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सिमंधर स्वामी

सूची सिमंधर स्वामी

जैन मान्यता के अनुसार सीमंधर स्वामी एक तीर्थंकर और अरिहन्त हैं जो वर्तमान समय में किसी अन्य लोक में विद्यमान (जीवित) हैं। .

सामग्री की तालिका

  1. 8 संबंधों: तीर्थंकर, दीक्षा, ब्रह्माण्ड (जैन धर्म), महावीर, जैन धर्म, कानजी स्वामी, कुन्दकुन्द, अरिहन्त

तीर्थंकर

जैन धर्म में तीर्थंकर (अरिहंत, जिनेन्द्र) उन २४ व्यक्तियों के लिए प्रयोग किया जाता है, जो स्वयं तप के माध्यम से आत्मज्ञान (केवल ज्ञान) प्राप्त करते है। जो संसार सागर से पार लगाने वाले तीर्थ की रचना करते है, वह तीर्थंकर कहलाते हैं। तीर्थंकर वह व्यक्ति हैं जिन्होनें पूरी तरह से क्रोध, अभिमान, छल, इच्छा, आदि पर विजय प्राप्त की हो)। तीर्थंकर को इस नाम से कहा जाता है क्योंकि वे "तीर्थ" (पायाब), एक जैन समुदाय के संस्थापक हैं, जो "पायाब" के रूप में "मानव कष्ट की नदी" को पार कराता है। .

देखें सिमंधर स्वामी और तीर्थंकर

दीक्षा

दीक्षा का अर्थ है - गुरु के पास रहकर सीखी गई शिक्षा का समापन। कभी-कभी दीक्षा का अर्थ ऐसी शिक्षा से भी लगाया जाता है। इस शब्द का प्रयोग शिक्षा के साथ भी होता है - शिक्षा-दीक्षा। कालजयी कथाकार नरेन्द्र कोहली का राम्कथा पर आधारित 'दीक्षा' नामक उपन्यास (१९७६) हिन्दी का युग-प्रवर्तक उपन्यास भी माना जाता है। देखें दीक्षा: उपन्यास .

देखें सिमंधर स्वामी और दीक्षा

ब्रह्माण्ड (जैन धर्म)

जैन धर्म सृष्टि को अनादिनिधन बताता है यानी जो कभी नष्ट नहीं होगी। जैन दर्शन के अनुसार ब्रह्मांड हमेशा से अस्तित्व में है और हमेशा रहेगा। यह ब्रह्मांड प्राकृतिक कानूनों द्वारा नियंत्रित है और अपनी ही ऊर्जा प्रक्रियाओं द्वारा रखा जा रहा है। जैन दर्शन के अनुसार ब्रह्मांड शाश्वत है और ईश्वर या किसी अन्य शक्ति ने इसे नहीं बनाया। आधुनिक विज्ञान के अनुसार ब्रह्माण्ड हमेशा से अस्तित्व में नहीं था, इसकी उत्पत्ति बिग बैंग से हुई थी। .

देखें सिमंधर स्वामी और ब्रह्माण्ड (जैन धर्म)

