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हिंदी के मध्यकालीन शब्दकोश

सूची हिंदी के मध्यकालीन शब्दकोश

मध्यकाल में विरचित हिंदी कोशों का उल्लेख मिलता है और उनका स्वरूप सामने आता है। हिंदी ग्रंथों के खोजविवरणों मे पचासों कोश ग्रंथों के नाम मिलते हैं। इनके अतिरिक्त 'पोद्दार अभिनंदन गंथ' में श्री जवाहरलाल चतुर्वेदी ने १४-१५ ऐसे कोशो के नाम दिए है जो खोजविवरणों में नही मिल पाए हैं। इससे ऐसा लगता है कि हिंदी साहित्य के मध्यकाल में और उसके बाद भी छोटे-बड़े सैकड़ों कोश बने थे। उनमें अनेक संभवतः लुप्त हो गए। जिनके नाम ज्ञात हैं उनमें भी अनेक लुप्त या नष्ट होते जा रहे हैं। हिंदी ग्रंथो की खोज करनेवालों को जो कोश उपलब्ध हुए हैं उनमें कतिपय प्रसिद्ध कोशों का संक्षिप्त परिचय दिया जा सकता है। ऐसा जान पड़ता है, इनपर संस्कृत के कोशों से संकलित विषय और उनकी पद्धति का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। अधिकांश कोशों ने मुख्य आधार के रूप में 'अमरकोश' का सहार लिया। उसकी उपजीव्यता का उन्होंने उल्लेख भी किया है। कभी कभी (जैसे उमराव कोश में) अमरकोश का नाम भी उल्लिखित है। पर कुछ केशकारों ने (यथा कर्णाभरण के लेखक हरिचरण दास) मेदिनी हेमकोश आदि से भी सहायता ली है। मध्याकालीन कोश-रचना-पद्धति की झलक आगे निर्दिष्ट कुछ प्रसिद्ध कोशों के नाम देखने से मिल जाती है। 'नाममाला' और 'अनेकार्थमंजरी' 'नंददासं' के दो कोश मिलते हैं। पद्यनिर्मित इन कृतियों के नाममात्र से इनके स्वरूप का बोध हो जाता है। 'गरीबदास' का 'अनंगप्रबोध' १६१५ ई० की रचना कहीं जाती है। 'रत्नजीत' १३ ई०) के दो शब्द कोश (क) भाषशब्दसिंधु और (ख) भाषाधातुमाला —बताए गए हैं। इनके नाम भी स्वरूपपरिचायक है। 'मिर्जा खा' का 'तुहफत् उल— हिन्द (तुहफतुल हिद) 'खुसरो' की 'खालिकबारी'— अत्यंत प्रसिद्ध कोश है; एक 'डिंगल कोश' भी बहुत पहले बन चुका है। इनके अतिरिक्त भी अनेक कोश बने। 'नंददास' के नाम से 'नामचिंतामणि' नामक भी एक कोश कहा गया है। 'अमरकोश' के भी सभवतः अनेक पद्यानुवाद हुए है। इन ग्रथों के परिदर्शन से ज्ञात होता है कि जैसा ऊपर कहा जा चुका है, 'अमरकेश' के तथा कभी कभी अन्य कोशों के आधार पर हिंदी के मध्यकालीन पद्यात्मक कोश बने जो पर्जायवाची, समानार्थी या अनेकार्थक कोश थे। धातुसंग्रह का भी एक कोश— उपर्युक्त धातुमाला —अंतिम वर्णक्रमानुसारी संकलन है। मिर्जाखाँ का कोश अनेक दृष्टियों से नूतन पद्धतियों का निदर्शन उपस्थित करता है। अपने ढंग का यह प्रथम प्रयास कहा गया है। जियाउददीन और सुनीतकुमार चाटुर्ज्या ने इनकी बड़ी प्रसंशा की है। मध्यकालीन हिंदी भाषा के कोशों में शब्दों के क्रमसंयोजन में नूतन और भाष—वैज्ञानिक दृष्टि का इसमें परिचय दिया गया है; साथ ही साथ शब्दों की विस्तृत व्याख्या भी दी गई है। इसके अतिरिक्त उच्चारण मे— लिखित रूप की अपेक्षा। बोलचाल के स्वरूप का अधिक ध्यान रखा गया है। 'गरीबदास' का कोश संत साहित्य के अनेक पारिभाषिक शब्दों का अर्धकोश है। हिंदी में 'खुसरो' का कोश भी यद्यपि विशाल नहीं है तथापि द्विभाषी कोश की प्राचीनरूपता के कारण महत्व रखता है। इसी तरह 'लल्लूलाल' का परवर्ती (१८३७ ई०) अंग्रेजी— हिंदी —फारसी केश भी उल्लेखनीय है। 