लोगो
यूनियनपीडिया
संचार
Google Play पर पाएं
नई! अपने एंड्रॉयड डिवाइस पर डाउनलोड यूनियनपीडिया!
मुक्त
ब्राउज़र की तुलना में तेजी से पहुँच!
 

प्रजीवगण

सूची प्रजीवगण

प्रजीवगण (प्रोटोज़ोआ) एक एककोशिकीय जीव है। इनकी कोशिका प्रोकैरियोटिक प्रकार की होती है। ये साधारण सूक्ष्मदर्शी यंत्र से आसानी से देखे जा सकते हैं। कुछ प्रोटोज़ोआ जन्तुओं या मनुष्य में रोग उत्पन्न करते हैं, उन्हे रोगकारक प्रोटोज़ोआ कहते हैं। श्रेणी:प्रोटोज़ोआ श्रेणी:मलेरिया.

36 संबंधों: चार्ल्स लुई अल्फोंस लैवेरन, चगास रोग, ट्रिपैनोसोमियासिस, एत्तोरे मार्चियाफावा, तानिकाशोथ, परजीविजन्य रोग, पशुजन्यरोग, प्रतिजैविक, प्राणी, प्लास्मोडियम, प्लास्मोडियम नाउलेसी, प्लास्मोडियम फैल्सीपैरम, प्लास्मोडियम मलेरिये, प्लास्मोडियम विवैक्स, प्लास्मोडियम ओवेल, पैरामिसियम, फोरामिनिफेरा, मलेरिया, माइसेटोजोआ, लिंग, संक्रामक रोग, सुनहरी मछली (गोल्डफिश), स्ट्रोन्शियम सल्फेट, सूक्ष्मजैविकी, सूक्ष्मजीव, सीलेन्टरेटा, जठरांत्र शोथ, जगत (जीवविज्ञान), जैव उर्वरक (बायोफर्टिलाइजर), वाहितमल उपचार, खाद्य जनित रोग, आंजेलो चेली, कालापानी बुखार, कॉण्टैक्ट लैंस, कोशिका विज्ञान, अर्धसूत्रीविभाजन

चार्ल्स लुई अल्फोंस लैवेरन

चार्ल्स लुई अल्फोंस लैवेरन चार्ल्स लुई अल्फोंस लैवेरन (जन्म 18 जून 1845 - मृत्यु 18 मई 1922), एक फ्रांसिसि चिकित्सक थे। अल्जीरिया में एक सैन्य चिकित्सालय में कार्य करते हुए, उन्होंने खोज निकाला कि मलेरिया रोग का कारक एक प्रोटोज़ोआ है। यह पहली बार था, कि किसी ने कहा की मलेरिया एक प्रोटोज़ोआ के कारण होता है। बाद के दिनों में उन्होने ट्रिपनोजोम्स तथा स्लिपींग सीकनेस पर भी शोध कीया। उनके इन कार्यों तथा प्रोटोज़ोआ के द्वारा होनें वाले रोगों पर किये गये शोधों के लियें उन्हें 1907 में चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार दिया गया। श्रेणी:व्यक्तिगत जीवन श्रेणी:चिकित्सक श्रेणी:नोबेल पुरस्कार विजेता श्रेणी:मलेरिया.

नई!!: प्रजीवगण और चार्ल्स लुई अल्फोंस लैवेरन · और देखें »

चगास रोग

चगास रोग, or अमेरिकी ट्रिपैनोसोमियासिस, प्रोटोजोआ ट्रोपेनाज़ूमीक्रूज़ी से होने वाली एक उष्णकटिबंधीय परजीवी रोग है। अधिकांशतः यह किसिंग बगद्वारा फैलता है। इसके लक्षण संक्रमण के दौरान बदलते हैं। शुरुआती चरण में लक्षण या तो होते नहीं हैं या हल्के होते हैं, इनमें: बुखार, सूजी लसीका ग्रंथि, सिरदर्द या काटने की जगह पर सूजन शामिल हैं। 8–12 हफ्तों के बाद, पीड़ित लोग रोग की गंभीर अवस्था में दाखिल होते हैं और 60–70% लोगों में यह अन्य लक्षण नहीं करता है। अन्य 30 से 40% लोगों में शुरुआती संक्रमण के 10 से 30 वर्षों के बाद और लक्षण पैदा होते हैं। इसमें 20 से 30% में हृदय के निलय के बड़े हो जाने से हृदय की विफलताशामिल है। 10% लोगों में बढ़ी हुई ग्रासनली या बड़ी आंत का बड़ा होना भी हो सकता है। .

नई!!: प्रजीवगण और चगास रोग · और देखें »

ट्रिपैनोसोमियासिस

ट्रिपैनोसोमियासिस या ट्रिपैनोसोमोसिस ट्रिपैनोसोमा जाति के परजीवी प्रोटोजोआ ट्रिपैनोसोमों द्वारा उत्पन्न पृष्ठजीवियों में होने वाले अनेक रोगों का नाम है। उप-सहाराई अफ्रीका के 36 देशों के लगभग 500,000 पुरूष, स्त्रियां और बच्चे मानवीय अफ्रीकी ट्रिपैनोसोमियासिस से प्रभावित होते हैं जो ट्रिपैनोसोमा ब्रूसी गैम्बियेंसी या ट्रिपैनोसोमा ब्रूसी रोडेसियेंसी के कारण होता है। ट्रिपैनोसोमियासिस के एक अन्य प्रकार, जिसे चागास रोग कहते हैं, के कारण मुख्यतया लैटिन अमेरिका में प्रतिवर्ष 21000 मौतें होती हैं। .

नई!!: प्रजीवगण और ट्रिपैनोसोमियासिस · और देखें »

एत्तोरे मार्चियाफावा

एत्तोरे मार्चियाफावा एत्तोरे मार्चियाफावा (1847, रोम- 1935, रोम), इटली के एक चिकित्सक तथा प्राणीविद् थे जिन्होंने मलेरिया पर शोध कार्य किया। 1880 से 1891, इन 11 वर्षों में इन्होने मलेरिया पर गहन शोध किया। आंजेलो सेली के साथ फ़्रांसीसी सैन्य चिकित्सक चार्ल्स लुई अल्फोंस लैवेरन के द्वारा मलेरिया पीडीतों के रक्त में खोजे गये नये प्रोटोज़ोआ का अध्ययन किये। इस सुक्ष्म जीव का नाम इन्होंने प्लास्मोडियम रखा। सन् 1925 में इन्होंने प्रथम अंतराष्ट्रीय मलेरिया सम्मेलन का आयोजन किया। श्रेणी:वैज्ञानिक श्रेणी:व्यक्तिगत जीवन श्रेणी:मलेरिया.

