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प्रकिण्व

सूची प्रकिण्व

ग्लायेक्सेलेज़ १। अपनी अभिक्रिया को कैटालाइज़ करने हेतु आवश्यक दो जस्ता आयन पर्पल गोले में दर्शित हैं और एक प्रकिण्व इन्हिबिटर, एस-हेक्साइलग्लूटाथाइओन स्पेस-फिलिंग-प्रतिरूप के रूप में दो सक्रिय स्थलों को भरता दिखाया गया है। प्रकिण्व (अंग्रेज़ी:एंज़ाइम) रासायनिक क्रियाओं को उत्प्रेरित करने वाले प्रोटीन को कहते हैं। इनके लिये एंज़ाइम शब्द का प्रयोग सन १८७८ में कुह्ने ने पहली बार किया था। प्रकिण्वों के स्रोत मुख्यतः सूक्ष्मजीव और फिर पौधे तथा जंतु होते हैं। किसी प्रकिण्व के अमीनो अम्ल में परिवर्तन द्वारा उसके गुणधर्म में उपयोगी परिवर्तन लाने हेतु अध्ययन को प्रकिण्व अभियांत्रिकी या एंज़ाइम इंजीनियरिंग कहते हैं। एंज़ाइम इंजीनियरिंग का एकमात्र उद्देश्य औद्योगिक अथवा अन्य उद्योगों के लिये अधिक क्रियाशील, स्थिर एवं उपयोगी एंज़ाइमों को प्राप्त करना है।। हिन्दुस्तान लाइव। २४ मई २०१० पशुओं से प्राप्त रेनेट भी एक प्रकिण्व ही होता है। ये शरीर में होने वाली जैविक क्रियाओं के उत्प्रेरक होने के साथ ही आवश्यक अभिक्रियाओं के लिए शरीर में विभिन्न प्रकार के प्रोटीन का निर्माण करते हैं। इनकी भूमिका इतनी महत्वपूर्ण है कि ये या तो शरीर की रासायनिक क्रियाओं को आरंभ करते हैं या फिर उनकी गति बढ़ाते हैं। इनका उत्प्रेरण का गुण एक चक्रीय प्रक्रिया है। सभी उत्प्रेरकों की ही भांति, प्रकिण्व भी अभिक्रिया की उत्प्रेरण ऊर्जा (Ea‡) को कम करने का कार्य करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप अभिक्रिया की गति में वृद्धि हो जाती है। अधिकांश प्रकिण्वन अभिक्रियाएं अन्य गैर-उत्प्रेरित अभिक्रियाओं की तुलना में लाखों गुना तेज गति से होती हैं। इसी प्रकार अन्य सभि उत्प्रेरण अभिक्रियाओं की तरह ही प्रकिण्व भी अभिक्रिया में खपते नहीं हैं, न ही अभिक्रिया साम्य में परिवर्तन करते हैं। फिर भी प्रकिण्व अन्य अधिकां उत्प्रेरकों से इस बाट में अलग होते हैं, कि प्रकिण्व किसी विशेष अभिक्रिया के लिये विशिष्ट होते हैं। प्रकिण्वों द्वारा लगभग ४००० से अधिक ज्ञात जैवरासायनिक अभिक्रियाएं संपन्न होती हैं। कुछ आर एन ए अणु भी अभिक्रियाओं को उत्प्रेरित करते हैं, जिसका एक अच्छा उदाहरण है राइबोसोम के कुछ भागों में होती अभिक्रियाएं। कुछ कृत्रिम अणु भी प्रकिण्वों जैसी उत्प्रेरक क्रियाएं दिखाते हैं। इन्हें कृत्रिम प्रकिण्व कहते हैं। World fast enzyme - जाइमेज .

43 संबंधों: च्यवनप्राश, एब्ज़ाइम, एमिलेज़, एलर्जी, एंजाइम कैनेटीक्स, थर्मल प्रदूषण, पश्चविषाणु, प्रतिऑक्सीकारक, प्रकिण्व रियेक्टर, प्रकिण्व अभियांत्रिकी, प्रोटीन, फफूंद, बियर, बैसिलस, मधु, मानव का पाचक तंत्र, माल्ट, लाइपेज, सफ़ेद बाघ, सरल परिसर्प, सहकारक (जैवरसायन), स्ट्रेपसिराइनी, सूक्ष्मजीव, हाला, हाइड्रोजन पेरॉक्साइड, हैप्लोराइनी, जॉन कॉर्नफोर्थ, वर्मी वाश, विऐमीनन, विद्युत्-रसायन, आमाशय (पेट), आर॰ऍन॰ए॰ पॉलिमरेज़, आहारीय ताम्र, आहारीय पोटैशियम, आहारीय मैग्नीज़, आहारीय जस्ता, कोलेजन, अलेक्ज़ांडर फ्लेमिङ, अग्नि (आयुर्वेद), अंतः गर्भाशयी युक्ति, उत्प्रेरण, उपसहसंयोजक यौगिक, PH

च्यवनप्राश

एक चम्मच च्यवनप्राश च्यवनप्राश भारत के सर्वाधिक प्राचीन आयुर्वेदिक स्वास्थ्य पूरकों में से एक एवं सर्वाधिक बिकने वाला आयुर्वेदिक उत्पाद है। .

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एब्ज़ाइम

एब्ज़ाइम वे एंटीबॉडी या प्रतिरक्षी, जो विशिष्ट रासायनिक अभिक्रियाओं का उत्प्रेरण, एंज़ाइम की तरह ही करते हैं, एब्ज़ाइम कहलाते हैं। यह प्राकृतिक रूप से उत्पन्न नहीं होते हैं। यह संबंधित क्रियाधार के अणुओं की प्रत्याश्रित संक्रमण अवस्था की संरचना जैसी संरचना वाले अणुओं द्वारा प्रेरित किये जाते हैं। श्रेणी:जीव विज्ञान श्रेणी:शब्दावली श्रेणी:सूक्ष्मजैविकी श्रेणी:जैव प्रौद्योगिकी श्रेणी:आण्विक जैविकी.

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एमिलेज़

एमिलेज या एमिलेस (amylase) एक एंजाइम है जो स्टार्च को ग्लूकोज और माल्टोज में तोड़ देता है। मानव तथा कुछ अन्य स्तनपोषियों के लार में एमिलेज पाया जाता है जो पाचन में सहायक होता है। श्रेणी:प्रकिण्व श्रेणी:रासायनिक विकृतिविज्ञान.

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एलर्जी

अधिहृषता या एलर्जी या "प्रत्यूर्जता" रोग-प्रतिरोधी तन्त्र का एक व्याधि (Disorder) है जिसे एटोपी (atopy) भी कहते हैं अधिहृषता (एलर्जी) शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग वान पिरकेट ने बाह्य पदार्थ की प्रतिक्रिया करने की शक्ति में हुए परिवर्तन के लिए किया था। कुछ लेखक इस पारिभाषिक शब्द को हर प्रकार की अधिहृषता से संबंधित करते हैं, किंतु दूसरे लेखक इसका प्रयोग केवल संक्रामक रोगों से संबंधित अधिहृषता के लिए ही करते हैं। प्रत्येक अधिहृषता का मूलभूत आधार एक ही है; इसलिए अधिहृषता शब्द का प्रयोग विस्तृत क्षेत्र में ही करना चाहिए। .

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एंजाइम कैनेटीक्स

एंजाइम कैनेटीक्स रासायनिक प्रतिक्रियाओं  का अध्य्यन है। जो उत्प्रेरक द्वारा एंजाइमों पर किया जाता है। एंजाइम कैनेटीक्स में प्रतिक्रिया की दर को मापा जाता है और प्रभाव की अलग-अलग स्थिति की प्रतिक्रिया की जांच करते है। अध्ययन एक एंजाइम के कैनेटीक्स में इस तरह से प्रकट कर सकते हैं उत्प्रेरक तंत्र के इस एंजाइम, में अपनी भूमिका चयापचय, कैसे अपनी गतिविधि को नियंत्रित किया जाता है, और कैसे एक दवा या एक agonist हो सकता है रोकना एंजाइम.

