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भास और राजशेखर

शॉर्टकट: मतभेद, समानता, समानता गुणांक, संदर्भ

भास और राजशेखर के बीच अंतर

भास vs. राजशेखर

भास संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध नाटककार थे जिनके जीवनकाल के बारे में अधिक पता नहीं है। स्वप्नवासवदत्ता उनके द्वारा लिखित सबसे चर्चित नाटक है जिसमें एक राजा के अपने रानी के प्रति अविरहनीय प्रेम और पुनर्मिलन की कहानी है। कालिदास जो गुप्तकालीन समझे जाते हैं, ने भास का नाम अपने नाटक में लिया है, जिससे लगता है कि वो गुप्तकाल से पहले रहे होंगे पर इससे भी उनके जीवनकाल का अधिक ठोस प्रमाण नहीं मिलता। आज कई नाटकों में उनका नाम लेखक के रूप में उल्लिखित है पर १९१२ में त्रिवेंद्रम में गणपति शास्त्री ने नाटकों की लेखन शैली में समानता देखकर उन्हें भास-लिखित बताया। इससे पहले भास का नाम संस्कृत नाटककार के रूप में विस्मृत हो गया था। . राजशेखर (विक्रमाब्द 930- 977 तक) काव्यशास्त्र के पण्डित थे। वे गुर्जरवंशीय नरेश महेन्द्रपाल प्रथम एवं उनके बेटे महिपाल के गुरू एवं मंत्री थे। उनके पूर्वज भी प्रख्यात पण्डित एवं साहित्यमनीषी रहे थे। काव्यमीमांसा उनकी प्रसिद्ध रचना है। समूचे संस्कृत साहित्य में कुन्तक और राजशेखर ये दो ऐसे आचार्य हैं जो परंपरागत संस्कृत पंडितों के मानस में उतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं जितने रसवादी या अलंकारवादी अथवा ध्वनिवादी हैं। राजशेखर लीक से हट कर अपनी बात कहते हैं और कुन्तक विपरीत धारा में बहने का साहस रखने वाले आचार्य हैं। .

भास और राजशेखर के बीच समानता

भास और राजशेखर आम में 6 बातें हैं (यूनियनपीडिया में): नाटक, महाभारत, रस (काव्य शास्त्र), रामायण, संस्कृत साहित्य, काव्यमीमांसा

नाटक

नाटक, काव्य का एक रूप है। जो रचना श्रवण द्वारा ही नहीं अपितु दृष्टि द्वारा भी दर्शकों के हृदय में रसानुभूति कराती है उसे नाटक या दृश्य-काव्य कहते हैं। नाटक में श्रव्य काव्य से अधिक रमणीयता होती है। श्रव्य काव्य होने के कारण यह लोक चेतना से अपेक्षाकृत अधिक घनिष्ठ रूप से संबद्ध है। नाट्यशास्त्र में लोक चेतना को नाटक के लेखन और मंचन की मूल प्रेरणा माना गया है। .

नाटक और भास · नाटक और राजशेखर · और देखें »

महाभारत

महाभारत हिन्दुओं का एक प्रमुख काव्य ग्रंथ है, जो स्मृति वर्ग में आता है। कभी कभी केवल "भारत" कहा जाने वाला यह काव्यग्रंथ भारत का अनुपम धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ हैं। विश्व का सबसे लंबा यह साहित्यिक ग्रंथ और महाकाव्य, हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। इस ग्रन्थ को हिन्दू धर्म में पंचम वेद माना जाता है। यद्यपि इसे साहित्य की सबसे अनुपम कृतियों में से एक माना जाता है, किन्तु आज भी यह ग्रंथ प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय स्रोत है। यह कृति प्राचीन भारत के इतिहास की एक गाथा है। इसी में हिन्दू धर्म का पवित्रतम ग्रंथ भगवद्गीता सन्निहित है। पूरे महाभारत में लगभग १,१०,००० श्लोक हैं, जो यूनानी काव्यों इलियड और ओडिसी से परिमाण में दस गुणा अधिक हैं। हिन्दू मान्यताओं, पौराणिक संदर्भो एवं स्वयं महाभारत के अनुसार इस काव्य का रचनाकार वेदव्यास जी को माना जाता है। इस काव्य के रचयिता वेदव्यास जी ने अपने इस अनुपम काव्य में वेदों, वेदांगों और उपनिषदों के गुह्यतम रहस्यों का निरुपण किया हैं। इसके अतिरिक्त इस काव्य में न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र का भी विस्तार से वर्णन किया गया हैं। .