नई!!: प्रजीवगण और एत्तोरे मार्चियाफावा · और देखें »

तानिकाशोथ

केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र की तानिकाएं (Meninges): '''दृढ़तानिका''' या ड्यूरा मैटर (dura mater), '''जालतानिका''' या अराकनॉयड (arachnoid), तथा '''मृदुतानिका''' या पिया मैटर (pia mater) तानिकाशोथ या मस्तिष्कावरणशोथ या मेनिन्जाइटिस (Meningitis) मस्तिष्क तथा मेरुरज्जु को ढंकने वाली सुरक्षात्मक झिल्लियों (मस्तिष्कावरण) में होने वाली सूजन होती है। यह सूजन वायरस, बैक्टीरिया तथा अन्य सूक्ष्मजीवों से संक्रमण के कारण हो सकती है साथ ही कम सामान्य मामलों में कुछ दवाइयों के द्वारा भी हो सकती है। इस सूजन के मस्तिष्क तथा मेरुरज्जु के समीप होने के कारण मेनिन्जाइटिस जानलेवा हो सकती है; तथा इसीलिये इस स्थिति को चिकित्सकीय आपात-स्थिति के रूप में वर्गीकृत किया गया है। मेनिन्जाइटिस के सबसे आम लक्षण सर दर्द तथा गर्दन की जकड़न के साथ-साथ बुखार, भ्रम अथवा परिवर्तित चेतना, उल्टी, प्रकाश को सहन करने में असमर्थता (फ़ोटोफोबिया) अथवा ऊंची ध्वनि को सहन करने में असमर्थता (फ़ोनोफोबिया) हैं। बच्चे अक्सर सिर्फ गैर विशिष्ट लक्षण जैसे, चिड़चिड़ापन और उनींदापन प्रदर्शित करते हैं। यदि कोई ददोरा भी दिख रहा है, तो यह मेनिन्जाइटिस के विशेष कारण की ओर संकेत हो सकता है; उदाहरण के लिये, मेनिन्गोकॉकल बैक्टीरिया के कारण होने वाले मेनिन्जाइटिस में विशिष्ट ददोरे हो सकते हैं। मेनिन्जाइटिस के निदान अथवा पहचान के लिये लंबर पंक्चर की आवश्यकता हो सकती है। स्पाइनल कैनाल में सुई डाल कर सेरिब्रोस्पाइनल द्रव (CSF) का एक नमूना निकाला जाता है जो मस्तिष्क तथा मेरुरज्जु को आवरण किये रहता है। सीएसएफ़ का परीक्षण एक चिकित्सा प्रयोगशाला में किया जाता है। तीव्र मैनिन्जाइटिस के प्रथम उपचार में तत्परता के साथ दी गयी एंटीबायोटिक तथा कुछ मामलों में एंटीवायरल दवा शामिल होती हैं। अत्यधिक सूजन से होने वाली जटिलताओं से बचने के लिये कॉर्टिकोस्टेरॉयड का प्रयोग भी किया जा सकता है। मेनिन्जाइटिस के गंभीर दीर्घकालिक परिणाम हो सकते हैं जैसे बहरापन, मिर्गी, हाइड्रोसेफॉलस तथा संज्ञानात्मक हानि, विशेष रूप से तब यदि इसका त्वरित उपचार न किया जाये। मेनिन्जाइटिस के कुछ रूपों से (जैसे कि मेनिन्जोकॉकी, ''हिमोफिलस इन्फ्लुएंजा'' टाइप बी, न्यूमोकोकी अथवा मम्स वायरस संक्रमणों से संबंधित) प्रतिरक्षण के द्वारा बचाव किया जा सकता है। .

नई!!: प्रजीवगण और तानिकाशोथ · और देखें »

परजीविजन्य रोग

प्राणिजगत्‌ के अनेक जीवाणु मानव शरीर में प्रविष्ट हो उसमें वास करते हुए उसे हानि पहुँचाते, या रोग उत्पन्न करते हैं। व्यापक अर्थ में विषाणु, जीवाणु, रिकेट्सिया (Rickettsia), स्पाइरोकीट (Spirochaeta), फफूँद और जंतुपरजीवी द्वारा उत्पन्न सभी रोग परजीवीजन्य रोग माने जा सकते हैं, परंतु प्रचलित मान्यता के अनुसार केवल जंतुपरजीवियों द्वारा उत्पन्न विकारों को ही परजीविजन्य रोग (ParasiticDiseases) के अंतर्गत रखते हैं। .

नई!!: प्रजीवगण और परजीविजन्य रोग · और देखें »

पशुजन्यरोग

ज़ूनोसिस या ज़ूनोस कोई भी ऐसा संक्रामक रोग है जो (कुछ उदाहरणों में, एक निश्चित परिमाण द्वारा) गैर मानुषिक जानवरों, घरेलू और जंगली दोनों ही, से मनुष्यों में या मनुष्यों से गैर मानुषिक जानवरों में संक्रमित हो सकता है (मनुष्यों से जानवरों में संक्रमित होने पर इसे रिवर्स ज़ुनिसिस या एन्थ्रोपोनोसिस कहते हैं).

नई!!: प्रजीवगण और पशुजन्यरोग · और देखें »

प्रतिजैविक

किरबी-ब्यूअर डिस्क प्रसार विधि द्वारा स्टेफिलोकुकस एयूरेस एंटीबायोटिक दवाओं की संवेदनशीलता का परीक्षण.एंटीबायोटिक एंटीबायोटिक से बाहर फैलाना-डिस्क युक्त और एस अवरोध के क्षेत्र में जिसके परिणामस्वरूप aureus का विकास बाधित किया जाता है। आम उपयोग में, प्रतिजैविक या एंटीबायोटिक एक पदार्थ या यौगिक है, जो जीवाणु को मार डालता है या उसके विकास को रोकता है। एंटीबायोटिक रोगाणुरोधी यौगिकों का व्यापक समूह होता है, जिसका उपयोग कवक और प्रोटोजोआ सहित सूक्ष्मदर्शी द्वारा देखे जाने वाले जीवाणुओं के कारण हुए संक्रमण के इलाज के लिए होता है। "एंटीबायोटिक" शब्द का प्रयोग 1942 में सेलमैन वाक्समैन द्वारा किसी एक सूक्ष्म जीव द्वारा उत्पन्न किये गये ठोस या तरल पदार्थ के लिए किया गया, जो उच्च तनुकरण में अन्य सूक्ष्मजीवों के विकास के विरोधी होते हैं। इस मूल परिभाषा में प्राकृतिक रूप से प्राप्त होने वाले ठोस या तरल पदार्थ नहीं हैं, जो जीवाणुओं को मारने में सक्षम होते हैं, पर सूक्ष्मजीवों (जैसे गैस्ट्रिक रसऔर हाइड्रोजन पैराक्साइड) द्वारा उत्पन्न नहीं किये जाते और इनमें सल्फोनामाइड जैसे सिंथेटिक जीवाणुरोधी यौगिक भी नहीं होते हैं। कई एंटीबायोटिक्स अपेक्षाकृत छोटे अणु होते हैं, जिनका भार 2000 Da से भी कम होता हैं। औषधीय रसायन विज्ञान की प्रगति के साथ-साथ अब अधिकतर एंटीबायोटिक्ससेमी सिंथेटिकही हैं, जिन्हें प्रकृति में पाये जाने वाले मूल यौगिकों से रासायनिक रूप से संशोधित किया जाता है, जैसा कि बीटालैक्टम (जिसमें पेनसिलियम, सीफालॉसपोरिन औरकारबॉपेनम्स के कवक द्वारा उत्पादितपेनसिलिंस भी शामिल हैं) के मामले में होता है। कुछ एंटीबायोटिक दवाओं का उत्पादन अभी भी अमीनोग्लाइकोसाइडजैसे जीवित जीवों के जरिये होता है और उन्हें अलग-थलग रख्ना जाता है और अन्य पूरी तरह कृत्रिम तरीकों- जैसे सल्फोनामाइड्स,क्वीनोलोंसऔरऑक्साजोलाइडिनोंससे बनाये जाते हैं। उत्पत्ति पर आधारित इस वर्गीकरण- प्राकृतिक, सेमीसिंथेटिक और सिंथेटिक के अतिरिक्त सूक्ष्मजीवों पर उनके प्रभाव के अनुसार एंटीबायोटिक्स को मोटे तौर पर दो समूहों में विभाजित किया जा सकता हैं: एक तो वे, जो जीवाणुओं को मारते हैं, उन्हें जीवाणुनाशक एजेंट कहा जाता है और जो बैक्टीरिया के विकास को दुर्बल करते हैं, उन्हें बैक्टीरियोस्टेटिक एजेंट कहा जाता है। .