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थर्मल प्रदूषण

पोत्रेरो जेनेरेटिंग स्टेशन सेन फ्रांसिस्को खाड़ी में गर्म पानी निस्सरण करते हुए. सेलना, रॉबर्ट (2009). "पावर प्लांट का मछली मारने से रोकने की कोई योजना नहीं है।" सेन फ्रांसिस्को क्रॉनिकल, 2 जनवरी 2009. थर्मल प्रदूषण किसी भी प्रकार के प्रदूषण की प्रक्रिया को कहा जायेगा जिससे व्यापक रूप में पानी के प्राकृतिक तापमान में बदलाव होता हो। थर्मल प्रदूषण का सबसे प्रमुख कारण बिजली संयंत्रों तथा औद्योगिक विनिर्माताओं द्वारा शीतलक पानी का प्रयोग करने से होता है। जब शीतलक हेतु प्रयोग किया गया पानी पुनः प्राकृतिक पर्यावरण में आता है तो उसका तापमान अधिक होता है, तापमान में बदलाव के कारण (क.) ऑक्सीजन की मात्रा में कमी आती है (ख.) पारिस्थिथिकी तंत्र पर भी प्रभाव पड़ता है। नगरीय जल बहाव-- सड़कों और गाड़ियों को रखने के स्थानों से बहे पानी, ये सभी तापमान के बढ़ने के कारण हो सकते हैं। जब एक बिजली संयंत्र मरम्मत अथवा अन्य कारणों से खुलता और बंद होता है, तो इसकी वजह से मछलियां और अन्य तरह के जीवाणु जो की एक विशेष प्रकार के तापमान के आदि होते हैं, अचानक तापमान में हुई बढ़ोतरी से मर जाते हैं, इसे 'थर्मल झटका' कहा जाता है। थर्मल प्रदूषण का एक और कारण जलाशय तालाब/टंकी द्वारा बहुत ही ज्यादा ठन्डे पानी को उष्ण नदियों में बहाने से होता है। .

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पश्चविषाणु

पश्चविषाणु (रेट्रोवाइरस) एक प्रकार का विषाणु है जिसमें आनुवांशिक पदार्थ आरएनए होता है। इसमें एक रिवर्स ट्रान्स्क्रिप्टेज नामक एन्जाइम होता है जो आर॰एन॰ए॰ से डी॰एन॰ए॰ निर्माण करता है, जो सेन्ट्रल डॉग्मा के विपरित है। .

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प्रतिऑक्सीकारक

एक एंटीऑक्सीडेंट- मेटाबोलाइट ग्लूटाथायोन का प्रतिरूप। पीले गोले रेडॉक्स-सक्रिय गंधक अणु हैं, जो एंटीऑक्सीडेंट क्रिया उपलब्ध कराते हैं और लाल, नीले व गहरे सलेटी गोले क्रमशः ऑक्सीजन, नाईट्रोजन, हाईड्रोजन एवं कार्बन परमाणु हैं। प्रतिऑक्सीकारक (Antioxidants) या प्रतिउपचायक वे यौगिक हैं जिनको अल्प मात्रा में दूसरे पदार्थो में मिला देने से वायुमडल के ऑक्सीजन के साथ उनकी अभिक्रिया का निरोध हो जाता है। इन यौगिकों को ऑक्सीकरण निरोधक (OXidation inhibitor) तथा स्थायीकारी (Stabiliser) भी कहते हैं तथा स्थायीकारी (Stabiliser) भी कहते हैं। अर्थात प्रति-आक्सीकारक वे अणु हैं, जो अन्य अणुओं को ऑक्सीकरण से बचाते हैं या अन्य अणुओं की आक्सीकरण प्रक्रिया को धीमा कर देते हैं। ऑक्सीकरण एक प्रकार की रासायनिक क्रिया है जिसके द्वारा किसी पदार्थ से इलेक्ट्रॉन या हाइड्रोजन ऑक्सीकारक एजेंट को स्थानांतरित हो जाते हैं। प्रतिआक्सीकारकों का उपयोग चिकित्साविज्ञान तथा उद्योगों में होता है। पेट्रोल में प्रतिआक्सीकारक मिलाए जाते हैं। ये प्रतिआक्सीकारक चिपचिपाहट पैदा करने वाले पदार्थ नहीं बनने देते जो अन्तर्दहन इंजन के लिए हानिकारक हैं। प्रायः प्रतिस्थापित फिनोल (Substituted phenols) एवं फेनिलेनेडिआमाइन के व्युत्पन्न (derivatives of phenylenediamine) इस काम के लिए प्रयुक्त होते हैं। .

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प्रकिण्व रियेक्टर

प्रकिण्व रियेक्टर प्रकिण्व अभिक्रिया या रियेक्शन के लिये उपयोग किया जाने वाला पात्र एन्ज़ाइम रियेक्टर या प्रकिण्व रियेक्टर कहलाता है। रियेक्टरों का उपयोग बैच या सतत प्रणाली में किया जा सकता है। .

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प्रकिण्व अभियांत्रिकी

प्रकिण्व अभियांत्रिकी किसी प्रकिण्व या एन्ज़ाइम के अमीनो अम्ल में परिवर्तन द्वारा उसके गुणधर्म में उपयोगी परिवर्तन लाने हेतु अध्ययन को प्रकिण्व अभियांत्रिकी या एन्ज़ाइम इंजीनियरिंग कहते हैं। यह परिवर्तन पुनर्योगज डी एन ए या रीकॉम्बिनेंट डी एन ए प्रौद्योगिकी द्वारा किये जाते हैं। एन्ज़ाइम इंजीनियरिंग का एकमात्र उद्देश्य औद्योगिक अथवा अन्य उद्योगों के लिये अधिक क्रियाशील, स्थिर एवं उपयोगी एन्ज़ाइमों को प्राप्त करना है। श्रेणी:जीव विज्ञान श्रेणी:शब्दावली श्रेणी:सूक्ष्मजैविकी श्रेणी:जैव प्रौद्योगिकी श्रेणी:आण्विक जैविकी.

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प्रोटीन

रुधिरवर्णिका(हीमोग्लोबिन) की संरचना- प्रोटीन की दोनो उपइकाईयों को लाल एंव नीले रंग से तथा लौह भाग को हरे रंग से दिखाया गया है। प्रोटीन या प्रोभूजिन एक जटिल भूयाति युक्त कार्बनिक पदार्थ है जिसका गठन कार्बन, हाइड्रोजन, आक्सीजन एवं नाइट्रोजन तत्वों के अणुओं से मिलकर होता है। कुछ प्रोटीन में इन तत्वों के अतिरिक्त आंशिक रूप से गंधक, जस्ता, ताँबा तथा फास्फोरस भी उपस्थित होता है। ये जीवद्रव्य (प्रोटोप्लाज्म) के मुख्य अवयव हैं एवं शारीरिक वृद्धि तथा विभिन्न जैविक क्रियाओं के लिए आवश्यक हैं। रासायनिक गठन के अनुसार प्रोटीन को सरल प्रोटीन, संयुक्त प्रोटीन तथा व्युत्पन्न प्रोटीन नामक तीन श्रेणियों में बांटा गया है। सरल प्रोटीन का गठन केवल अमीनो अम्ल द्वारा होता है एवं संयुक्त प्रोटीन के गठन में अमीनो अम्ल के साथ कुछ अन्य पदार्थों के अणु भी संयुक्त रहते हैं। व्युत्पन्न प्रोटीन वे प्रोटीन हैं जो सरल या संयुक्त प्रोटीन के विघटन से प्राप्त होते हैं। अमीनो अम्ल के पॉलीमराईजेशन से बनने वाले इस पदार्थ की अणु मात्रा १०,००० से अधिक होती है। प्राथमिक स्वरूप, द्वितीयक स्वरूप, तृतीयक स्वरूप और चतुष्क स्वरूप प्रोटीन के चार प्रमुख स्वरुप है। प्रोटीन त्वचा, रक्त, मांसपेशियों तथा हड्डियों की कोशिकाओं के विकास के लिए आवश्यक होते हैं। जन्तुओं के शरीर के लिए कुछ आवश्यक प्रोटीन एन्जाइम, हार्मोन, ढोने वाला प्रोटीन, सिकुड़ने वाला प्रोटीन, संरचनात्मक प्रोटीन एवं सुरक्षात्मक प्रोटीन हैं। प्रोटीन का मुख्य कार्य शरीर की आधारभूत संरचना की स्थापना एवं इन्जाइम के रूप में शरीर की जैवरसायनिक क्रियाओं का संचालन करना है। आवश्यकतानुसार इससे ऊर्जा भी मिलती है। एक ग्राम प्रोटीन के प्रजारण से शरीर को ४.१ कैलीरी ऊष्मा प्राप्त होती है। प्रोटीन द्वारा ही प्रतिजैविक (एन्टीबॉडीज़) का निर्माण होता है जिससे शरीर प्रतिरक्षा होती है। जे.

