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जार्ज विल्हेम फ्रेड्रिक हेगेल

सूची जार्ज विल्हेम फ्रेड्रिक हेगेल

जार्ज विलहेम फ्रेड्रिक हेगेल (1770-1831) सुप्रसिद्ध दार्शनिक थे। वे कई वर्ष तक बर्लिन विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रहे और उनका देहावसान भी उसी नगर में हुआ। .

35 संबंधों: एडम स्मिथ, तर्कशास्त्र, दार्शनिक, नव अफलातूनवाद, नवहेगेलवाद, पाश्चात्य दर्शन, प्लेटो, फ्रेडरिख शेलिंग, फ्रेडरिक एंगेल्स, फ्रेडरिक नीत्शे, फ्रेडरिक शिलर, बर्लिन, बारूथ स्पिनोज़ा, बेनेदितो क्रोचे, मार्टिन हाइडेगर, मार्क्सवाद, योहान वुल्फगांग फान गेटे, राजनीतिक दर्शन, रूसो, रेने देकार्त, श्टुटगार्ट, सिमोन द बोउआर, सौन्दर्यशास्त्र, सॉरन किअर्केगार्ड, हम्बोल्ट बर्लिन विश्वविद्यालय, हेरक्लिटस, हेगेल का दर्शन, जर्मनी, ज़ाक देरिदा, ज्यां-पाल सार्त्र, जोहान्न गोत्त्लिएब फिचते, गाटफ्रीड लैबनिट्ज़, इमानुएल काण्ट, कार्ल मार्क्स, अरस्तु

एडम स्मिथ

अर्थशास्त्री '''एडम स्मिथ''' एडम स्मिथ (५जून १७२३ से १७ जुलाई १७९०) एक स्कॉटिश नीतिवेत्ता, दार्शनिक और राजनैतिक अर्थशास्त्री थे। उन्हें अर्थशास्त्र का पितामह भी कहा जाता है।आधुनिक अर्थशास्त्र के निर्माताओं में एडम स्मिथ (जून 5, 1723—जुलाई 17, 1790) का नाम सबसे पहले आता है.

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तर्कशास्त्र

तर्कशास्त्र शब्द अंग्रेजी 'लॉजिक' का अनुवाद है। प्राचीन भारतीय दर्शन में इस प्रकार के नामवाला कोई शास्त्र प्रसिद्ध नहीं है। भारतीय दर्शन में तर्कशास्त्र का जन्म स्वतंत्र शास्त्र के रूप में नहीं हुआ। अक्षपाद! गौतम या गौतम (३०० ई०) का न्यायसूत्र पहला ग्रंथ है, जिसमें तथाकथित तर्कशास्त्र की समस्याओं पर व्यवस्थित ढंग से विचार किया गया है। उक्त सूत्रों का एक बड़ा भाग इन समस्याओं पर विचार करता है, फिर भी उक्त ग्रंथ में यह विषय दर्शनपद्धति के अंग के रूप में निरूपित हुआ है। न्यायदर्शन में सोलह परीक्षणीय पदार्थों का उल्लेख है। इनमें सर्वप्रथम प्रमाण नाम का विषय या पदार्थ है। वस्तुतः भारतीय दर्शन में आज के तर्कशास्त्र का स्थानापन्न 'प्रमाणशास्त्र' कहा जा सकता है। किंतु प्रमाणशास्त्र की विषयवस्तु तर्कशास्त्र की अपेक्षा अधिक विस्तृत है। .

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दार्शनिक

जो दर्शन पर मनन करे वह दार्शनिक हुआ। .