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रस (काव्य शास्त्र)

श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण में जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही काव्य में रस कहलाता है। रस से जिस भाव की अनुभूति होती है वह रस का स्थायी भाव होता है। रस, छंद और अलंकार - काव्य रचना के आवश्यक अवयव हैं। रस का शाब्दिक अर्थ है - निचोड़। काव्य में जो आनन्द आता है वह ही काव्य का रस है। काव्य में आने वाला आनन्द अर्थात् रस लौकिक न होकर अलौकिक होता है। रस काव्य की आत्मा है। संस्कृत में कहा गया है कि "रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्" अर्थात् रसयुक्त वाक्य ही काव्य है। रस अन्त:करण की वह शक्ति है, जिसके कारण इन्द्रियाँ अपना कार्य करती हैं, मन कल्पना करता है, स्वप्न की स्मृति रहती है। रस आनंद रूप है और यही आनंद विशाल का, विराट का अनुभव भी है। यही आनंद अन्य सभी अनुभवों का अतिक्रमण भी है। आदमी इन्द्रियों पर संयम करता है, तो विषयों से अपने आप हट जाता है। परंतु उन विषयों के प्रति लगाव नहीं छूटता। रस का प्रयोग सार तत्त्व के अर्थ में चरक, सुश्रुत में मिलता है। दूसरे अर्थ में, अवयव तत्त्व के रूप में मिलता है। सब कुछ नष्ट हो जाय, व्यर्थ हो जाय पर जो भाव रूप तथा वस्तु रूप में बचा रहे, वही रस है। रस के रूप में जिसकी निष्पत्ति होती है, वह भाव ही है। जब रस बन जाता है, तो भाव नहीं रहता। केवल रस रहता है। उसकी भावता अपना रूपांतर कर लेती है। रस अपूर्व की उत्पत्ति है। नाट्य की प्रस्तुति में सब कुछ पहले से दिया रहता है, ज्ञात रहता है, सुना हुआ या देखा हुआ होता है। इसके बावजूद कुछ नया अनुभव मिलता है। वह अनुभव दूसरे अनुभवों को पीछे छोड़ देता है। अकेले एक शिखर पर पहुँचा देता है। रस का यह अपूर्व रूप अप्रमेय और अनिर्वचनीय है। .

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रामायण

रामायण आदि कवि वाल्मीकि द्वारा लिखा गया संस्कृत का एक अनुपम महाकाव्य है। इसके २४,००० श्लोक हैं। यह हिन्दू स्मृति का वह अंग हैं जिसके माध्यम से रघुवंश के राजा राम की गाथा कही गयी। इसे आदिकाव्य तथा इसके रचयिता महर्षि वाल्मीकि को 'आदिकवि' भी कहा जाता है। रामायण के सात अध्याय हैं जो काण्ड के नाम से जाने जाते हैं। .

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संस्कृत साहित्य

बिहार या नेपाल से प्राप्त देवीमाहात्म्य की यह पाण्डुलिपि संस्कृत की सबसे प्राचीन सुरक्षित बची पाण्डुलिपि है। (११वीं शताब्दी की) ऋग्वेदकाल से लेकर आज तक संस्कृत भाषा के माध्यम से सभी प्रकार के वाङ्मय का निर्माण होता आ रहा है। हिमालय से लेकर कन्याकुमारी के छोर तक किसी न किसी रूप में संस्कृत का अध्ययन अध्यापन अब तक होता चल रहा है। भारतीय संस्कृति और विचारधारा का माध्यम होकर भी यह भाषा अनेक दृष्टियों से धर्मनिरपेक्ष (सेक्यूलर) रही है। इस भाषा में धार्मिक, साहित्यिक, आध्यात्मिक, दार्शनिक, वैज्ञानिक और मानविकी (ह्यूमैनिटी) आदि प्राय: समस्त प्रकार के वाङ्मय की रचना हुई। संस्कृत भाषा का साहित्य अनेक अमूल्य ग्रंथरत्नों का सागर है, इतना समृद्ध साहित्य किसी भी दूसरी प्राचीन भाषा का नहीं है और न ही किसी अन्य भाषा की परम्परा अविच्छिन्न प्रवाह के रूप में इतने दीर्घ काल तक रहने पाई है। अति प्राचीन होने पर भी इस भाषा की सृजन-शक्ति कुण्ठित नहीं हुई, इसका धातुपाठ नित्य नये शब्दों को गढ़ने में समर्थ रहा है। संस्कृत साहित्य इतना विशाल और scientific है तो भारत से संस्कृत भाषा विलुप्तप्राय कैसे हो गया? .