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फफूंद

"आर्मिलेरिया ओस्टोयी" नामक कवक फफूंद या कवक एक प्रकार के पौधे हैं जो अपना भोजन सड़े गले म्रृत कार्बनिक पदार्थों से प्राप्त करते हैं। ये संसार के प्रारंभ से ही जगत में उपस्थित हैं। इनका सबसे बड़ा लाभ इनका संसार में अपमार्जक के रूप में कार्य करना है। इनके द्वारा जगत में से कचरा हटा दिया जाता है। कवक (फंगस, Fungus) जीवों का एक विशाल समुदाय है जिसे साधारणतया वनस्पतियों में वर्गीकृत किया जाता है। इस वर्ग के सदस्य पर्णहरिम (chlorophyll) रहित होते हैं और इनमें प्रजनन बीजाणुओं (spore) द्वारा होता है। ये सभी सूकाय (thalloid) वनस्पतियाँ हैं, अर्थात् इनके शरीर के ऊतकों (tissues) में कोई भेदकरण नहीं होता; दूसरे शब्दों में, इनमें जड़, तना और पत्तियाँ नहीं होतीं तथा इनमें अधिक प्रगतिशील पौधों की भाँति संवहनीयतंत्र (vascular system) नहीं होता। पहले इस प्रकार के सभी जीव एक ही वर्ग कवक के अंतर्गत परिगाणित होते थे, परंतु अब वनस्पति विज्ञानविदों ने कवक वर्ग के अतिरिक्त दो अन्य वर्गों की स्थापना की है जिनमें क्रमानुसार जीवाणु (bacteria) और श्लेष्मोर्णिका (slime mold) हैं। जीवाणु एककोशीय होते हैं जिनमें प्रारूपिक नाभिक (typical nucleus) नहीं होता तथा श्लेष्मोर्णिक की बनावट और पोषाहार (nutrition) जंतुओं की भाँति होता है। कवक अध्ययन के विज्ञान को कवक विज्ञान (mycology) कहते हैं। कुछ लोगों का मत है कि कवक की उत्पत्ति शैवाल (algae) में पर्णहरिम की हानि होने से हुई है। यदि वास्तव में ऐसा हुआ है तो कवक को पादप सृष्टि (Plant kingdom) में रखना उचित ही है। दूसरे लोगों का विश्वास है कि इनकी उत्पत्ति रंगहीन कशाभ (flagellata) या प्रजीवा (protozoa) से हुई है जो सदा से ही पर्णहरिम रहित थे। इस विचारधारा के अनुसार इन्हें वानस्पतिक सृष्टि में न रखकर एक पृथक सृष्टि में वर्गीकृत किया जाना चाहिए। वास्तविक कवक के अंतर्गत कुछ ऐसी परिचित वस्तुएँ आती हैं, जैसे गुँधे हुए आटे (dough) से पावरोटी बनाने में सहायक एककोशीय खमीर (yeast), बासी रोटियों पर रूई की भाँति उगा फफूँद, चर्म को मलिन करनेवाले दाद के कीटाणु, फसल के नाशकारी रतुआ तथा कंडुवा (rust and smut) और खाने योग्य एव विषैली कुकुरमुत्ते या खुंभियाँ (mushrooms)। .

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बियर

सीधे पीपा से 'श्लेंकेरला राउख़बियर' नामक बियर परोसी जा रही है​ बियर संसार का सबसे पुराना और सर्वाधिक व्यापक रूप से खुलकर सेवन किया जाने वाला मादक पेय है।Origin and History of Beer and Brewing: From Prehistoric Times to the Beginning of Brewing Science and Technology, John P Arnold, BeerBooks, Cleveland, Ohio, 2005, ISBN 0-9662084-1-2 सभी पेयों के बाद यह चाय और जल के बाद तीसरा सर्वाधिक लोकप्रिय पेय है।, European Beer Guide, Accessed 2006-10-17 क्योंकि बियर अधिकतर जौ के किण्वन (फ़र्मेन्टेशन​) से बनती है, इसलिए इसे भारतीय उपमहाद्वीप में जौ की शराब या आब-जौ के नाम से बुलाया जाता है। संस्कृत में जौ को 'यव' कहते हैं इसलिए बियर का एक अन्य नाम यवसुरा भी है। ध्यान दें कि जौ के अलावा बियर बनाने के लिए गेहूं, मक्का और चावल का भी व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है। अधिकतर बियर को राज़क (हॉप्स) से सुवासित एवं स्वादिष्ट कर दिया जाता है, जिसमें कडवाहट बढ़ जाती है और जो प्राकृतिक संरक्षक के रूप में भी कार्य करता है, हालांकि दूसरी सुवासित जड़ी बूटियां अथवा फल भी यदाकदा मिला दिए जाते हैं।, Max Nelson, Routledge, Page 1, Pages 1, 2005, ISBN 0-415-31121-7, Accessed 2009-11-19 लिखित साक्ष्यों से यह पता चलता है कि मान्यता के आरंभ से बियर के उत्पादन एवं वितरण को कोड ऑफ़ हम्मुराबी के रूप में सन्दर्भित किया गया है जिसमें बियर और बियर पार्लर्स से संबंधित विनियमन कानून तथा "निन्कासी के स्रुति गीत", जो बियर की मेसोपोटेमिया देवी के लिए प्रार्थना एवं किंचित शिक्षित लोगों की संस्कृति के लिए नुस्खे के रूप में बियर का उपयोग किया जाता था। आज, किण्वासवन उद्योग एक वैश्विक व्यापार बन गया है, जिसमें कई प्रभावी बहुराष्ट्रीय कंपनियां और हजारों की संख्या में छोटे-छोटे किण्वन कर्म शालाओं से लेकर आंचलिक शराब की भट्टियां शामिल हैं। बियर के किण्वासन की मूल बातें राष्ट्रीय और सांस्कृतिक सीमाओं से परे भी एक साझे में हैं। आमतौर पर बियर को दो प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है - दुनिया भर में लोकप्रिय हल्का पीला यवसुरा और आंचलिक तौर पर अलग किस्म के बियर, जिन्हें और भी कई किस्मों जैसे कि हल्का पीला बियर, घने और भूरे बियर में वर्गीकृत किया गया है। आयतन के दृष्टीकोण से बियर में शराब की मात्रा (सामान्य) 4% से 6% तक रहती है हालांकि कुछ मामलों में यह सीमा 1% से भी कम से आरंभ कर 20% से भी अधिक हो सकती है। बियर पान करने वाले राष्ट्रों के लिए बियर उनकी संस्कृति का एक अंग है और यह उनकी सामजिक परंपराओं जैसे कि बियर त्योहारों, साथ ही साथ मदिरालयी सांस्कृतिक गतिविधियों जैसे कि मदिरालय रेंगना तथा मदिरालय में खेले जाने वाले खेल जैसे कि बार बिलियर्ड्स शामिल हैं। .

