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सामूहिक अवचेतन

सूची सामूहिक अवचेतन

युंग ने अवचेतन मन के दो हिस्से बताये व्यक्तिक और सामूहिक। किसी भी प्रजाति के मिथक, प्रतीक, सामूहिक आस्थाएं, कर्मकांड आदि व्यक्ति के सामूहिक अवचेतन मन में हीं संचित रहते हैं। इसी का गंभीर तल है प्रजातिए अवचेतन जिसमें प्रजातिये धरोहर संकलित होती है। इसमें अनेक तहें होती है। जैसे पशु जीवन, आदि मानव, प्रजाति समूह, राष्ट्र, कुल, परिवार आदि। इस प्रकार प्रजातिय स्मृति निर्मित होती है जो परंपरा का रूप धारण कर लेती है। आदि काल में मानव जाति पहादो में रह्ते थे, वही पर जीवन बिताते थे। जानवरो को मार कर कच्चा मान्स खाते थे।.

6 संबंधों: परिवार, प्रतीक, मिथक, सम्प्रभु राज्य, जाति (जीवविज्ञान), कर्मकांड

परिवार

सन् 1880 का एक मराठा परिवार परिवार (family) साधारणतया पति, पत्नी और बच्चों के समूह को कहते हैं, किंतु दुनिया के अधिकांश भागों में वह सम्मिलित वासवाले रक्त संबंधियों का समूह है जिसमें विवाह और दत्तक प्रथा द्वारा स्वीकृत व्यक्ति भी सम्मिलित हैं। .

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प्रतीक

प्रतीक; किसी वस्तु, चित्र, लिखित शब्द, ध्वनि या विशिष्ट चिह्न को कहते हैं जो संबंध, सादृश्यता या परंपरा द्वारा किसी अन्य वस्तु का प्रतिनिधित्व करता है। उदाहरण के लिए, एक लाल अष्टकोण (औक्टागोन) "रुकिए" (स्टॉप) का प्रतीक हो सकता है। नक्शों पर दो तलवारें युद्ध क्षेत्र का संकेत हो सकती हैं। अंक, संख्या (राशि) के प्रतीक होते हैं। सभी भाषाओं में प्रतीक होते हैं। व्यक्तिगत नाम, व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रतीक होते हैं। .

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मिथक

नरक के मिथक। नरक के मिथक प्राचीन पुराकथाओं का तत्त्व जो नवीन स्थितियों में नये अर्थ का वहन करे मिथक कहलाता है। मिथकों का जन्म ही इसलिए हुआ था कि वे प्रागैतिहासिक मनुष्य के उस आघात और आतंक को कम कर सकें, जो उसे प्रकृति से सहसा अलग होने पर महसूस हुआ था-और मिथक यह काम केवल एक तरह से ही कर सकते थे-स्वयं प्रकृति और देवताओं का मानवीकरण करके। इस अर्थ में मिथक एक ही समय में मनुष्य के अलगाव को प्रतिबिम्बित करते हैं और उस अलगाव से जो पीड़ा उत्पन्न होती है, उससे मुक्ति भी दिलाते हैं। प्रकृति से अभिन्न होने का नॉस्टाल्जिया, प्राथमिक स्मृति की कौंध, शाश्वत और चिरन्तन से पुनः जुड़ने का स्वप्न ये भावनाएँ मिथक को सम्भव बनाने में सबसे सशक्त भूमिका अदा करती हैं। सच पूछें, तो मिथक और कुछ नहीं प्रागैतिहासिक मनुष्य का एक सामूहिक स्वप्न है जो व्यक्ति के स्वप्न की तरह काफी अस्पष्ट, संगतिहीन और संश्लिष्ट भी है। कालान्तर में पुरातन अतीत की ये अस्पष्ट गूँजें, ये धुँधली आकांक्षाएँ एक तर्कसंगत प्रतीकात्मक ढाँचे में ढल जाती हैं और प्राथमिक यथार्थ की पहली, क्षणभंगुर, फिसलती यादें महाकाव्यों की सुनिश्चित संरचना में गठित होती हैं। मिथक और इतिहास के बीच महाकाव्य एक सेतु है, जो पुरातन स्वप्नों को काव्यात्मक ढाँचे में अवतरित करता है। ऐसा भी माना गया है कि जितने मिथक हैं, सब परिकल्पना पर आधारित हैं। फिर भी यह मूल्य आधारित परिकल्पना थी जिसका उद्देश्य सामाजिक व्यवस्था को मजबूत करना था। प्राचीन मिथकों की खासियत यही थी कि वह मूल्यहीन और आदर्शविहीन नहीं थे। मिथकों का जन्म समाज व्यवस्था को कायम रखने के लिए हुआ। मिथक लोक विश्वास से जन्मते हैं। पुरातनकाल में स्थापित किये गये धार्मिक मिथकों का मंतव्य स्वर्ग तथा नरक का लोभ, भय दिखाकर लोगों को विसंगतियों से दूर रखना था। मिथ और मिथक भिन्न है। मिथक असत्य नहीं है। इस शब्द का प्रयोग साहित्य से इतर झूठ या काल्पनिक कथाओं के लिए भी किया जाता है। .