महावीर

भगवान महावीर जैन धर्म के चौंबीसवें (२४वें) तीर्थंकर है। भगवान महावीर का जन्म करीब ढाई हजार साल पहले (ईसा से 599 वर्ष पूर्व), वैशाली के गणतंत्र राज्य क्षत्रिय कुण्डलपुर में हुआ था। तीस वर्ष की आयु में महावीर ने संसार से विरक्त होकर राज वैभव त्याग दिया और संन्यास धारण कर आत्मकल्याण के पथ पर निकल गये। १२ वर्षो की कठिन तपस्या के बाद उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ जिसके पश्चात् उन्होंने समवशरण में ज्ञान प्रसारित किया। ७२ वर्ष की आयु में उन्हें पावापुरी से मोक्ष की प्राप्ति हुई। इस दौरान महावीर स्वामी के कई अनुयायी बने जिसमें उस समय के प्रमुख राजा बिम्बिसार, कुनिक और चेटक भी शामिल थे। जैन समाज द्वारा महावीर स्वामी के जन्मदिवस को महावीर-जयंती तथा उनके मोक्ष दिवस को दीपावली के रूप में धूम धाम से मनाया जाता है। जैन ग्रन्थों के अनुसार समय समय पर धर्म तीर्थ के प्रवर्तन के लिए तीर्थंकरों का जन्म होता है, जो सभी जीवों को आत्मिक सुख प्राप्ति का उपाय बताते है। तीर्थंकरों की संख्या चौबीस ही कही गयी है। भगवान महावीर वर्तमान अवसर्पिणी काल की चौबीसी के अंतिम तीर्थंकर थे और ऋषभदेव पहले। हिंसा, पशुबलि, जात-पात का भेद-भाव जिस युग में बढ़ गया, उसी युग में भगवान महावीर का जन्म हुआ। उन्होंने दुनिया को सत्य, अहिंसा का पाठ पढ़ाया। तीर्थंकर महावीर स्वामी ने अहिंसा को सबसे उच्चतम नैतिक गुण बताया। उन्होंने दुनिया को जैन धर्म के पंचशील सिद्धांत बताए, जो है– अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अचौर्य (अस्तेय) और ब्रह्मचर्य। उन्होंने अनेकांतवाद, स्यादवाद और अपरिग्रह जैसे अद्भुत सिद्धांत दिए।महावीर के सर्वोदयी तीर्थों में क्षेत्र, काल, समय या जाति की सीमाएँ नहीं थीं। भगवान महावीर का आत्म धर्म जगत की प्रत्येक आत्मा के लिए समान था। दुनिया की सभी आत्मा एक-सी हैं इसलिए हम दूसरों के प्रति वही विचार एवं व्यवहार रखें जो हमें स्वयं को पसंद हो। यही महावीर का 'जीयो और जीने दो' का सिद्धांत है। .

देखें सिमंधर स्वामी और महावीर

जैन धर्म

जैन ध्वज जैन धर्म भारत के सबसे प्राचीन धर्मों में से एक है। 'जैन धर्म' का अर्थ है - 'जिन द्वारा प्रवर्तित धर्म'। जो 'जिन' के अनुयायी हों उन्हें 'जैन' कहते हैं। 'जिन' शब्द बना है 'जि' धातु से। 'जि' माने - जीतना। 'जिन' माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया और विशिष्ट ज्ञान को पाकर सर्वज्ञ या पूर्णज्ञान प्राप्त किया उन आप्त पुरुष को जिनेश्वर या 'जिन' कहा जाता है'। जैन धर्म अर्थात 'जिन' भगवान्‌ का धर्म। अहिंसा जैन धर्म का मूल सिद्धान्त है। जैन दर्शन में सृष्टिकर्ता कण कण स्वतंत्र है इस सॄष्टि का या किसी जीव का कोई कर्ता धर्ता नही है।सभी जीव अपने अपने कर्मों का फल भोगते है।जैन धर्म के ईश्वर कर्ता नही भोगता नही वो तो जो है सो है।जैन धर्म मे ईश्वरसृष्टिकर्ता इश्वर को स्थान नहीं दिया गया है। जैन ग्रंथों के अनुसार इस काल के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव आदिनाथ द्वारा जैन धर्म का प्रादुर्भाव हुआ था। जैन धर्म की अत्यंत प्राचीनता करने वाले अनेक उल्लेख अ-जैन साहित्य और विशेषकर वैदिक साहित्य में प्रचुर मात्रा में हैं। .

देखें सिमंधर स्वामी और जैन धर्म

कानजी स्वामी

कानजी स्वामी (गुजराती:કાનજીસ્વામી; 1889 - 1980) आध्यात्मिक जैन गुरु थे। वो isbn.