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बैसिलस

दण्डाणु छड़ के आकार का बीटा हीमोलिटिक ग्राम पॉजिटिव जीवाणु जीनस है, साथ ही एक सदस्य है फर्मीक्यूट्स उपजाति का। दण्डाणु या तो बाध्य प्रजाति के हैं या ऐच्छिक aerobe s और परीक्षण के लिए सकारात्मक एंजाइम catalase। .

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मधु

बोतल में छत्ते के साथ रखी मधु मधु या शहद (अंग्रेज़ी:Honey हनी) एक मीठा, चिपचिपाहट वाला अर्ध तरल पदार्थ होता है जो मधुमक्खियों द्वारा पौधों के पुष्पों में स्थित मकरन्दकोशों से स्रावित मधुरस से तैयार किया जाता है और आहार के रूप में मौनगृह में संग्रह किया जाता है।। उत्तराकृषिप्रभा शहद में जो मीठापन होता है वो मुख्यतः ग्लूकोज़ और एकलशर्करा फ्रक्टोज के कारण होता है। शहद का प्रयोग औषधि रूप में भी होता है। शहद में ग्लूकोज व अन्य शर्कराएं तथा विटामिन, खनिज और अमीनो अम्ल भी होता है जिससे कई पौष्टिक तत्व मिलते हैं जो घाव को ठीक करने और उतकों के बढ़ने के उपचार में मदद करते हैं। प्राचीन काल से ही शहद को एक जीवाणु-रोधी के रूप में जाना जाता रहा है। शहद एक हाइपरस्मॉटिक एजेंट होता है जो घाव से तरल पदार्थ निकाल देता है और शीघ्र उसकी भरपाई भी करता है और उस जगह हानिकारक जीवाणु भी मर जाते हैं। जब इसको सीधे घाव में लगाया जाता है तो यह सीलैंट की तरह कार्य करता है और ऐसे में घाव संक्रमण से बचा रहता है।। हिन्दुस्तान लाईव। ११ अप्रैल २०१० .

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मानव का पाचक तंत्र

मानव का पाचन-तन्त्र मानव के पाचन तंत्र में एक आहार-नाल और सहयोगी ग्रंथियाँ (यकृत, अग्न्याशय आदि) होती हैं। आहार-नाल, मुखगुहा, ग्रसनी, ग्रसिका, आमाशय, छोटी आंत, बड़ी आंत, मलाशय और मलद्वार से बनी होती है। सहायक पाचन ग्रंथियों में लार ग्रंथि, यकृत, पित्ताशय और अग्नाशय हैं। .

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माल्ट

माल्ट ह्विस्की की माल्ट किसी अन्न (जौ आदि) को अंकुरित कराकर, फिर उसे गरम हवा की सहायता से सुखाने प्राप्त उत्पाद माल्ट (Malt) कहलाती है। अन्नों के माल्टन (Malting) से उनमें एक एंजाइम पैदा होती है जो मूल अन्न के स्टार्च को शर्करा में बदल देती है। इसके अलावा माल्टन से प्रोटिआसेस (proteases) आदि अन्य एंजाइम भी पैदा होते हैं जो अन्न के अन्दर स्थित प्रोटीनों को तोड़कर ऐसे रूप में बदल देते हैं जिसका उपयोग खमीरों द्वारा किया जा सकता है। .

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लाइपेज

लाइपेज (lipase) एक एंजाइम है जो वसाओं के हाइड्रोलिसिस में सहायक होता है (उत्प्रेरक की तरह काम करता है।) .

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सफ़ेद बाघ

सफ़ेद बाघ (व्हाइट टाइगर/white tiger) एक ऐसा बाघ है जिसका प्रतिसारी पित्रैक (रिसेसिव पित्रैक) इसे हल्का रंग प्रदान करता है। एक अन्य आनुवंशिक अभिलक्षण बाघ की धारियों को बहुत हल्का रंग प्रदान करता है; इस प्रकार के सफ़ेद बाघ को बर्फ-सा सफ़ेद या "शुद्ध सफे़द" कहते हैं। सफ़ेद बाघ विवर्ण नहीं होते हैं और इनकी कोई अलग उप-प्रजाति नहीं है और इनका संयोग नारंगी रंग के बाघों के साथ हो सकता है, हालांकि (लगभग) इस संयोग के परिणामस्वरूप जन्म ग्रहण करने वाले शावकों में से आधे शावक प्रतिसारी सफ़ेद पित्रैक की वजह से विषमयुग्मजी हो सकते हैं और इनके रोएं नारंगी रंग के हो सकते हैं। इसमें एकमात्र अपवाद तभी संभव है जब खुद नारंगी रंग वाले माता/पिता पहले से ही एक विषमयुग्मजी बाघ हो, जिससे प्रत्येक शावक को या तो दोहरा प्रतिसारी सफ़ेद या विषमयुग्मजी नारंगी रंग के होने का 50 प्रतिशत अवसर मिलेगा.

