: श्रमिक वर्ग इस पैदावार को खरीदने में असमर्थ होता है और इस कारण समय समय पर पूँजीवादी व्यवस्था आर्थिक संकटों की शिकार होती है जिसमें अतिरिक्त पैदावार और बेकारी तथा भुखमरी एक साथ पाई जाती है। इस अवस्था में पूँजीवादी समाज उत्पादनशक्तियों का पूर्ण रूप से प्रयोग करने में असमर्थ होता है। अत: पूँजीपति और सर्वहारा वर्ग के बीच वर्गसंघर्ष बढ़ता है और अंत में समाज के पास सर्वहारा क्रांति (Proletarian Revolution) तथा समाजवाद की स्थापना के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं रह जाता। सामाजिक पैमाने पर उत्पादन परंतु उसके ऊपर व्यक्तिगत स्वामित्व, मार्क्स के अनुसार यह पूँजीवादी व्यवस्था की असंगति है जिसे सामाजिक स्वामित्व की स्थापना कर समाजवाद दूर करता है। राज्य के संबंध में मार्क्स की धारणा थी कि यह शोषक वर्ग का शासन का अथवा दमन का यंत्र है। अपने स्वार्थों की रक्षा के लिए प्रत्येक शासकवर्ग इसका प्रयोग करता है। पूँजीवाद के भग्नावशेषों के अंत तथा समाजवादी व्यवस्था की जड़ों को मजबूत बनाने के लिए एक संक्रामक काल के लिए सर्वहारा वर्ग भी इस यंत्र का प्रयोग करेगा, अत: कुछ समय के लिए सर्वहारा तानाशाही की आवश्यकता होगी। परंतु पूँजीवादी राज्य मुट्ठी भर शासकवर्ग की बहुमत शोषित जनता के ऊपर तानाशाही है जब कि सर्वहारा का शासन बहुमत जनता की, केवल नगण्य अल्पमत के ऊपर, तानाशाही है। समाजवादियों का विश्वास है कि समाजवादी व्यवस्था उत्पादन की शक्तियों का पूरा पूरा प्रयोग करके पैदावार को इतना बढ़ाएगी कि समस्त जनता की सारी आवश्यकताएँ पूरी हो जाएंगी। कालांतर में मनुष्यों को काम करने की आदत पड़ जाएगी और वे पूँजीवादी समाज को भूलकर समाजवादी व्यवस्था के आदी हो जाएंगे। इस स्थिति में वर्गभेद, मिट जाएगा और शोषण की आवश्यकता न रह जाएगी, अत: शोषणयंत्रराज्य-भी अनवाश्यक हो जाएगा। समाजवाद की इस उच्च अवस्था को मार्क्स साम्यवाद कहता है। इस प्रकार का राज्यविहीन समाज अराजकतावादियों का भी आदर्श है। मार्क्स ने अपने विचारों को व्यावहारिक रूप देने के लिए अंतरराष्ट्रीय श्रमजीवी समाज (1864) की स्थापना की जिसकी सहायता से उसने अनेक देशों में क्रांतिकारी मजदूर आंदोलनों को प्रोत्साहित किया। मार्क्स अंतरराष्ट्रवादी था। उसका विचार था कि पूँजीवाद ही अंतरदेशीय संघर्ष और युद्धों की जड़ है, समाजवाद की स्थापना के बाद उनका अंत हो जाएगा और विश्व का सर्वहारा वर्ग परस्पर सहयोग तथा शांतिमय ढंग से रहेगा। मार्क्स ने सन् 1848 में अपने "साम्यवादी घोषणापत्र" में जिस क्रांति की भविष्यवाणी की थी वह अंशत: सत्य हुई और उस वर्ष और उसके बाद कई वर्ष तक यूरोप में क्रांति की ज्वाला फैलती रही; परंतु जिस समाजवादी व्यवस्था की उसको आशा थी वह स्थापित न हो सकी, प्रत्युत क्रांतियाँ दबा दी गईं और पतन के स्थान में पूँजीवाद का विकास हुआ। फ्रांस और प्रशा के बीच युद्ध (1871) के समय पराजय के कारण पेरिस में प्रथम समाजवादी शासन (पेरिस कम्यून) स्थापित हुआ परंतु कुछ ही दिनों में उसको भी दबा दिया गया। पेरिस कम्यून की प्रतिक्रिया हुई और मजदूर आंदोलनों का दमन किया जाने लगा जिसके फलस्वरूप मार्क्स द्वारा स्थापित अंतरराष्ट्रीय मजदूर संघ भी तितर बितर हो गया। मजदूर आंदोलनों के सामने प्रश्न था कि वे समाजवाद की स्थापना के लिए क्रांतिकारी मार्ग अपनाएँ अथवा सुधारवादी मार्ग ग्रहण करें। इन परिस्थितियों में कतिपय सुधारवादी विचारधाराओं का जन्म हुआ। इनमें ईसाई समाजवाद, फेबियसवाद और पुनरावृत्तिवाद मुख्य हैं। .