'एकाक्षरी कोशी' ओषधिवरदनाममाला' आदि अनेक प्रकार के शब्द संग्रहात्मक कोशों का भी निर्माण हुआ है। हिंदी के मध्यकालीन कोशों में प्राचीन वर्गानुसारी विभाजन के आतिरिक्त केवल शीर्षकानुसारी विभाजन भी मिलता है, जैसे— 'अथ गो शब्द', 'अथ सदृश शब्द' इत्यादि। मुरारिदान के डिंगल कोश के अंतर्गत वर्गपद्धति के साथ साथ अन्य शीर्षक भी दिए गए हैं। उक्त कोश में शीर्षक के रूप हैं—(१) अथ वनस्पतिकायमाह, (२) दोहा, (३) वननाम इत्यादि। इसकी एक अन्य विशेषता भी है—इंद्रियों के अनुसार उपशीर्षक जैसे—'अथ द्बीद्रियानाह, त्नीद्रियानाह चतुरिंद्रियानाह पंचेद्रियानाह।' पुनश्च 'जलचरान् पंचेंद्रियानाह' —इत्यादी। 'वायुकायमाह' कहकर वायु से संबद्ध नाना पदार्थों का संकलन है। कहीं कहीं पीड़ा 'पाताल' आदि उपशीर्षक के अंतर्गत भी उन शब्दों का संग्रह है जो अन्यत्न समाविष्ट नहीं किए जा सके। कहीं कहीं ऐसा भी है कि पर्यायों और जातिभेदों के लिये दूसरी पद्धति अपनाई गई है, जैसे, 'व्रिख' के अंतर्गत तो वृक्षों के पर्याय दिए गए है और 'सुरव्रिख' नाम के अंतर्गत वृक्षों के प्रकार गिनाए गए हैं— 'सुरतर गोरक' सिंसण, देवदार, अष्टसिद्धि, नवनिधि, सत्ताईस नक्षत्र, छत्तिस शस्त्रों आदि के नाम दिए गए है। हिंदी के मध्यकालीन कोशग्रथों में शब्दसंकलन का कार्य़ मुख्यतः संस्कृत के अन्य कुछ प्रसिद्ध कोशों के आधार पर हुआ है। इसके अतिरिक्त 'भिखारोदास' आदि के साहित्यिक भाषाग्रंथों से भी शब्द संकलित हुए है। 'खुसरो' और उनसे प्रभावित कोशों के समय से ही जनजीवन या बोलचाल के शब्दों की भी संगृहीत करने की चेष्टा मिलती है। संस्कृत कोशों की पद्धति भी— जिसके अनुसार 'घनसार- श्चंद्रसंवः' कहकर चंद्र की सभी संज्ञाओं कों कपूर का पर्याय भी सकेतित कर दिया गया है— 'उमराव' कोश आदि में मिलती है। परंतु 'अमरकोश' आदि के समान हिंदी कोशों में लिंगनिर्देश की व्यवस्था नहीं ही पाई। शिवसिंह कायस्थ के भाषा अमरकोश (अमरकोश की टीका) में स्पष्ट ही उसे बिना प्रयोजन समझकर छोड़ देने का निर्देश किया गया है। कभी कभी अवश्य एकाध कोश में यह कह दिया गया है कि दिर्घ रूप स्त्रीलिंग है और ह्रस्व पुल्लिंग। अव्ययों का समावेश भी प्रायः नहीं के बराबर उपलब्ध है यद्यपि अनेक कोशों में संस्कृत के परिनिष्ठित पदरूपों को तत्सम भावसे भी कभी कभी निर्दिष्टा किया गया है तथापि संस्कृत अव्ययों के सकलन में यह प्रक्रिया छोड़ दी गई है। जहाँ तक ध्वानियों में विकसित परिर्वतंन को निर्दिष्ट करने का प्रश्न है— 'तुहफतुलहिंद' आदि कोशों के छोड़कर अन्यत्न इसका अभाव है। 'भिखारीदास' ने अवश्य ही एक स्थल पर य, ज री, रि, श, ष, स और ज्ञ आदि का समस्यात्मक उल्लेख मात्र कर दिया है। पर्याय शब्द और नानार्थ के विभिन्न अर्थों की गहना भी कुछ कोशकारों ने या तो अंत में पर्याय—सख्या—सूचना से अथवा प्रत्येक पर्याय के साथ अंक देकर की है। सक्षेप में कह सकतै हैं कि (१) —मध्यकालीन हिंदीकोश अधिकतः पद्य में ही बने जो संस्कृत कोशों से— मृख्यतः 'अमरकोश' से— या ती प्रभावित अथवा अनूदित हैं। अधिकतः ये पर्यायवाची कोश है। कुछ अनेकार्थक कोश भी हैं तथा दो एक 'एकाक्षरीकोश' भी मिल जाते हैं। कुछ 'निघंटु' ग्रंथ भी—जो वैद्यक से संबंधित थे,— संस्कृत से प्रभावित होकर बने। (२) —इन कोशों में नामसंग्रह अधिक है। कभी कभी धातुकोश भी मिल जाते हैं। (गूढार्थ कोश भी बना था।) इसी कारण अधिकतः 'नाममाल', 'नाममंजरी', 'नामप्रकाश', 'नामचिंतामणि', आदि कोशपरक नामों का अधिक प्रयोग हुआ है। (३)— 'आतमबोध' या 'अनल्पप्रबोध' आदि में परिभाषिक—शब्दकोश— पद्धति भी मिलती है। (४) —शब्दक्रम में अधिकतः अंत्य वर्ण आधार बने हैं। शब्दविभाजन या तो वर्गानुसारी है या शीर्षकानुसारी। 