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सरल परिसर्प

सरल परिसर्प (हर्पीज़ सिम्प्लेक्स) (ἕρπης - herpes, शाब्दिक अर्थ - "धीरे-धीरे बढ़ता हुआ") एक विषाणुजनित रोग है जो सरल परिसर्प विषाणु 1 (एचएसवी-1 (HSV-1)) और सरल परिसर्प विषाणु 2 (एचएसवी-2 (HSV-2)) दोनों के कारण होता है। परिसर्प विषाणु से होने वाले संक्रमण को संक्रमण स्थल पर आधारित कई विशिष्ट विकारों में से एक विकार के रूप में वर्गीकृत किया गया है। मौखिक परिसर्प, जिसके दिखाई देने वाले लक्षणों को बोलचाल की भाषा में शीतल घाव कहते हैं, चेहरे और मुंह को संक्रमित कर देते है। मौखिक परिसर्प, संक्रमण का सबसे सामान्य रूप है। जननांगी परिसर्प, जिसे आमतौर पर सिर्फ परिसर्प के रूप में जाना जाता है, परिसर्प का दूसरा सबसे सामान्य रूप है। अन्य विकार जैसे ददहा बिसहरी, परिसर्प ग्लैडायटोरम, नेत्रों में होने वाला परिसर्प (स्वच्छपटलशोथ), प्रमस्तिष्क में परिसर्प के संक्रमण से होने वाला मस्तिष्ककलाशोथ, मोलारेट का मस्तिष्कावरणशोथ, नवजात शिशुओं में होने वाला परिसर्प और संभवतः बेल का पक्षाघात सभी सरल परिसर्प विषाणु के कारण होते हैं। परिसर्प के विषाणु किसी व्यक्ति के रोगग्रस्त होने की स्थिति में अपना प्रभाव दिखाना शुरू करते हैं अर्थात् ये रोगग्रस्त व्यक्ति में छाले के रूप में प्रकट होते हैं जिसमें संक्रामक विषाणु के अंश होते हैं जो 2 से 21 दिनों तक प्रभावी रहते हैं और उसके बाद जब रोगी की हालत में सुधार होने लगता है तो ये घाव गायब हो जाते हैं। जननांगी परिसर्प, हालांकि, प्रायः स्पर्शोन्मुख होते हैं, तथापि विषाणुजनित बहाव अभी भी हो सकता है। आरंभिक संक्रमण के बाद, विषाणु संवेदी तंत्रिकाओं की तरफ बढ़ते हैं जहां वे चिरकालिक अदृश्य विषाणुओं के रूप में निवास करते हैं। पुनरावृत्ति के कारण अनिश्चित हैं, तथापि कुछ संभावित कारणों की पहचान की गई हैं। समय के साथ, सक्रिय रोग के प्रकरणों की आवृत्ति और तीव्रता में कमी आ जाती है। सरल परिसर्प, एक संक्रमित व्यक्ति के घाव या शरीर द्रव के सीधे संपर्क में आने पर बड़ी आसानी से फ़ैल जाता है। स्पर्शोन्मुख बहाव के समय के दौरान त्वचा से त्वचा के संपर्क के माध्यम से भी संचरण हो सकता है। अवरोध संरक्षण विधियां, परिसर्प के संचरण की रोकथाम की सबसे विश्वसनीय विधियां हैं लेकिन वे जोखिम को ख़त्म करने के बजाय सिर्फ कम करते हैं। मौखिक परिसर्प की आसानी से पहचान हो जाती है यदि रोगी के घाव या अल्सर दिखाई देने योग्य हो। ओरोफेसियल परिसर्प और जननांगी परिसर्प के प्रारंभिक चरणों का पता लगाना थोड़ा कठिन हैं; इसके लिए आम तौर पर प्रयोगशाला परीक्षण की आवश्यकता है। अमेरिका की जनसंख्या का बीस प्रतिशत के पास एचएसवी-2 (HSV-2) का रोग-प्रतिकारक हैं हालांकि उन सब का जननांगी घावों का इतिहास नहीं है।आतंरिक दवा के प्रति हरिसन के सिद्धांत, 16वां संस्करण, अध्याय 163, सरल परिसर्प के विषाणु, लॉरेंस कोरी परिसर्प का कोई इलाज़ नहीं है। एक बार संक्रमित होने जाने के बाद विषाणु जीवन पर्यंत शरीर में रहता है। हालांकि, कई वर्षों के बाद, कुछ लोग सदा के लिए स्पर्शोन्मुख हो जाएंगे और उन्हें कभी किसी प्रकार के प्रकोप का कोई अनुभव नहीं होगा लेकिन वे फिर भी दूसरों के लिए संक्रामक हो सकते हैं। इसके टीकों का रोग-विषयक परीक्षण चल रहा है लेकिन प्रभावशाली साबित नहीं हुए हैं। उपचार के माध्यम से विषाणुजनित प्रजनन और बहाव को कम किया जा सकता है, विषाणु को त्वचा में प्रवेश करने से रोका जा सकता है और रोगसूचक प्रकरणों की गंभीरता को कम किया जा सकता है। सरल परिसर्प के सम्बन्ध में उन हालातों के साथ भ्रमित नहीं होना चाहिए जो परिसर्पवायरिडा परिवार जैसे परिसर्प ज़ोस्टर में अन्य विषाणुओं के कारण होते हैं जो छोटी माता या चेचक के ज़ोस्टर विषाणु के कारण होने वाला एक विषाणुजनित रोग है। त्वचा पर घावों के होने के आभास के कारण "हाथ, पैर और मुख रोग" के साथ भी भ्रमित होने की सम्भावना है। .

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सहकारक (जैवरसायन)

सहकारक (cofactor) एक ऐसा धातु आयन या ग़ैर-प्रोटीन रासायनिक यौगिक होता है जिसकी उपस्थिति किसी प्रकिण्व (ऍन्ज़ाइम, enzyme) के कार्य के लिए आवश्यक हो। सहकारक जैवरसायनिक प्रक्रियाओं में सहायक यौगिकों की भूमिका अदा करते हैं। सहकारक या तो अकार्बनिक आयन होते हैं या फिर विटामिन और अन्य पोषक तत्वों से बनाए जाने वाले कार्बनिक यौगिक होते हैं। इस द्वितीय श्रेणी के रसायन सहप्रकिण्व (कोऍन्ज़ाइम, coenzyme) भी कहलाते हैं। .

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स्ट्रेपसिराइनी

स्ट्रेपसिराइनी (Strepsirrhini) या गिली-नाक नरवानर (dry-nosed primates) नरवानर गण (प्राइमेट) का एक क्लेड है जिसमें सभी लीमररूपी नरवानर शामिल हैं, जैसे कि माडागास्कर के लीमर, अफ़्रीका के गलेगो और पोटो, और भारत व दक्षिणपूर्वी एशिया के लोरिस। स्ट्रेपसिराइनी नरवानर गण के दूसरे प्रमुख क्लेड, हैप्लोराइनी (Haplorhini) से काफ़ी भिन्न होते हैं। इनका मस्तिष्क छोटा होता है। इनकी नाकें गीली रहती हैं, जब की हैप्लोराइनी नाकें बाहर से अधिकतर शुष्क होती हैं। इनकी सूंघने की शक्ति बहुत प्रखर होती है और आँखों में एक प्रतिबिम्बी व्यवस्था के कारण यह रात में देख पाने में अधिक सक्षम होते हैं (यही कारण भी है कि इनकी आँखे रात में चमकती हुई नज़र आती हैं)। इनमें विटामिन सी बना सकने वाला प्रकिण्व (एन्ज़ाइम) होता है और वे यह आवश्यक रसायन स्वयं बना लेते हैं, जबकि हैप्लोराइनी क्लेड के प्राणियों में यह नहीं रहा जिस कारणवश उन्हें विटामिन-सी युक्त भोजन खाने की आवश्यकता होती है। कई स्ट्रेपसिराइनी प्राणियों के जबड़ों के सामने के निचले दांत कंघी जैसी व्यवस्था में होते हैं जिनसे वे अपने बाल सँवार सकते हैं। वर्तमान में अस्तित्व रखने वाली अधिकतर जातियाँ निशाचरी (रात्रि को सक्रीय) हैं। .

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सूक्ष्मजीव

जीवाणुओं का एक झुंड वे जीव जिन्हें मनुष्य नंगी आंखों से नही देख सकता तथा जिन्हें देखने के लिए सूक्ष्मदर्शी यंत्र की आवश्यकता पड़ता है, उन्हें सूक्ष्मजीव (माइक्रोऑर्गैनिज्म) कहते हैं। सूक्ष्मजैविकी (microbiology) में सूक्ष्मजीवों का अध्ययन किया जाता है। सूक्ष्मजीवों का संसार अत्यन्त विविधता से बह्रा हुआ है। सूक्ष्मजीवों के अन्तर्गत सभी जीवाणु (बैक्टीरिया) और आर्किया तथा लगभग सभी प्रोटोजोआ के अलावा कुछ कवक (फंगी), शैवाल (एल्गी), और चक्रधर (रॉटिफर) आदि जीव आते हैं। बहुत से अन्य जीवों तथा पादपों के शिशु भी सूक्ष्मजीव ही होते हैं। कुछ सूक्ष्मजीवविज्ञानी विषाणुओं को भी सूक्ष्मजीव के अन्दर रखते हैं किन्तु अन्य लोग इन्हें 'निर्जीव' मानते हैं। सूक्ष्मजीव सर्वव्यापी होते हैं। यह मृदा, जल, वायु, हमारे शरीर के अंदर तथा अन्य प्रकार के प्राणियों तथा पादपों में पाए जाते हैं। जहाँ किसी प्रकार जीवन संभव नहीं है जैसे गीज़र के भीतर गहराई तक, (तापीय चिमनी) जहाँ ताप 100 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा हुआ रहता है, मृदा में गहराई तक, बर्फ की पर्तों के कई मीटर नीचे तथा उच्च अम्लीय पर्यावरण जैसे स्थानों पर भी पाए जाते हैं। जीवाणु तथा अधिकांश कवकों के समान सूक्ष्मजीवियों को पोषक मीडिया (माध्यमों) पर उगाया जा सकता है, ताकि वृद्धि कर यह कालोनी का रूप ले लें और इन्हें नग्न नेत्रों से देखा जा सके। ऐसे संवर्धनजन सूक्ष्मजीवियों पर अध्ययन के दौरान काफी लाभदायक होते हैं। .