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कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र

साम्यवादी घोषणापत्र का प्रथम पृष्ठ कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र (जर्मन: Manifest der Kommunistischen Partei) वैज्ञानिक कम्युनिज़्म का पहला कार्यक्रम-मूलक दस्तावेज़ है जिसमें मार्क्सवाद और साम्यवाद के मूल सिद्धान्तों की विवेचना की गयी है। यह महान ऐतिहासिक दस्तावेज़ वैज्ञानिक कम्युनिज़्म के सिद्धान्त के प्रवर्तक कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने तैयार किया था और २१ फ़रवरी सन् १८४८ को पहली बार जर्मन भाषा में प्रकाशित हुआ था। इसे प्राय: साम्यवादी घोषणापत्र (Communist manifesto) के नाम से जाना जाता है। यह संसार की सबसे प्रभावशाली राजनैतिक पाण्डुलिपियों में से एक है। इसमें (वर्तमान एवं आधुनिक) वर्ग संघर्ष तथा पूंजी की समस्यों की विश्लेषणात्मक विवेचन किया गया है (न कि साम्यवाद के भावी रूपों की भविष्यवाणी)। लेनिन के शब्दों में, यह छोटी-सी पुस्तिका अनेकानेक ग्रन्थों के बराबर है; उसकी आत्मा सभ्य संसार के समस्त संगठित और संघर्षशील सर्वहाराओं को प्रेरणा देती रही है और उनका मार्गदर्शन करती रही है। .

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कामगार वर्ग

कामगार वर्ग (या श्रमिक वर्ग) एक ऐसा शब्द है, जिसका उपयोग सामाजिक विज्ञानों और साधारण बातचीत में वैसे लोगों के वर्णन के लिए होता है, जो निम्न स्तरीय कार्यों (दक्षता, शिक्षा और निम्न आय द्वारा मापदंड पर) में लगे होते हैं और अक्सर इस अर्थ का विस्तार बेरोजगारी या औसत से नीचे आय वाले लोगों तक भी होता है। कामगार वर्ग मुख्यत: औद्योगीकृत अर्थव्यवस्थाओं और गैर-औद्योगीकृत अर्थव्यवस्थाओं वाले शहरी क्षेत्रों में पाये जाते हैं। 1973 में वोल्फसबर्ग, पश्चिमी जर्मनी में वोक्सवैगन विधानसभा लाइन में श्रमिक सामाजिक वर्ग के वर्णन में कई तरह के शब्दों का उपयोग किया जाता है, मगर कामगार वर्ग को विभिन्न तरीकों से परिभाषित और प्रयुक्त किया जाता है। जब इसका प्रयोग गैर-अकादमिक रूप में होता है तो यह आमतौर पर समाज के एक खंड को संदर्भित करने के लिए होता है, जो शारीरिक श्रम पर आश्रित है, खासतौर पर जिन्हें घंटे के आधार पर मजदूरी दी जाती है। शैक्षिक वार्तालाप में इसका प्रयोग विवादास्पद रहा है, विशेष रूप से उत्तर-औद्योगीकृत समाजों में मानव श्रम में गिरावट के बाद.