'तुहफतुलहिद' में अवश्य ही वर्णवर्गों का विभाजनक्रम मिलता है। कुछ कोशों में उच्चारण और वर्णानुपूर्वी का सामान्य निर्देश भी दिखाई पडता है। (५) —डिंगल के कुछ कोशों में नामपदो के साथ क्रियाओं का संकलन भी दिखाई देता है। (६) —कभी कभी पर्यायगणना भी है और परिभाषाएँ भी। लिंगव्यवस्था आदि अनावम्यक समझे जानेवाले तत्वों का त्याग करने के अतिरिक्त कोश—विद्या—संबधी कोई ऐसी नवीन बात— जो कोश- विज्ञान के विकास में विशिष्ट महत्व रखती हो। —इन कोशों में आविर्भूत नहीं हुई। उच्चारण आदि के संबंध में कभी कभी कोशाकार की पैनी दृष्टि अवश्य आकृष्ट हुई। दूसरो और भाषा में प्रयुक्त होनेवाले और महत्वपूर्ण साहित्यकारों के विशिष्ट साहित्यग्रंथों में प्रयोगागत तदभव, देशी और विदेशी शब्दों के संकलन का प्रयास उतना नहीं हुआ जितना होना आवश्यक था। मध्यकालीन हिंदी कोशदार अपने सामने उपलब्ध संस्कृत कोशों के आधार पर हिदी कोश का कदाचित् निर्माण कर देना चाहते थे। इसका एक और भी अत्यंत महत्वपूर्ण एवं संभावित कारण कहा जा सकता है। कोश का सर्वप्रमुख प्रोयोजन होता है वाड़मय के ग्रंथों का पाठकों के अर्थबोध करना। परंतु संस्कृत कोशों और तदाधारित हिंदी कोशों के निमर्तिओं की मुख्य दृष्टि थी ऐसे कोशों के संपादन पर जो विशेषतः कवियों ओर सामान्य़तः अन्य ग्रंथकारों के प्रयोगार्थ पर्यायवाची शब्दभांडार को सुलभ बना दें। निघंटुभाष्य अर्थात् निरुक्त में वेदार्थ- व्याख्या पर ही सर्वाधिक ध्यान दिया गाया है। संस्कृत साहित्य के रचनात्यक ग्रंथों के टीकाकारों ने अर्थबोधन के लिये ही कोश वचनों के उद्धरण दिए हैं। फिर भी संस्कृत के अधिकांश कोशकारों की दृष्टि में कविता के निर्माण में सहायता पहुँचाना— पर्यायवाची कोशों का कदाचित् एक अति महत्वपूर्ण लक्ष्य़ था इसी प्रकार श्लेष, रूपक आदि अलंकारों में उपयुक्त शब्दोनियोजन के लिये शब्दों को सुलभ बनाना अनेक नानार्थ शब्द —संग्राहकों का मुख्य कोशकर्म था। हिंदी के कोशाकारी ने भी संभवत इस प्रेरणा को अपना प्रियतर उद्देश्य समझा। इसी कारण गतानुगतिक और संस्कृतागत शब्दकोश की निधि को अंसंस्कृत्ज्ञों के लिये सुलभ करने की इतिकर्तव्यता हिदी कोशों में भी हुई। थोड़े से कोशकारों ने आरंभ में पर्याय या अनेकार्थ शब्दो में नए शब्द जोड़े। पर उससे बहुत आगे ब़ढ़ने का स्वतंत्र प्रयास कम हुआ। फिर भी कुछ कोशकारों ने तद्भव आदि शब्दों की थोड़ी बहुत वृद्धि करने का प्रायस किया। कुल मिलाकर कह सकतै है कि मध्यकालीन हिंदी शब्दकोशों में कोशाविद्या के किसी भी तत्व की प्रगति नहीं हो पाई। संस्कृत कोशों की प्रामाणिक प्रौढ़ता में उसी प्रकार कुछ ह्रास ही हुआ जैसे, रीतिकालीन साहित्यशास्त्र के हिंदी-लक्षण-ग्रंथों में संस्कृत के तदविषयक विशिष्टग्रंथों की पौढ़ता का। व्युत्पत्ति का पक्ष हिदी के मध्यकालीन कोशों में पूर्णतः परित्यक्त था। संस्कृत कोशों में भी यह पक्ष उपेक्षित ही रहा पर कोश के अनेक टीकाकारों ने व्युत्पत्ति पर ध्यान दिया। 'अमरकोश' की 'व्याख्यासुधा' या 'रामाश्रयी' टीका (भानुजी दीक्षितकृत) में 'अमरकोश' के प्रत्येक नामपद की व्युत्पत्ति दी गई है। हिंदी के मध्यकालिन कोशों की न तो वैसी टीकाएँ लिखी गई और न तद्भव शब्दों की व्युत्पत्ति का अनुशीलन ही हुआ। अतः कोशविद्या के वैकासिक कौशल की दृष्टि में कोई प्रगति नहीं मिलती। .