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नव अफलातूनवाद

नव अफलातूनवाद (Neoplatonism yaa Neo-Platonism) यूनानी दर्शन का अंतिम संप्रदाय, जिसने ईसा की तीसरी शताब्दी में विकसित होकर, पतनोन्मुख यूनानी दर्शन को, लगभग पौने तीन सौ वर्ष, अथवा 529 ई. में रोमन सम्राट् जस्टिन की आज्ञा से एथेंस की अकादमी के बंद किए जाने तक, जीवित रखा। संस्थापकों ने इस संप्रदाय का नाम अफलातून से जोड़कर, एक ओर तो सर्वश्रेष्ठ समझे जानेवाले यूनानी दार्शनिक के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट की; दूसरी ओर, विषम परिस्थितियों में अपने मत की प्रामाणिकता सिद्ध करने का इससे अच्छा कोई उपाय न था। इसके नाम से यह अनुमान करना कि यह अफलातून के मत का अनुवर्तन मात्र था, समीचीन नहीं। यूनानी दर्शन का प्रारंभ पाश्चात्य सभ्यता के शैशव काल में हुआ था। अफलातून तथा उसके शिष्य, अरस्तू, के दर्शन तक उक्त दर्शन अपने विकास की चरम सीमा पर पहुँच गया था। किंतु, विश्व तथा मानव की मौलिक समस्याओं का काई संतोषप्रद समाधान नहीं दिया जा सका था। अफलातून के दर्शन का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यही हैं कि उसमें उन सभी विचारसूत्रों को सहेजकर रखा गया है, जो प्रारंभ से लेकर अफलातून के समय तक के संपूर्ण सांस्कृतिक विकास का चित्र प्रस्तुत कर देते हैं। यह प्रवृत्ति प्लेटो के बाद के अन्य संप्रदायों में भी पाई जाती है। किंतु अंतिम संप्रदाय, नवअफलातूनवाद में, अफलातून के मौलिक विचरों से शिक्षा प्राप्त करने के साथ साथ, परवर्ती दर्शनसंप्रदायों के मतों से भी लाभ प्राप्त किया गया है। इस प्रकार, यह दर्शन यूनानी दर्शन के क्रमिक विकास का फल कहा जा सकता है। इसके संबंध में सबसे आवश्यक तथ्य यह है कि बदलती हुई परिस्थितियों में, इसने धर्मनिरपेक्ष यूनानी दर्शन को रोमन साम्राज्य के मनोनुकूल बनाने का प्रयत्न किया। इसकी गतिविधि समझने के लिए, अफलातून से लेकर ईसा की तीसरी शताब्दी तक बिखरे हुए विचारसूत्रों पर निगाह डालने की आवश्यकता है। यूनान के जीवन तथा दर्शन में क्रांति की लहर दौड़ाने का श्रेय सुकरात (469-399 ई.पू.) को प्राप्त है। उस संत ने आजीवन अपने समय के तथाकथित ज्ञान की आलोचना की और नैतिक चिंतन तथा धार्मिक अनुभव के अभाव पर खीझ प्रकट की। सुकरात से प्रभावित होकर, अफलातून (437-347 ई.पू.) ने पूर्ववर्ती विचारों को व्यवस्थित दर्शन का रूप देने का प्रयत्न किया। उसने पार्मेनाइडिज़ (540-470 ई.पू.) की प्रत्ययात्मक सत्ता को दृष्ट जगत्‌ का मूल कारण मानकर, सूक्ष्म तथा स्थूल, एक एवं अनेक का तथा हेराक्लाइटस (मृत्यु. 475 ई.पू.) के अनुसार चेतन एवं अचेतन का समन्वय करना चाहा था। किंतु, सूक्ष्म प्रत्यय एवं स्थूल वस्तु में यौक्तिक विरोध होने के कारण, उसे दोनों को संबद्ध करने के लिए किसी बीच की कड़ी की जरूरत थी। पूर्ववर्ती भौतिकवादियों के समने यह प्रश्न प्रस्तुत ही नहीं हुआ था, क्योंकि वे विश्व में किसी द्वैत की कल्पना ही नहीं करते थे। पार्मेनाइडिज़ तथा उसके अनुयायी, इलिया के दूसरे सत्तावादियों के सामने भी द्वैत का प्रश्न न था। वे सभी तो अद्वैतवादी थे। हेराक्लाइटस में द्वैत का प्रश्न न था। वे सभी तो अद्वैतवादी थे। हेराक्लाइटस में द्वैत की थोड़ी झलक थी, क्योंकि उसने एक और अनेक का प्रश्न उठाया था। पर, अपने रूपांतर के सिद्धांत से हल भी कर लिया था। यद्यपि रूपांतर के सिद्धांत से हल होता नहीं था, क्योंकि एक और अनेक का रूपांतर मान लेने पर गति, जिसे उसने विश्व का व्यापक नियम माना था, मात्र भ्रम ठहरती थी। अफलातून समन्वय कर रहा था। वह व्यवहार की सार्थकता की दृष्टि से इंद्रियसंवेद्य जगत्‌ को असत्‌ मानना नहीं चाहता था। प्रत्यय भी असत्‌ नहीं हो सकता था, क्योंकि यदि वह प्रत्यय को असत्‌ मान लेता तो सत्‌ की उत्पत्ति असत्‌ से माननी पड़ती। दोनों को कायम रखने के प्रयत्न में, उसने दो संसारों की, प्रत्यय जगत्‌ और वस्तु जगत्‌ की कल्पना की। किंतु दोनों में तारतम्य बनाए रखने के लिए प्रत्ययों को वस्तुओं का सार स्वीकार किया। अरस्तू ने अफलातून द्वारा स्थापित द्वैत को मिटाने का बहुत प्रयत्न किया। पर, वह भी आकार और पदार्थ के द्वैत की ही स्थापना कर सका। अफलातून को नैतिक समस्या सुलझाने में भी कोई बड़ी सफलता न मिल सकी, क्योंकि उसने उच्चतम प्रत्यय में, जिसे उसने संसार का मूल कारण माना था, सत्य, शुभ और सुंदर का समन्वय कर, अपने उत्तरदायित्व से मुक्ति ले ली। र्ध्म की समस्या भी वहीं रह गई थी, जहाँ उसे सुकरात और पाइथागोरस ने छोड़ दिया था। दोनों दार्शनिकों ने मानसिक तन्मयता में उच्चतम सत्य की अनुभूति के साक्ष्य प्रस्तुत किए थे, किंतु उस अनुभूति का कोई सैद्धांतिक विवेचन नहीं किया था। अरस्तू के जीवन (384-323 ई.पू.) के साथ ही साथ यूनानी राजसत्ता का लोप हो गया और एथेंस के दार्शनिकों को समीपवर्ती पूर्वी देशों में शरण लेनी पड़ी। वहाँ, खासकर, अलेक्ज़ेंड्रिया में वे नवोदित ईसाई धर्म के संपर्क में आए। तब उन्हें पता चला कि उस धर्म में भी, अफलातून के दर्शन की भाँति, द्वैत सत्ताओं की कल्पना विद्यमान थी। मध्यस्थ की कल्पना भी उसी प्रकार थी अंतर इतना ही था कि ईसाई धर्म के ईश्वर में व्यक्तित्व था। पर, यह तो काफ़ी जँचनेवाली बात थी। उचचतम प्रत्यय की अपेक्षा ईश्वर व्यक्ति से जगत्‌ के कारण, नियंता एवं पोषक बनने की आकांक्षा करना मानव बुद्धि के लिए अधिक रुचिकर था। अतएव अलेक्ज़ेंड्रिया के दार्शनिकों ने अफलातून की मौलिक सत्ता और ईसाई धर्म के ईश्वर की एकता का प्रतिपादन किया। फ़िलो (20/30 ई.पू.- 40 ई.) के दर्शन में यूनानी दर्शन ओर ईसाई धर्म के मिश्रण के पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं। कठिनाई यह थी कि ईसाई धर्म में मध्यस्थ की कल्पना समुचित न थी। इसके लिए स्टोइक दार्शनिकों का स्मरण किया गया। स्टोइक भौतिक अद्वैतवादी होने के नाते जगत्‌ तथा ईश्वर दोनों को परस्पर संबद्ध रखने के लिए उन्हें भी किसी मध्यस्थ की कल्पना करनी थी। हेराक्लाइटस ने अग्नि को प्रथम तत्व कहा था। स्टोइकों ने अग्नि तथा बुद्धि में कोई अंतर न पाया। अतएव उन्होंने यह मान लिया कि जैसे अग्नि भौतिक पदार्थ होते हुए भी चारों ओर अपना ताप वितरित करती है, उसी प्रकार ईश्वर बुद्धि का प्रसार करता है, जो संसार और मनुष्य दोनों में व्याप्त हो जाती है। इसी संकेत के आधार पर, फिलो ने 'लोगस' को ईश्वर और जगत्‌ के बीच की कड़ी मान लिया। किंतु फिलो का 'लागस' पदार्थ न था। वह ईश्वर की शक्ति है, विचार है, जो प्रति शरीर भिन्न होकर 'लोगाई' (बहुवचन) भी बन सकता है। पदार्थ को फिलो ने आत्मा का बंधन माना था। इसलिए उसे ईश्वर और लोगस से अलग रखा था। इसी फिलो की विचारधारा ने तीसरी शताब्दी तक नव अफलातूनवाद का रूप लिया। संस्थापक के स्थान पर अमोनियस सैक्कस का नाम लिया जाता है, किंतु वह हमारे लिए केवल एक नाम है। संभवत:, 242 ई. के आसपास उसकी मृत्यु हुई थी। उसके दर्शन का ज्ञान हमें उसके शिष्य, प्लाटिनस, के ग्रंथों से होता है। उसका जन्म मिस्र देश के लाइकोपोलिस नामक स्थान में, 204 ई. के आसपास अनुमित है। 