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कार्ल मार्क्स

कार्ल हेनरिख मार्क्स (1818 - 1883) जर्मन दार्शनिक, अर्थशास्त्री और वैज्ञानिक समाजवाद का प्रणेता थे। इनका जन्म 5 मई 1818 को त्रेवेस (प्रशा) के एक यहूदी परिवार में हुआ। 1824 में इनके परिवार ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया। 17 वर्ष की अवस्था में मार्क्स ने कानून का अध्ययन करने के लिए बॉन विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। तत्पश्चात्‌ उन्होंने बर्लिन और जेना विश्वविद्यालयों में साहित्य, इतिहास और दर्शन का अध्ययन किया। इसी काल में वह हीगेल के दर्शन से बहुत प्रभावित हुए। 1839-41 में उन्होंने दिमॉक्रितस और एपीक्यूरस के प्राकृतिक दर्शन पर शोध-प्रबंध लिखकर डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। शिक्षा समाप्त करने के पश्चात्‌ 1842 में मार्क्स उसी वर्ष कोलोन से प्रकाशित 'राइनिशे जीतुंग' पत्र में पहले लेखक और तत्पश्चात्‌ संपादक के रूप में सम्मिलित हुआ किंतु सर्वहारा क्रांति के विचारों के प्रतिपादन और प्रसार करने के कारण 15 महीने बाद ही 1843 में उस पत्र का प्रकाशन बंद करवा दिया गया। मार्क्स पेरिस चला गया, वहाँ उसने 'द्यूस फ्रांजोसिश' जारबूशर पत्र में हीगेल के नैतिक दर्शन पर अनेक लेख लिखे। 1845 में वह फ्रांस से निष्कासित होकर ब्रूसेल्स चला गया और वहीं उसने जर्मनी के मजदूर सगंठन और 'कम्युनिस्ट लीग' के निर्माण में सक्रिय योग दिया। 1847 में एजेंल्स के साथ 'अंतराष्ट्रीय समाजवाद' का प्रथम घोषणापत्र (कम्युनिस्ट मॉनिफेस्टो) प्रकाशित किया 1848 में मार्क्स ने पुन: कोलोन में 'नेवे राइनिशे जीतुंग' का संपादन प्रारंभ किया और उसके माध्यम से जर्मनी को समाजवादी क्रांति का संदेश देना आरंभ किया। 1849 में इसी अपराघ में वह प्रशा से निष्कासित हुआ। वह पेरिस होते हुए लंदन चला गया जीवन पर्यंत वहीं रहा। लंदन में सबसे पहले उसने 'कम्युनिस्ट लीग' की स्थापना का प्रयास किया, किंतु उसमें फूट पड़ गई। अंत में मार्क्स को उसे भंग कर देना पड़ा। उसका 'नेवे राइनिश जीतुंग' भी केवल छह अंको में निकल कर बंद हो गया। कोलकाता, भारत 1859 में मार्क्स ने अपने अर्थशास्त्रीय अध्ययन के निष्कर्ष 'जुर क्रिटिक दर पोलिटिशेन एकानामी' नामक पुस्तक में प्रकाशित किये। यह पुस्तक मार्क्स की उस बृहत्तर योजना का एक भाग थी, जो उसने संपुर्ण राजनीतिक अर्थशास्त्र पर लिखने के लिए बनाई थी। किंतु कुछ ही दिनो में उसे लगा कि उपलब्ध साम्रगी उसकी योजना में पूर्ण रूपेण सहायक नहीं हो सकती। अत: उसने अपनी योजना में परिवर्तन करके नए सिरे से लिखना आंरभ किया और उसका प्रथम भाग 1867 में दास कैपिटल (द कैपिटल, हिंदी में पूंजी शीर्षक से प्रगति प्रकाशन मास्‍को से चार भागों में) के नाम से प्रकाशित किया। 'द कैपिटल' के शेष भाग मार्क्स की मृत्यु के बाद एंजेल्स ने संपादित करके प्रकाशित किए। 'वर्गसंघर्ष' का सिद्धांत मार्क्स के 'वैज्ञानिक समाजवाद' का मेरूदंड है। इसका विस्तार करते हुए उसने इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या और बेशी मूल्य (सरप्लस वैल्यू) के सिद्धांत की स्थापनाएँ कीं। मार्क्स के सारे आर्थिक और राजनीतिक निष्कर्ष इन्हीं स्थापनाओं पर आधारित हैं। 1864 में लंदन में 'अंतरराष्ट्रीय मजदूर संघ' की स्थापना में मार्क्स ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। संघ की सभी घोषणाएँ, नीतिश् और कार्यक्रम मार्क्स द्वारा ही तैयार किये जाते थे। कोई एक वर्ष तक संघ का कार्य सुचारू रूप से चलता रहा, किंतु बाकुनिन के अराजकतावादी आंदोलन, फ्रांसीसी जर्मन युद्ध और पेरिस कम्यूनों के चलते 'अंतरराष्ट्रीय मजदूर संघ' भंग हो गया। किंतु उसकी प्रवृति और चेतना अनेक देशों में समाजवादी और श्रमिक पार्टियों के अस्तित्व के कारण कायम रही। 'अंतरराष्ट्रीय मजदूर संघ' भंग हो जाने पर मार्क्स ने पुन: लेखनी उठाई। किंतु निरंतर अस्वस्थता के कारण उसके शोधकार्य में अनेक बाधाएँ आईं। मार्च 14, 1883 को मार्क्स के तूफानी जीवन की कहानी समाप्त हो गई। मार्क्स का प्राय: सारा जीवन भयानक आर्थिक संकटों के बीच व्यतीत हुआ। उसकी छह संतानो में तीन कन्याएँ ही जीवित रहीं। .

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क्रान्ति

क्रान्ति (Revolution) अधिकारों या संगठनात्मक संरचना में होने वाला एक मूलभूत परिवर्तन है जो अपेक्षाकृत कम समय में ही घटित होता है। अरस्तू ने दो प्रकार की राजनीतिक क्रान्तियों का वर्णन किया है.

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यहां पुनर्निर्देश करता है:

माक्र्सवादी वर्ग सिद्धान्त, वर्गसंघर्ष, कार्ल मार्क्स के वर्ग संघर्ष कि सिद्धांत, कार्ल मार्क्स के वर्ग संघर्ष के सिद्धांत

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