नई!!: प्रजीवगण और प्रतिजैविक · और देखें »

प्राणी

प्राणी या जंतु या जानवर 'ऐनिमेलिया' (Animalia) या मेटाज़ोआ (Metazoa) जगत के बहुकोशिकीय और सुकेंद्रिक जीवों का एक मुख्य समूह है। पैदा होने के बाद जैसे-जैसे कोई प्राणी बड़ा होता है उसकी शारीरिक योजना निर्धारित रूप से विकसित होती जाती है, हालांकि कुछ प्राणी जीवन में आगे जाकर कायान्तरण (metamorphosis) की प्रकिया से गुज़रते हैं। अधिकांश जंतु गतिशील होते हैं, अर्थात अपने आप और स्वतंत्र रूप से गति कर सकते हैं। ज्यादातर जंतु परपोषी भी होते हैं, अर्थात वे जीने के लिए दूसरे जंतु पर निर्भर रहते हैं। अधिकतम ज्ञात जंतु संघ 542 करोड़ साल पहले कैम्ब्रियन विस्फोट के दौरान जीवाश्म रिकॉर्ड में समुद्री प्रजातियों के रूप में प्रकट हुए। .

नई!!: प्रजीवगण और प्राणी · और देखें »

प्लास्मोडियम

प्लास्मोडियम एक प्रोटोज़ोआ संघ का प्राणी है। प्लास्मोडियम की कुछ जातियों को मलेरिया परजीवी भी कहते हैं क्योंकि ये मनुष्य मे मलेरिया रोग उत्पन्न करती हैं। श्रेणी:प्रोटोज़ोआ श्रेणी:मलेरिया.

नई!!: प्रजीवगण और प्लास्मोडियम · और देखें »

प्लास्मोडियम नाउलेसी

प्लास्मोडियम नाउलेसी एक प्रकार का प्रोटोज़ोआ है। इसके कारण मलेरिया रोग होता है, परंतु मनुष्य में इसके द्वारा रोग होने की संभावना अत्यंत कम होती है। यह कुछ प्रजाती के बन्दरों को सेक्रमित करता है। श्रेणी:प्रोटोज़ोआ श्रेणी:मलेरिया.

नई!!: प्रजीवगण और प्लास्मोडियम नाउलेसी · और देखें »

प्लास्मोडियम फैल्सीपैरम

प्लास्मोडियम फैल्सीपैरम एक प्रकार का प्रोटोज़ोआ है, जो सबसे गंभीर किस्म कै मलेरिया, दुर्दम (मेलिगनेंट) के लिये जिम्मेदार है। श्रेणी:प्रोटोज़ोआ श्रेणी:मलेरिया.

नई!!: प्रजीवगण और प्लास्मोडियम फैल्सीपैरम · और देखें »

प्लास्मोडियम मलेरिये

प्लास्मोडियम मलेरिये एक प्रकार का प्रोटोज़ोआ है, जो बेनाइन मलेरिया के लिये जिम्मेदार है। यह पूरे संसार में पाया जाता है। यह मलेरिया उतना खतरनाक नहीं है जितना प्लास्मोडियम फैल्सीपैरम (Plasmodium falciparum) तथा प्लास्मोडियम विवैक्स (Plasmodium vivax) के द्वारा पैदा किया मलेरिया होता है। मलेरिया के इस परजीवी का वाहक मादा एनोफ़िलेज़ (Anopheles) मच्छर है। श्रेणी:प्रोटोज़ोआ श्रेणी:मलेरिया.

नई!!: प्रजीवगण और प्लास्मोडियम मलेरिये · और देखें »

प्लास्मोडियम विवैक्स

प्लास्मोडियम विवैक्स प्लास्मोडियम फैल्सीपैरम एक प्रकार का प्रोटोज़ोआ है, जो विवैक्स मलेरिया के लिये जिम्मेदार है। मलेरिया के इस परजीवी का वाहक मादा एनोफ़िलेज़ (Anopheles) मच्छर है। श्रेणी:प्रोटोज़ोआ श्रेणी:मलेरिया.

नई!!: प्रजीवगण और प्लास्मोडियम विवैक्स · और देखें »

प्लास्मोडियम ओवेल

प्लास्मोडियम ओवेल एक परजीवी प्रोटोज़ोआ की प्रजाती है। इसके कारण मनुष्य में टरसियन मलेरिया होता है। इसका प्लास्मोडियम फैल्सीपैरम तथा प्लास्मोडियम विवैक्स से नजदीकी सबंध है जिनके कारण अधिकांश लोंगो को मलेरिया होता है। यह इन दो प्रजातीयों के मुकाबले विरल है तथा प्लास्मोडियम फैल्सीपैरम से कम खतरनाक है। श्रेणी:प्रोटोज़ोआ श्रेणी:मलेरिया.

नई!!: प्रजीवगण और प्लास्मोडियम ओवेल · और देखें »

पैरामिसियम

पैरामिसियम एक एक कोशिकीय प्रोटोजोआ संघ का प्राणी है। इसमें सत्यकेन्द्रक का अभाव होता है। यह सिलिया की सहायता से गति करता है। श्रेणी:प्रोटोजोआ.

नई!!: प्रजीवगण और पैरामिसियम · और देखें »

फोरामिनिफेरा

जीवित अमोनियाटेपिडा फोरामिनिफेरा (Foraminifera; /fəˌræməˈnɪfərə/ लैटिन अर्थ- hole bearers, informally called "forams")) अथवा पेट्रोलियम उद्योग का तेल मत्कुण (oil bug), प्रोटोज़ोआ संघ के वर्ग सार्कोडिन के उपवर्ग राइज़ोपोडा का एक गण है। इस गण के अधिकांश प्राणी प्राय: सभी महासागरों और समुद्र में सभी गहराइयों में पाए जाते हैं। इस गण की कुछ जातियाँ अलवण जल में और बहुत कम जातियाँ नम मिट्टी में पाई जाती हैं। अधिकांश फ़ोरैमिनाफ़ेरा के शरीर पर एक आवरण होता है, जिसे चोल या कवच (test or shell) कहते हैं। ये कवच कैल्सीभूत, सिलिकामय, जिलेटिनी अथवा काइटिनी (chitinous) होते हैं, या बालू के कणों, स्पंज कंटिकाओं (spongespicules), त्यक्त कवचों, या अन्य मलवों (debris) के बने होते हैं। कवच का व्यास.०१ मिमी. से लेकर १९० मिमी. तक होता है तथा वे गेंदाकार, अंडाकार, शंक्वाकार, नलीदार, सर्पिल (spiral), या अन्य आकार के होते हैं। कवच के अंदर जीवद्रव्यी पिंड (protoplasmic mass) होता है, जिसमें एक या अनेक केंद्रक होते हैं। कवच एककोष्ठी (unilocular or monothalamus), अथवा श्रेणीबद्ध बहुकोष्ठी (multilocular or polythalmus) और किसी किसी में द्विरूपी (dimorphic) होते हैं। कवच में अनेक सक्षम रध्रों के अतिरिक्त बड़े रंध्र, जिन्हें फ़ोरैमिना (Foramina) कहते हैं, पाए जाते हैं। इन्हीं फोरैमिना के कारण इस गण का नाम फ़ोरैमिनीफ़ेरा (Foraminifera) पड़ा है। फ़ोरैमिनीफ़ेरा प्राणी की जीवित अवस्था में फ़ोरैमिना से होकर लंबे धागे के सदृश पतले और बहुत ही कोमल पादाभ (pseudopoda), जो कभी कभी शाखावत और प्राय: जाल या झिल्ली (web) के समान उलझे होते हैं, बाहर निकलते हैं। वेलापवर्ती (pelagic) फ़ोरैमिनीफ़ेरा के कवच समुद्रतल में जाकर एकत्र हो जाते हैं और हरितकीचड़ की परत, जिसे सिंधुपंक (ooze) कहते हैं, बन जाती है। वर्तमान समुद्री तल का ४,८०,००,००० वर्ग मील क्षेत्र सिंधुपंक से आच्छादित है। बाली द्वीप के सानोर (Sanoer) नामक स्थान में बड़े किस्म के फ़ोरैमिनीफ़ेरा के कवच पगडंडियों और सड़कों पर बिछाने के काम आते हैं। .