245 ई. में वह रोम चला गया था। वहीं अपने दर्शन की शिक्षा देते हुए 270 ई. में उसकी मृत्यु हुई। अरस्तू के तर्कशास्त्र के व्याख्याकार पॉर्फिरी (232-304) ने प्लाटिनस के ग्रंथों का छह खंडों, में जिनमें से प्रत्येक में नौ ग्रंथ हैं, संपादन किया था, जो उपलब्ध हैं। इसलिए प्लाटिनस ही हमारे लिए नवअफलातूनवाद का संस्थापक है। प्लाटिनस ने अलेक्ज़ेंड्रिया के ईसाई दार्शनिकों के मत में एक बहुत बड़ा परिवर्तन किया था। वे ईश्वर को सर्वोपरि मानते थे, इतना दूर, इतना पृथक्‌ कि अंत में, उन्हें ईश्वर को अज्ञेय कहना पड़ता था। प्लाटिनस ने सुकरात और पाइथागोरस के तन्मयता के विचार से शिक्षा लेकर, तन्मयता की अवस्था में उसे आत्मा का प्राप्य बताया। इसी सिद्धांत के कारण नवअफलातूनवाद को पाश्चात्य दर्शन के रहस्यवाद का जन्मदाता समझा जाता है। इस प्रकार इस दर्शन में सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक दोनों पक्ष सम्मिलित हैं। प्लाटिनस के दर्शन के सैद्धांतिक पक्ष में तीन मुख्य भाग माने जा सकते हैं - (1) प्राथमिक सत्ता, (2) विचारजगत्‌ एवं आत्मा तथा (3) भौतिक जगत्‌। प्लाटिनस की प्राथमिक सत्ता ईश्वर है। वह एक, असीम तथा अपरिमित है। वही सभी सीमित एवं परिमित वस्तुओं का स्रोत तथा उनकी कारणता है। वह शुभ है, क्योंकि सभी वस्तुओं के प्रयोजन उसी में है। पर ईश्वर पर नैतिक गुणों का आरोप नहीं किया जा सकता, क्योंकि गुण सीमा हैं। वह अगुण है। जीवन एवं विचार का आरोप भी संभव नहीं, क्योंकि वह तो सभी सत्ताओं से परे हैं। वह एक सक्रिय शक्ति है, जो बिना किसी गति के, बिना परिवर्तन एवं ह्रास के, निरंतर अपने से भिन्न सत्ताओं को उत्पन्न करता रहता है। उसका उत्पादनकार्य भौतिक नहीं बल्कि प्रसारण (एमिशन) है। प्राथमिक सत्ता, अथवा, प्रथम सत्‌ सबसे पहले 'नाउस' को प्रकट करता है। 'नाउस' सत्‌ का प्रतिरूप एवं सभी वस्तुओं का सार है। वह सत्ता और विचार दोनों है। सत्‌ का प्रतिरूप होने से वह उसी के स्वभाव का है। भिन्न भी है, क्योंकि सत्ता से उत्पन्न हुआ है। इसीलिए, वह ईश्वर और जगत्‌ के बीच मध्यस्थ है। आत्मा इसी 'नाउस' का प्रतिरूप है। अतएव, नाउस से आत्मा के वही संबंध है, जो नाउस के ईश्वर से। स्पष्टतया, आत्मा अपदार्थ है। वह नाउस और व्यवहारजगत्‌ के बीच कीं कड़ी है। किंतु एक अंतर भी है। नाउस अविभाज्य है; किंतु आत्मा विभाज्य है। तभी तो वह शारीर जगत्‌ से संबंध रख सकती है। एक रहते हुए जगत्‌ से संबद्ध होकर वह जगदात्मा बनती है; प्रति शरीर भिन्न होकर वही जीवात्मा बनती है। ये आत्माएँ नाउस के नियमों का पालन कर, पवित्र दैवी जीवन बिता सकती हैं। पर, ऐसा नहीं होता। स्वतंत्र होने की इच्छा से वे नाउस से विमुख होकर जगत्‌ के ऐंद्रिक सुखों में लिप्त हो जाती हैं। तभी बंधन में पड़ती हैं। पर आत्मा का यह बंधन इच्छाकृत होने से स्थायी नहीं है। संसार से विमुख होकर, आत्मा अपना मूल स्वभाव प्राप्त कर सकती है। यहीं प्लाटिनस को अपने दर्शन का व्यावहारिक पक्ष विकसित करने का अवसर मिल जाता है। वह बताता है कि संसार में भटकी हुई आत्मा को पहले अपने आपमें वापस आना पड़ता है। फिर, वह नाउस में स्थित होती है। तब वह ईश्वरमिलन की कामना कर सकती है। इस प्रक्रिया को पूरा करने का प्रयास तीन स्तरों में किया जा सकता है। ये स्तर नैतिक आचरण के अभ्यास के तीन स्तर हैं - नारिक, शोधक तथा दैवी आचरण। पहले, पारस्परिक प्रेम एवं सद्भावना का अभ्यास, फिर पवित्र जीवन और तब ईश्वरोन्मुख होना। इस प्रकार, आत्मा पहले अपने आपमें आती है, फिर नाउस में स्थित होती है और तब ईश्वर, प्रथम सत्‌ या अपने कारण से मिलने की इच्छा करती है। मिलन की कोई अवधि नहीं। सतत ईश्वरचिंतन और मिलने की कामना करते-करते, तन्मयता के वे क्षण कभी भी आ सकते हैं, जिनमें वह कारण में लीन हो जाएगी। प्लाटिनस के अनुसार, तन्मयता के क्षणों में अनिर्वचनीय आनंद प्राप्त होता है और आत्मा नित्य प्रकाश में स्नान करती है। पार्फिरी ने बताया है कि अपने छह वर्ष के अध्ययनकाल में, उसने अपने गुरु को चार बार उस अवस्था में पाया था, जिसका उन्होंने अपने ग्रंथों में उपदेश किया हो। यह कथन सत्य हो या न हो, पार्फिरी अपने गुरु की साधना से बहुत प्रभावित था और जीवन भर उसने उनकी शिक्षाओं का प्रचार किया। आयम्ब्लिकस ने प्लाटिनस के मत का सीरिया में प्रचार किया। आयम्ब्लिकस ने प्लाटिनस के मत का सीरिया में प्रचार किया। आयम्ब्लिकस ने प्लाटिनस के मत का सीरिया में प्रचार किया। छोटे प्लूटार्क (350-433) और प्रोक्लस (411-85) ने एथेंस की अकादमी में उन्हीं शिक्षाओं का उपदेश किया। प्रोक्लस के बाद तो अकादमी बंद ही हो गई। इस प्रकार, प्लाटिनस का नव अफलातूनवाद ही यूनानी दर्शन का अंतिम रूप था। किंतु जीवित संप्रदाय का रूप न रहने पर भी नवअफलातूनवाद पाश्चात्य दर्शन से लुप्त न हुआ। पाइथागोरस और सुकरात ने अपनी रहस्यवादी पद्धति की कोई व्याख्या नहीं की थी। यह पहला अवसर था, जब सत्य के साक्षात्कार की बात व्यवस्थित ढंग से कही गई थी। इसलिए, यह सोचने का पूरा मौका है कि बाद के दर्शन में जहाँ कहीं भी सत्य के साक्षात्कार की बात आती है, वह नव अफलातूनवाद का प्रभाव है। इस प्रकार मध्यकालीन ईसाई संतों में से अनेक को, जैसे टॉमस एक्वीनस, एरिजेना, ब्रूनो आदि को, उक्त मत से प्रभावित समझा जा सकता। यह प्रभाव आधुनिक काल में भी पाया जाता है। अंतर्दृष्टिवादी सभी रहस्यवादी थे। हेनरी बर्गसाँ की मृत्यु 1941 में हुई। उसने तो सभी वस्तुओं के सत्य ज्ञान के लिए बुद्धि को अपर्याप्त बताकर, अंतर्दृष्टि के द्वारा उनके अंतर में घुसकर देखने की सम्मति दी थी। अतएव, यह कहना अयुक्त न होगा कि पाश्चात्य देशों में अब तक प्लाटिनस की पद्धति में विश्वास करनेवाले मौजूद हैं। इतना व्यापक था यह संप्रदाय। .