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हाला

हाला या द्राक्षिरा या वाइन (Wine) अंगूर के रस को किण्वित (फ़र्मेन्ट) करने से बनने वाला एक मादक पेय है। इसमें अंगूरों का किण्वन बिना किसी शर्करा, अम्ल, प्रकिण्व (एन्ज़ाइम), जल या अन्य किसी पोषक तत्व को डाले होता है। खमीर (यीस्ट) अंगूर रस में उपस्थित शर्करा को किण्वित कर के इथेनॉल व कार्बन डाईऑक्साइड में परिवर्तित कर देते हैं। अंगूर और खमीर की अलग-अलग नस्लों से अलग-अलग स्वाद, गंध व रंगों वाली हाला बनती है। हाला पर अंगूरों के उगाए जाने के स्थान, वर्षा, सूरज व अंगूरों को तोड़ने के समय का भी असर पड़ता है। अंगूरों के अलावा अन्य फलों की भी हाला बनाई जाती है हालांकि उसकी मात्रा व लोकप्रियता अंगूरों की हाला की तुलना में बहुत कम है। शहतूत, अनार, सेब, नाशपाती, आलू बुख़ारा, आलूबालू (चेरी) और अन्य फलों की हाला बनती है। हाला बनाने की प्रथा अति-प्राचीन है और कॉकस क्षेत्र में जॉर्जिया में ८,००० वर्ष पुराने हाला की सुराहियाँ मिली हैं। .

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हाइड्रोजन पेरॉक्साइड

'हाइड्रोजन परॉक्साइड (H2O2) एक बहुत हल्का नीला, पानी से जरा सा अधिक गाढ़ा द्रव है जो पतले घोल में रंगहीन दिखता है। इसमें आक्सीकरण के प्रबल गुण होते हैं और यह एक शक्तिशाली विरंजक है। इसका इस्तेमाल एक विसंक्रामक, रोगाणुरोधक, आक्सीकारक और रॉकेट्री में प्रणोदक के रूप में किया जाता है। हाइड्रोजन परॉक्साइड की आक्सीकरण क्षमता इतनी प्रबल होती है कि इसे आक्सीजन की उच्च प्रतिक्रिया वाली जाति समझा जाता है। हाइड्रोजन परॉक्साइड जीवों में आक्सीकरण चयापचय के उपोत्पाद के रूप में प्राकृतिक रूप से उत्पन्न होता है। लगभग सभी जीवित वस्तुओं (विशेषकर, सभी आब्लिगेटिव और फेकल्टेटिव वातापेक्षी जीव) में परॉक्सिडेज नामक एन्ज़ाइम होते हैं जो बिना हानि पहुंचाए और उत्प्रेरण द्वारा उदजन परूजारक की छोटी मात्राओं को पानी और आक्सीजन में विघटित करते हैं। .

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हैप्लोराइनी

हैप्लोराइनी (Haplorhini) या शुष्क-नाक नरवानर (dry-nosed primates) नरवानर गण (प्राइमेट) का एक क्लेड है जिसमें टार्सियर और सिमियन (बंदर व कपि) आते हैं। मानव भी एक प्रकार का महाकपि है इसलिये वह भी हैप्लोराइनी की श्रेणी में आता है। हैप्लोराइनी लगभग ६.३ करोड़ वर्ष पूर्व स्ट्रेपसिराइनी (Strepsirrhini) से क्रमविकास (इवोल्यूशन) द्वारा अलग हो गये थे।Groves, C.P. (2005).

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जॉन कॉर्नफोर्थ

सर जॉन वारकप कॉर्नफोर्थ, जूनियर,, एनएनडीबी (7 सितम्बर 1917 – 14 दिसम्बर 2013), ऑस्ट्रेलियाईब्रितानी रसायनज्ञ थे जिन्होंने 1975 में प्रकिण्व-उत्प्रेरक अभिक्रिया की त्रिविम रसायन पर कार्य के लिए रसायन शास्त्र में नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया।Encyclopædia Britannica.

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वर्मी वाश

वर्मीवाश (Vermiwash) एक तरल जैविक खाद है जो ताजा वर्मीकम्पोस्ट व केंचुए के शरीर को धोकर तैयार किय जाता है। वर्मीवाश के उपयोग से न केवल उत्तम गुणवत्ता युक्त उपज प्राप्त कर सकते हैं बल्कि इसे प्राकृतिक जैव कीटनाशक के रूप में भी प्रयोग किया जा सकता है। वर्मीवाश में घुलनशील नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश मुख्य पोषक तत्व होते हैं। इसके अलावा इसमें हार्मोन, अमीनो एसिड, विटामिन, एंजाइम, और कई उपयोगी सूक्ष्म जीव भी पाये जाते हैं। इसके प्रयोग से पच्चीस प्रतिशत तक उत्पादन बढ़ जाता है। .

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विऐमीनन

किसी अणु से अमीनो समूह को निकाल देना विएमीनन (Deamination) कहलाता है। जो एंजाइम इस कार्य में सहायक होते हैं उन्हें विएमीनक (deaminases) कहते हैं। मानव शरीर में विएमीनन मुख्यतः यकृत में होता है। किन्तु ग्लूटामेट का विएमीनन वृक्क में होता है। विएमीनन की प्रक्रिया के द्वारा एमिनो अम्ल तोड़े जाते हैं (यदि प्रोटीन का अधिक सेवन किया जा रहा हो)। अमीनो समूह के कोई 20 प्रकार के तेज़ाब होते हैं जिनका प्रयोग किसी न किसी बैक्टेरिया में होता है। अधिकांश बायोकेमिकल परीक्षण प्रोटीन और अमीनो तेज़ाब के प्रयोग पर आधारित होते हैं। .

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विद्युत्-रसायन

जॉन डेनियल और माइकल फैराडे (दायें तरफ), जिन्हे विद्युतरसायन का जनक माना जाता है विद्युतरसायन (eletro-chemistry), भौतिक रसायन की वह शाखा है जिसमें उन रासायनिक अभिक्रियों का अध्ययन किया जाता है जो किसी विलयन (सलूशन्) के अन्दर एक एलेक्ट्रान चालक और एक ऑयनिक चालक (विद्युत अपघट्य) के मिलन-तल (इन्टरफेस) पर होती है। इसमें इलेक्ट्रान चालक कोई धातु या अर्धचालक हो सकता है। यदि रासायनिक अभिक्रिया किसी बाहर से आरोपित विभवान्तर (वोल्टेज्) के कारण घटित होती है (जैसे विद्युत अपघटन में); या रासायनिकभिक्रिया के परिणामस्वरूप विभवान्तर पैदा होता है (जैसे बैटरी में) तो ऐसी रासायनिक अभिक्रियों को विद्युत्त्-रासायनिक अभिक्रिया (electrochemical reaction) कहते हैं। सामान्य रूप से देखें तो पाते हैं कि विद्युत रासायनिक अभिक्रियाओं में ऑक्सीकरण एवं अपचयन क्रियाएं निहित होती हैं जो समय या स्थान (स्पेस और टाइम) में अलग होती हैं और किसी बाहरी परिपथ से जुड़ी होती हैं। .

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आमाशय (पेट)

कशेरुकी, एकाइनोडर्मेटा वंशीय जंतु, कीट (आद्यमध्यांत्र) और मोलस्क सहित, कुछ जंतुओं में, आमाशय एक पेशीय, खोखला, पोषण नली का फैला हुआ भाग है जो पाचन नली के प्रमुख अंग के रूप में कार्य करता है। यह चर्वण (चबाना) के बाद, पाचन के दूसरे चरण में शामिल होता है। आमाशय, ग्रास नली और छोटी आंत के बीच में स्थित होता है। यह छोटी आंतों में आंशिक रूप से पचे भोजन (अम्लान्न) को भेजने से पहले, अबाध पेशी ऐंठन के माध्यम से भोजन के पाचन में सहायता के लिए प्रोटीन-पाचक प्रकिण्व(एन्ज़ाइम) और तेज़ अम्लों को स्रावित करता है (जो ग्रासनलीय पुरःसरण के ज़रिए भेजा जाता है).