नई!!: प्रजीवगण और फोरामिनिफेरा · और देखें »

मलेरिया

मलेरिया या दुर्वात एक वाहक-जनित संक्रामक रोग है जो प्रोटोज़ोआ परजीवी द्वारा फैलता है। यह मुख्य रूप से अमेरिका, एशिया और अफ्रीका महाद्वीपों के उष्ण तथा उपोष्ण कटिबंधी क्षेत्रों में फैला हुआ है। प्रत्येक वर्ष यह ५१.५ करोड़ लोगों को प्रभावित करता है तथा १० से ३० लाख लोगों की मृत्यु का कारण बनता है जिनमें से अधिकतर उप-सहारा अफ्रीका के युवा बच्चे होते हैं। मलेरिया को आमतौर पर गरीबी से जोड़ कर देखा जाता है किंतु यह खुद अपने आप में गरीबी का कारण है तथा आर्थिक विकास का प्रमुख अवरोधक है। मलेरिया सबसे प्रचलित संक्रामक रोगों में से एक है तथा भंयकर जन स्वास्थ्य समस्या है। यह रोग प्लास्मोडियम गण के प्रोटोज़ोआ परजीवी के माध्यम से फैलता है। केवल चार प्रकार के प्लास्मोडियम (Plasmodium) परजीवी मनुष्य को प्रभावित करते है जिनमें से सर्वाधिक खतरनाक प्लास्मोडियम फैल्सीपैरम (Plasmodium falciparum) तथा प्लास्मोडियम विवैक्स (Plasmodium vivax) माने जाते हैं, साथ ही प्लास्मोडियम ओवेल (Plasmodium ovale) तथा प्लास्मोडियम मलेरिये (Plasmodium malariae) भी मानव को प्रभावित करते हैं। इस सारे समूह को 'मलेरिया परजीवी' कहते हैं। मलेरिया के परजीवी का वाहक मादा एनोफ़िलेज़ (Anopheles) मच्छर है। इसके काटने पर मलेरिया के परजीवी लाल रक्त कोशिकाओं में प्रवेश कर के बहुगुणित होते हैं जिससे रक्तहीनता (एनीमिया) के लक्षण उभरते हैं (चक्कर आना, साँस फूलना, द्रुतनाड़ी इत्यादि)। इसके अलावा अविशिष्ट लक्षण जैसे कि बुखार, सर्दी, उबकाई और जुखाम जैसी अनुभूति भी देखे जाते हैं। गंभीर मामलों में मरीज मूर्च्छा में जा सकता है और मृत्यु भी हो सकती है। मलेरिया के फैलाव को रोकने के लिए कई उपाय किये जा सकते हैं। मच्छरदानी और कीड़े भगाने वाली दवाएं मच्छर काटने से बचाती हैं, तो कीटनाशक दवा के छिडकाव तथा स्थिर जल (जिस पर मच्छर अण्डे देते हैं) की निकासी से मच्छरों का नियंत्रण किया जा सकता है। मलेरिया की रोकथाम के लिये यद्यपि टीके/वैक्सीन पर शोध जारी है, लेकिन अभी तक कोई उपलब्ध नहीं हो सका है। मलेरिया से बचने के लिए निरोधक दवाएं लम्बे समय तक लेनी पडती हैं और इतनी महंगी होती हैं कि मलेरिया प्रभावित लोगों की पहुँच से अक्सर बाहर होती है। मलेरिया प्रभावी इलाके के ज्यादातर वयस्क लोगों मे बार-बार मलेरिया होने की प्रवृत्ति होती है साथ ही उनमें इस के विरूद्ध आंशिक प्रतिरोधक क्षमता भी आ जाती है, किंतु यह प्रतिरोधक क्षमता उस समय कम हो जाती है जब वे ऐसे क्षेत्र मे चले जाते है जो मलेरिया से प्रभावित नहीं हो। यदि वे प्रभावित क्षेत्र मे वापस लौटते हैं तो उन्हे फिर से पूर्ण सावधानी बरतनी चाहिए। मलेरिया संक्रमण का इलाज कुनैन या आर्टिमीसिनिन जैसी मलेरियारोधी दवाओं से किया जाता है यद्यपि दवा प्रतिरोधकता के मामले तेजी से सामान्य होते जा रहे हैं। .

नई!!: प्रजीवगण और मलेरिया · और देखें »