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नवहेगेलवाद

नवहेगेलवाद (neo-Hegelianism) 19वीं तथा 20वीं शताब्दी ईसवी में अंग्रेज़ तथा अमरीकन विचारकों में प्रचलित एक प्रकार का दार्शनिक दृष्टिकोण जिसके तार्किक आधार मूलत: वे ही समझे जाते हैं और जिनका उपयोग जर्मन दार्शनिक हेगेल ने अपने सिद्धांतों के निर्माण में किया था। नवहेगेलवाद का स्पष्ट जन्म इंग्लैंड में 1865 में जेम्ज़ हचिंसन स्टर्लिग द्वारा हेगेल रहस्य विषयक ग्रंथ के प्रकाशन से हुआ। स्टर्लिंग ने हेगेल को समस्त मानव चितन विषयों पर नवीन प्रकाश प्रदान करनेवाला घोषित किया। लगभग उसी समय अमरीका में सेंट लुई में विलियम टौरी हैरिस (1835-1909) द्वारा संपादित एक परिकल्पनात्मक दर्शन पत्रिका ने और कौर्नफ़ोर्ड दर्शन एवं साहित्य मंडल ने हेगेल को समस्त मानव चिंतन विषयों पर नवीन प्रकाश प्रदान करनेवाला घोषित किया। लगभग उसी समय अमरीका में सेंट लुई में विलियम टौरी हैरिस (1835-1909) द्वारा संपादित एक परिकल्पनात्मक दर्शन पत्रिका ने और कौर्नफ़ोर्ड दर्शन एवं साहित्य मंडल ने हेगेल का प्रचार आरंभ किया। इनका हेगेल से धर्म में परंपरावाद और विज्ञान में प्रकृतिवाद का विरोध करने की शक्ति प्राप्त हुई और राजनीति के क्षेत्र में यह प्रेरणा प्राप्त हुई कि व्यक्ति की स्वतंत्रता मनमाने व्यवहार में नहीं, स्थापित राज्यनियम में अभिव्यक्तिप्राप्त जीवन के विकास में है। परंतु नवहेगेलवाद के प्रमुख प्रतिपादक इंग्लैंड में टौमस हिल ग्रीन (1836-1882), एडवर्ड केयर्ड (1835-1908), जौन रोलिस मैक्टैगार्ट (1866-1925), फ्रांसिस हर्बर्ट ब्रैडले (1846-1924) तथा बर्नर्ड बोसंकेट (1848-1923) और अमरीका में जोज़िया रौयस (1855-1916) तथा जेम्ज़ राड्विन क्रेटन (1861-1924) हुए हैं। नवहेगेलवाद को परमनिरपेक्ष अध्यात्मवाद भी कहा जाता है। इसकी विशेष मान्यता यह है कि परमनिरपेक्ष ही अंतिम तत्व है और परमनिरपेक्ष संपूर्ण तंत्र अथवा विश्व भी है, मानसिक अथवा आध्यात्मिक भी और एक भी, सभी वास्तविक पदार्थ और विशेषतया आदर्श अर्थात्‌ मूल्यांकन विषय एवं प्रत्यय अर्थात्‌ बोध विषय उसके अंदर हैं। उसका विश्व के प्रत्येक प्रदेश में निवास है। इसके अतिरिक्त परमनिरपेक्ष की यह धारणा अनुभवाधारित तथा अनुभवगत विषमता से परिपूर्ण है नवहेगेलवादी हेगेल के द्वंद्वात्मक तर्क के इस मूल आधार सिद्धांत से अत्यंत प्रभावित थे कि प्रत्येक तार्किक तथ्य में एक तृतीय अंग अथवा चरण होता है जिसे हेगेल ने परिकल्पनात्मक अथवा तथ्यात्मक बुद्धि का चरण कहा है, जिसमें विरोधी तत्वों की एकता अर्थात्‌ अभाव में भाव का बोध होता है, जो सब अमूर्त्त स्वरूपों को एकता के ठोस मूर्त्त सूत्र में बाँधकर ग्रहण करनेवाला है, जिसमें स्वयंभू ज्ञाता एवं स्वयंभू ज्ञेयतत्व का विरोध मिट जाता है, जिसमें अस्तित्व शुद्ध प्रत्यय के रूप में और शुद्ध प्रत्यय के रूप में और शुद्ध प्रत्यय अस्तित्व के रूप में ज्ञात हो जाता है और जिसमें सत्य मूलतत्व अपने ही विकास द्वारा अपनी पूर्णता को प्राप्त होता हुआ संपूर्ण रूपी मूलतत्व है। नवहेगेलवादी दार्शनिक पूरी तरह हेगेलवादी कहलाने को तैयार नहीं थे। विशेषतया उनमें से किसी को भी हेगेल के द्वंद्वात्मक तर्कं की आकृतिक रूपरेखा को अपनाना स्वीकार नहीं हुआ। अत: उन्होंने हेगेलवादी तर्कशास्त्र की एक नवीन, स्वतंत्र, स्पष्टतर एवं अधिक विश्वासोत्पादक रूप में व्याख्या करने का प्रयत्न किया। इस नवव्याख्या के तीन मुख्य सिद्धांत हैं। एक यह कि जो बुद्धि को संतुष्ट कर दे वही सत्य है और उसी का अंतिम अस्तित्व है। इस सिद्धांत के अनुसार सत्यता अस्तित्व में कोई अंतर नहीं है। प्रत्येक तर्कवाक्य का उद्देश्य वास्तवता ही है। दूसरा सिद्धांत यह है किसी किसी तार्किक निर्णय का एक निकट उद्देश्य और एक दूरस्थ उद्देश्य होता है। परंतु यह दोनों एक ही संपूर्ण के अंश होते हैं और निर्णय इस संपूर्ण के विषय में ही हुआ करता है। इस संपूर्ण को नवहेगेलवादियों ने 'मूर्त्त सर्वव्यापी' कहा है। इसके विचारानुसार यह वास्तवतंत्र है। इसमें प्रत्ययों के बाह्यार्थ और अंतरार्थ होते हैं और वे परस्पर प्रकार्यात्मक संबंधों में बँधे रहते हैं। तर्क इस तंत्र के अंदर ही विभिन्न पदों और संबंधों के बीच चला करता है। परमनिरपेक्षवादियों ने सभी संबंधों को आंतरिक माना है और संबंधों की आंतरिकता के इस सिद्धांत की पूर्ति परमनिरपेक्ष की धारणा में ही समझी है। नवहेगेलवाद का तृतीय मुख्य सिद्धांत यह है कि बोध तथा मूल्यांकन मन की एक ही बौद्धिक क्रिया के दो अविच्छेद्य अंग हैं। इसलिए सत्य और मूल्य अर्थात्‌ अर्थ दोनों की कसौटी एक ही है और वह है संपूर्णता अर्थात्‌ अव्याघात। विचार संकल्प और भाव में और संकल्प अथवा भाव विचार में ही विश्राम प्राप्त करेगा। .

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पाश्चात्य दर्शन

अध्ययन की दृष्टि से पश्चिमी दर्शन तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं- 1.

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प्लेटो

प्लेटो (४२८/४२७ ईसापूर्व - ३४८/३४७ ईसापूर्व), या अफ़्लातून, यूनान का प्रसिद्ध दार्शनिक था। वह सुकरात (Socrates) का शिष्य तथा अरस्तू (Aristotle) का गुरू था। इन तीन दार्शनिकों की त्रयी ने ही पश्चिमी संस्कृति की दार्शनिक आधार तैयार किया। यूरोप में ध्वनियों के वर्गीकरण का श्रेय प्लेटो को ही है। .

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फ्रेडरिख शेलिंग

फ्रेडरिख शेलिंग फ्रेडरिख विल्हेल्म जोसेफ फॉन शेलिंग (Friedrich Wilhelm Joseph Von Schelling; (27 जनवरी 1775 – 20 अगस्त 1854) जर्मनी का दार्शनिक था। लगातार परिवर्तित होने की प्रकृति के कारण शेलिंग के दर्शन को समझना कठिन समझा जाता है। .