5 संबंधों: शब्दकोश, शब्दकोशों का इतिहास, संस्कृत साहित्य, हिन्दी, अमरकोश

शब्दकोश

शब्दकोश (अन्य वर्तनी:शब्दकोष) एक बडी सूची या ऐसा ग्रंथ जिसमें शब्दों की वर्तनी, उनकी व्युत्पत्ति, व्याकरणनिर्देश, अर्थ, परिभाषा, प्रयोग और पदार्थ आदि का सन्निवेश हो। शब्दकोश एकभाषीय हो सकते हैं, द्विभाषिक हो सकते हैं या बहुभाषिक हो सकते हैं। अधिकतर शब्दकोशों में शब्दों के उच्चारण के लिये भी व्यवस्था होती है, जैसे - अन्तर्राष्ट्रीय ध्वन्यात्मक लिपि में, देवनागरी में या आडियो संचिका के रूप में। कुछ शब्दकोशों में चित्रों का सहारा भी लिया जाता है। अलग-अलग कार्य-क्षेत्रों के लिये अलग-अलग शब्दकोश हो सकते हैं; जैसे - विज्ञान शब्दकोश, चिकित्सा शब्दकोश, विधिक (कानूनी) शब्दकोश, गणित का शब्दकोश आदि। सभ्यता और संस्कृति के उदय से ही मानव जान गया था कि भाव के सही संप्रेषण के लिए सही अभिव्यक्ति आवश्यक है। सही अभिव्यक्ति के लिए सही शब्द का चयन आवश्यक है। सही शब्द के चयन के लिए शब्दों के संकलन आवश्यक हैं। शब्दों और भाषा के मानकीकरण की आवश्यकता समझ कर आरंभिक लिपियों के उदय से बहुत पहले ही आदमी ने शब्दों का लेखाजोखा रखना शुरू कर दिया था। इस के लिए उस ने कोश बनाना शुरू किया। कोश में शब्दों को इकट्ठा किया जाता है। .