माइसेटोजोआ

कवकजीव या माइसेटोज़ोआ (Mycetozoa) अत्यंत सूक्ष्म एककोशीय जंतुओं का वर्ग है जो प्रोटोज़ोआ (Protozoa) समुदाय के अंतर्गत आता है। साधारणतया कवकजीव स्थलीय होता है और इस प्रकार वह अन्य प्रोटोज़ोआ से भिन्न होता है। प्रोटोज़ोआ समुदाय के अधिकांश जीवों की भाँति न तो पूर्ण जलीय होता है और न पूर्ण परजीवी ही, किंतु स्वभावत: यह अर्धवायवीय जीवन व्यतीत करता है और सड़े-गले जीवपदार्थों पर ही निर्भर रहता है। बीजाणुधानी (स्पोरैंजिया, Sporangia) तथा बीजाणु (स्पोर, spore) की रचना की दृष्टि से यह कुछ परोपजीवी पौधों (कवकों, फ़ंजाइ, Fungii) से मिलता जुलता है। यही कारण है कि वनस्पतिविज्ञानवेत्ता जब मिक्सोमाइसिटिज़ (Myxomyvcetes) अथवा श्लेष्म कवक (स्लाइम फ़ंजाइ, Slime fungi) का वर्णन करते हैं तो इसे भी उसी अध्याय में सम्मिलित कर लेते हैं। किंतु जंतु-विज्ञान-वेत्ता इसकी अमीबा सदृश आकृति, कशाभों (फ़्लैजेला, flagella) की रचना, स्वचालन की शक्ति एवं ठोस पदार्थो के भोजन के कारण इसकी गिनती जंतुओं की श्रेणी में करते हैं और इसे प्रोटोज़ोआ के एक वर्ग राइज़ोपोडा (rhizopoda) के अंतर्गत रखते हैं, किंतु राइज़ोपोडा के जनन के विचिन्न ढंग के कारण इसे उसके अंतर्गत रखना ठीक नहीं प्रतीत होता। अब वास्तविक कवकों और इसके दो अन्य मित्रों बैक्टीरिया तथा कवकजीवों की पहचान निश्चित रूप से हो चुकी है। कवकजीव को अमरीका में 'स्लाइम मोल्ड' (Slime mould, लसलस फफूँद) कहते हैं। नाटकीय ढंग से मानव रोगों के साथ अपना अद्भतु संबंध स्थापित कर लेने के कारण कवकजीव कदाचित् बैक्टीरिया से अधिक महत्वपूर्ण है और वनस्पति की अपेक्षा जंतुओं के अधिक समीप हैं। कवकों की भाँति इनमें पर्णहरिम (क्लोरोफ़िल, chlorophyll) का अभाव रहता है। प्रत्येक कवकजीव के जीवन की दो अवस्थाएँ की दो अवस्थाएँ होती हैं जो क्रमश: एक के बाद दूसरी आती हैं। पहली अवस्था (क) वर्धन अवस्था (वैंजिटेटिव फ़ेज़, vegetative phase) होती हैं। इस अवस्था में वह केवल जीवद्रव्य (प्रोटोप्लाज्म, Protoplasm) का पिंड होता है और उसमें केवल प्रवाह गति होती है। वर्धन अवस्था के उपरांत इसकी दूसरी अवस्था (ख) जनन अवस्था (रिप्रोडक्शन फ़ेज़, reproduction phase) अथवा बीजाणु (स्पोर, spore) अवस्था आती है। जब यह अवस्था आती है तब जीवद्रव्य-पिंड टुकड़ों में बँट जाता है और विशेष बीजाणु की डिब्बियाँ (स्पोर कंटेनर्स, spore containers) प्रकट हो जाती हैं। जब बीजाणु अंकुरित होते हैं तब वे या तो सीधे जीवद्रव्यीय ढेर बन जाते हैं अथवा उनकी एक माध्यमिक अवस्था होती है जिसमें अंकुरित बीजाणु तब तक स्वच्छंदतापूर्वक तैरते रहते हैं जब तक वे सभी मिलकर सामान्य जेली जैसा ढेर अथवा प्लाज्म़ोडियम (Plasmodium) नहीं बन जाते। (टिप्पणी जब कभी बहुत से कोष्ठसार आपस में मिलकर एक हो जाते हैं और उसमें बहुत से नाभिक उपस्थित रहते हैं, तब यह बहुनाभिक जीवद्रव्य का पिंड प्लाज्म़ोडियम कहलाता है)। किसी नगर के निवासियों की उन्नति तथा स्वास्थ्य इस बात पर निर्भर है कि उनका मलमूत्रादि शीघ्र नष्ट कर दिया जाए, अन्यथा रोग फैलने लगते हैं। मलमूत्रादि नष्ट करने में कवकजीव, बैक्टीरिया और कवक सहायता करते हैं। कभी-कभी कवक वर्ग के सदस्य अनुशासनभंग भी कर देते हैं और वनस्पतियों पर उसी प्रकार परजीवी बन जाते हैं जैसे, मानव शरीर में मलेरिया ज्वर के कीटाणु। इस प्रकार पोषक (होस्ट ण्दृद्मद्य) का सामान्य जीवन अव्यवस्थित हो जाता है और उसमें रोग उत्पन्न हो जाता है। पातगोभी का प्रसिद्ध रोग गदामूल (क्लब रूट, club root) प्लाज्म़ोडिओफ़ोरा ब्रासिकी (plasmodiophora brassicae) नामक कवकजीव द्वारा फैलता है जो पातगोभी की जड़ में होता है। .

नई!!: प्रजीवगण और माइसेटोजोआ · और देखें »

लिंग

व्याकरण से सम्बन्धित 'लिंग' के लिये लिंग (व्याकरण) देखें। ---- मानव पुरुष और स्त्री का वाह्य दृष्य जीवविज्ञान में लिंग (Sex, Gender) से तात्पर्य उन पहचानों या लक्षणों से जिनके द्वारा जीवजगत् में नर को मादा से पृथक् पहचाना जाता है। जंतुओं में असंख्य जंतु ऐसे होते हैं जिन्हें केवल बाह्य चिह्नों से ही नर, या मादा नहीं कहा जा सकता। नर तथा मादा का निर्णय दो प्रकार के चिह्नों, प्राथमिक (primary) और गौण (secondary) लैंगिक लक्षणों (sexual characters), द्वारा किया जाता है। वानस्पतिक जगत् में नर तथा मादा का भेद, विकसित प्राणियों की भाँति, पृथक्-पृथक् नहीं पाया जाता। जो की सत्य है। .

नई!!: प्रजीवगण और लिंग · और देखें »

संक्रामक रोग

संक्रामक रोग, रोग जो किसी ना किसी रोगजनित कारको (रोगाणुओं) जैसे प्रोटोज़ोआ, कवक, जीवाणु, वाइरस इत्यादि के कारण होते है। संक्रामक रोगों में एक शरीर से अन्य शरीर में फैलने की क्षमता होती है। मलेरिया, टायफायड, चेचक, इन्फ्लुएन्जा इत्यादि संक्रामक रोगों के उदाहरण हैं। .

नई!!: प्रजीवगण और संक्रामक रोग · और देखें »

सुनहरी मछली (गोल्डफिश)

सुनहरी मछली (कारासिउस औराटस औराटस) साईप्रिनीफॉर्म्स के क्रम में साईप्रिनीडाई के परिवार में एक ताजे पानी की मछली है। यह पालतू बनाए जाने वाली सबसे पहली मछली है और सबसे अधिक रखे जाने वाली एक्वैरियम मछली है। यह कार्प परिवार का एक अपेक्षाकृत छोटा सदस्य है (जिसमें कोई कार्प और कृसिय्न कार्प भी शामिल है), सुनहरी मछली गहरे-ग्रे/जैतूनी/भूरे कार्प का एक पालतू संस्करण है (करासिय्स औराटस) जो पूर्वी एशिया के मूल निवासी है (प्रथम बार चीन में पाले गए) और जिसकी पहचान यूरोप में 17वीं सदी के पूर्वार्ध में हुई.

नई!!: प्रजीवगण और सुनहरी मछली (गोल्डफिश) · और देखें »

स्ट्रोन्शियम सल्फेट

स्ट्रोन्शियम सल्फेट (Strontium sulfate), जिसका रासायनिक सूत्र SrSO4 है, स्ट्रोन्शियम तत्व का सल्फेट लवण है। यह एक सफ़ेद रंग का क्रिस्टलीय पाउडर होता है और प्रकृति में सेलेस्टीन नामक खनिज में पाया जाता है। यह पानी में आसानी से नहीं घुलता लेकिन हाइड्रोक्लोरिक अम्ल या नाइट्रिक अम्ल के कमज़ोर घोलों में घुल जाता है। जीव-जगत में पाया गया है कि अकान्थारेया (Acantharea) नामक प्रोटोज़ोआ (सूक्ष्मजीवी) का ढांचा स्ट्रोन्शियम सल्फेट का ही बना हुआ होता है। .