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फ्रेडरिक एंगेल्स

फ्रेडरिक एंगेल्स (२८ नवंबर, १८२० – ५ अगस्त, १८९५ एक जर्मन समाजशास्त्री एवं दार्शनिक थे1 एंगेल्स और उनके साथी साथी कार्ल मार्क्स मार्क्सवाद के सिद्धांत के प्रतिपादन का श्रेय प्राप्त है। एंगेल्स ने 1845 में इंग्लैंड के मजदूर वर्ग की स्थिति पर द कंडीशन ऑफ वर्किंग क्लास इन इंग्लैंड नामक पुस्तक लिखी। उन्होंने मार्क्स के साथ मिलकर 1848 में कम्युनिस्ट घोषणापत्र की रचना की और बाद में अभूतपूर्व पुस्तक "पूंजी" दास कैपिटल को लिखने के लिये मार्क्स की आर्थिक तौर पर मदद की। मार्क्स की मौत हो जाने के बाद एंगेल्स ने पूंजी के दूसरे और तीसरे खंड का संपादन भी किया। एंगेल्स ने अतिरिक्त पूंजी के नियम पर मार्क्स के लेखों को जमा करने की जिम्मेदारी भी बखूबी निभाई और अंत में इसे पूंजी के चौथे खंड के तौर पर प्रकाशित किया गया। .

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फ्रेडरिक नीत्शे

फ्रेडरिक नीत्शे फ्रेडरिक नीत्शे (Friedrich Nietzsche) (15, अक्टू, 1844 से 25, अगस्त 1900) जर्मनी का दार्शनिक था। मनोविश्लेषणवाद, अस्तित्ववाद एवं परिघटनामूलक चिंतन (Phenomenalism) के विकास में नीत्शे की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। व्यक्तिवादी तथा राज्यवादी दोनों प्रकार के विचारकों ने उससे प्रेरणा ली है। हालाँकि नाज़ी तथा फासिस्ट राजनीतिज्ञों ने उसकी रचनाओं का दुरुपयोग भी किया। जर्मन कला तथा साहित्य पर नीत्शे का गहरा प्रभाव है। भारत में भी इक़बाल आदि कवियों की रचनाएँ नीत्शेवाद से प्रभावित हैं। .

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फ्रेडरिक शिलर

फ्रेदरिक शिलर (जर्मन:; 10 नवम्बर 1759 – 9 मई 1805) जर्मन भाषा का कवि, दार्शनिक इतिहासकार एवं नाटककार था। जीवन के अन्तिम १७ वर्षों (1788–1805) में उसकी जोहान वुल्फगांग गेटे के साथ उत्पादक मैत्री थी जो पहले ही काफी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके थे। .

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बर्लिन

ब्रांडेनबर्ग गेट, जर्मनी के एक मील का पत्थर बर्लिन टीवी टावर, शहर के लिए मील का पत्थर बर्लिन-मिटे के क्षितिज भालू मेरा साथी: बर् लन की शांती और स्वतंत्रता का प्रतीक बर्लिन जर्मनी की राजधानी और इसके 16 राज्यों में से एक है। यह बर्लिन-ब्रैन्डनबर्ग मेट्रोपोलिटन क्षेत्र के मध्य में, जर्मनी के उत्तर-पूर्वी भाग में स्थित है। इसकी जनसंख्या 34 लाख है। यह जर्मनी का सबसे बड़ा और यूरोपीय संघ का दूसरा सबसे बड़ा शहर है। बर्लिन यूरोप की राजनीति, संस्कृति और विज्ञान का महत्त्वपूर्ण केन्द्र है। यूरोप के यातायात के लिए यह एक धुरी के समान है। यहाँ कई महत्त्वपूर्ण विश्वविद्यालय, संग्रहालय और शोध केन्द्र हैं। यह शहर बहुत तेजी से विकास कर रहा है और यहाँ के समारोह, उत्सव, अग्रणी कलाएँ, वास्तुशिल्प और रात्रि-जीवन काफी प्रसिद्ध हैं। बर्लिन 13वीं शताब्दी में स्थापित हुआ और इस क्षेत्र के कई राज्यों और साम्राज्यों की राजधानी रहा- प्रुशिया राज्य (1701 से), जर्मन साम्राज्य (1871-1918), वेइमार गणतंत्र (1919-1932) और तीसरी राइख (1933-1945).

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बारूथ स्पिनोज़ा

बारूथ डी स्पिनोज़ा (Baruch De Spinoza) (२४ नवम्बर १६३२ - २१ फ़रवरी १६७७) यहूदी मूल के डच दार्शनिक थे। उनका परिवर्तित नाम 'बेनेडिक्ट डी स्पिनोजा' (Benedict de Spinoza) था। उन्होने उल्लेखनीय वैज्ञानिक अभिक्षमता (aptitude) का परिचय दिया किन्तु उनके कार्यों का महत्व उनके मृत्यु के उपरान्त ही सम्झा जा सका। .

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बेनेदितो क्रोचे

बेनेदितो क्रोचे (Benedetto Croce; 25 फ़रवरी 1866 – 20 नवम्बर 1952) इटली का आत्मवादी दार्शनिक था। उसने अनेकानेक विषयों पर लिखा जिनमें दर्शन, इतिहास, सौन्दर्य शास्त्र आदि प्रमुख हैं। वह उदारवादी विचारक था किन्तु उसने मुक्त व्यापार का विरोध किया। .

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मार्टिन हाइडेगर

मार्टिन हाइडेगर एक जर्मन दार्शनिक थे | वह 26 सितंबर, 1889 को पैदा हुआ था। वे 26 मई, 1976 को निधन हो गया। वे वर्तमान काल के प्रसिद्ध अस्तित्ववादी दार्शनिक है किन्तु वे अपने सिद्धांत को अस्तित्ववादी सिद्धांत कहलाने से इंकार करते है। वह जर्मनी के छोटे से कस्बे में पैदा हुआ था और रोमन कैथोलिक वातावरण मे पला था। उसने अपनी दार्शनिक शिक्षा पहले तो नव कांटवादी विल्हेम व रिकेट के निर्देशन में प्राप्त की बाद में वे हसरेल के संपर्क मे आये। .

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मार्क्सवाद

सामाजिक राजनीतिक दर्शन में मार्क्सवाद (Marxism) उत्पादन के साधनों पर सामाजिक स्वामित्व द्वारा वर्गविहीन समाज की स्थापना के संकल्प की साम्यवादी विचारधारा है। मूलतः मार्क्सवाद उन आर्थिक राजनीतिक और आर्थिक सिद्धांतो का समुच्चय है जिन्हें उन्नीसवीं-बीसवीं सदी में कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगेल्स और व्लादिमीर लेनिन तथा साथी विचारकों ने समाजवाद के वैज्ञानिक आधार की पुष्टि के लिए प्रस्तुत किया। .

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योहान वुल्फगांग फान गेटे

गेटे योहान वुल्फगांग फान गेटे (Johann Wolfgang von Goethe) (२८ अगस्त १७४९ - २२ मार्च १८३२) जर्मनी के लेखक, दार्शनिक‎ और विचारक थे। उन्होने कविता, नाटक, धर्म, मानवता और विज्ञान जैसे विविध क्षेत्रों में कार्य किया। उनका लिखा नाटक फ़ाउस्ट (Faust) विश्व साहित्य में उच्च स्थान रखता है। गोथे की दूसरी रचनाओं में "सोरॉ ऑफ यंग वर्टर" शामिल है। गोथे जर्मनी के महानतम साहित्यिक हस्तियों में से एक माने जाते हैं, जिन्होंने अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में विमर क्लासिसिज्म (Weimar Classicism) नाम से विख्यात आंदोलन की शुरुआत की। वेमर आंदोलन बोध, संवेदना और रोमांटिज्म का मिलाजुला रूप है। जोहान वुल्फगांग गेटे उन्होने कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तलम् का जर्मन भाषा में अनुवाद किया। गेटे ने अभिज्ञान शाकुन्तलम् के बारे में कहा था- .