देखें सिमंधर स्वामी और कानजी स्वामी

कुन्दकुन्द

कुंदकुंदाचार्य की प्रतिमा जी (कर्नाटक) कुंदकुंदाचार्य दिगंबर जैन संप्रदाय के सबसे प्रसिद्ध आचार्य थे। इनका एक अन्य नाम 'कौंडकुंद' भी था। इनके नाम के साथ दक्षिण भारत का कोंडकुंदपुर नामक नगर भी जुड़ा हुआ है। प्रोफेसर ए॰ एन॰ उपाध्ये के अनुसार इनका समय पहली शताब्दी ई॰ है परंतु इनके काल के बारे में निश्चयात्मक रूप से कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। श्रवणबेलगोला के शिलालेख संख्या ४० के अनुसार इनका दीक्षाकालीन नाम 'पद्मनंदी' था और सीमंधर स्वामी से उन्हें दिव्यज्ञान प्राप्त हुआ था। आचार्य कुन्दकुन्द ने ११ वर्ष की उम्र में दिगम्बर मुनि दीक्षा धारण की थी। इनके दीक्षा गुरू का नाम जिनचंद्र था। ये जैन धर्म के प्रकाण्ड विद्वान थे। इनके द्वारा रचित समयसार, नियमसार, प्रवचन, अष्टपाहुड, और पंचास्तिकाय - पंच परमागम ग्रंथ हैं। ये विदेह क्षेत्र भी गए। वहाँ पर इन्होने सीमंधर नाथ की साक्षात दिव्यध्वनि को सुना। वे ५२ वर्षों तक जैन धर्म के संरक्षक एवं आचार्य रहे। वे जैन साधुओं की मूल संघ क्रम में आते हैं। वे प्राचीन ग्रंथों में इन नामों से भी जाने जातें हैं- गौतम गणधर के बाद आचार्य कुन्दकुन्द को संपूर्ण जैन शास्त्रों का एक मात्र ज्ञाता माना गया है। दिगम्बरों के लिए इनके नाम का शुभ महत्त्व है और भगवान महावीर और गौतम गणधर के बाद पवित्र स्तुति में तीसरा स्थान है- आचार्य कुन्दकुन्द तत्त्वार्थसूत्र के रचियता आचार्य उमास्वामी के गुरु थे। .

देखें सिमंधर स्वामी और कुन्दकुन्द

अरिहन्त

अर्हत् (संस्कृत) और अरिहंत (प्राकृत) पर्यायवाची शब्द हैं। अतिशय पूजासत्कार के योग्य होने से इन्हें (अर्ह योग्य होना) कहा गया है। मोहरूपी शत्रु (अरि) का अथवा आठ कर्मों का नाश करने के कारण ये 'अरिहंत' (अरि का नाश करनेवाला) कहे जाते हैं। अर्हत, सिद्ध से एक चरण पूर्व की स्थिति है। जैनों के णमोकार मंत्र में पंचपरमेष्ठियों में सर्वप्रथम अरिहंतों को नमस्कार किया गया है। सिद्ध परमात्मा हैं लेकिन अरिहंत भगवान लोक के परम उपकारक हैं, इसलिए इन्हें सर्वोत्तम कहा गया है। एक में एक ही अरिहंत जन्म लेते हैं। जैन आगमों को अर्हत् द्वारा भाषित कहा गया है। अरिहंत तीर्थकर, केवली और सर्वज्ञ होते हैं। महावीर जैन धर्म के चौबीसवें (अंतिम) तीर्थकर माने जाते हैं। बुरे कर्मों का नाश होने पर केवल ज्ञान द्वारा वे समस्त पदार्थों को जानते हैं इसलिए उन्हें 'केवली' कहा है। सर्वज्ञ भी उसे ही कहते हैं। श्रेणी:जैन धर्म.

देखें सिमंधर स्वामी और अरिहन्त