नई!!: प्रजीवगण और स्ट्रोन्शियम सल्फेट · और देखें »

सूक्ष्मजैविकी

सूक्ष्मजीवों से स्ट्रीक्ड एक अगार प्लेट सूक्ष्मजैविकी उन सूक्ष्मजीवों का अध्ययन है, जो एककोशिकीय या सूक्ष्मदर्शीय कोशिका-समूह जंतु होते हैं। इनमें यूकैर्योट्स जैसे कवक एवं प्रोटिस्ट और प्रोकैर्योट्स, जैसे जीवाणु और आर्किया आते हैं। विषाणुओं को स्थायी तौर पर जीव या प्राणी नहीं कहा गया है, फिर भी इसी के अन्तर्गत इनका भी अध्ययन होता है। संक्षेप में सूक्ष्मजैविकी उन सजीवों का अध्ययन है, जो कि नग्न आँखों से दिखाई नहीं देते हैं। सूक्ष्मजैविकी अति विशाल शब्द है, जिसमें विषाणु विज्ञान, कवक विज्ञान, परजीवी विज्ञान, जीवाणु विज्ञान, व कई अन्य शाखाएँ आतीं हैं। सूक्ष्मजैविकी में तत्पर शोध होते रहते हैं एवं यह क्षेत्र अनवरत प्रगति पर अग्रसर है। अभी तक हमने शायद पूरी पृथ्वी के सूक्ष्मजीवों में से एक प्रतिशत का ही अध्ययन किया है। हाँलाँकि सूक्ष्मजीव लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व देखे गये थे, किन्तु जीव विज्ञान की अन्य शाखाओं, जैसे जंतु विज्ञान या पादप विज्ञान की अपेक्षा सूक्ष्मजैविकी अपने अति प्रारम्भिक स्तर पर ही है। .

नई!!: प्रजीवगण और सूक्ष्मजैविकी · और देखें »

सूक्ष्मजीव

जीवाणुओं का एक झुंड वे जीव जिन्हें मनुष्य नंगी आंखों से नही देख सकता तथा जिन्हें देखने के लिए सूक्ष्मदर्शी यंत्र की आवश्यकता पड़ता है, उन्हें सूक्ष्मजीव (माइक्रोऑर्गैनिज्म) कहते हैं। सूक्ष्मजैविकी (microbiology) में सूक्ष्मजीवों का अध्ययन किया जाता है। सूक्ष्मजीवों का संसार अत्यन्त विविधता से बह्रा हुआ है। सूक्ष्मजीवों के अन्तर्गत सभी जीवाणु (बैक्टीरिया) और आर्किया तथा लगभग सभी प्रोटोजोआ के अलावा कुछ कवक (फंगी), शैवाल (एल्गी), और चक्रधर (रॉटिफर) आदि जीव आते हैं। बहुत से अन्य जीवों तथा पादपों के शिशु भी सूक्ष्मजीव ही होते हैं। कुछ सूक्ष्मजीवविज्ञानी विषाणुओं को भी सूक्ष्मजीव के अन्दर रखते हैं किन्तु अन्य लोग इन्हें 'निर्जीव' मानते हैं। सूक्ष्मजीव सर्वव्यापी होते हैं। यह मृदा, जल, वायु, हमारे शरीर के अंदर तथा अन्य प्रकार के प्राणियों तथा पादपों में पाए जाते हैं। जहाँ किसी प्रकार जीवन संभव नहीं है जैसे गीज़र के भीतर गहराई तक, (तापीय चिमनी) जहाँ ताप 100 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा हुआ रहता है, मृदा में गहराई तक, बर्फ की पर्तों के कई मीटर नीचे तथा उच्च अम्लीय पर्यावरण जैसे स्थानों पर भी पाए जाते हैं। जीवाणु तथा अधिकांश कवकों के समान सूक्ष्मजीवियों को पोषक मीडिया (माध्यमों) पर उगाया जा सकता है, ताकि वृद्धि कर यह कालोनी का रूप ले लें और इन्हें नग्न नेत्रों से देखा जा सके। ऐसे संवर्धनजन सूक्ष्मजीवियों पर अध्ययन के दौरान काफी लाभदायक होते हैं। .

नई!!: प्रजीवगण और सूक्ष्मजीव · और देखें »

सीलेन्टरेटा

सिलेंटरेटा (Coelenterata) या आंतरगुही जंतु साम्राज्य की एक बड़ी निम्न कोटि की प्रसृष्टि (फ़ाइलम, बड़ा समूह) है। इस प्रसृष्टि के सभी जीव जलप्राणी हैं। केवल प्रजीव (प्रोटोज़ोआ) तथा छिद्रिष्ठ (स्पंज) ही ऐसे प्राणी हैं जो आंतरगुही से भी अधिक सरल आकार के होते हैं। विकासक्रम में ये प्रथम बहुकोशिकीय जंतु है जिनकी विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं में विभेदन तथा वास्तविक ऊतकनिर्माण दिखाई पड़ता है। इस प्रकार इनमें तंत्रिका तंत्र तथा पेशीतंत्र का विकास हो गया है। परंतु इनकी रचना में न सिर का ही विभेदन होता है, न विखंडन ही दिखाई पड़ता है। इनका शरीर खोखला होता है, जिसके भीतर एक बड़ी गुहा होती है। इसको आँतरगुहा (सीलेंटेरॉन) कहते हैं। इसमें एक ही छेद होता है। इसको 'मुख' कहते हैं, यद्यपि इसी छिद्र के द्वारा भोजन भी भीतर जाता है तथा मलादि का परित्याग भी होता है। शरीर की दीवार कोशिकाओं की दो परतों की बनी होती है- बाह्मस्तर (एक्टोडर्म) तथा अंत:स्तर (एँडोडर्म)- और दोनों के बीच बहुधा एक अकोशिकीय पदार्थ - मध्यश्लेष (मीसाग्लीया)- होता है। मुख के चारों ओर बहुधा कई लंबी स्पर्शिकाएँ होती हैं। इनका कंकाल, यदि हुआ तो, कैल्सियमयुक्त या सींग जैसे पदार्थ का होता है। जल में रहने तथा सरल संरचना के कारण इनमें न तो परिवहनसंस्थान होता है, न उत्सर्जन या श्वसनसंस्थान। जननक्रिया अलैंगिक तथा लैंगिक दोनों ही विधियों से होती है। अलैंगिक जनन कोशिकाभाजन द्वारा होता है। लैंगिक जनन के लिए जननकोशिकाओं की उत्पत्ति बाह्मस्तर अथवा अंत:स्तर में स्थित जननांगों में होती है। इन जीवों में कई प्रकार के डिंभ (लार्वा) पाए जाते हैं और कई जातियों में पीढ़ियों का एकांततरण होता है। आंतरगुहियों के बीच में गुहा रहती है। अंतड़ी, फेफड़ा, इत्यादि कोई अंग इनमें नहीं होते। .

नई!!: प्रजीवगण और सीलेन्टरेटा · और देखें »

जठरांत्र शोथ

जठरांत्र शोथ (गैस्ट्रोएन्टराइटिस) एक ऐसी चिकित्सीय स्थिति है जिसे जठरांत्र संबंधी मार्ग ("-इटिस") की सूजन द्वारा पहचाना जाता है जिसमें पेट ("गैस्ट्रो"-) तथा छोटी आंत ("इन्टरो"-) दोनो शामिल हैं, जिसके परिणास्वरूप कुछ लोगों को दस्त, उल्टी तथा पेट में दर्द और ऐंठन की सामूहिक समस्या होती है। जठरांत्र शोथ को आंत्रशोथ, स्टमक बग तथा पेट के वायरस के रूप में भी संदर्भित किया जाता है। हलांकि यह इन्फ्लूएंजा से संबंधित नहीं है फिर भी इसे पेट का फ्लू और गैस्ट्रिक फ्लू भी कहा जाता है। वैश्विक स्तर पर, बच्चों में ज्यादातर मामलों में रोटावायरस ही इसका मुख्य कारण हैं। वयस्कों में नोरोवायरस और कंपाइलोबैक्टर अधिक आम है। कम आम कारणों में अन्य बैक्टीरिया (या उनके जहर) और परजीवी शामिल हैं। इसका संचारण अनुचित तरीके से तैयार खाद्य पदार्थों या दूषित पानी की खपत या संक्रामक व्यक्तियों के साथ निकट संपर्क के कारण से हो सकता है। प्रबंधन का आधार पर्याप्त जलयोजन है। हल्के या मध्यम मामलों के लिए, इसे आम तौर पर मौखिक पुनर्जलीकरण घोल के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। अधिक गंभीर मामलों के लिए, नसों के माध्यम से दिये जाने वाले तरल पदार्थ की जरूरत हो सकती है। जठरांत्र शोथ प्राथमिक रूप से बच्चों और विकासशील दुनिया के लोगों को प्रभावित करता है। .