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राजनीतिक दर्शन

राजनीतिक दर्शन (Political philosophy) के अन्तर्गत राजनीति, स्वतंत्रता, न्याय, सम्पत्ति, अधिकार, कानून तथा सत्ता द्वारा कानून को लागू करने आदि विषयों से सम्बन्धित प्रश्नों पर चिन्तन किया जाता है: ये क्या हैं, उनकी आवश्यकता क्यों हैं, कौन सी वस्तु सरकार को 'वैध' बनाती है, किन अधिकारों और स्वतंत्रताओं की रक्षा करना सरकार का कर्तव्य है, विधि क्या है, किसी वैध सरकार के प्रति नागरिकों के क्या कर्त्तव्य हैं, कब किसी सरकार को उकाड़ फेंकना वैध है आदि। प्राचीन काल में सारा व्यवस्थित चिंतन दर्शन के अंतर्गत होता था, अतः सारी विद्याएं दर्शन के विचार क्षेत्र में आती थी। राजनीति सिद्धान्त के अन्तर्गत राजनीति के भिन्न भिन्न पक्षों का अध्ययन किया जाता हैं। राजनीति का संबंध मनुष्यों के सार्वजनिक जीवन से हैं। परम्परागत अध्ययन में चिन्तन मूलक पद्धति की प्रधानता थी जिसमें सभी तत्वों का निरीक्षण तो नहीं किया जाता हैं, परन्तु तर्क शक्ति के आधार पर उसके सारे संभावित पक्षों, परस्पर संबंधों प्रभावों और परिणामों पर विचार किया जाता हैं। .

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रूसो

महान दार्शनिक '''रूसो''' जीन-जक्क़ुएस रूसो (1712 - 78) की गणना पश्चिम के युगप्रवर्तक विचारकों में है। किंतु अंतर्विरोध तथा विरोधाभासों से पूर्ण होने के कारण उसके दर्शन का स्वरूप विवादास्पद रहा है। अपने युग की उपज होते हुए भी उसने तत्कालीन मान्यताओं का विरोध किया, बद्धिवाद के युग में उसने बुद्धि की निंदा की (विश्वकोश के प्रणेताओं (Encyclopaedists) से उसका विरोध इस बात पर था) और सहज मानवीय भावनाओं को अत्यधिक महत्व दिया। सामाजिक प्रसंविदा (सोशल कंट्रैक्ट) की शब्दावली का अवलंबन करते हुए भी उसने इस सिद्धांत की अंतरात्मा में सर्वथा नवीन अर्थ का सन्निवेश किया। सामाजिक बंधन तथा राजनीतिक दासता की कटु आलोचना करते हुए भी उसने राज्य को नैतिकता के लिए अनिवार्य बताया। आर्थिक असमानता और व्यक्तिगत संपत्ति को अवांछनीय मानते हुए भी रूसो साम्यवादी नहीं था। घोर व्यक्तिवाद से प्रारंभ होकर उसे दर्शन की परिणति समष्टिवाद में होती है। स्वतंत्रता और जनतंत्र का पुजारी होते हुए भी वह राबेसपीयर जैसे निरंकुशतावादियों का आदर्श बन जाता है। .

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रेने देकार्त

रने डॅकार्ट (फ़्रांसिसी भाषा: René Descartes; लातिनी भाषा: Renatus Cartesius; 31 मार्च 1596 - 11 फ़रवरी 1650) एक फ़्रांसिसी गणितज्ञ, भौतिकीविज्ञानी, शरीरक्रियाविज्ञानी तथा दार्शनिक थे। .

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श्टुटगार्ट

श्टुटगार्ट का किला-चौक (Schlossplatz) श्टुटगार्ट, जर्मनी का एक नगर है। यह बादेन, वुरटेमबर्ग सूबे की राजधानी है। श्टुटगार्ट संघीय जर्मनी के सबसे बड़े और सबसे महत्त्वपूर्ण शहरों में एक है। विश्व प्रसिद्ध बैले कंपनी, चैंबर ऑर्केस्ट्रा और विविध कला संग्रह शहर की अन्य ख़ासियतें हैं। .

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सिमोन द बोउआर

सिमोन द बुआ (फ़्रांसीसी: Simone de Beauvoir) (जन्म: ९ जनवरी १९०८ - मृत्यु: १४ अप्रैल १९८६) एक फ़्रांसीसी लेखिका और दार्शनिक हैं। स्त्री उपेक्षिता (फ़्रांसीसी: Le Deuxième Sexe, जून १९४९) जैसी महत्वपूर्ण पुस्तक लिखने वाली सिमोन का जन्म पैरिस में हुआ था। लड़कियों के लिए बने कैथलिक विद्यालय में उनकी आरंभिक शिक्षा हुई। उनका कहना था की स्त्री पैदा नहीं होती, उसे बनाया जाता है। सिमोन का मानना था कि स्त्रियोचित गुण दरअसल समाज व परिवार द्वारा लड़की में भरे जाते हैं, क्योंकि वह भी वैसे ही जन्म लेती है जैसे कि पुरुष और उसमें भी वे सभी क्षमताएं, इच्छाएं, गुण होते हैं जो कि किसी लड़के में। सिमोन का बचपन सुखपूर्वक बीता, लेकिन बाद के वर्षो में अभावग्रस्त जीवन भी उन्होंने जिया। १५ वर्ष की आयु में सिमोन ने निर्णय ले लिया था कि वह एक लेखिका बनेंगी। दर्शनशास्त्र, राजनीति और सामाजिक मुद्दे उनके पसंदीदा विषय थे। दर्शन की पढ़ाई करने के लिए उन्होंने पैरिस विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया, जहां उनकी भेंट बुद्धिजीवी ज्यां पॉल सा‌र्त्र से हुई। बाद में यह बौद्धिक संबंध आजीवन चला। द सेकंड सेक्स का हिंदी अनुवाद स्त्री उपेक्षिता भी बहुत लोकप्रिय हुआ। १९७० में फ्रांस के स्त्री मुक्ति आंदोलन में सिमोन ने भागीदारी की। स्त्री-अधिकारों सहित तमाम सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर सिमोन की भागीदारी समय-समय पर होती रही। १९७३ का समय उनके लिए परेशानियों भरा था। सा‌र्त्र दृष्टिहीन हो गए थे। १९८० में सा‌र्त्र का देहांत हो गया। १९८५-८६ में सिमोन का स्वास्थ्य भी बहुत गिर गया था। निमोनिया या फिर पल्मोनरी एडोमा में खराबी के चलते उनका देहांत हो गया। सा‌र्त्र की कब्र के बगल में ही उन्हें भी दफनाया गया। .

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सौन्दर्यशास्त्र

प्रकृति में सर्वत्र सौन्दर्य विद्यमान है। सौंदर्यशास्त्र (Aesthetics) संवेदनात्म-भावनात्मक गुण-धर्म और मूल्यों का अध्ययन है। कला, संस्कृति और प्रकृति का प्रतिअंकन ही सौंदर्यशास्त्र है। सौंदर्यशास्त्र, दर्शनशास्त्र का एक अंग है। इसे सौन्दर्यमीमांसा ताथा आनन्दमीमांसा भी कहते हैं। सौन्दर्यशास्त्र वह शास्त्र है जिसमें कलात्मक कृतियों, रचनाओं आदि से अभिव्यक्त होने वाला अथवा उनमें निहित रहने वाले सौंदर्य का तात्विक, दार्शनिक और मार्मिक विवेचन होता है। किसी सुंदर वस्तु को देखकर हमारे मन में जो आनन्ददायिनी अनुभूति होती है उसके स्वभाव और स्वरूप का विवेचन तथा जीवन की अन्यान्य अनुभूतियों के साथ उसका समन्वय स्थापित करना इनका मुख्य उद्देश्य होता है। .