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आर॰ऍन॰ए॰ पॉलिमरेज़

आर॰ऍन॰ए॰ पॉलिमरेज़ (RNA polymerase), जो संक्षिप्त रूप से आर॰ऍन॰ए॰पी॰ (RNAP) कहलाता है, एक प्रकार के प्रकिण्व समूह के सदस्यों को कहा जाता है जो हर जीव में पाया जाता है और जिसपर सभी जीव निर्भर हैं। RNAP दो-रज्जुओं वाले डी॰ऍन॰ए॰ को खोल देता है, जिस से उधड़े हुए डी॰ऍन॰ए॰ अणु के न्यूक्लियोटाइड अणु की बाहरी ओर आ जाते हैं और उन्हें साँचे की तरह प्रयोग कर के आर॰ऍन॰ए॰ का निर्माण करा जा सकता है। इस निर्माण प्रक्रिया को प्रतिलेखन (transcription) कहते हैं। .

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आहारीय ताम्र

आहारीय ताम्र कई एन्जाइमों में पाया जाता है। विष का प्रभाव कम करने और संक्रामक रोगों में इसका सेवन किया जाता है। तांबा ग्रहण करने से लौह विटामिन-सी तथा आहारीय जस्ता को पचाने में मदद मिलती है। लाल रक्त कणिकाएं ताम्र के बिना नही बन पातीं हैं। शरीर में इसकी कमी से व्यक्ति एनीमिक (खून की कमी से ग्रस्त) हो सकता है। .

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आहारीय पोटैशियम

पोटाशियम एक भौतिक तत्त्व है, जो मानव शरीर के लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। यह सदा ही किसी एसिड के साथ पाया जाता है। खनिज की कमी वाली मिट्टी खनिज की कमी वाला आहार उत्पन्न करती है, जिसका सेवन शरीर की कोशिकाओं से पोटाशियम लेने के लियें विवश करता है, जिससे सम्पूर्ण शरीर-रसायन विक्षुब्ध हो जाता है। पोटाशियम की कमी विशेष रूप से गर्भवती महिलाओं में मिट्टी, दीवार का चूना इत्यादि या विशिष्ट प्रकार की मिट्टी भी खाने की इच्छा पैदा करती है। पोटाशियम, पेशियों, स्नायुओं की सामान्य शक्ति, हृदय की क्रिया और एन्जाइम प्रतिक्रियाओं के लियें आवश्यक है और शरीर के तरल सन्तुलन को नियमित करने में सहायक होता है। इसकी कमी से स्मरण-शक्ति का मांसपेशियों की कमजोरी, अनियमित हृदय-गति और चिड़चिड़ापन हो सकते है। इसकी अधिकता से हृदय की अनियमितायें हो सकती है। पोटाशियम कोमल ऊतकों के लिये ्वही कार्य करता है, जो कैल्शियम शरीर के कठोर ऊतकों के लिये है। पोटाशियम कोशिकाओं के भीतर और बाहर के तरलों का विद्युत-अपघटनी सन्तुलन बनाये रखने के लिये भी महत्वपूर्ण है। आयु के साथ पोटेशियम का अन्र्तग्रहण भी बढना आवश्यक होता है। पोटाशियम की कमी मानसिक सतर्कता के अभाव, पेशियों की थकावट विक्षाम करने में कठिनाई, सर्दी-जुकाम, कब्ज, मतली, त्वचा की खुजली और शरीर की मांसपेशियों में ऐठन के रूप में दिखाई होती है। सोडियम का बढा हुआ अन्र्तग्रहण शरीर की कोशिकाओं में से पोटैशियम की हानि को बढा देता है। अधिक पोटाशियम से रक्त-नलिकाओं की दीवारें कैल्शियम निक्षेप से मुक्त रखी जा सकती है। विकसित देशों में सेब के आसव का सिरका पोटेशियम का एक उत्तम स्रोत है। यह शरीर की वसाओं को जलाने में मदद करता है। गायों पर किये गये प्रयोगों में सेब के आसव के सिरके से गायों में गठिया समाप्त हो गया अरुअ दूध का उत्पादन बढ गया। .

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आहारीय मैग्नीज़

आहारीय मैग्नीज का मानव शरीर के सुरक्षा-तंत्रों से सीधे सम्बद्ध है। यह विधि एंजाइमों को सक्रिय करता है और विटामिन ‘बी’ तथा ‘ई’ के उचित उपयोग में सहायता देता है यह पाचन में मदद करता है। मैग्नीज मधुमेह के लिए भी लाभदायक होता है क्योंकि यह ग्लूकोज सहन शक्ति बढाता है। प्रायः मैग्नीज की कमी मानवों में नहीं पाई जाती। इसकी अधिक मात्रा शरीर की लोहा सोखने की क्षमता कम कर देती है। .

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आहारीय जस्ता

आहारीय जस्ता शरीर में कई एन्जाइमों के लिये सह-घटक के रूप में कई कार्य करता है। यह ऊतकों के सामान्य कार्य में सहायता करता है और शरीर में प्रोटीन और कार्बोजों को संभालने के लिए आवश्यक है। जस्ते की कमी मघपान, आहार के परिष्कार, कम प्रोटीन के आहार, जुकाम, गर्भावस्था और रोग के कारण हो सकती है। जस्ते की कमी यकृत से विटामिन ‘ए’ के मोचन को कम कर देती है। इस प्रकार की कमी के परिणाम हो सकते है। आहार में जस्ते की कमी के कारण स्वाद और भूख की कमी, घाव भरने में विलम्ब, गंजापन, वृद्धि में विलम्ब, हृदय-रोग, मानसिक रोग, विलम्बित यौन परिपकवता और प्रजनन – संबंधी दुष्क्रिया हो सकते हैं। मध्य-पूर्व के कुछ देशों में बौनापन का कारण आहार में जस्ते की कमी को ही माना जाता है। जस्ता अपेक्षाकृत अविषाक्त है। आंतों में शरीर के लिये अनावश्यक जस्ते की अतिरिक्त मात्रा को समाप्त करने के लिये कार्यकुशल यंत्र-रेचन है। आयु के साथ जस्ते की कमी संभावना बढती है। .

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कोलेजन

ट्रोपोकोलेजन ट्रिपल हेलिक्स. कोलेजन एक स्वाभाविक रूप से पाए जाने वाले प्रोटीन का समूह है। प्रकृति में, यह जानवरों में विशेष रूप से पाया जाता है। यह संयोजी ऊतक का मुख्य प्रोटीन है। यह स्तनपायियों में प्रचुर मात्रा में पाया जाने वाला प्रोटीन है, जो समग्र-शरीर की प्रोटीन सामग्री का लगभग 25% से 35% अंश बनता है। मांसपेशी ऊतक में यह एंडोमिशियम के एक प्रमुख घटक के रूप में कार्य करता है। मांसपेशी ऊतक का 1% से 2% कोलेजन से बना है और मज़बूत, कंडरीय मांसपेशियों के वज़न का 6% इससे गठित है। जिलेटिन, जिसका खाद्य और उद्योग में प्रयोग किया जाता है, कोलेजन से व्युत्पन्न है। .

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अलेक्ज़ांडर फ्लेमिङ

Faroe Islands stamp commemorating Fleming पेन्सिलिन के आविष्कारक अलेक्जेंडर फ्लेमिंग (Sir Alexander Fleming (6 अगस्त 1881 – 11 मार्च 1955)), स्कॉटलैण्ड के जीववैज्ञानिक एवं औषधिनिर्माता (pharmacologist) थे। उनकी प्रसिद्धि पेनिसिलिन के आविष्कारक के रूप में है (१९२८)। उन्होने जीवाणुविज्ञान (बैक्टिरिओलॉजी), रोग-प्रतिरक्षा-विज्ञान ९immunology) एवं रसचिकित्सा (केमोथिरैपी) आदि विषयों के ऊपर अनेक शोधपत्र प्रकाशित किये। उन्होने सन् १९२३ में लिसोजाइम (lysozyme) नामक एंजाइम की खोज भी की। पेनिसिलिन के आविष्कार के लिये उन्हें सन् १९४५ में संयुक्त रूप से चिकित्सा का नोबेल सम्मान दिया गया। .