नई!!: प्रजीवगण और जठरांत्र शोथ · और देखें »

जगत (जीवविज्ञान)

संघ शामिल होते हैं जगत (अंग्रेज़ी: kingdom, किंगडम) जीववैज्ञानिक वर्गीकरण में जीवों के वर्गीकरण की एक ऊँची श्रेणी होती है। आधुनिक जीववैज्ञानिक वर्गीकरण में यह श्रेणी संघों (फ़ायलमों) से ऊपर आती है, यानि एक जगत में बहुत से संघ होते हैं और बहुत से संघों को एक जीववैज्ञानिक जगत में संगठित किया जाता है।, David E. Fastovsky, David B. Weishampel, pp.

नई!!: प्रजीवगण और जगत (जीवविज्ञान) · और देखें »

जैव उर्वरक (बायोफर्टिलाइजर)

नील-हरित कवक एक जैव-उर्वरक है। भूमि की उर्वरता को टिकाऊ बनाए रखते हुए सतत फसल उत्पादन के लिए कृषि वैज्ञानिकों ने प्रकृतिप्रदत्त जीवाणुओं को पहचानकर उनसे बिभिन्न प्रकार के पर्यावरण हितैषी उर्वरक तैयार किये हैं जिन्हे हम जैव उर्वरक (बायोफर्टिलाइजर) या 'जीवाणु खाद' कहते है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते है की जैव उर्वरक जीवित उर्वरक है जिनमे सूक्ष्मजीव विद्यमान होते है। फसलों में जैव उर्वरकों इस्तेमाल करने से वायुमण्डल में उपस्थित नत्रजन पौधो को (अमोनिया के रूप में) सुगमता से उपलब्ध होती है तथा भूमि में पहले से मौजूद अघुलनशील फास्फोरस आदि पोषक तत्व घुलनशील अवस्था में परिवर्तित होकर पौधों को आसानी से उपलब्ध होते हैं। चूंकि जीवाणु प्राकृतिक हैं, इसलिए इनके प्रयोग से भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है और पर्यावरण पर विपरीत असर नहीं पड़ता। जैव उर्वरक रासायनिक उर्वरकों के पूरक है, विकल्प कतई नहीं है। रासायनिक उर्वरकों के पूरक के रूप में जैव उर्वरकों का प्रयोग करने से हम बेहतर परिणाम प्राप्त कर सकते है। वास्तव में जैव उर्वरक विशेष सूक्ष्मजीवों एवं किसी नमी धारक पदार्थ के मिश्रण हैं। विशेष सूक्ष्म जीवों की निर्धारित मात्रा को किसी नमी धारक धूलीय पदार्थ (चारकोल, लिग्नाइट आदि) में मिलाकर जैव उर्वरक तैयार किये जाते हैं। यह प्रायः 'कल्चर' के नाम से बाजार में उपलब्ध है। वास्तव में जैव उर्वरक एक प्राकृतिक उत्पाद है। इनका उपयोग विभिन्न फसलों में नत्रजन एवं स्फूर की आंशिक पूर्ति हेतु किया जा सकता है। इनके उपयोग का भूमि पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है बल्कि ये भूमि के भौतिक व जैविक गुणों में सुधार कर उसकी उर्वरा शक्ति को बढ़ाने में सहायक होते हैं। जैविक खेती में जैव उर्वरकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जीवाणु खाद का प्रभाव धीरे-धीरे होता है। हमारे खेत की एक ग्राम मिट्टी में लगभग दो-तीन अरब सूक्ष्म जीवाणु पाये जाते हैं जिसमें मुख्यतः बैक्टिरीया, फफूंद, कवक, प्रोटोजोआ आदि होते हैं जो मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ाने व फसलोत्पादन की वृद्धि में अनेक कार्य करते हैं। .

नई!!: प्रजीवगण और जैव उर्वरक (बायोफर्टिलाइजर) · और देखें »

वाहितमल उपचार

मलजल प्रशोधन का उद्देश्य - समुदायों के लिए कोई मुसीबत पैदा किए बिना या नुकसान पहुंचाए बिना निषकासनयोग्य उत्प्रवाही जल को उत्पन्न करना और प्रदूषण को रोकना है।1 मलजल प्रशोधन, या घरेलू अपशिष्ट जल प्रशोधन, अपवाही (गन्दा जल) और घरेलू दोनों प्रकार के अपशिष्ट जल और घरेलू मलजल से संदूषित पदार्थों को हटाने की प्रक्रिया है। इसमें भौतिक, रासायनिक और जैविक संदूषित पदार्थों को हटाने की भौतिक, रासायनिक और जैविक प्रक्रियाएं शामिल हैं। इसका उद्देश्य एक अपशिष्ट प्रवाह (या प्रशोधित गन्दा जल) और एक ठोस अपशिष्ट या कीचड़ का उत्पादन करना है जो वातावरण में निर्वहन या पुनर्प्रयोग के लिए उपयुक्त होता है। यह सामग्री अक्सर अनजाने में कई विषाक्त कार्बनिक और अकार्बनिक यौगिकों से संदूषित हो जाती है। .

नई!!: प्रजीवगण और वाहितमल उपचार · और देखें »

खाद्य जनित रोग

खाद्यजनित रोग (खाद्यजनित व्याधि तथा बोलचाल की भाषा में खाद्य विषाक्तता के रूप में भी संदर्भित) दूषित भोजन के सेवन के परिणाम स्वरुप उत्पन्न कोई रोग है। खाद्य विषाक्तता दो प्रकार की होती है: संक्रामक एजेंट और विषाक्त एजेंट.

नई!!: प्रजीवगण और खाद्य जनित रोग · और देखें »

आंजेलो चेली

आंजेलो चेली आंजेलो चेली (1857 - 1914), इटली के एक चिकित्सक तथा प्राणीविद् थे। इन्होनें मलेरिया का अध्ययन किया। सेली ने सन् 1878 में रोम के Sapienza University से स्नातक स्तर की पढ़ाई पूरी की तथा स्वास्थ्य विज्ञान के अध्यापक बन गये। 1880 में एत्तोरे मार्चियाफावा के साथ इन्होने, चार्ल्स लुई अल्फोंस लैवेरन के द्वारा खोजे गये एक नये प्रोटोज़ोआ का अध्ययन किया। इस नये प्रोटोज़ोआ का नामकरण दोनो ने मिलकर प्लास्मोडियम किया। उन्होंने मलेरिया के इस परजीवी का वर्षों तक अध्ययन किया। .

नई!!: प्रजीवगण और आंजेलो चेली · और देखें »

कालापानी बुखार

कालापानी बुखार, मलेरिया के रोगी में उत्पन्न होने वाली एक खतरनाक अवस्था है। इसमे वृक्क नष्ट होने की संभावना अत्यंत बढ़ जाती है क्योंकि मूत्र में हीमोग्लोबिन आना शुरू हो जाता है। इसका कारण प्लास्मोडियम फैल्सीपैरम नामक एक परजीवी प्रोटोज़ोआ है। जो मानव के लाल रक्त कोशिका में प्रवेश कर जाता है। श्रेणी:मलेरिया.