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शब्दकोशों का इतिहास

शब्दकोशों के आरंभिक अस्तित्व की चर्चा में अनेक देशों और जातियों के नाम जुडे़ हुए हैं। भारत में पुरातनतम उपलब्ध शब्दकोश वैदिक 'निघण्टु' है। उसका रचनाकाल कम से कम ७०० या ८०० ई० पू० है। उसके पूर्व भी 'निघंटु' की परंपरा थी। अत: कम से कम ई० पू० १००० से ही निघंटु कोशों का संपादन होने लगा था। कहा जाता है कि चीन में ईसवी सन् के हजारों वर्ष पहले से ही कोश बनने लगे थे। पर इस श्रुतिपरंपरा का प्रमाण बहुत बाद— आगे चलकर उस प्रथम चीनी कोश में मिलता है, जिसका रचना 'शुओ वेन' (एस-एच-यू-ओ-डब्ल्यू-ई-एन) ने पहली दूसरी शदी ई० के आसपास की थी (१२१ ई० भी इसका निर्माण काल कहा गया है)। चीन के 'हान' राजाओं के राज्य- काल में भाषाशास्त्री 'शुओ बेन' के कोश को उपलब्ध कहा गया है। यूरेशिया भूखंड में एक प्राचीनतम 'अक्कादी-सुमेरी' शब्दकोश का नाम लिया जाता है जिसके प्रथम रूप का निर्माण— अनुमान और कल्पना के अनुसार—ई० पू० ७वीं शती में बताया जाता है। कहा जाता है कि हेलेनिस्टिक युग के यूनानियों नें भी योरप में सर्वप्रथम कोशरचना उसी प्रकार आरंभ की थी जिस प्रकार साहित्य, दर्शन, व्याकरण, राजनीति आदि के वाङ्मय की। यूनानियों का महत्व समाप्त होने के बाद और रोमन साम्राज्य के वैभवकाल में तथा मध्यकाल में भी बहुत से 'लातिन' कोश बने। 'लतिन' का उत्कर्ष और विस्तार होने पर लतिन तथा लातिन + अन्यभाषा-कोश, शनै: शनै: बनते चले गए। सातवीं-आठवीं शती ई० में निर्मित एक विशाल 'अरबी शब्दकोश' का उल्लेख भी उपलब्ध है। .

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संस्कृत साहित्य

बिहार या नेपाल से प्राप्त देवीमाहात्म्य की यह पाण्डुलिपि संस्कृत की सबसे प्राचीन सुरक्षित बची पाण्डुलिपि है। (११वीं शताब्दी की) ऋग्वेदकाल से लेकर आज तक संस्कृत भाषा के माध्यम से सभी प्रकार के वाङ्मय का निर्माण होता आ रहा है। हिमालय से लेकर कन्याकुमारी के छोर तक किसी न किसी रूप में संस्कृत का अध्ययन अध्यापन अब तक होता चल रहा है। भारतीय संस्कृति और विचारधारा का माध्यम होकर भी यह भाषा अनेक दृष्टियों से धर्मनिरपेक्ष (सेक्यूलर) रही है। इस भाषा में धार्मिक, साहित्यिक, आध्यात्मिक, दार्शनिक, वैज्ञानिक और मानविकी (ह्यूमैनिटी) आदि प्राय: समस्त प्रकार के वाङ्मय की रचना हुई। संस्कृत भाषा का साहित्य अनेक अमूल्य ग्रंथरत्नों का सागर है, इतना समृद्ध साहित्य किसी भी दूसरी प्राचीन भाषा का नहीं है और न ही किसी अन्य भाषा की परम्परा अविच्छिन्न प्रवाह के रूप में इतने दीर्घ काल तक रहने पाई है। अति प्राचीन होने पर भी इस भाषा की सृजन-शक्ति कुण्ठित नहीं हुई, इसका धातुपाठ नित्य नये शब्दों को गढ़ने में समर्थ रहा है। संस्कृत साहित्य इतना विशाल और scientific है तो भारत से संस्कृत भाषा विलुप्तप्राय कैसे हो गया? .