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अग्नि (आयुर्वेद)

आयुर्वेद के अनुसार पाचन एवं उपापचय की सभी क्रियाएं अग्नि के द्वारा सम्पन्न होतीं हैं। इसको 'पक्वाग्नि' कहते हैं। अग्नि को आहार नली, यकृत तथा ऊतक कोशिकाओं में मौजूद एंजाइम के रूप में समझा जा सकता है। अग्नि चार प्रकार की होती है.

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अंतः गर्भाशयी युक्ति

ताँबे की टी-आकार वाली अंतःगर्भाशयी युक्ति, जिसे निकालने के लिये डोरियाँ लगी हैं। अंतः गर्भाशयी युक्ति (इंट्रा यूट्राइन डिवाइस - आई यू डी) गर्भधारण को रोकने वाला एक उपकरण है। यह छोटा, अक्सर T-आकार का होता है जिसे महिला के गर्भाशय में डाला जाता है। ये युक्तियाँ डॉक्टरों या अनुभवी नर्सों द्वारा योनि मार्ग से गर्भाशय में लगाई जाती हैं। यह युक्ति एक लंबे समय तक काम करने वाली प्रतिवर्ती जन्म नियंत्रण का एक रूप है। जन्म नियंत्रण विधियों में, आईयूडी, गर्भनिरोधक प्रत्यारोपण के साथ, उपयोगकर्ताओं के बीच सबसे अधिक संतुष्टि देने वाली साबित हुई है। साक्ष्य, किशोरों में इसकी प्रभावशीलता और सुरक्षा का समर्थन करते हैं और उनमें भी समर्थन करते हैं जिनके पास पहले से या तो बच्चे थे या नहीं थे। एक बार इसे हटाने के बाद, लंबी अवधि के उपयोग के बाद भी, प्रजननशीलता जल्द ही सामान्य रूप में वापस आती है। विफलता दर तांबे के उपकरणों के साथ 0.8% और उपयोग के पहले वर्ष में हार्मोनल (लेवोनोर्जेस्ट्रल) उपकरणों के साथ 0.2% हैं। तांबे की आईयूडी से मासिक धर्म में खून बह रहा हो सकता है और अधिक दर्दनाक ऐंठन में वृद्धि हो सकती है, जबकि हार्मोनल युक्ति मासिक धर्म के खून बहने को कम कर सकती है या मासिक धर्म पूरी तरह बंद कर सकती है। क्रैम्पिंग का गैर स्टेरॉयडल सूजन-विरोधी दवा के साथ इलाज किया जा सकता है। अन्य संभावित जटिलताओं में निष्कासन (2-5%) और कभीकभार ही गर्भाशय में छिद्र (0.7% से भी कम) शामिल हैं। अंतः गर्भाशयी युक्तियाँ स्तनपान को प्रभावित नहीं करती है और डिलीवरी के तुरंत बाद डाली जा सकती हैं। गर्भपात के तुरंत बाद भी उनका इस्तेमाल किया जा सकता है। .

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उत्प्रेरण

जब किसी रासायनिक अभिक्रिया की गति किसी पदार्थ की उपस्थिति मात्र से बढ जाती है तो इसे उत्प्रेरण (Catalysis) कहते हैं। जिस पदार्थ की उपस्थिति से अभिक्रिया की गति बढ जाती है उसे उत्प्रेरक (catalyst) कहते हैं। उत्प्रेरक अभिक्रिया में भाग नहीं लेता, केवल क्रिया की गति को प्रभावित करता है। औद्योगिक रूप से महत्वपूर्ण रसायनों के निर्माण में उत्प्रेरकों की बहुत बड़ी भूमिका है, क्योंकि इनके प्रयोग से अभिक्रिया की गति बढ जाती है जिससे अनेक प्रकार से आर्थिक लाभ होता है और उत्पादन तेज होता है। इसलिये उत्प्रेरण के क्षेत्र में अनुसंधान के लिये बहुत सा धन एवं मानव श्रम लगा हुआ है। .

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उपसहसंयोजक यौगिक

सिसप्लेटिन, PtCl2(NH3)2 इसमें एक प्लेटिनम परमाणु के साथ चार संलग्नी (लिगण्ड) हैं। रसायन विज्ञान में उपसहसंयोजक यौगिक (coordination complex या metal complex) उन यौगिकों को कहते हैं जिनमें कोई परमाणु या आयन (प्रायः धात्विक) उसको घेरे हुए अणुओं या धनायनों के व्यूह (array) से जुड़ा हो। बहुत से धातु-युक्त यौगिक उपसहसंयोजक यौगिक ही हैं। 'उपसहसंयोजक यौगिक' का और अधिक व्यापक परिभाषा यह है - अनेकों प्रकार के उपसहसंयोजक यौगिक मौजूद हैं जिनमें जलीय विलयन में धातु (जल के अणुओं से उपसहसंयोजित) से लेकर विभिन्न जैवरासायनिक प्रक्रियाओं में भाग लेने वाले जटिल धात्विक एंजाइम आदि हैं। उपसहसंयोजक बन्ध तब बनता है जब साझेदारी में जब एक ही तत्व द्वारा दोनों इलेक्ट्रान दिये जायँ। जो तत्व इलेक्ट्रान युग्म देता है वह दाता (donor) है और दूसरा वाला ग्राही (acceptor) है। इसे प्राय: तीर द्वारा (-->) प्रदर्शित किया जाता है। हाइड्रोजन पराक्साइड, सल्फर डाइआक्साइड, हाइड्रोनियम आयन, फेरोसायनाइड आदि इसके कुछ उदाहरण हैं। .

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PH

पीएच या pH, किसी विलयन की अम्लता या क्षारकता का एक माप है। इसे द्रवीभूत हाइड्रोजन आयनों (H+) की गतिविधि के सह-लघुगणक (कॉलॉगरिदम) के रूप में परिभाषित किया जाता है। हाइड्रोजन आयन के गतिविधि गुणांक को प्रयोगात्मक रूप से नहीं मापा जा सकता है, इसलिए वे सैद्धांतिक गणना पर आधारित होते हैं। pH स्केल, कोई सुनिश्चित स्केल नहीं है; इसका संबंध मानक विलयन के एक सेट (समुच्चय) के साथ होता है जिसके pH का आकलन अंतर्राष्ट्रीय संविदा के द्वारा किया जाता है। pH की अवधारणा को सबसे पहले 1909 में कार्ल्सबर्ग लैबॉरेट्री के डेनिश रसायनशास्त्री, सॉरेन पेडर लॉरिट्ज़ सॉरेनसेन ने प्रस्तुत किया था। यह अभी भी अज्ञात है कि p की सटीक परिभाषा क्या है। कुछ संदर्भों से पता चलता है कि p, "पावर" (“Power”)कार्ल्सबर्ग ग्रूप कंपनी के इतिहास का पृष्ठ, http://www.carlsberggroup.com/Company/Research/Pages/pHValue.aspx का प्रतीक है और अन्य इसे जर्मन शब्द "पोटेंज़" (“Potenz”) (जर्मन में जिसका अर्थ, पावर या शक्ति होता है)वाटरलू विश्वविद्यालय - pH स्केल, http://www.science.uwaterloo.ca/~cchieh/cact/c123/ph.html के रूप में संदर्भित करते हैं और अभी भी अन्य इसे "पोटेंशियल" (“potential” या विभव) के रूप में संदर्भित करते हैं। जेंस नॉर्बी ने 2000 में एक पत्र प्रकाशित किया जिसमें उसने तर्क दिया कि p, एक स्थिरांक है और "ऋणात्मक लघुगणक"नॉर्बी, जेंस.

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