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सम्प्रभु राज्य

राष्ट्र कहते हैं, एक जन समूह को, जिनकी एक पहचान होती है, जो कि उन्हें उस राष्ट्र से जोङती है। इस परिभाषा से तात्पर्य है कि वह जन समूह साधारणतः समान भाषा, धर्म, इतिहास, नैतिक आचार, या मूल उद्गम से होता है। ‘राजृ-दीप्तो’ अर्थात ‘राजृ’ धातु से कर्म में ‘ष्ट्रन्’ प्रत्यय करने से संस्कृत में राष्ट्र शब्द बनता है अर्थात विविध संसाधनों से समृद्ध सांस्कृतिक पहचान वाला देश ही एक राष्ट्र होता है | देश शब्द की उत्पत्ति "दिश" यानि दिशा या देशांतर से हुआ जिसका अर्थ भूगोल और सीमाओं से है | देश विभाजनकारी अभिव्यक्ति है जबकि राष्ट्र, जीवंत, सार्वभौमिक, युगांतकारी और हर विविधताओं को समाहित करने की क्षमता रखने वाला एक दर्शन है | सामान्य अर्थों में राष्ट्र शब्द देश का पर्यायवाची बन जाता है, जहाँ कुछ असार्वभौमिक राष्ट्र, जिन्होंने अपनी पहचान जुङने के बाद, पृथक सार्वभौमिकिता बनाए रखी है। एक राष्ट्र कई राज्यों में बँटा हो सकता है तथा वे एक निर्धारित भौगोलिक क्षेत्र में रहते हैं, जिसे राष्ट्र कहा जाता है। देश को अपने रहेने वालों का रक्षा करना है। .

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जाति (जीवविज्ञान)

जाति (स्पीशीज़) जीववैज्ञानिक वर्गीकरण की सबसे बुनियादी और निचली श्रेणी है जाति (अंग्रेज़ी: species, स्पीशीज़) जीवों के जीववैज्ञानिक वर्गीकरण में सबसे बुनियादी और निचली श्रेणी होती है। जीववैज्ञानिक नज़रिए से ऐसे जीवों के समूह को एक जाति बुलाया जाता है जो एक दुसरे के साथ संतान उत्पन्न करने की क्षमता रखते हो और जिनकी संतान स्वयं आगे संतान जनने की क्षमता रखती हो। उदाहरण के लिए एक भेड़िया और शेर आपस में बच्चा पैदा नहीं कर सकते इसलिए वे अलग जातियों के माने जाते हैं। एक घोड़ा और गधा आपस में बच्चा पैदा कर सकते हैं (जिसे खच्चर बुलाया जाता है), लेकिन क्योंकि खच्चर आगे बच्चा जनने में असमर्थ होते हैं, इसलिए घोड़े और गधे भी अलग जातियों के माने जाते हैं। इसके विपरीत कुत्ते बहुत अलग आकारों में मिलते हैं लेकिन किसी भी नर कुत्ते और मादा कुत्ते के आपस में बच्चे हो सकते हैं जो स्वयं आगे संतान पैदा करने में सक्षम हैं। इसलिए सभी कुत्ते, चाहे वे किसी नसल के ही क्यों न हों, जीववैज्ञानिक दृष्टि से एक ही जाति के सदस्य समझे जाते हैं।, Sahotra Sarkar, Anya Plutynski, John Wiley & Sons, 2010, ISBN 978-1-4443-3785-3,...