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हिन्दी

हिन्दी या भारतीय विश्व की एक प्रमुख भाषा है एवं भारत की राजभाषा है। केंद्रीय स्तर पर दूसरी आधिकारिक भाषा अंग्रेजी है। यह हिन्दुस्तानी भाषा की एक मानकीकृत रूप है जिसमें संस्कृत के तत्सम तथा तद्भव शब्द का प्रयोग अधिक हैं और अरबी-फ़ारसी शब्द कम हैं। हिन्दी संवैधानिक रूप से भारत की प्रथम राजभाषा और भारत की सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है। हालांकि, हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं है क्योंकि भारत का संविधान में कोई भी भाषा को ऐसा दर्जा नहीं दिया गया था। चीनी के बाद यह विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा भी है। विश्व आर्थिक मंच की गणना के अनुसार यह विश्व की दस शक्तिशाली भाषाओं में से एक है। हिन्दी और इसकी बोलियाँ सम्पूर्ण भारत के विविध राज्यों में बोली जाती हैं। भारत और अन्य देशों में भी लोग हिन्दी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। फ़िजी, मॉरिशस, गयाना, सूरीनाम की और नेपाल की जनता भी हिन्दी बोलती है।http://www.ethnologue.com/language/hin 2001 की भारतीय जनगणना में भारत में ४२ करोड़ २० लाख लोगों ने हिन्दी को अपनी मूल भाषा बताया। भारत के बाहर, हिन्दी बोलने वाले संयुक्त राज्य अमेरिका में 648,983; मॉरीशस में ६,८५,१७०; दक्षिण अफ्रीका में ८,९०,२९२; यमन में २,३२,७६०; युगांडा में १,४७,०००; सिंगापुर में ५,०००; नेपाल में ८ लाख; जर्मनी में ३०,००० हैं। न्यूजीलैंड में हिन्दी चौथी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। इसके अलावा भारत, पाकिस्तान और अन्य देशों में १४ करोड़ १० लाख लोगों द्वारा बोली जाने वाली उर्दू, मौखिक रूप से हिन्दी के काफी सामान है। लोगों का एक विशाल बहुमत हिन्दी और उर्दू दोनों को ही समझता है। भारत में हिन्दी, विभिन्न भारतीय राज्यों की १४ आधिकारिक भाषाओं और क्षेत्र की बोलियों का उपयोग करने वाले लगभग १ अरब लोगों में से अधिकांश की दूसरी भाषा है। हिंदी हिंदी बेल्ट का लिंगुआ फ़्रैंका है, और कुछ हद तक पूरे भारत (आमतौर पर एक सरल या पिज्जाइज्ड किस्म जैसे बाजार हिंदुस्तान या हाफ्लोंग हिंदी में)। भाषा विकास क्षेत्र से जुड़े वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी हिन्दी प्रेमियों के लिए बड़ी सन्तोषजनक है कि आने वाले समय में विश्वस्तर पर अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व की जो चन्द भाषाएँ होंगी उनमें हिन्दी भी प्रमुख होगी। 'देशी', 'भाखा' (भाषा), 'देशना वचन' (विद्यापति), 'हिन्दवी', 'दक्खिनी', 'रेखता', 'आर्यभाषा' (स्वामी दयानन्द सरस्वती), 'हिन्दुस्तानी', 'खड़ी बोली', 'भारती' आदि हिन्दी के अन्य नाम हैं जो विभिन्न ऐतिहासिक कालखण्डों में एवं विभिन्न सन्दर्भों में प्रयुक्त हुए हैं। .

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अमरकोश

अमरकोश संस्कृत के कोशों में अति लोकप्रिय और प्रसिद्ध है। इसे विश्व का पहला समान्तर कोश (थेसॉरस्) कहा जा सकता है। इसके रचनाकार अमरसिंह बताये जाते हैं जो चन्द्रगुप्त द्वितीय (चौथी शब्ताब्दी) के नवरत्नों में से एक थे। कुछ लोग अमरसिंह को विक्रमादित्य (सप्तम शताब्दी) का समकालीन बताते हैं। इस कोश में प्राय: दस हजार नाम हैं, जहाँ मेदिनी में केवल साढ़े चार हजार और हलायुध में आठ हजार हैं। इसी कारण पंडितों ने इसका आदर किया और इसकी लोकप्रियता बढ़ती गई। .

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