नई!!: प्रजीवगण और कालापानी बुखार · और देखें »

कॉण्टैक्ट लैंस

कांटैक्ट लेंस की एक जोड़ी, ऊपर की ओर मुंह किए हुए एक जोड़ी. एक दिवसीय डिस्पोजेबल पैकेजिंग में नीले रंग की कांटैक्ट लैंस कांटैक्ट लैंस (कांटैक्ट के नाम से भी लोकप्रिय) सामान्यतः आंख की कोर्निया (स्वच्छपटल) पर रखा जाने वाला एक सुधारक, प्रसाधनीय या रोगोपचारक लैंस होता है। 1508 में कांटैक्ट लैंसों की पहली कल्पनाओं को समझाने और रेखांकित करने का श्रेय लियोनार्डो दा विंसी को जाता है लेकिन वास्तविक कांटैक्ट लैंसों को बनाने और आंख पर लगाने में 300 वर्षों से भी अधिक लगे। आधुनिक नर्म कांटैक्ट लैंसों का आविष्कार चेक केमिस्ट ओटो विक्टरली और उसके सहायक ड्राह्सलाव लिम ने किया, जिसने उनके उत्पादन के लिये प्रयुक्त जेल का आविष्कार भी किया। कुछ नर्म कांटैक्ट लैंसों को हल्के नीले रंग का बनाया जाता है ताकि साफ करने और रखने के घोलों में वे आसानी से दिखाई दे सकें.

नई!!: प्रजीवगण और कॉण्टैक्ट लैंस · और देखें »

कोशिका विज्ञान

घटक अणुओं के रूप में कोशिकाओं की समझ कोशिका की सामान्यीकृत संरचना तथा कोशिका के आणविक घटक कोशिका विज्ञान (Cytology) या कोशिका जैविकी (Cell biology) में कोशिकाओं के शरीरक्रियात्मक गुणों (physiological properties), संरचना, कोशिकांगों (organelles), वाह्य पर्यावरण के साथ क्रियाओं, जीवनचक्र, विभाजन तथा मृत्यु का वैज्ञानिक अध्यन किया जाता है। यह अध्ययन सूक्ष्म तथा आणविक स्तरों पर किया जाता है। कोशिकाओं के घटकों तथा उनके कार्य करने की विधि का ज्ञान सभी जैविक विज्ञानों के लिये मूलभूत तथा महत्व का विषय है। विशेषतः विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं के बीच समानता और अन्तर की बारीक समझ कोशिकाविज्ञान, अणुजैविकी (molecular biology) तथा जैवचिकित्सीय क्षेत्रों के लिये महत्वपूर्ण है। .

नई!!: प्रजीवगण और कोशिका विज्ञान · और देखें »

अर्धसूत्रीविभाजन

सूत्रीविभाजन शामिल घटनाक्रम, गुणसूत्र विदेशी दिखाते हुए जीवशास्त्र में अर्धसूत्रीविभाजन (उच्चारित) ऋणात्मक विभाजन की एक प्रक्रिया है जिसमें प्रत्येक कोशिका में मौजूद क्रोमोसोमों की संख्या आधी हो जाती है। पशुओं में अर्धसूत्रीविभाजन हमेशा युग्मकों के निर्माण में परिणीत होता है, जबकि अन्य जीवों में इससे बीजाणु उत्पन्न हो सकते हैं। सूत्रीविभाजन की तरह ही, अर्धसूत्रीविभाजन के शुरू होने के पहले मौलिक कोशिका का डीएनए कोशिका-चक्र के S-प्रावस्था में दोहरा हो जाता है। दो कोशिका विभाजनों द्वारा ये दोहरे क्रोमोसोम चार अगुणित युग्मकों या बीजाणुओं में बंट जाते हैं। अर्धसूत्रीविभाजन लैंगिक प्रजनन के लिये आवश्यक होता है और इसलिये यह सभी यूकैर्योसाइटों में होता है। कुछ युकैर्योसाइटों में, विशेषकर बीडेलॉइड रोटिफरों में अर्धसूत्रीविभाजन की क्षमता नहीं होती और वे अनिषेकजनन द्वारा प्रजनन करते हैं। आरकिया या बैक्टीरिया में अर्धसूत्रीविभाजन नहीं होता और वे बाइनरी विखंडन जैसी लैंगिक प्रक्रियाओं द्वारा प्रजनन करते हैं। अर्धसूत्रीविभाजन के समय द्विगुणित जनन कोशिका का जीनोम, जो क्रोमोसोमों में भरे हुए डीएनए के लंबे हिस्सों से बना होता है, का डीएनए दोहरापन और उसके बाद विभाजन के दो दौर होते हैं, जिससे चार अगुणित कोशिकाएं उत्पन्न होती हैं। इनमें से प्रत्येक कोशिका में मौलिक कोशिका के क्रोमोसोमों का एक संपूर्ण सेट या उसकी जीन-सामग्री का आधा भाग होता है। यदि अर्धसूत्रीविभाजन से युग्मक उत्पन्न हुए, तो ये कोशिकाएं को गर्भाधान के समय संयोजित होकर अन्य किसी भी तरह के विकास के पहले नई द्विगुणित कोशिका या यग्मज का निर्माण करती हैं। इस प्रकार अर्धसूत्रीविभाजन की विभाजन की प्रक्रिया गर्भाधान के समय दो जीनोमों के संयोग के प्रति होने वाली अन्योन्य प्रक्रिया होती है। चूंकि हर मातापिता के क्रोमोसोमों का अर्धसूत्रीविभाजन के समय समधर्मी पुनःसंयोग होता है, इसलिये प्रत्येक युग्मक और हर युग्मज के डीएनए में एक अनूठी सांकेतिक रूपरेखा निहित होती है। अर्धसूत्रीविभाजन और गर्भाधान, दोनो मिलकर यूकैर्योसाइटों में लैंगिकता का प्रादुर्भाव करते हैं और जनसमुदायों में विशिष्ट जीनगुणों वाले व्यक्तियों की उत्पत्ति करते हैं। सभी पौधों और कई प्रोटिस्टों में अर्धसूत्रीविभाजन के परिणामस्वरूप बीजाणु नामक अगुणित कोशिकाओं का निर्माण होता है जो बिना गर्भाधान के अलैंगिक तरीके से विभाजित हो सकती हैं। इन समूहों में युग्मक सूत्रीविभाजन द्वारा उत्पन्न होते हैं। अर्धसूत्रीविभाजन में क्रोमोसोमों के पुनःवितरण के लिये सूत्रीविभाजन में प्रयुक्त जैवरसायनिक पद्धतियों में से ही कई पद्धतियों का प्रयोग होता है। अर्धसूत्रीविभाजन की अनेक अनूठी विशेषताएं होती हैं, जिनमें समधर्मी क्रोमोसोमों का जोड़ीकरण और पुनःसंयोग सबसे महत्वपूर्ण है। मीयोसिस शब्द का मूल मीयो है, जिसका मतलब है-कम या अल्प.

नई!!: प्रजीवगण और अर्धसूत्रीविभाजन · और देखें »

यहां पुनर्निर्देश करता है:

प्रोटोज़ोआ, प्रोटोजोआ, प्रोटोजोआ संघ, प्रोटोजोआ-संघ

निवर्तमानआने वाली
अरे! अब हम फेसबुक पर हैं! »