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काव्यमीमांसा

राजशेखर संस्क्रत कवि थे। काव्यमीमांसा कविराज राजशेखर (८८०-९२० ई.) कृत काव्यशास्त्र संबंधी मानक ग्रंथ है। 'काव्यमीमांसा' का अभी तक केवल प्रथम अधिकरण 'कविरहस्य' ही प्राप्त है और इसके भी मात्र १८ अध्याय ही मिलते हैं। १९वाँ अध्याय 'भुवनकोश' अप्राप्त है। किंतु 'कविरहस्य' अधिकरण के प्रथम तीन अध्यायों से पता चलता है कि कृतिकार ने काव्यमीमांसा में १९ अधिकरणों का समायोजन किया था और प्रत्येक अधिकरण में विषयानुरूप कई-कई अध्याय थे। उपलब्ध 'कविरहस्य' शीर्षक अधिकरण में मुख्यत: कवि शिक्षा संबंधी सामग्री है, यद्यपि लेखक ने "गुणवदलङकृतंच काव्यम" (अध्याय ६, पंक्ति २६) सूत्र के माध्यम से काव्य की परिभाषा भी प्रस्तुत की है तथापि इसका सविस्तार विवेचन नहीं किया है। हो सकता है, अगले अधिकरणों में कहीं उक्त विवेचन किया गया हो जो अब अप्राप्त हैं। 'कविरहस्य' अधिकरण के प्रथम अध्याय में राजशेखर ने काव्यशास्त्र के मूल स्रोत पर प्रकाश डालने के अतिरिक्त इसके अंतर्गत परिगणित होनेवाले विषयों की लंबी सूची भी दी है। दूसरे अध्याय में वैदिक वाङ्मय और उत्तरवदिक साहित्य के सन्दर्भ में काव्यशास्त्र का स्थान निश्चित करने के उपरांत, इसको सातवाँ वेदांग (वेदांग छह हैं) तथा १५वीं विद्या (विद्याएँ १४ हैं) कहा गया है। तीसरे अध्याय में ब्रह्मा एवं सरस्वती से काव्यपुरुष की उत्पत्ति, वाल्मीकि एवं व्यास से उसका संबंध, काव्यपुरुष का साहित्यविद्या से विवाह, पति पत्नी का भारत भर में भ्रमण और उनसे विभिन्न स्थानों पर वृत्तियों, प्रवृत्तियों तथा रीतियों का जन्म तथा अंत में काव्यपुरुष एवं साहित्यविद्या द्वारा कविमानस में स्थायी निवास का संकल्प वर्णित है। चौथे से नवें अध्याय तक पदवाक्यविवेक, काव्यपाककल्प, पाठप्रतिष्ठा, काव्यार्थयोनियाँ तथा अर्थव्याप्ति इत्यादि विषयों पर विचार किया गया है। १०वें अध्याय में कविचर्या तथा राजचर्या का सम्यक् उल्लेख है। ११वें से १८वें अध्याय तक शब्दहरण, काव्यहरण, कविसमय, भारत तथा संसार के भूगोल, घटनाओं, स्थानों एवं व्यक्तियों के वर्णन की प्राचीन पद्धतियों, कालगणना तथा ऋतुपरिवर्तनों का परिचय है। काव्यमीमांसा में प्रत्यक्षकवि (समसामयिक कवि) के बारे में कहा है- किसी किसी प्रत्यक्ष कवि का काव्य, कुलवती स्त्री का रूप और घर के वैद्य की विद्या ही अच्छी लगती है। अर्थात् अधिकांश प्रत्यक्ष कवियों का काव्य, कुलवती स्त्रियों का रूप और घर के वैद्यों की विद्या रुचिकर नहीं लगती। .

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सूची के ऊपर निम्न सवालों के जवाब

भास और राजशेखर के बीच तुलना

भास 32 संबंध है और राजशेखर 22 है। वे आम 6 में है, समानता सूचकांक 11.11% है = 6 / (32 + 22)।

संदर्भ

यह लेख भास और राजशेखर के बीच संबंध को दर्शाता है। जानकारी निकाला गया था, जिसमें से एक लेख का उपयोग करने के लिए, कृपया देखें:

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