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सॉरन किअर्केगार्ड

सोरेन किर्केगार्द का जन्म 15 मई,1813 को कोपेनहेगन में हुआ था। अस्तित्ववादी दर्शन के पहले समर्थक हलाकि उन्होने अस्तित्ववाद शब्द का प्रयोग नहीं किया। किर्केगार्द का देहांत 4 नवंबर 1855 को हुआ। .

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हम्बोल्ट बर्लिन विश्वविद्यालय

हम्बोल्ट बर्लिन विश्वविद्यालय (अंग्रेज़ी: Humboldt University of Berlin, जर्मन: Humboldt-Universität zu Berlin) बर्लिन के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक है। इसकी स्थापना १८१० में प्रुशियाई शिक्षा-सुधारक और भाषावैज्ञानिक विल्हेल्म फ़ॉन​ हम्बोल्ट (Wilhelm von Humboldt) ने 'बर्लिन विश्वविद्यालय' के नाम से की थी। इसके तौर-तरीक़े अन्य यूरोपीय और पश्चिमी विश्वविद्यालयों के लिए बहुत प्रभावशाली रहे। १८२८ में यह 'फ़्रेडेरिक विलियम विश्वविद्यालय' के नाम से जाना जाता था हालांकि बर्लिन के 'उन्टर डेन लिन्डेन​' (unter den Linden, अर्थ: लिंडन के पेड़ों की छाँव में) नामक इलाक़े में होने की वजह से इसे अनौपचारिक रूप से 'उन्टर डेन लिन्डेन​ विश्वविद्यालय' के नाम से भी बुलाया जाने लगा। १९४९ में अपने संस्थापक विल्हेल्म और उनके भाई आलेक्सान्डर फ़ॉन​ हम्बोल्ट के सम्मान में इसका नाम बदलकर 'हम्बोल्ट विश्वविद्यालय' कर दिया गया। २०१२ में इसे जर्मन राष्ट्रीय सरकार से जर्मनी के ग्यारह सर्वोत्तम विश्वविद्यालयों में से एक होने का सम्मान प्राप्त हुआ। .

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हेरक्लिटस

हेरक्लिटस(535 ईसा पूर्व -475 ईसा पूर्व) यूनानी दार्शनिक था। .

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हेगेल का दर्शन

सुप्रसिद्ध दार्शनिक जार्ज विलहेम फ्रेड्रिक हेगेल (1770-1831) कई वर्ष तक बर्लिन विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रहे और उनका देहावसान भी उसी नगर में हुआ। उसके लिखे हुए आठ ग्रंथ हैं, जिनमें प्रपंचशास्त्र (Phenomelogie des Geistes), न्याय के सिद्धांत (Wissenschaft der Logic) एवं दार्शनिक सिद्धांतों क विश्वकोश (Encyclopedie der phiosophischen Wissenschaften), ये तीन ग्रंथ विशेषतया उल्लेखनीय हैं। हेगेल के दार्शनिक विचार जर्मन-देश के ही काँट, फिक्टे और शैलिंग नामक दार्शनिकों के विचारों से विशेष रूप से प्रभावित कहे जा सकते हैं, हालाँकि हेगेल के और उनके विचारों में महत्वपूर्ण अंतर भी है। .

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जर्मनी

कोई विवरण नहीं।

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ज़ाक देरिदा

ज़ाक देरिदा (15 जुलाई 1930 – 8 अक्टूबर 2004) अल्जीरिया में जन्में एक फ्रांसीसी दार्शनिक थे जिन्हें विरचना (deconstruction) के सिद्धान्त के लिए जाना जाता है। उनके विशाल लेखन कार्य का साहित्यिक और यूरोपीय दर्शन पर गहन प्रभाव पड़ा है। Of Grammatology उनकी सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक मानी जाती है। .

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ज्यां-पाल सार्त्र

ज्यां-पाल सार्त्र नोबेल पुरस्कार साहित्य विजेता, १९६४ ज्यां-पाल सार्त्र अस्तित्ववाद के पहले विचारकों में से माने जाते हैं। वह बीसवीं सदी में फ्रान्स के सर्वप्रधान दार्शनिक कहे जा सकते हैं। कई बार उन्हें अस्तित्ववाद के जन्मदाता के रूप में भी देखा जाता है। अपनी पुस्तक "ल नौसी" में सार्त्र एक ऐसे अध्यापक की कथा सुनाते हैं जिसे ये इलहाम होता है कि उसका पर्यावरण जिससे उसे इतना लगाव है वो बस कि़ंचित् निर्जीव और तत्वहीन वस्तुओं से निर्मित है। किन्तु उन निर्जीव वस्तुओं से ही उसकी तमाम भावनाएँ जन्म ले चुकी थीं। सार्त्र का निधन अप्रैल १५, १९८० को पेरिस में हआ। .

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जोहान्न गोत्त्लिएब फिचते

' जोहान्न गोत्त्लिएब फिचते (१७६२ - १८१४) एक जर्मन दार्शनिक थे। .

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गाटफ्रीड लैबनिट्ज़

गाटफ्रीड विलहेल्म लाइबनिज (Gottfried Wilhelm von Leibniz / १ जुलाई १६४६ - १४ नवम्बर १७१६) जर्मनी के दार्शनिक, वैज्ञानिक, गणितज्ञ, राजनयिक, भौतिकविद्, इतिहासकार, राजनेता, विधिकार थे। उनका पूरा नाम 'गोतफ्रीत विल्हेल्म फोन लाइब्नित्स' था। गणित के इतिहास तथा दर्शन के इतिहास में उनका प्रमुख स्थान है। .

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इमानुएल काण्ट

इमानुएल कांट (1724-1804) जर्मन वैज्ञानिक, नीतिशास्त्री एवं दार्शनिक थे। उसका वैज्ञानिक मत "कांट-लाप्लास परिकल्पना" (हाइपॉथेसिस) के नाम से विख्यात है। उक्त परिकल्पना के अनुसार संतप्त वाष्पराशि नेबुला से सौरमंडल उत्पन्न हुआ। कांट का नैतिक मत "नैतिक शुद्धता" (मॉरल प्योरिज्म) का सिद्धांत, "कर्तव्य के लिए कर्तव्य" का सिद्धांत अथवा "कठोरतावाद" (रिगॉरिज्म) कहा जाता है। उसका दार्शनिक मत "आलोचनात्मक दर्शन" (क्रिटिकल फ़िलॉसफ़ी) के नाम से प्रसिद्ध है। इमानुएल कांट अपने इस प्रचार से प्रसिद्ध हुये कि मनुष्य को ऐसे कर्म और कथन करने चाहियें जो अगर सभी करें तो वे मनुष्यता के लिये अच्छे हों। .