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कर्मकांड

हिन्दुओं में विभिन्न अवसरों पर की जाने वाली पारम्परिक पूजा-ऋचा का क्रियात्मक रूप कर्मकांड कहलाता है। पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य ने एक पुस्तक में जहाँ कर्मकांडों का महत्व और औचित्य प्रतिपादित किया है वहीं वृन्दवानस्थ पंडित विजय प्रकाश शास्त्री जैसे कुछ विद्वानों के अनुसार वेद में कर्मकांड, उपासनाकांड और ज्ञानकांड - इन तीनों का वर्णन मिलता है। वेद के कुल एक लाख मंत्र हैं- चार हजार ज्ञान कांड के, सोलह हजार उपासना कांड के और सबसे ज्यादा अस्सी हजार कर्मकांड के हैं। इसलिए कर्मकांड को प्रधान स्थान प्राप्त है। इस प्रकार वेद के तीन भाग हैं। ‘‘तीन कांड एकत्व शान - वेद। वेद के कर्मकांड भाग में यज्ञादि विविध अनुष्ठानों का विशेष रूप से वर्णन मिलता है अतः यज्ञ कर्मकांड ही वेदों का मुख्य विषय है। वेदों का मुख्य विषय होने के कारण कर्मकांड में मंत्रों का प्रयोग (उच्चारण) किया जाता है। वेद मंत्रों के बिना कर्मकांड नहीं हो सकता और कर्मकांड के बिना मंत्रों का ठीक-ठीक सदुपयोग नहीं हो सकता। अतः स्पष्ट है कि वेद हैं तो कर्मकांड है और कर्मकांड है तो वेद हैं। विष्णु धर्मोत्तर पुराण (2/04) में वर्णन आता है वेदास्तु यज्ञार्थ मभिप्रवृत्ताः। इस वचन से तथा भगवान मनु के दुदोह यज्ञ सिद्धयमि 1/23 इस वाक्य से स्पष्ट सिद्ध है कि वेदों का प्रादुर्भाव कर्मकांड, यज्ञ, अनुष्ठान के लिए हुआ है। जिस प्रकार वेद दुरूह हैं उसी प्रकार वेदांग भूत कर्मकांड भी अत्यंत दुरूह है। जिस प्रकार वेद में उपास्य देवता हैं उसी प्रकार कर्मकांड में भी उपास्य देवता हैं। जिस प्रकार वेद उपास्य वेद किसी पुरूष के द्वारा न बनाया हुआ। नित्य और अनादि है- पराशर स्मृति में वर्णन आता है। नकश्चिद्वेद च वेदसमन्र्ता चतुर्मुखः। नकश्चिद्वेदकर्ता च वेद स्मर्ता चतुर्मुखः।। वेद को बनाने वाला कोई नहीं है। चतुर्मुख ब्रह्मा ने वेद का स्मरण किया। ठीक उसी प्रकार यज्ञ अनुष्ठान, कर्मकांड भी अपौरूषेय, नित्य और अनादि हैं। ऋग्वेद के प्रथम मंत्र ‘अग्निमीडे पुरोहितम’’ में यज्ञ (कर्मकांड) पद आया है अतः सिद्ध होता है कि वेद से भी प्राचीन कर्मकांड है। कर्मकांड वैदिक संस्कृति का प्रधान अंग है। कर्मकांड से ही समस्त मनुष्यों की कामनायें सिद्ध होती हैं। कर्मकांड, मनुष्यों की इच्छित कामना एवं कल्याण व लौकिक सुख-शांति तथा मन में संकल्पित अनेकानेक इच्छाओं को पूर्ण करता है। हमारे धर्माचार्यों ने मनुष्य के लिए जितने भी धर्म कहे हैं वे सभी कर्मकांड लक्षण से संयुक्त हैं| प्राचीन ऋषि महर्षियों ने शास्त्रों के अनुसार ही अपना जीवन यज्ञमय बनाया था। वे यज्ञ कर्मकांड द्वारा अपना और जगत का कल्याण किया करते थे। वस्तुतः कर्मकांड में अपूर्व शक्ति है। 'कर्मकांड से जो जिस वस्तु की प्राप्ति के लिए इच्छा करता है वह उसको वही वस्तु देता है।' ‘‘यो यदिच्छति तस्य तत्’’। (कठोपनिषद) 12/16 अतः स्पष्ट है कि संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो कर्मकांड के द्वारा प्राप्त न हो सके। कर्मकांड से केवल लौकिक, धनधान्य, संतति आदि वस्तुओं की ही नहीं अपितु पारलौकिक ‘मोक्ष’ आदि पदार्थों की भी प्राप्ति होती है। इस श्रेष्ठ कर्म के विधि-विधान भी अत्यंत कठिन हैं। कर्मकांड के तीन विशेष अंग है। 1.

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