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कार्ल मार्क्स

कार्ल हेनरिख मार्क्स (1818 - 1883) जर्मन दार्शनिक, अर्थशास्त्री और वैज्ञानिक समाजवाद का प्रणेता थे। इनका जन्म 5 मई 1818 को त्रेवेस (प्रशा) के एक यहूदी परिवार में हुआ। 1824 में इनके परिवार ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया। 17 वर्ष की अवस्था में मार्क्स ने कानून का अध्ययन करने के लिए बॉन विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। तत्पश्चात्‌ उन्होंने बर्लिन और जेना विश्वविद्यालयों में साहित्य, इतिहास और दर्शन का अध्ययन किया। इसी काल में वह हीगेल के दर्शन से बहुत प्रभावित हुए। 1839-41 में उन्होंने दिमॉक्रितस और एपीक्यूरस के प्राकृतिक दर्शन पर शोध-प्रबंध लिखकर डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। शिक्षा समाप्त करने के पश्चात्‌ 1842 में मार्क्स उसी वर्ष कोलोन से प्रकाशित 'राइनिशे जीतुंग' पत्र में पहले लेखक और तत्पश्चात्‌ संपादक के रूप में सम्मिलित हुआ किंतु सर्वहारा क्रांति के विचारों के प्रतिपादन और प्रसार करने के कारण 15 महीने बाद ही 1843 में उस पत्र का प्रकाशन बंद करवा दिया गया। मार्क्स पेरिस चला गया, वहाँ उसने 'द्यूस फ्रांजोसिश' जारबूशर पत्र में हीगेल के नैतिक दर्शन पर अनेक लेख लिखे। 1845 में वह फ्रांस से निष्कासित होकर ब्रूसेल्स चला गया और वहीं उसने जर्मनी के मजदूर सगंठन और 'कम्युनिस्ट लीग' के निर्माण में सक्रिय योग दिया। 1847 में एजेंल्स के साथ 'अंतराष्ट्रीय समाजवाद' का प्रथम घोषणापत्र (कम्युनिस्ट मॉनिफेस्टो) प्रकाशित किया 1848 में मार्क्स ने पुन: कोलोन में 'नेवे राइनिशे जीतुंग' का संपादन प्रारंभ किया और उसके माध्यम से जर्मनी को समाजवादी क्रांति का संदेश देना आरंभ किया। 1849 में इसी अपराघ में वह प्रशा से निष्कासित हुआ। वह पेरिस होते हुए लंदन चला गया जीवन पर्यंत वहीं रहा। लंदन में सबसे पहले उसने 'कम्युनिस्ट लीग' की स्थापना का प्रयास किया, किंतु उसमें फूट पड़ गई। अंत में मार्क्स को उसे भंग कर देना पड़ा। उसका 'नेवे राइनिश जीतुंग' भी केवल छह अंको में निकल कर बंद हो गया। कोलकाता, भारत 1859 में मार्क्स ने अपने अर्थशास्त्रीय अध्ययन के निष्कर्ष 'जुर क्रिटिक दर पोलिटिशेन एकानामी' नामक पुस्तक में प्रकाशित किये। यह पुस्तक मार्क्स की उस बृहत्तर योजना का एक भाग थी, जो उसने संपुर्ण राजनीतिक अर्थशास्त्र पर लिखने के लिए बनाई थी। किंतु कुछ ही दिनो में उसे लगा कि उपलब्ध साम्रगी उसकी योजना में पूर्ण रूपेण सहायक नहीं हो सकती। अत: उसने अपनी योजना में परिवर्तन करके नए सिरे से लिखना आंरभ किया और उसका प्रथम भाग 1867 में दास कैपिटल (द कैपिटल, हिंदी में पूंजी शीर्षक से प्रगति प्रकाशन मास्‍को से चार भागों में) के नाम से प्रकाशित किया। 'द कैपिटल' के शेष भाग मार्क्स की मृत्यु के बाद एंजेल्स ने संपादित करके प्रकाशित किए। 'वर्गसंघर्ष' का सिद्धांत मार्क्स के 'वैज्ञानिक समाजवाद' का मेरूदंड है। इसका विस्तार करते हुए उसने इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या और बेशी मूल्य (सरप्लस वैल्यू) के सिद्धांत की स्थापनाएँ कीं। मार्क्स के सारे आर्थिक और राजनीतिक निष्कर्ष इन्हीं स्थापनाओं पर आधारित हैं। 1864 में लंदन में 'अंतरराष्ट्रीय मजदूर संघ' की स्थापना में मार्क्स ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। संघ की सभी घोषणाएँ, नीतिश् और कार्यक्रम मार्क्स द्वारा ही तैयार किये जाते थे। कोई एक वर्ष तक संघ का कार्य सुचारू रूप से चलता रहा, किंतु बाकुनिन के अराजकतावादी आंदोलन, फ्रांसीसी जर्मन युद्ध और पेरिस कम्यूनों के चलते 'अंतरराष्ट्रीय मजदूर संघ' भंग हो गया। किंतु उसकी प्रवृति और चेतना अनेक देशों में समाजवादी और श्रमिक पार्टियों के अस्तित्व के कारण कायम रही। 'अंतरराष्ट्रीय मजदूर संघ' भंग हो जाने पर मार्क्स ने पुन: लेखनी उठाई। किंतु निरंतर अस्वस्थता के कारण उसके शोधकार्य में अनेक बाधाएँ आईं। मार्च 14, 1883 को मार्क्स के तूफानी जीवन की कहानी समाप्त हो गई। मार्क्स का प्राय: सारा जीवन भयानक आर्थिक संकटों के बीच व्यतीत हुआ। उसकी छह संतानो में तीन कन्याएँ ही जीवित रहीं। .

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अरस्तु

अरस्तु अरस्तु (384 ईपू – 322 ईपू) यूनानी दार्शनिक थे। वे प्लेटो के शिष्य व सिकंदर के गुरु थे। उनका जन्म स्टेगेरिया नामक नगर में हुआ था ।  अरस्तु ने भौतिकी, आध्यात्म, कविता, नाटक, संगीत, तर्कशास्त्र, राजनीति शास्त्र, नीतिशास्त्र, जीव विज्ञान सहित कई विषयों पर रचना की। अरस्तु ने अपने गुरु प्लेटो के कार्य को आगे बढ़ाया। प्लेटो, सुकरात और अरस्तु पश्चिमी दर्शनशास्त्र के सबसे महान दार्शनिकों में एक थे।  उन्होंने पश्चिमी दर्शनशास्त्र पर पहली व्यापक रचना की, जिसमें नीति, तर्क, विज्ञान, राजनीति और आध्यात्म का मेलजोल था।  भौतिक विज्ञान पर अरस्तु के विचार ने मध्ययुगीन शिक्षा पर व्यापक प्रभाव डाला और इसका प्रभाव पुनर्जागरण पर भी पड़ा।  अंतिम रूप से न्यूटन के भौतिकवाद ने इसकी जगह ले लिया। जीव विज्ञान उनके कुछ संकल्पनाओं की पुष्टि उन्नीसवीं सदी में हुई।  उनके तर्कशास्त्र आज भी प्रासांगिक हैं।  उनकी आध्यात्मिक रचनाओं ने मध्ययुग में इस्लामिक और यहूदी विचारधारा को प्रभावित किया और वे आज भी क्रिश्चियन, खासकर रोमन कैथोलिक चर्च को प्रभावित कर रही हैं।  उनके दर्शन आज भी उच्च कक्षाओं में पढ़ाये जाते हैं।  अरस्तु ने अनेक रचनाएं की थी, जिसमें कई नष्ट हो गई। अरस्तु का राजनीति पर प्रसिद्ध ग्रंथ पोलिटिक्स है। .

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यहां पुनर्निर्देश करता है:

हेगल, हेगेल, हीगल, जार्ज विलहेम फ्रेड्रिक हेगेल, जार्ज विल्हेम फ्रेडरिच हेगेल

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